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महामारी के दौरान समाज को एकजुट रखतीं प्रवासी महिलाएं

लॉकडाउन का समाज पर पड़ने वाले असर की बड़ी क़ीमत वे महिलाएं चुका रही हैं, जिन्हें परिवारों और घर पर रहकर पढ़ाई कर रहे बच्चों की देखभाल के बढ़ते दबाव के चलते अपने काम को छोड़ना पड़ा है।
महामारी के दौरान समाज को एकजुट रखतीं प्रवासी महिलाएं
प्रतिकात्मक फ़ोटो: साभार: फ़्लिकर

पिछले साल महामारी के चलते कई बार लॉकडाउन लगाए गए, जिसका शिक्षा, रोज़गार और वैश्विक स्तर पर हमारे काम करने के तरीके पर गहरा असर पड़ा है। इनका महिलाओं पर ख़ास तौर पर ज़बरदस्त असर हुआ है।

यूनिसेफ़ के मुताबिक़, दुनिया भर में 168 मिलियन से ज़्यादा बच्चों के स्कूलों को तक़रीबन एक साल के लिए बंद कर दिया गया है,  जिससे उन्हें घर से ऑनलाइन पढ़ाई का सहारा लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है। ज़्यादतर घरों में इन्हीं महिलाओं ने लॉकडाउन के दौरान घर पर रहकर पढ़ाई कर रहे बच्चों के बोझ उठाये हैं।

इस बीच घर से काम करना एक "नयी स्थिति" बन गयी है, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के एक अनुमान के मुताबिक़, महामारी के चलते 24.7 मिलियन नौकरियां चली गयी हैं। आईएलओ ने चेतावनी है कि आर्थिक असमानता की खाई और भी गहरी होने की आशंका है, क्योंकि नौकरियों के संकट ने महिलाओं और प्रवासियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

लैटिन अमेरिका में महामारी के दौरान बार-बार लगाये जाने वाले लॉकडाउन से जन-जीवन में ठहराव आ गया है, जिसके सामाजिक असर की क़ीमत कहीं ज़्यादा महिलाओं ने चुकायी है। इस चलते ख़ासकर कई महिलाओं को अपने परिवार की देखभाल के बढ़ते दबाव के कारण अपना कामकाज तक छोड़ना पड़ा है, चूंकि इससे लिंगगत कमाई में अंतर आया है, जिसका सीधा मतलब यही है कि ये महिलाएं घर के कमाने वाले प्रमुख सदस्य नहीं रह गयी हैं।

ऐसे मामलों में जहां महिलाएं पुरुषों के मुक़ाबले घर के कामकाज के बड़े हिस्से का बोझ उठाते हुए अपनी नौकरी को बनाये रखने की कोशिश करती हैं, कभी-कभी तो इन महिलाओं के पास यही विकल्प ही होता है, अगर वह ख़र्च करने की हालत में होती हैं, तो उन्हें खाना पकाने, साफ़-सफ़ाई, बच्चों की देखरेख और बुज़ुर्गों की देखभाल जैसे उन विभिन्न तरह के कार्य करने के लिए एक घरेलू कर्मचारी को काम पर रखना होता है, जिन्हें आसानी से अंजाम दे पाना किसी कामकाजी महिला के वश में नहीं होता है। 2016 में यूएन वीमेन की तरफ़ से मुहैया कराये गये आंकड़ों के मुताबिक़, छह घरेलू श्रमिकों में से एक श्रमिक अंतर्राष्ट्रीय प्रवासी होता है; इन श्रमिकों में से 73.4% महिलायें होती हैं। इस तरह,  घरेलू कामगार आमतौर पर कोई प्रवासी महिला ही होती है।

घरेलू काम की अनिश्चित प्रकृति और महिलाओं के घरेलू श्रमिकों के बीच अपर्याप्त राजनीतिक शक्ति के चलते उनके कामकाज की शर्तें भयावह होती हैं। एलायंस फ़ॉर सॉलिडैरिटी की तरफ़ से उपलब्ध कराये गये आंकड़ों के मुताबिक़,  57% घरेलू कामगारों के पास काम के घंटे निर्धारित नहीं होते हैं। इसका मतलब यह है कि ये घरेलू कामगार यह तय करने की हालत में नहीं होते कि वे एक दिन में कितने समय तक काम करें और कब तक वे अपने काम की जगह से घर के लिए निकलें, उनके वश में अपने ब्रेक और अपने खाने का समय को तय करना भी नहीं होता है।

महिला कामगार और महामारी

महामारी के दौरान घरेलू श्रमिकों की हालत ख़राब हो गयी है। उनके पास मुश्किल विकल्प होते हैं: या तो वे लॉकडाउन की अवधि के दौरान अपने नियोक्ता के घर में रहें और इसलिए, अपने ख़ुद के परिवारों की अनदेखी करें, या फिर वे अपनी नौकरी खोने का जोखिम उठायें क्योंकि उनके नियोक्ता को डर होता है कि वे उनके घर में वायरस ला सकती हैं। घरेलू श्रमिकों के यूनियनों ने इस भयानक विकल्प का विरोध किया है। लेकिन, उनकी आवाज़ को बड़े पैमाने पर मीडिया में जगह इसलिए नहीं मिलती है क्योंकि ये महिलाएं या तो हाशिए पर होती हैं या फिर इन्हें समाज के उपेक्षित अंश के तौर पर देखा जाता है।

ये महिला घरेलू कामगार अनौपचारिक श्रमिकों के एक बड़े समुदाय का हिस्सा हैं, जिनमें से कई ने इस महामारी के दौरान समाज को एकजुट बनाये रखा है। ये वे अनौपचारिक कामगार हैं, जो भोजन वितरण, सार्वजनिक स्थानों की सफ़ाई और छोटे-छोटे किराने की दुकानों और अन्य दुकानों में काम कर रही हैं। ये न सिर्फ़ अपने काम की प्रकृति, बल्कि अपना लम्बा सफ़र तय करने के लिए सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करने के कारण संक्रमित होने का ज़बरदस्त जोखिम के दायरे में होती हैं। दक्षिण अमेरिका में ऐसी नौकरियां बड़े पैमाने पर प्रवासी महिलायें ही करती हैं, जिनमें से कई के पास रहने की सुरक्षित जगह भी नहीं है।

‘महामारी में हमारे पास श्रम अधिकार नहीं, बस कार्य करने की शर्तें है’

एंग्लिका वेनेगा पेरू से चिली इसलिए आ गयी थीं कि वह ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमा सकें, ताकि वह अपनी बेटी की शिक्षा में मददगार बन सकें। उनके एक रिश्तेदार ने उन्हें निजी घरों में काम करने वाले और सम्बन्धित गतिविधियों में काम करने वाले लोगों से जुड़े एक ट्रेड यूनियन, सिंधुकैप से संपर्क करवाया।सिंदुकैप उस लैटिन अमेरिकी और कैरेबियन कन्फ़ेडरेशन ऑफ़ डोमेस्टिक वर्कर्स का हिस्सा है, जिसकी स्थापना 1988 में की गयी थी।

वेनेगा ने मुझे बताया कि सिंदुकैप ने उन्हें उस घर में स्पष्ट रूप से परिभाषित कामकाजी शर्तों को लेकर मोलभाव करने दिया,  जहां वह कार्यरत है। रोज़गार की इन शर्तों में काम के घंटे, भोजन का प्रावधान और आने-जाने में ख़र्च होने वाले पैसे, सामाजिक सुरक्षा का भुगतान, पोशाक की ज़रूरत या ग़ैर-ज़रूरत, और काम के उन घंटों के दौरान जिन सीमाओं की अपेक्षा की जाती है, वे तमाम चीज़ें शामिल हैं।

सिंदुकैप की अध्यक्ष, एमिलिया सोलिस विवानो ने मुझे बताया कि इस यूनियन में 300 से ज़्यादा लोग हैं। इस यूनियन के सदस्य न सिर्फ़ घरेलू कामगार हैं,  बल्कि सफ़ाईकर्मी, कैटरर, माली और विंडो क्लीनर भी शामिल हैं। ये श्रमिक अपने नियोक्ताओं के बेहतर जीवन स्तर को बनाये रखने में मददगार होते हैं। दुर्भाग्य से, इन कामगारों के लिए यह मुमकिन नहीं है।

महामारी के पहले से ही मौजूद यह भयानक स्थिति पिछले कुछ महीनों से श्रमिकों के लिए और भी बदतर हो गयी है। वेनेगा ने मुझे बताया, " घरेलू श्रमिकों के संभावित वायरस वाहक होने की आशंका के चलते कई नियोक्ता हमें सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करने से बचने के लिहाज़ से काम करने वाले घर में ही रहने के लिए कहते हैं। ऐसा नहीं कि यह कोई उनकी तरफ़ से दिया गया कोई प्रस्ताव है। अगर आप इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करते हैं, तो आपको निकाल दिया जाता है। आप बर्ख़ास्त कर दिये जाते हैं,  चूंकि वे आपको एक प्रस्ताव देते हैं, जिसे आप नामंज़ूर कर देते हैं,  इसलिए वे इसे इस्तीफ़ा कहते हैं। अगर आप इस्तीफा दे देते हैं,  तो आपको क़ानूनी फ़ायदा नहीं मिलता। महामारी में हमारे पास कोई श्रम अधिकार नहीं है। हमारे पास महज़ शर्तें ही शर्तें हैं।”

वेनेगा ने बताया कि कामगारों को रोज़गार वाली जगह पर रहने की यह मांग कोई महामारी, बीमारी के डर, और स्वास्थ्य के प्रोटोकॉल को लेकर नहीं है। उन्होंने कहा कि दरअस्ल नियोक्ता इस महामारी का इस्तेमाल काम के दिन के घंटे बढ़ाने और कम वेतन दिये जाने के लिए कर रहे हैं। जब आप उसी घर में रहते हों,  जहां आप काम करते हों,  तो काम के घंटे उस नियोक्ता की सुविधा और काम की परिस्थितियों से तय हो सकते हैं, जो कार्यस्थल से उनके घर लौटने, सप्ताहांत में आगंतुकों के उनके घर आने और अपने बच्चों के कार्यक्रमों के दौरान उन पर ज़्यादा ध्यान दिये जाने की माँग कर सकते हैं।  

वेनेगा ने मुझे बताया कि ये ऐसी शर्तें हैं, जिन्हें घरेलू कामगारों के ये नियोक्ता अपने ख़ुद के उन कार्यस्थलों में बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे, जहां वे कार्यरत हैं, लेकिन उन्हें घरेलू श्रमिकों पर इस तरह की भयानक शर्तें लागू करने में कोई हिचक नहीं होती। नियोक्ता अक्सर घरेलू श्रमिकों के वेतन को कम कर देते हैं,  उनका कहना होता है कि महामारी के चलते उनके ख़ुद का वेतन भी कम कर दिया गया है।

अगर कोई कामगार कोविड-19 वायरस से संक्रमित हो जाता है, तो उसे बिना देर किये निकाल दिया जाता है। श्रमिक अपने इलाज पर होने वाला ख़र्च ख़ुद ही उठाते हैं और दूसरी तरफ़, ऐसी स्थिति में उन्हें क्वारंटाइन अवधि भी पूरी करनी होती है। यह स्थिति उन प्रवासियों के लिए तो और भी भयानक होती है, जिनके पास रहने के लिए या परिवार के पास जाने के लिए कोई घर नहीं है। निकाल दिये जाने का मतलब सड़क के हवाले हो जाना है।

वेनेगा ने मुझे बताया कि यह "नयी स्थिति" ऐसा नहीं है कि "नयी" है। यह स्थिति तो बस यही दिखाती है कि महामारी से पहले भी चीज़ें कैसी थीं। वेनेगा का कहना था कि "जो आम होता जा रहा है, दरअस्ल वह लालच है।"

टैराओ ज़ुनीगा सिल्वा जियोर्डाना गार्सिया सूजो के साथ वेनेजुएला, वोरटिस डे ला गुएरा डेल सिग्लो XXI (2020) की सह-संपादक हैं। वह सेक्रेटेरिया डी मुजेरेस इनमिग्रैंट्स एन चिली की सदस्य हैं। वह मेका कॉपरेटिवा की एक सदस्य भी है, जो ईजेकीटो कॉम्यूनिकेशनल डी लिबरेसियोन की एक परियोजना है।

यह आलेख ग्लोबट्रॉट्टर की प्रस्तुति है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Migrant Women Are Holding Society Together During This Pandemic

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