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मुज़फ़्फ़रनगर: क्या सपा-रालोद गठबंधन किसी भी सीट से मुस्लिम उम्मीदवार नहीं देगा?

चुनाव विश्लेषण: सपा-रालोद गठबंधन की ओर से ज़िले में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार के चुनाव लड़ने की फिलहाल में कोई स्थिति बनती हुई नज़र नहीं रही है। हालांकि किसी भी पार्टी ने अपने टिकट फाइनल नहीं किए हैं, लेकिन लगभग हर सीट पर संभावित उम्मीदवारों के नामों को देखकर यही लगता है।
 Jayant and Akhilesh
मेरठ (दबथुवा गांव) की परिवर्तन रैली में जयंत और अखिलेश

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनावी समर की बिसात बिछना अब लगभग शुरू हो चुकी है। सपा,बसपा और सत्ताधारी भाजपा से लेकर कांग्रेस भी जनता से वादा करने की कोई कसर नही छोड़ रही है। सत्ताधारी भाजपा जहां अपने 5 साल में किये गए कामों को आधार बना रही है, वहीं मुख्य विपक्षी दल की तरह उभरी समाजवादी पार्टी हर मुद्दे पर भाजपा को घेरने का काम कर रही है। लेकिन बीते एक साल से चले आ रहे किसान आंदोलन के खत्म होने के बाद बार-बार हो रहे सर्वे में भाजपा बैकफुट पर नज़र आ रही है और फिलहाल अखिलेश मीडिया में छाए हुए हैं।

अखिलेश यादव अपने साथ गठबंधन में नए नए साथी जोड़ रहे हैं। जिनमें से सबसे अहम साथियों में से एक हैं राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के अध्यक्ष जयंत चौधरी जो पूर्व प्रधानमंत्री चरणसिंह के पोते और पूर्व केंद्रीय मंत्री अजित सिंह के बेटे हैं। सपा के अध्यक्ष ने बहुत सोच समझकर इनके साथ हाथ मिलाया है। दरअसल जिस पश्चिमी यूपी में रालोद का प्रभाव है वो किसान बाहुल्य इलाका है और 2013 में मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद से यहां भाजपा ने ऐसा गणित बिठाया था कि बाकी सभी दलों की जड़ें तक यहां खोखली हो गयी थी।

वहीं सामाजिक दृष्टिकोण से देखें तो पश्चिमी यूपी का क्षेत्र जो आगरा से लेकर बागपत तक और इटावा से लेकर सहारनपुर तक का बड़ा क्षेत्र है इसमें जाट, गुर्जर, राजपूत, ब्राह्मण, सैनी, यादव और कश्यप से लेकर मुसलमान व अन्य बड़ी तादाद में रहते हैं। अखिलेश यादव की नज़र इन्हीं वोटों पर है, वो भाजपा की बूथ लेवल तक बनाई गई रणनीति को बिगाड़ना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने किसान आंदोलन को पूर्ण रूप से समर्थन भी दिया था क्योंकि हो या न हो उसके बाद बने हुए राजनीतिक शून्य का फायदा उन्हें मिलेगा इसका उन्हें उम्मीद थी।

लेकिन बड़ा और अहम सवाल ये भी उठता है कि ये राजनीतिक फायदा किस क़ीमत पर? अखिलेश यादव खुल कर कह रहे हैं की हमनें ही काशी कॉरिडोर की नींव रखी थी और वो चुनाव जीत जाने के बाद निर्माणाधीन राम मंदिर के दर्शन पर जाने की बात कर रहे हैं या फिर परशुराम की मूर्ति लगवाने का उनके द्वारा किया गया वादा हो, तो क्या इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए ये मान लिया जाए कि अखिलेश यादव अब उस मैदान में खेल रहे हैं जहाँ खेल भाजपा ने शुरू किया था?

इस मुद्दे को और थोड़ा खुल कर समझते हैं, सूत्रों के मुताबिक अखिलेश यादव और जयंत चौधरी ने किसान आंदोलन के समय सबसे ज्यादा चर्चा में रहे ऐतिहासिक मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले की 6 विधानसभा सीटों में से एक पर भी किसी भी मुस्लिम को उम्मीदवार नहीं बनाने का संकेत दिया है। तब ये सवाल उठना शुरू होने लगा है कि क्या अब अखिलेश मुस्लिमों के सिर्फ वोट लेकर सत्ता में आना चाहते हैं और उन्हें प्रतिनिधित्व देने की बात पर पीछे हट रहे हैं? तो आइये मुज़फ़्फ़रनगर की 6 सीटों को ध्यान में रखते हुए अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की राजनीतिक रणनीति पर चर्चा करते हैं।

मुज़फ़्फ़रनगर का राजनीतिक इतिहास और सवाल

मुज़फ़्फ़रनगर ज़िला वैसे तो बहुत सी महत्वपूर्ण खूबियों को लेकर प्रसिद्ध है लेकिन किसानों के लिए मुफीद गंगा और यमुना के बीच का ये उपजाऊ इलाक़ा किसानों की पहचान माना जाता है। इस ज़िले ने किसान के बड़े नेता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत, पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह, केंद्रीय मंत्री अजित सिंह, पूर्व सांसद मुनव्वर हसन से लेकर नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और ब्रह्म सिंह जैसी शख़्सियत पैदा की हैं। इसके अलावा अपने गन्ने की मिठास के लिए देश भर में ये ज़िला अपनी अलग पहचान रखता है।

राजनीतिक तौर पर मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले में 6 विधानसभा की सीटें हैं, जिसमें से एक पुरकाज़ी विधानसभा एससी वर्ग के लिये आरक्षित है, उसके अलावा बुढ़ाना, चरथावल, खतौली, मुज़फ़्फ़रनगर शहर और मीरापुर विधानसभा की सीटें हैं। जहां जाट, गुर्जर और मुस्लिम समाज की आबादी सबसे ज़्यादा मानी जाती है।

1971 से लेकर 2019 तक हुए 13 लोकसभा चुनावों में अब तक यहां 5 बार मुस्लिम सांसद बने हैं। इसके अलावा मीरापुर (पहले मोरना) से अब तक कुल 5 बार मुस्लिम विधायक चुने गए हैं और वहीं 1971 से अब तक बुढ़ाना (अब बघरा) और चरथावल से कुल 1 - 1 बार मुस्लिम उम्मीदवार विधानसभा पहुंचे हैं।

वहीं अगर वोटों की संख्या की बात करें तो मीरापुर, बुढ़ाना और चरथावल तीनों ही सीटों पर मुस्लिम वोटों की संख्या 1 से लेकर सवा लाख के बीच में हैं। जो भाजपा की तत्कालीन सरकार की नई नीतियों से परेशान फिलहाल तो अखिलेश यादव और उनके गठबंधन की तरफ जाता हुआ नजर आ रहा है। क्यूंकि पहले से ही भाजपा से दूरी बनाने वाला मुस्लिम समाज सीएए और एनआरसी के प्रोटेस्ट के बाद हुई कार्रवाई से खासा नाराज़ भी है।

मुज़फ़्फ़रनगर के पूर्व सांसद अमीर आलम खान और पूर्व विधायक नवाज़िश आलम के साथ चौधरी अजीत और चौधरी जयंत। (फाइल फोटो)

क्या बन रहा है बड़ा मुद्दा?

अब बात करते हैं गठबंधन की स्थिति के बारे में... दरअसल ये लगभग तय माना जा रहा है कि इस ज़िलें कि 3 सीटें जयंत चौधरी को मिलने जा रही है जिसमें बुढ़ाना और खतौली तय हैं इन दोनों ही सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों की बहुत ज़्यादा दावेदारी कभी नहीं रही हैं। और वो दोनों ही सीटों पर टिकट मुस्लिम उम्मीदवार को नहीं देने जा रहे हैं ये लगभग तय है।

लेकिन चरथावल विधानसभा पर रालोद-सपा से टिकट लेने वाले मुस्लिम लीडरों की लंबी लाइन लगी हुई है। जिसमें पूर्व विधायक नूर सलीम राणा,पूर्व लोकसभा प्रत्याशी कंवर हसन,पूर्व विधायक नवाज़िश आलम और पूर्व एमएलसी चौधरी मुश्ताक के पुत्र नदीम चौधरी जैसे नाम दावेदारों में थे ।

पूर्व विधायक नूर सलीम राणा के साथ जयंत चौधरी। (फाइल फोटो)

लेकिन पूर्व सांसद हरेंद्र मलिक और उनके पूर्व विधायक पुत्र पंकज मलिक के द्वारा सपा जॉइन करने के बाद उनकी दावेदारी ही नहीं उनका टिकट भी चरथावल विधानसभा से पक्का माना जा रहा है। ये संदेश मेरठ रैली में अखिलेश ने हरेंद्र चौधरी(पूर्व सांसद) को अपने बराबर में बैठा कर दे ही दिया था। जिसके बाद किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार का अब चरथावल विधानसभा से उम्मीदवार बनाया जाना मुश्किल ही माना जा रहा है।

अब आते हैं मीरापुर विधानसभा पर जहां से 2012 में बसपा के जमील कासमी विधायक बने थे और 2017 में सपा के इल्यास कासमी सिर्फ 116 वोटों से भाजपा के अवतार सिंह बढ़ाना से चुनाव हारे थे। इस सीट पर अखिलेश यादव के करीबी कहे जाने चंदन चौहान का उम्मीदवार होना तय माना जा रहा हैं।

पूर्व लोकसभा सांसद क़ादिर राणा के साथ अखिलेश यादव। (फाइल फोटो)

चंदन चौहान जो पूर्व सांसद संजय चौहान के पुत्र हैं,इस विधानसभा पर इल्यास क़ासमी, जमील क़ासमी (पूर्व विधायक), क़ादिर राणा (पूर्व सांसद) और सलमान ज़ैदी भी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं लेकिन विधानसभा क्षेत्र में हजारों की तादाद में लगें चंदन चौहान के बैनर्स बाकी उम्मीदवारों के अरमानों पर पानी फेरते हुए फिलहाल नज़र आ रहे हैं।

यानी कुल मिलाकर सपा-रालोद गठबंधन की ओर से मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार के चुनाव लड़ने की फिलहाल में कोई भी स्थिति बनती हुई नजर नहीं रही है। हालांकि किसी भी पार्टी ने अपने टिकट फाइनल नहीं किए हैं, लेकिन लगभग हर सीट पर संभावित उम्मीदवारों के नामों को देखकर लगता है कि अब मुस्लिम समाज की तरफ से यहां शायद ही प्रत्याशी होगा, जिसके बाद ये सवाल उठने लगा है कि ऐसा क्यों हो रहा है?

पूर्व लोकसभा प्रत्याशी कंवर हसन के साथ जयंत चौधरी। (फाइल फोटो)

...तो इस तरह मुस्लिम प्रतिनिधित्व पर उठा है सवाल

इस मुद्दे पर समाजवादी पार्टी के एक नेता ने नाम न बताने की शर्त पर ये बताया है कि "देखिये भाजपा को हम (मुस्लिम) भी हराना चाहते हैं और बाकी लोग भी, हम भी यही चाहते हैं कि फिर से जाट-मुस्लिम एक साथ आ जाएं। लेकिन हमारा (मुस्लिमों) सम्मान भी तो होना चाहिए, लेकिन गठबंधन सिर्फ 1 मुस्लिम उम्मीदवार को भी मैदान में उतारने से डर रहा है क्योंकि उसके बाद साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होने का खतरा है,और हम चाहते हुए भी कुछ बोल नहीं पा रहे हैं क्योंकि हम मजबूर हैं।"

इस सिलसिले में हमने पश्चिमी यूपी की राजनीति की बेहतरीन समझ रखने वाली और दैनिक सियासत अख़बार की सम्पादक नाहिद फातिमा से भी बात की। उन्होंने कहा कि "मुज़फ़्फ़रनगर ज़िलें में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में न उतारना ये बताता है कि अखिलेश यादव हो या जयंत चौधरी हो दोनों ही नेता ये समझ चुके हैं कि मुस्लिमों के पास कोई ऑप्शन नही है, लेकिन एक भी सीट पर मुस्लिम उम्मीदवार न होने की स्थिति में अगर मुस्लिम वोट बसपा या कांग्रेस के उम्मीदवार की तरफ जाने लगा तो क्या होगा क्या ये सब कुछ भी इन दोनों नेताओं ने सोचा है या नहीं? "

इसके अलावा बसपा के मुज़फ़्फ़रनगर शहर अध्यक्ष माजिद सिद्दीकी भी इस मुद्दे पर खुल कर बोल रहे हैं, उन्होंने कहा कि "सपा-रालोद का गठबंधन मुसलमानों को बंधुआ मज़दूर की तरह इस्तेमाल करना चाहता है। ये गठबंधन के लोग मुसलमानों को भागीदारी नहीं देना चाहते हैं, न ही ये चाहते हैं कि मुसलमान विधायक बनें। अब जब मुसलमान जीत कर आयेंगें ही नहीं तो अपने मुद्दे कैसे उठा पाएंगें? कैसे अपनी समस्याओं पर बात कर पाएंगें? वहीं बसपा मुस्लिमों को टिकट भी दे रही है और हिफाज़त की गारंटी भी दे रही है।"

अब इस सबके बीच कुछ बड़े सवाल खड़े होते हैं कि क्या ये मान लिया जाए कि अखिलेश यादव और जयंत चौधरी अपना ये मन बना चुके हैं कि जिस मुज़फ़्फ़रनगर ज़िलें में "हर हर महादेव और अल्लाहु अकबर" जैसे नारे एक साथ लगते हुए आये हैं उस क्षेत्र में वो मजबूती से सभी समुदायों को शायद साथ लाने में नाकामयाब हैं?

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