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केरल के ख़िलाफ़ मोदी सरकार ने थोपी आर्थिक पाबंदी !

केंद्र सरकार द्वारा केरल सरकार की सार्वजनिक ऋण सीमा घटाकर 2 फ़ीसद कर दी गयी है। याद रहे कि पिछले वर्ष भी राज्य की ऋण सीमा घटायी गयी थी और कुल 3.5 फ़ीसद से घटाकर 2.2 फ़ीसद कर दी गयी थी। इस बार इसे और भी घटाकर, 2 फ़ीसद पर ही समेट दिया गया है।
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केंद्र सरकार ने केरल सरकार की सार्वजनिक ऋण की सीमा को घटा दिया है, जोकि राज्य के सार्वजनिक वित्त संसाधनों पर एक हमला है। वर्तमान वित्तीय जवाबदेही (एफआरबीएम) कानून के अनुसार, राज्य सरकारों को अपने राज्य जीडीपी (जीएसडीपी) के 3 फीसद के बराबर ऋण बाजार से उठाने का अधिकार होता है। इसके अलावा, चूंकि राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा ही लादी गयी बिजली क्षेत्र से संबंधित कुछ शर्तों को भी पूरा करना होता है, इसलिए उन्हें अपने जीएसडीपी के 0.5 फीसद के बराबर ऋण और उठाने की इजाजत रहती है। लेकिन, केंद्र सरकार द्वारा अब दी गयी जानकारी के अनुसार, केरल सरकार की सार्वजनिक ऋण सीमा घटाकर 2 फीसद कर दी गयी है। याद रहे कि पिछले वर्ष भी राज्य की ऋण सीमा घटायी गयी थी और कुल 3.5 फीसद से घटाकर 2.2 फीसद कर दी गयी थी। इस बार इसे और भी घटाकर, 2 फीसद पर ही समेट दिया गया है।

केरल की जीएसडीपी प्रत्याशा 11 लाख करोड़ रुपये की है। इसका 3.5 फीसद, 38,000 करोड़ रुपये होता है। 3 फीसद ही लेकर चलें तब भी, यह 33,000 करोड़ रुपये के करीब बैठता है। लेकिन, केंद्र सरकार के फरमान के मुताबिक केरल को वित्त वर्ष के पहले नौ महीनों में सिर्फ 15,390 करोड़ रुपये के सार्वजनिक ऋण लेने की इजाजत होगी। वित्त वर्ष के आखिरी तीन महीनों में, उसे 5,131 करोड़ रुपये के सार्वजनिक ऋण लेने की और इजाजत होगी। इस तरह, केरल सरकार को पूरे वित्त वर्ष में कुल 20,690 करोड़ रुपये के सार्वजनिक ऋण लेने की इजाजत होगी। इससे राज्य के वित्तीय संसाधनों में पूरे 17,310 करोड़ रुपये की कटौती हो जाने वाली है। यह राज्य विधानसभा द्वारा अनुमोदित बजट में एक बड़ा सा दरार बना कर के छोड़ देगा। इससे, बजट के पालन के लिए गंभीर अनिश्चितताएं पैदा हो रही हैं।

ऋण की श्रेणियां

केंद्र्र सरकार का खेल बड़ा सरल है। उसने सार्वजनिक ऋण की परिभाषा को ही बदल दिया है। उसकी इस तिकड़म को समझने के लिए, हमें सरकारों से जुड़े ऋणों की विभिन्न श्रेणियों पर नजर डाल लेनी चाहिए। इन ऋणों को मोटे तौर पर पांच श्रेणियों में बांटा जा सकता है।

(1) कंसोलिडेटेड फंड में सार्वजनिक ऋण: राज्य सरकारें, बांड जारी करने के जरिए, बाजार से ऋण लेती हैं। वे सीधे देश के अंदर वित्तीय संस्थाओं से ऋण ले सकती हैं या फिर केंद्र सरकार के मार्फत विदेश से भी ऋण ले सकती हैं। केंद्र सरकार भी, राज्य सरकारों को ऋण दे सकती है। ये सभी ऋण कंसोलिडेटेड फंड में आते हैं और इन्हें पूंजी प्राप्तियां (कैपीटल रिसीट्स) माना जाता है।

(2) सार्वजनिक खाता ऋण: कंसोलिडेटेड फंड खाते के अलावा राज्य सरकारों के पास एक सार्वजनिक खाता भी होता है। सीक्यूरिटी डिपोजिट या सरकारी खजाने में आने वाले अन्य जमा, जिनमें प्रोवीडेंट फंड भी शामिल है, सरकार की प्राप्तियों में नहीं जोड़े जा सकते हैं। ये राशियां तो सरकार को सिर्फ सुरक्षित रखने के लिए, अस्थायी रूप से दी जाती हैं। सार्वजनिक खाते में शुद्ध बढ़ोतरी को ही, राज्य सरकार की पूंजी प्राप्तियों में गिना जाता है।

(3) बजटेतर ऋण: बजट में शामिल की गयी कुछ योजनाओं के लिए संभव है कि बजट में पर्याप्त प्रावधान नहीं हो। या यह भी हो सकता है कि सार्वजनिक खजाने में अस्थायी रूप से फंड की कमी पैदा हो जाए। ऐसे मामलों में सरकार किसी सार्वजनिक क्षेत्र इकाई की मार्फत या उस योजना से संबद्ध एजेंसी के माध्यम से, ऋण ले सकती है और खर्चे की अपनी जरूरत पूरी कर सकती है। मिसाल के तौर पर यह आम रिवायत है कि भारतीय खाद्य निगम द्वारा ऋण लिया जाता है और इसके जरिए, सरकारी खरीद के अपने खर्चों की भरपाई की जाती है। बाद में सार्वजनिक क्षेत्र इकाई या एजेंसी की भरपाई, सरकार द्वारा कर दी जाती है। इन ऋणों को, बजटेतर ऋण कहा जाता है।

केरल सरकार के बजटेतर ऋण का एक उदाहरण है, उसकी पेंशन भुगतान कंपनी का ऋण उठाना। केरल में 50 लाख से ज्यादा वृद्धों/ विकलांगों/ विधवा-विधुरों को, 1,600 रुपये प्रति महीना पेंशन दी जाती है। यह कंपनी यह सुनिश्चित करने के लिए स्थापित की गयी है कि सरकारी खजाने की जमा-खर्च की स्थिति चाहे जैसी भी हो, इस पेंशन के हकदारों को नियमित रूप से हर महीने पेंशन मिलती रहे। इस भुगतान के लिए इस कंपनी को जो भी अतिरिक्त फौरी ऋण लेना पड़ता है, राज्य सरकार समय-समय पर ब्याज समेत उसकी भरपाई करती रहती है। बहरहाल, इस व्यवस्था के जरिए यह सुनिश्चित किया जाता है कि सभी कल्याणकारी पेंशन, नियमित रूप से हर महीना मिलती रहें और आधे से ज्यादा हकदारों को तो कोऑपरेटिव बैंकों के जरिए, यह पेंशन उनके घर पर ही मिल जाती है।

(4) एक्स्ट्रा बजटरी ऋण: ये सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों या एजेंसियों से, उनकी अपनी ही योजनाओं के वास्ते लिए जाने वाले ऋण होते हैं, जो बजट में शामिल नहीं किए जाते हैं। सरकार, इन ऋणों की गारंटी लेती है और परस्पर सहमत पैटर्न के आधार पर, आंशिक रूप से या पूरी तरह से इनका वित्त पोषण करती है। मिसाल के तौर पर भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण से लिए गए ऋण, एक्स्ट्रा बजटरी ऋण की ही श्रेणी में आएंगे।

केरल ने एक स्पेशल पर्पस व्हीकल केरल इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट फंड बोर्ड (केआइआइएफबी) गठित किया है, जो बाजार से ऋण लेता है और महत्वपूर्ण तथा बड़े पैमाने की ढांचागत परियोजनाओं को खड़ा करता है। इन परियोजनाओं या उन पर होने वाले खर्चे को, बजट खातों में शामिल नहीं किया जाता है। राज्य सरकार ने केआइआइएफबी को कुछ खास परियोजनाओं को खड़ा करने की जिम्मेदारी सौंपी है और इसके लिए राज्य सरकार उसे मोटर व्हीकल टैक्स के आधे के बराबर राशि सालाना मुहैया कराती है।

(5) सीधे सार्वजनिक क्षेत्र के ऋण: सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां तथा सरकारी एजेंसियां, सरकारी गारंटी तथा वित्तीस सहायता के बिना भी, अपनी परियोजनाओं के लिए ऋण ले सकती हैं। इन ऋणों के मामले में अगर संबंधित संस्थाएं चुकता करने में विफल भी होती हैं, तब भी इनकी कोई वित्तीय जवाबदारी सरकार पर नहीं आएगी। बजटेतर/ एक्स्ट्रा बजटरी ऋणों और इन सीधे लिए गए ऋणों में, यही अंतर है।

सार्वजनिक ऋण/ देनदारियां किसे माना जाता है?

अब तक स्वीकृत एकाउंटिंग कायदों के अनुसार, ऋणों की उक्त श्रेणियों में से श्रेणी-1 (सार्वजनिक ऋण) और श्रेणी-2 (सार्वजनिक खाता ऋण) को ही सरकार की देनदारियों में गिना जाता है। यहां तक कि अब भी, जहां तक केंद्र सरकार के खातों का सवाल है, उक्त दो श्रेणियों के ऋणों को ही सरकार की देनदारी माना जाता है और राजकोषीय घाटे की गणना में जोड़ा जाता है।

लेकिन, अब केंद्र सरकार चाहती है कि राज्य सरकारों के मामले में, उनके सार्वजनिक ऋण की गिनती में श्रेणी-3 (ऑफ बजटरी ऋण) और श्रेणी-4 (एक्स्ट्रा बजटरी ऋण) को भी जोड़ लिया जाए। इस तरह राज्यों के लिए सार्वजनिक ऋण की परिभाषा ही बदल देने के बाद, उनका अगला तार्किक कदम यही है कि राज्यों के लिए ऋण की जो 3 फीसद की गुंजाइश उपलब्ध है, उसे भी इस नयी गणना के हिसाब से घटा दिया जाए।

केंद्र सरकार और उसके गैर-बजटीय ऋण

केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा, एफआरबीएम कानून द्वारा तय की गयी सीमा से काफी ऊपर तो बना ही हुआ है, वह बड़ी मात्रा में गैर-बजटीय ऋण भी उठाती आयी है। निर्मला सीतारमण के वित्त मंत्री बनने के बाद से, बजट भाषण के एक अनुलग्नक के तौर पर, गैर-बजटीय ऋणों की जानकारी देना शुरू किया गया है। 2019-20 में ये ऋण 1.48 लाख करोड़ रुपये के थे। लेकिन, नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने 1.69 लाख करोड़ रुपये की और ऋणों का ध्यान दिलाया था, जिन्हें इस अनुलग्नक में शामिल नहीं किया गया था। इस तरह, 2019-20 में केंद्र सरकार ने कुल 3.27 लाख करोड़ रुपये के गैर-बजटीय ऋण लिए थे।

लेकिन, सीएजी ने जहां इस मामले में केरल की गलतियां निकाली हैं और इसकी मांग की है कि उसके गैर-बजटीय ऋणों को, सार्वजनिक ऋण की 3 फीसद की उसकी वैध सीमा में जोड़ा जाना चाहिए, वहीं उसने केंद्र के मामले में ऐसी कोई सिफारिश नहीं की है। केंद्र के इन ऋणों को, उसके राजकोषीय घाटे में भी शामिल नहीं किया जा रहा है। दोहरे पैमाने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा! और केरल पेंशन कंपनी के मामले में तो, उसके शुद्ध ऋण को भी नहीं बल्कि उसके सकल ( ग्रॉस) ऋण को ही, गैर-बजटीय ऋण में जोड़ दिया गया है।

वार्षिक वृत्ति कार्यक्रम

केंद्र सरकार केआइआइएफबी कार्यक्रम को गैर-बजटीय ऋण मानने से ही इंकार रही है, जबकि न तो इसकी कोई भी परियोजना बजट में आती है और न ही केआइआइएफबी द्वारा उठाए जाने वाले ऋण का एक रुपया भी, सरकारी खजाने में जाता है। लेकिन, केंद्र सरकार की जवाबी दलील यह है कि केआइआइएफबी के ऋणों का समूचा भुगतान राज्य सरकार के अनुदानों से होता है। लेकिन, यह दलील भी झूठी है। केआइआएफबी की 30 फीसद परियोजनाएं तो, सेल्फ फाइनेंसिंग राजस्व मॉडल की परियोजनाएं हैं।

केआइआइएफबी एक वार्षिकी या वार्षिक वृत्ति (एन्न्युटी) योजना है और केंद्र तथा राज्य सरकारों, दोनों के ही मामले में ऐसी योजनाएं आम-फहम हैं। इस तरह की योजना में होता यह है कि कॉन्ट्रैक्टर ऋण उठाता है तथा बुनियादी ढांचे का निर्माण करता है और सरकार, 15 से 20 वर्ष तक में सालाना किश्तों में उसका भुगतान करती है। कॉन्ट्रैक्टर जब बोली लगाता है, वह वार्षिकी की पूरी अवधि के लिए, ब्याज की मद में होने वाले भुगतान को भी हिसाब में लगा लेता है। लेकिन, अब तक तो किसी ने इसका जिक्र तक नहीं किया है कि इस तरीके को, गैर-बजटीय ऋण भी माना जा सकता है।

2019 के आखिर में केंद्र सरकार की 93 एन्न्युटी योजनाएं चल रही थीं, जिनके लिए आवंटन 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक का था। लेकिन, अब तक तो सीएजी के किसी भी ऑडिट में इन योजनाओं पर उंगली नहीं उठायी गयी है।

केआइआइएफबी एक वृहद वार्षिकी योजना है

केआइआइएफबी भी एक वार्षिकी योजना है। सरकार ने केआइआइएफबी को, मोटर व्हीकल टैक्स के आधे के वार्षिक भुगतान पर, 7000 करोड़ रुपये की परियोजनाएं लागू करने की जिम्मेदारी सौंपी है। इसलिए, केआइआइएफबी एक वृद्घिशील वार्षिकी योजना है। यह न तो गैर-बजटजीय ऋण योजना है और ना ही एफआरबीएम कानून का अतिक्रमण करती है। सभी वार्षिकी (एन्न्युटी) योजनाओं में, भविष्य में भुगतान की सरकार की एक सीधी देनदारी स्वीकार की जाती है, लेकिन अब तक किसी ने भी कभी भी ऐसी देनदारी को न तो राजकोषीय घाटे की गणना में जोड़ा है और न ही चालू सार्वजनिक ऋणों का हिस्सा माना है।

फिर भी एक सवाल रहता है, यह कैसे पक्का माना जा सकता है कि वार्षिकी के भुगतान तथा राजस्व अर्जित करने वाली योजनाओं से आने वाली प्राप्तियां, ऋण तथा ब्याज की देनदारियों को चुकाने के लिए पर्याप्त होंगे?

केआइआइएफबी का विस्तृत डेटाबेस मौजूद है, जिसमें उसके खाते में आने वाली प्राप्तियों का पूरा विवरण है, जैसे बजट आवंटन, बाजार से उठाए गए ऋण, राजस्व पैदा करने वाली परियोजनाओं से प्राप्तियां और किए जा रहे भुगतान, जैसे परियोजना के तहत राशि के भुगतान तथा ऋण संबंधी भुगतान। केआइआइएफबी ने अपना एक परिसंपत्ति-देनदारी प्रबंधन मॉडल (एएलएम) विकसित किया है। इस मॉडल में पूर्वानुमानी एनालिटिक्स है और कृत्रिम मेधा का उपयोग किया जा रहा है। यह मॉडल केआइआइएफबी को अन्य चीजों के अलावा इसकी भविष्यवाणी करने में समर्थ बनाता है कि परियोजना अवधि के दौरान, किसी खास कालखंड में परिसंपत्तियों और देनदारियों में तालमेल कैसे बैठेगा। इसके हिसाब से किसी भी मुकाम पर देनदारियां, इसकी परिसंपत्तियों से ज्यादा होने वाली नहीं हैं। इस आत्मानुशासन के दायरे में ही इसके तहत परियोजनाओं को हाथ में लिया जाएगा। इसलिए, अगर सरकार अपनी वार्षिकी देती रहती है, जिसके लिए वह कानूनी तौर पर बाध्य है, तो इसका सवाल ही नहीं उठता है कि केआइआइएफबी की देनदारियां तेजी से बढक़र, सीधे राज्य सरकार पर भारी बोझ बन जाएंगी।

केंद्र और राज्यों के बीच यह भेद क्यों?

जहां तक केंद्र सरकार के सार्वजनिक ऋणों या राजकोषीय घाटे की गणनाओं का सवाल है, उसके बजटेतर/ एक्स्ट्रा बजटरी ऋणों को तो अब भी गणना से बाहर ही रखा जा रहा है। बहरहाल, केंद्र और राज्यों के लिए नियमों में यह भेदभाव, चौतरफा फैला हुआ है। एफआरबीएम कानून के अनुसार तो केंद्र तथा राज्य, दोनों की ही सरकारें अपने जीडीपी के 3 फीसद से ज्यादा ऋण नहीं ले सकती हैं--उनका राजकोषीय घाटा 3 फीसद से ज्यादा नहीं हो सकता है--और यह भी कि ऋण का एक पैसा राजस्व व्यय की मद में खर्च नहीं किया जा सकता है यानी राजस्व घाटा तो शून्य ही होना चाहिए।

लेकिन, अब तक एक बार भी केंद्र सरकार ने इस कानून का पालन नहीं किया है, जबकि राज्य सरकारें मोटे तौर पर इसका पालन करती आयी हैं। फिर भी केंद्र सरकार ही है जो खुद तो 4 से 6 फीसद तक का राजकोषीय घाटा रखकर, इस कानून का लगातार उल्लंघन करती आयी है, लेकिन राज्य सरकारों को इस मामले में दोषी ठहरा रही है और उसके लिए भी मनमाने तरीके से नियमों को बदल रही है तथा बदले हुए नियमों को भी विगत-प्रभाव से लागू करा रही है।

(डॉ. टी एम थॉमस इसाक केरल के वित्त मंत्री रहे हैं। यह आलेख मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुका है। लेखक की स्वीकृति से इसे हिन्दी में अनूदित कर प्रकाशित किया जा रहा है।)

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