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प्रेरक पहलः बीएचयू में दलित महिला प्रोफेसर ने हटवाया लैंगिक नाइंसाफ़ी का ठप्पा

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर प्रतिमा गोंड के मुताबिक "डॉक्टर या प्रोफेसर खुद में एक संबोधन है तो डॉक्टर (श्रीमती)....! अथवा प्रोफसर (सुश्री) ....! लिखने की जरूरत क्यों है? ये शब्द तो सामंती मानसिकता के उत्पीड़न की अभिव्यक्ति हैं। खासतौर पर वहां, जहां सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक विसंगतियां क़दम–क़दम पर स्त्रियों का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती हैं और उनके भीतर हीनताबोध पैदा करने के तमाम षड्यंत्र रचती हैं।"
 रंग लाई डॉ. प्रतिमा की मुहिम
रंग लाई डॉ. प्रतिमा की मुहिम

बनारस से करीब नब्बे किलोमीटर दूर गाजीपुर के एक छोटे से गांव गंगा बिसुनपुर की एक दलित महिला अपनी ही जैसी हज़ारों दूसरी ग्रामीण लड़कियों/महिलाओं के लिए आदर्श बन गई है। बचपन से ही सामाजिक भेदभाव का दंश झेलने वाली इस प्रेरक महिला का संघर्ष उन तमाम मिथकों, बिम्बों और प्रतीकों को चेतावनी देता है जो समाज में सदियों से जड़ जमाए बैठे हैं। नाम है- डॉ. प्रतिमा गोंड, जो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) के महिला महाविद्यालय में समाजशास्त्र की अध्यापक हैं।

लैंगिक असंवेदनशीलता के खिलाफ लंबे समय से मुहिम चला रहीं डॉ. प्रतिमा गोंड की मुहिम का असर यह है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय प्रशासन ने महिला शिक्षकों के नाम से विवाहित और अविवाहित स्टेटस को इंगित करने वाले शब्द श्रीमती और सुश्री को हमेशा के लिए हटा दिया है। अब महिला शिक्षकों के पद नाम से पहले इस तरह के शब्द नहीं लिखे जाएंगे। इससे पहले जहां पदनाम से पहले सुश्री, श्रीमती जैसे शब्द लिखे जाते थे, वहीं अब उनकी पहचान सिर्फ पद से ही होगी। देश में पहली बार किसी विश्वविद्यालय ने दलित शिक्षिका की मुहिम को गंभीरता से लिया और कार्यस्थल पर लैंगिक असमानता वाले स्टेटस को हटाने के लिए विधिवत आदेश जारी किया। बीएचयू में काम करने वाली सभी महिलाओं की पहचान अब उनके पद से होगी।

महिला दिवस पर सरकारी अवकाश की मांग उठातीं डॉ. प्रतिमा.jpg

डॉ. प्रतिमा गोंड की मुहिम का असर यह है कि इसी तरह का आदेश आगरा विश्वविद्यालय ने भी जारी किया है और कई अन्य बड़ी शिक्षण संस्थाओं में लैंगिग असमानता वाले शब्दों को हटाने पर विचार किया जा रहा है। माना जा रहा है कि यह पहल देश में पहली बार किसी ऐसे विश्वविद्यालय में हुई है जहां पहले सांप्रदायिक, जातीय और सामंती सोच को हमेशा खाद-पानी मिलता रहा है।  

डॉ. प्रतिमा को लगता है कि श्रीमती और सुश्री जैसे टाइटल औरत पर शादीशुदा अथवा कुंवारी होने के ऐसे ठप्पा हैं जो सामाजिक जीवन की गंभीर और कटु अनुभूतियों को तटस्थता के साथ अभिव्यक्त करते हैं। प्रतिमा ने पुरुषवादी सोच के एक पर्त को जिस तरह उघाड़ कर समाज के सामने रखा है वह कोई मामूली साहस की बात नहीं है। वह कहती हैं, "डॉक्टर या प्रोफेसर खुद में एक एक संबोधन है तो डॉक्टर (श्रीमती)....! अथवा प्रोफसर (सुश्री) ....! जैसे शब्दों को लिखने की जरूरत क्यों है? ये शब्द तो सामंती मानसिकता के उत्पीड़न की अभिव्यक्ति हैं। खासतौर पर वहां, जहां सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक विसंगतियां क़दम–क़दम पर स्त्रियों का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती हैं और उनके भीतर हीनताबोध पैदा करने के तमाम षड्यंत्र रचती हैं।"

सामाजिक सरोकारों के लिए आंदोलन में छात्रों को संबोधित करतीं डॉ. प्रतिमा गोंड

बीएचयू स्थित महिला महाविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. प्रतिमा गोंड ने पिछले साल 9 अक्टूबर 2020 को कुलपति को भेजे ई-मेल में कहा था कि बीएचयू में किए जाने वाले पत्राचारों में पुरुष शैक्षणिक स्टाफ के नाम के आगे केवल डॉक्टर या प्रोफेसर लिखा जाता है, मगर उनकी वैवाहिक स्थिति का कोई जिक्र नहीं होता। दूसरी ओर महिला शैक्षणिक स्टाफ के नाम में डॉक्टर लिखने के बाद सुश्री या श्रीमती लिखा जाता है। ई-मेल में यह भी लिखा कि आखिर एक महिला शिक्षिका के मैरिटल स्टेटस पर इतना ज़ोर क्यों दिया जा रहा है? 

जब ईमेल का जवाब नहीं आया तो उसका प्रिंट आउट लेकर प्रतिमा खुद कुलपति के पास पहुंचीं और उनसे बात की।  तब कुलपति की ओर से उन्हें कहा गया कि उनके सुझाव सही हैं। इस बाबत जल्द ही ज़रूरी कदम उठाए जाएंगे।

डॉ. प्रतिमा कहती हैं, "कुलपति से मिलने के बाद कोरोना की दूसरी लहर आ गई और उन्हें लगा कि मामला फिर कहीं अटक गया। मुझे एहसास था कि बदलाव में वक्त लगेगा। काफी दिनों तक कोई आधिकारिक नोटिफिकेशन भी नहीं आया। बाद में बीएचयू परिसर में महिला शिक्षकों और चिकित्सकों के आवासों पर अंकित नेम प्लेट्स अचानक बदले गए। नए नेम प्लेट्स में प्रोफेसर अथवा डॉक्टर के साथ सीधे नाम लिखा जाने लगा। इसी साल अगस्त में जो वरिष्ठता सूची जारी की गई उसमें भी महिला शिक्षकों के नाम के आगे केवल पद नाम अंकित था। साल 2021 से पहले जितनी भी सूची जारी की गईं, उसमें पद नाम के आगे सुश्री और श्रीमती भी लिखा गया होता था।" 

डॉ. प्रतिमा कहती हैं, " कितनी अजीब बात है कि महिलाओं की पहचान उनके वैवाहिक स्टेटस से की जाती है। कुमारी, श्रीमती या फिर सुश्री के साथ उनका नाम लिखा जाता है। जिस तरह पुरुषों के लिए मिस्टर अथवा श्रीमान जैसे न्यूट्रल टाइटल का इस्तेमाल किया जाता है, वैसा ही महिलाओं के लिए भी किया जाना चाहिए। बदलाव का दौर शुरू हो गया है। वह दिन दूर नहीं, जब लैंगिक असंवेदनशीलता वाले शब्दों को भारतीय समाज पूरी तरह खारिज कर देगा।"

श्रीमती का अर्थ नहीं शादीशुदा होना

श्रीमती शब्द के लिए डॉ. प्रतिमा कहती हैं, " दरअसल, सुश्री, कुमारी अथवा श्रीमती जैसे शब्द पुरुषों के लिए बोले जाने वाले शब्द श्रीमान के समानार्थी हैं। यह धारणा पूरी तरह गलत है कि नाम के आगे श्रीमती लगाने का अर्थ यह है कि महिला शादीशुदा है। बदलते दौर में श्रीमती शब्द को विवाहित और सुश्री को कुंवारी महिलाओं से लिंक कर दिया गया। श्रीमती शब्द का प्रयोग आमतौर पर शादीशुदा महिलाओं के लिए ही किया जाता है। स्त्रियों के संबोधन के लिए हिंदी में मुख्यतः तीन शब्दों-कुमारी (उन महिलाओं के लिए जो अविवाहित हैं), श्रीमती (शादीशुदा महिलाओं के लिए) और सुश्री (उन महिलाओं के लिए जो अपनी वैवाहिक स्थिति उजागर नहीं करना चाहतीं या फिर दोनों में से किसी खांचे में नहीं बंधना चाहती अथवा उनके लिए जिनके वैवाहिक स्टेटस को लेकर असमंजस की स्थिति हो) का इस्तेमाल किया जाता है।"

सुश्री शब्द को नया अर्थ तब मिला जब बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने  नाम आगे इसे जोड़ा और सोशल मीडिया में धड़ल्ले से इस्तेमाल करना शुरू किया। बाद में आईएएस टीना डाबी के नियुक्ति पत्र में उनके नाम के साथ सुश्री लिखा गया, तब इस शब्द पर नए सिरे से बहस शुरू हो गई। बहुतों को इस बात पर आपत्ति थी कि टीना शादीशुदा हैं और उन्हें श्रीमती संबोधित किया जाना चाहिए, न कि सुश्री।

बनारस के कवि कमल नयन मधुकर बताते हैं, “सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रा नंदन पंत ने श्रीमती और सुश्री के प्रचलन को बढ़ाया। वैवाहिक स्थिति के उलझनों को दूर करने के लिए उन्होंने सुश्री को अहमियत देनी शुरू की। बाद में सामाजिक सृजन का दायरा बढ़ा तो चलन में कुमारी शब्द भी आ गया और उसे भी पहचान मिलने लगी। सच यह है कि सुश्री शब्द का सृजन कुमारी और श्रीमती के संशय वाले नामों के चलते ही हुआ।”

पुरुषों ने औरतों को बना दिया "श्रीहीन"

चर्चित पुस्तक "शब्दों के सफर" के लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार अजित वडनेरकर कहते हैं, " अपने देश में श्री, श्रीमान और श्रीमती शब्दों का सामाजिक महत्व बहुत बड़ा है। आमतौर श्री, श्रीमान शब्द पुरुषों के साथ और श्रीमती महिलाओं के साथ लगाया जाता है। इसमें पेच यह है कि श्री और श्रीमान जैसे विशेषण तो वयस्क लेकिन अविवाहित पुरुषों के साथ भी प्रयोग कर लिए जाते हैं, किंतु श्रीमती शब्द सिर्फ विवाहिता स्त्रियों के साथ ही इस्तेमाल करने की परंपरा है। अविवाहिता के साथ सुश्री शब्द लगाने का प्रचलन है।"

"श्री" स्त्रीवाची शब्द है। सारा संसार "श्री" में ही आश्रय लेता है। पुरुषवादी समाज ने श्रीमत् का स्त्रीवाची भी बना डाला और श्रीमान प्रथम स्थान पर विराजमान हो गए और श्रीमती पिछड़ गईं। समाज यह भूल गया कि "श्री" की वजह से ही विष्णु श्रीमत हुए। संस्कृत में एक प्रत्यय है वत् जिसमें स्वामित्व का भाव है। इसमें अक्सर अनुस्वार लगाया जाता है। क्या किसी वयस्क के नाम के साथ श्रीमान, श्री, श्रीमंत या श्रीयुत लगाने से यह साफ हो जाता है कि उसकी वैवाहिक स्थिति क्या है-जैसे बलवंत? इसी तरह श्रीमत् भी श्रीमंत हो जाता है। हिन्दी में यह वंत स्वामित्व के भाव में वान बनकर सामने आता है जैसे बलवान, शीलवान आदि। आज विवाहिता स्त्री की पहचान श्रीमती से जोड़ी जाती है उसके पीछे संकुचित दृष्टि है। विद्वान लोग तर्क देते हैं कि श्रीमान की अर्धांगिनी श्रीमती ही तो कहलाएंगी। श्रीमानजी यह भूल रहे हैं कि वे खुद श्रीयुत होने पर ही श्रीमान कहलाने के अधिकारी हुए हैं।"

वडनेरकर एक लेख में कहते हैं, "समस्त संसार को आश्रय प्रदान करने वाली "श्री" के साथ रहने के कारण विष्णु को श्रीमान कहा गया है। इसलिए उन्हें श्रीपति और श्रीमत् पुकारा जाता है। श्रीमती शब्द में कहीं से भी यह संकेत नहीं है कि विवाहिता ही श्रीमती है। संस्कृत के "श्री" शब्द की विराटता में सब कुछ समाया हुआ है, मगर पुरुषवादी सोच वाले समाज ने श्रीमती का न सिर्फ आविष्कार किया, बल्कि विवाहिता स्त्रियों पर लाद कर उन्हें  "श्रीहीन" कर दिया। संस्कृत के "श्री"  शब्द का अर्थ होता है लक्ष्मी,  समृद्धि,  सम्पत्ति,  धन, ऐश्वर्य आदि। सत्ता,  राज्य,  सम्मान,  गौरव,  महिमा, सद्गुण,  श्रेष्ठता,  बुद्धि आदि भाव भी इसमें समाहित हैं। धर्म,  अर्थ,  काम भी इसमें शामिल हैं। वनस्पति जगत,  जीव जगत इसमें वास करते हैं। अर्थात समूचा परिवेश श्रीमय है।"

"श्री" का जन्म संस्कृत की श्रि धातु से हुआ है जिसमें धारण करना और शरण लेना जैसे भाव हैं। जाहिर है समूची सृष्टि के मूल में स्त्री शक्ति ही है जो सबकुछ धारण करती है। इसीलिए उसे "श्री" कहा गया अर्थात जिसमें सब आश्रय पाए। किसी भी स्त्री को सिर्फ श्रीमान नहीं कहा जा सकता। इसके अलावा "श्री" और "सुश्री" में कोई गड़बड़ी नहीं है।"

अंग्रेजी में टाइटिल्स का संबोधन

अंग्रेज़ी में भी मिस और मिसेज का इतिहास है। इन्हें Miss, Mrs और Ms से संबोधित किया जाता है। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी ने इतिहासकार डॉक्टर एमी एरिक्सन के मुताबिक Mrs शब्द का असल प्रनंसिएशन मिस्ट्रेस (Mistress) होता है। सदियों तक इसका प्रयोग उस वयस्क महिला के लिए होता था, जिसका सामाजिक दर्जा ऊंचा होता था। इसका कोई संबंध महिला के शादीशुदा होने अथवा नहीं होने से नहीं था। Mrs और Miss, दोनों ही मिस्ट्रेस शब्द के एब्रिविएशन हैं। इसी तरह मास्टर शब्द का एब्रिविएशन Mr है। ये शब्द कार्य स्थल पर महिलाओं की बदलती स्थिति को दर्शाते हैं। एरिक्सन के मुताबिक,  हाल के कुछ सालों में युवा लड़कियों ने खुद को अलग दिखने के लिए Mrs की जगह Miss टाइटल का इस्तेमाल शुरू किया। 19वीं सदी में औरतों ने पति का नाम अपनाना शुरू किया। इसका असर यह हुआ कि उन्हें Mrs (पति का नाम-सरनेम) से पुकारा जाने लगा। धीरे-धीरे इसका यह अर्थ निकाल लिया गया कि मिस मतलब अविवाहित और मिसेज मतलब विवाहित महिला।

औरतों को पसंद नहीं "श्रीमती" का खांचा

मौजूदा दौर में महिलाओं को अब शादीशुदा या गैर शादीशुदा का खांचा तनिक भी पसंद नहीं है। टीवी पत्रकार शशि कुशवाहा कहती हैं, "हिंदी में कुमारी शब्द Miss, श्रीमती शब्द Mrs और सुश्री शब्द Ms के लिए इस्तेमाल होता है। एक शादीशुदा महिला के नाम के साथ श्रीमती, जबकि तलाकशुदा होते ही सुश्री या कुमारी टाइटल उसके नाम के साथ इस्तेमाल किए जाते हैं। ये शब्द बड़े पेचीदा हैं और अजीब है कि एक महिला का संबोधन उसके मैरिटल स्टेटस के आधार पर बदलता रहता है। जबकि एक पुरुष अविवाहित हो, विवाहित हो, विधुर हो या तलाकशुदा हो, वो मिस्टर या श्रीमान ही रहता है। बीएचयू की प्रोफेसर डॉ. प्रतिमा गोंड की मुहिम समूची दुनिया में चलनी चाहिए, ताकि लैंगिक भेदभाव उगाजर करने वाले अवांछनीय शब्दों से महिलाओं को आजादी मिल सके।"

टीवी9 की असिस्टेंट प्रोड्यूसर अनामिका पांडेय कहती हैं, " महिलाओं के लिए भी एक ही जेंडर न्यूट्रल टाइटल होना चाहिए। भले ही वो Ms या सुश्री ही क्यों न हो, जो विवाह के बाद भी नहीं बदलना चाहिए। महिलाओं को उन शब्दों से आजादी मिलनी चाहिए कि जो यह रेखांकित करे कि कोई महिला शादीशुदा है अथवा कुंवारी अथवा तलाकशुदा।"

पत्रकार पूजा यादव कहती हैं, "शादीशुदा अथवा कुंवारी होने का तथ्य उजागर करने वाले शब्दों की बेड़ियां विश्वविद्यालयों और दूसरे कार्यस्थलों पर तो सबसे पहले टूटनी चाहिए। विश्वविद्यालय के शिक्षकों की पहचान पुरुष अथवा महिला के रूप में करने की बजाय एक शिक्षक के रूप में होनी चाहिए। ऐसी महिलाओं के पास पहले से ही एक शीर्षक है मसलन- डॉ., प्रोफेसर, लेडी,  डेम,  बैरोनेस आदि। मिस और मिसेज का उपयोग तो सिर्फ खिताब के लिए किया जाना चाहिए-जैसे मिस अमेरिका, मिस वर्ल्ड, मिस यूनिवर्स आदि के रूप में।"

बीएचयू में हिन्दी की रिसर्च स्कालर रंजना कुमारी गुप्ता कहती हैं, "सुश्री अथवा श्रीमती के संबोधन से लगता है कि स्त्री की आजादी छिन गई है। सुश्री लिखने से विरोधाभास पैदा होता है। कोई कुंवारी समझता है तो कोई डाइवोर्सी। ये शब्द पुरुष प्रधान समाज ने अपने अपने निहितार्थ को पूरा करने के लिए गढ़ा है। सुश्री और श्रीमती की बेड़ियां हैं तो टूट ही जानी जानी चाहिए।"

हालांकि दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी की प्रोफेसर डॉ. सुनीता सिंह का नजरिया कुछ अलग है। वह कहती हैं, "हर परिवार के अंदर एक संस्कृति होती है। दक्षिण भारत में महिलाओं के नाम के साथ दादा, पिता और पति का नाम भी जुड़ा होता है, जो चेतना का बोध कराते हैं। साथ ही महिलाओं को आमत्मबल भी देते हैं। किसी के चेतना बोध को हम जागृत कर सकते हैं, मगर मजबूर नहीं कर सकते। नवाचार का प्रतीकों का समय के साथ मूल्यांकन जरूरी है, लेकिन किसी की चेतना को झिंझोड़ना मुश्किल काम है।"

एक्टिविस्ट प्रज्ञा सिंह कहती हैं, "बचपन से हमारी ट्रेनिंग होती है कि औरतें दोयम दर्ज़े की नागरिक हैं। वो पैदा नहीं होतीं, बनाई जाती हैं। हमें छोटी-छोटी चीज़ों को खत्म करना होगा क्योंकि यही जेंडर असमानता का आधार बनती हैं।"

कौन है प्रतिमा गोंड?

डॉ. प्रतिमा गोंड उस सामंती समाज के बीच पढ़ी-बढ़ी एक ऐसी दलित महिला हैं जिन्हें अपना मुकाम हासिल करने के लिए दोहरे अभिशाप से गुज़रना पड़ा, जिनमें एक उनका स्त्री होना और दूसरा दलित होना। इनका जन्म बनारस और पढ़ाई आजमगढ़ और गाजीपुर में हुई। वह गोंड जाति की अकेली ऐसी छात्रा थीं जो हर साल पढ़ाई में अव्वल आती थीं। हाईस्कूल से लेकर परास्तानतक तक। वह कहती हैं, " जब मैं पढ़ने जाती तो सामंतों के लड़के बहुत परेशान करते थे। उस दौर में हमारे गांव में जातीय भेदभाव बहुत ज़्यादा था। मुश्किलों का मुकाबला करते हुए किसी तरह पढ़ाई पूरी की। बीएचयू में अध्यापिका बनी तब पता चला कि कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव या असमानता बड़ी चीज है। मुझे कई छोटी-छोटी चीज़ों में इस बात का एहसास कई बार दिलाया गया है कि मैं किस जाति से ताल्लुक रखती हूं। लोग मेरी योग्यता पर सवाल नहीं उठाते, लेकिन मेरे दलित होने पर मुझे जरूर टारगेट किया जाता है। बीएचयू में हमें महिला एकता और लैंगिक संवेदनशीलता को लेकर वह चेतना देखने को नहीं मिलती जो हमें जामिया, जेएनयू,  इलाहाबाद या दिल्ली विश्वविद्यालय में देखने को मिलती है।"

"आडंबर, रूढ़ियों और गलत परंपराओं को दरकिनार करते हुए मैं किसान आंदोलन में खेतिहर समाज के साथ हूं और विज्ञापनों में महिलाओं के देह के प्रदर्शन के खिलाफ भी मुहिम चला रही हूं। साल 2017 में जब बीएचयू में यौन हिंसा के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन हुए थे, उस दौरान हम छात्राओं के साथ थे और उनके साथ हमने भी लाठियां खाईं थी। सामाजिक कुरीतियों और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ हमारा आंदोलन आगे भी जारी रहेगा।"

(बनारस स्थित विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं।) 

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