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नागा विवाद और शांति समझौता : ग़ुलाम भारत से लेकर आज़ाद भारत तक

न्यूज़क्लिक से बातचीत के दौरान नंदिता हक्सर कहती हैं कि कश्मीर से आर्टिकल 370 को हटाए जाने के बाद इस समझौते को होने में दिक्कत आ रही है। नागा गुट पहले की अब कठोर मांग रख रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि कहीं उनका भी हश्र कश्मीर जैसा न हो इसलिए अलग संविधान और झंडे की मांग कर ली जाए।
naga movement
Image Courtesy: Hindustan Times

भारतीय संविधान में कश्मीर को दिए गए विशेष दर्जे को लेकर आपने जितनी बहसें सुनी होंगी उतनी नागालैंड को दिए गए विशेष दर्जे के बारें में नहीं सुनी होंगी।  या भारत का ख्याल आते ही जितनी जल्दी से आपके दिमाग में उत्तर भारत और दाक्षिण भारत आता होगा उतनी जल्दी से पूर्वी भारत का ख्याल नहीं आता है।  यही कारण है कि पूर्वी भारत के बहुत सारे हिस्से खुद को भारत से अलग-थलग महसूस करते हैं।

भारतीय सरकार और नागालैंड के बीच मौजूदा विवाद में भी सबसे अहम कारण यही है। इसी राजनीतिक अलगाव की भावना की वजह से इस बार भी नागा शांति समझौता अपने अंतिम मुकाम तक नहीं पहुंचा। इस बात पर अड़ गया कि उसे अलग संविधान और झंडा चाहिए।  नागा शांति समझौता या नागा गुस्सा जैसी बात भले ही हम अख़बारों में साल भर में चार पांच सुन लेते होंगे हकीकत यह है कि इसकी शुरुआत आजादी से पहले से होती है। और इसके बारें मेंबहुत कम लोग जानते हैं। तो , आइये बहुत संक्षेप में नागा इतिहास से रूबरू होते हैं।

नागा इतिहास

भारत के पूर्वी इलाके पर आजादी से पहले राजाओं का राज चला करता था। यह इलाका कई तरह के जनजातियों की बसावट से भरा हुआ था। जिनकी जीवनशैलियां एक-दूसरे से बहुत अलग थी। यानी भाषा, रहन- सहन, परम्पराओं, निष्ठाओं और आस्थाओं में यहाँ की जनजातियां एक-दूसरे से अलग थी। अपनी पहचान को सबसे अहम हिस्सा मानकर खुद को जताने की इच्छा जिस तरह से दूसरे समुदायों में होती है ठीक ऐसे ही इनके अंदर भी थी। यह भी नहीं चाहते थे कि इनकी पहचान पर खतरा मंडराए। इसलिए भारतीय संविधान में पूर्वी भारत के लिए ऐसे कायदे लिखे गए जिसके मूल में यह था कि बिना वहां के लोगों से बातचीत किये उनके समाज में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा।

आज़ादी के बाद लकीरें खींचकर जिस तरह से पूर्वी भारत को बाँट दिया गया। वहीं से पूर्वी भारत में बहुत सारी परेशानियां का जन्म हुआ जो अब तक बरकरार हैं। जैसे नागा जनजाति की ग्रेटर नागालिम बनाने की मांग। जिसका साधारण अर्थ यह है कि पूर्वोत्तर भारत से लेकर म्यांमार के इलाके तक बसे सभी नागा जनजाति का एक अपना राज्य हो। शुरुआत में यह मांग उठती थी कि ग्रेटर नागालिम भारतीय राज्य से अलग हो तो बाद में यह उठने लगे कि यह भारत के अंदर एक स्वायत्त राज्य हो।

नागा एक अकेली कौम का नाम नहीं है। यह जनजतियों के समूह का नाम है। हर जनजाति अपने-आप में अनोखी होती है लेकिन कुछ बातें इन्हें एक-दूसरे से बांधती हैं। जैसे कि एक वक्त था जब इनके कबीलों में दुश्मन का सर काट लेने की परम्परा थी। यह इनके लिए सबसे अधिक साहस का काम हुआ करता था। इस परम्परा से दूसरी जनजातियों के भीतर तो ख़ौफ़ था ही लेकिन अंग्रेज भी इनसे खौफ खाते थे, इसलिए अंग्रेजो ने वहाँ अपनी छावनी बनाई थी। जहां छावनी बनाई थी, वहीं मौजूदा समय में नागालैंड की राजधानी है जिसे कोहिमा कहा जाता है। नागा पहाड़ों पर रहा करते थे।  जिन्हें नागा हिल्स कहा जाता था, ये पहाड़ संसाधनों से पटे पड़े थे।  अंग्रेजों की चाह थी कि वह इन संसाधनों पर कब्ज़ा जमा लें। आधिकारिक तौर पर साल 1881 में नागा हिल्स  ब्रिटिश भारत का हिस्सा बना गया।  

लेकिन नागा ग़ुलाम भारत का हिस्सा अपनी मर्जी से नहीं बने थे। इनके साथ भी जबरदस्ती की गयी थी जैसा कि साम्राज्यवादी ताकतें अपने उपनिवेशों के साथ किया करती थी। अपनी गुलामी के खिलाफ लड़ाइयों और विरोध की आवाज बुलंद रही।  साल 1918 में नागाओं ने आपस में मिलकर नागा क्लब बनाया।  जब भारतीय प्रशासन के सूरते-ए-हाल का जायज़ा लेने साइमन कमीशन आया तो नागाओं ने कहा कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया जाए हम जैसे जीते आ रहे हैं वैसे ही जीना चाहते हैं।  

1946 में अंगामी ज़ापू फिज़ो की अगुआई  में नागा नेशनल काउंसिल (NNC) बना। शुरुआती समय में इनका कहना था कि नागा हिल्स के तौर पर यह भारत में रहेंगे। लेकिन अपने शासन चलाने के तरीकों को वह खुद तय करेंगे। यानी वह स्वायत्त रहेंगे। इस पर भारत सरकार और नागाओं के बीच अकबर हैदरी एग्रीमेंट भी हुआ।  लेकिन आजादी के ठीक पहले यह एग्रीमेंट टूट गया। 14 अगस्त,1947 को नागाओं ने खुद को आज़ाद घोषित कर दिया।  उसी दिन पाकिस्तान भी बना। सबका ध्यान पाकिस्तान की तरफ था। पाकिस्तान बनने की शोर गुल में यह बात दब गयी। पाकिस्तान को तो देश के तौर पर मान्यता मिली लेकिन नागाओं को नहीं मिली।

भारत  के संविधान बनने के एक साल बाद नागा नेशनल काउंसिल (NNC) की अगुआई में नागा गुटों ने रेफेरेंडम करवा लिया। वही रेफरेंडम जिसे आम लोगों के बीच जनमत संग्रह या रायशुमारी कहा जाता है ,जिसका नाम आते ही नेहरू की याद आती है। आधिकारिक तौर पर उस समय नागा समूह असम राज्य के अंदर आता था। रायशुमारी के बाद यह बात पता चली कि 99 फीसदी से अधिक नागा आज़ाद रहना चाहते हैं। और आजाद नागालैंड चाहते हैं।  लेकिन भारत सरकार ने इस रेफरेंडम को मानने से इंकार कर दिया।

इसके बाद  नागाओं की हिंसा जारी रही।  झड़पें बढ़ती चली गयीं। वे अपनी आज़ादी के लिए लड़ते रहे। 22 मार्च, 1952 को फ़िज़ो ने ‘भूमिगत नागा फेडरल गवर्नमेंट’ (NFG) और ‘नागा फेडरल आर्मी’ (NFA) बना ली। यानी देश के अंदर देश और हर देश की अपनी-अपनी फ़ौज। लड़ाइयां हुईं। नागाओं ने जंगलों  में छिपकर लड़ाइयां लड़ीं। छापमार लड़ाइयां लड़ीं। इनसे निपटने के लिए भारत सरकार ने सैनिकों को बहुत अधिकार दिए।

साल 1958 नागा गुस्से  से निपटने के लिये भारत सरकार ने 1958 में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (AFSPA) बनाया। यहीं से अफस्पा कानून की शुरुआत होती है।  जिसे बाद में जाकर कश्मीर पर लागू किया जाता है।  और आम अवाम को लगता है कि कश्मीर में पनप रहे आतंकवाद को उखाड़ने के लिए अफस्पा का कानून आया था।  जब फौजी हरकतें तेज हुईं तो नागा गुटों के नेता उस समय के पूर्वी पाकिस्तान  से होते हुए लंदन चले गए।

नागालैंड का गठन

लेकिन फौजी बंदूकों से कहाँ कभी कोई हल निकलता है। यहां भी यही हुआ। लड़ाइयों से थकने के बाद पक्षकारों को शांति के लिए मेज बैठना पड़ा।  साल 1963 में असम से नागा हिल्स जिले को अलग कर नागालैंड राज्य बना दिया गया। नागा  लोगों को ज्यादा हक़ दिए गए। इसके बाद साल 1964 में  विधानसभा  चुनाव हुए।

अनुच्छेद  371 A

देश के संविधान में संशोधन करके अनुच्छेद  371 A जोड़ा गया। जिसके मुताबिक केंद्र का बनाया कोई भी कानून अगर नागा परंपराओं (मतलब नागाओं के धार्मिक-सामाजिक नियम, उनके रहन-सहन और पारंपरिक कानून) से जुड़ा हुआ, तो वो राज्य में तभी लागू होगा जब नागालैंड की विधानसभा बहुमत से उसे पास कर देगी।  यानी नागा लोगों के संस्कृति को सुरक्षित रखे जाने का भरोसा दिया गया। इस दौरान नागा समुदाय में ईसाई मिशनरियों का भी प्रभाव हावी हो रहा था। जनजाति लोग बहुत तेजी से ईसाई धर्म अपना रहे थे। साल 2011 के सेंसस के तहत नागालैंड की पूरी आबादी में ईसाई धर्म की आबादी तकरीबन 90 फीसदी हो चुकी है।  

नागालैंड राज्य बनने के बाद भी नागा गुटों और भारत सरकार के बीच संघर्ष जारी रहा। साल 1967 में यह सबसे अधिक उफान पर  था।  भारतीय राज्य के निशाने पर NNC, NFG और NFA रहे। लेकिन यह जंग थी। भारतीय सेना जितनी मजबूत होती नागा समुदाय भारत से उतना दूर चला जाता। जिनके परिजन इस संघर्ष में मर जाते वह खुद को भारत से बहुत दूर कर लेते।  यह बात भारत सरकार को भी समझ में आ रही थी।

फिर शांति की पहल

इसलिए फिर से शांति की सड़क पर चलने की योजना बनी। इंदिरा गाँधी की सरकार थी। 11 नवंबर, 1975 को शिलॉन्ग समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिये NNC नेताओं का एक गुट सरकार से मिला, जिसमें हथियार छोड़ने पर सहमति जताई गई। यह भी कहा कि वह अलग राज्य की मांग नहीं करेंगे भारतीय संविधान के अंदर ही रहेंगे।  

लेकिन नागा समुदाय के विरोध की सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि इनमे बहुत सारे गुट थे। सब खुद को प्रमुख समझते थे।  सबका यह मानना था कि वे नागा समुदाय के हितों के संरक्षक हैं।  इसलिए लड़ाई केवल भारत सरकार और नागा समुदायों के बीच नहीं थी। लड़ाई नागा समुदाय के अंदर भी थी जिनसे भारत सरकार को संतुलन बिठाना था। NNC और NFG का एक समूह इस समझौते से साफ दूर हो गया।

चीन नागालैंड से सटा हुआ है। चीन से नागाओं के विरोध को जमकर समर्थन मिलता था।  NNC के मेंबर थुइनगालेंग मुइवा समझौते के वक्त चीन में थे।  इन्होंने NNC और NFG के तकरीबन 140 सदस्यों के साथ शिलॉन्ग शांति समझौते से साफ़ इंकार कर दिया। इस गुट ने 1980 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (NSCN) का गठन किया।

 साल 1988 में NSCN  में दो फाड़ हो गया।  खापलांग ने NSCN से अलग होकर NSCN (K) बना लिया। ‘K’ यानी खापलांग. खापलांग के अलग हो जाने के बाद जो NSCN बचा, वह कहलाया NSCN (IM). ‘I’ यानी इसाक और ‘M’ यानी मुइवा।

NSCN (IM) ने ‘ग्रेटर नागालिम’ की मांग जमकर उठायी।  ग्रेटर नागालिम यानी वह पूरी ज़मीन, जिसपर पूरी तरह से नागाओं का हक हो।  इसमें आज के नागालैंड सहित अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, असम और म्यांमार के इलाके आते हैं।  ग्रेटर नागालिम के सपने के लिए NSCN (IM) ने जमकर लड़ाई लड़ी। मानव अधिकार कार्यकर्ता और वकील  नंदिता हक्सर कहती हैं कि भारत सरकार के इंटेलिजेंस ने नागा समुदाय को बांटने की बहुत अधिक कोशिश की और इसमें सफल भी रही।  इसलिए NSCN के बाद बहुत सारे गुट सामने आये और सबने अपने आपको नागा समुदाय के प्रतिनिधि कर्ता के तौर पर प्रस्तुत किया। और अब भारत सरकार को ही सबसे अधिक परेशानी होती है कि वह किस गुट को नागा प्रतिनिधि मानकर बातचीत करे।  

NSCN (IM) ने भारत सरकार के साथ पहला शांति समझौता 1997 में किया। ये नागा विरोध के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। 1997 के बाद से NSCN (IM) ने लगातार सरकार से बातचीत की है। शांति समझौते के बाद छिटपुट हिंसा होती रही। 3 अगस्त 2015 में नागा शांति समझौता का फ्रेमवर्क ऑफ एग्रीमेंट बना। यानी समझौता किन शर्तों पर होगा, उसका खाका बना।  NSCN (IM)के अलावा नागालैंड में कम से कम छह और हथियारबंद  संगठन हैं, जिन्हें सरकार शांति का हिस्सा बनाना चाहती थी। इन छह संगठनों के प्रतिनिधि संगठन नागा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप्स (NNPG)कहलाते हैं।

केंद्र की तरफ से समझौते में यह सारी बातें रख गई

- सरकार NSCN (IM) समेत सभी गुटों से बात करेगी, लेकिन समझौता वो एक ही करेगी। इसका एक पक्ष भारत सरकार होगा और दूसरा, सारे नागा गुट। इसे आसान मायने में इस तरह समझिये कि बहुत सारे नागा गुट है।  NSCN (IM) को ही अगुआ मानकर बातचीत की जा रही है।  NSCN (k) खापलांग एक मजबूत नागा गुट  है। लेकिन इनका नेता मारा गया है और इनकी शक्ति कमजोर हो गयी है। फिर भी सरकार इनसे सतर्क हैं।    
 
- भारत के संविधान में निहित संप्रभुता के भाव को सभी पक्ष मान्यता देंगे।  मतलब उन्हें मानना पड़ेगा कि वह भारत के अंग हैं।
 
- नागा गुट हथियार का रास्ता छोड़ देंगे। सरकार हथियार का रास्ता अख़्तियार किये हुए लोगों का पुनर्वास करेगी

-  नागा गुटों द्वारा हथियार का रास्ता छोड़ देने के बाद  AFSPA हटा लिया जाएगा।  सेना ज़रूरी होने पर ही दखल देगी।

-  नागालैंड राज्य की सीमाओं में कोई बदलाव नहीं होगा। ये नागा शांति समझौता का वह हिस्सा है जिसे लेकर सबसे अधिक चिंता है। ऐसा इसलिए क्योंकि नागा जनजातियां केवल नागालैंड में ही नहीं रहती। पूर्वोत्तर के बहुत सारे इलाके में रहती हैं।  और शुरू से इनकी मांग ग्रेटर नागालिम की रही है।  

-  मणिपुर और अरुणाचल के नागा बहुल इलाकों में नागा टेरेटोरियल काउंसिल बनाए जाएंगे। ये काउंसिल ऑटोनोमस यानी स्वायत्त होंगे, माने राज्य और केंद्र  सरकार के अधीन नहीं होंगे।

- एक ऐसी संस्था भी बनाई जाएगी जो अलग-अलग राज्य में बसे नागाओं के सांस्कृतिक जुड़ाव का काम करेगी।  इस संस्था में नागा जनजातियों के प्रतिनिधि बैठेंगे और ये राजनीति से दूर रहेगी।  

केंद्र की तरफ से ऐसी बहुत सारी बातें इस समझौते में लिखी हैं। बीते 31 अक्टूबर, 2019 को इस शांति समझौते पर हस्ताक्षर होना था लेकिन शांति समझौता नहीं हुआ। नागा गुट दो बातों पर अड़ गए हैं कि उन्हें एक अलग संविधान चाहिए और एक अलग झंडा।

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक NSCN (IM)  इस बात पर सहमत हो चुकी हैं कि अगर सांस्कृतिक अवसर पर भी उन्हें अपने झंडे का इस्तेमाल करने दिया जाएगा तब भी चलेगा लेकिन दूसरे नागा गुटों का कहना है कि उन्हें हर मौकों पर अपने झंडे को इस्तेमाल करने की आजादी दी जाए। भारत सरकार यह देना नहीं चाहती।  इसका  मतलब यह नहीं है कि शांति समझौता ठंडे बस्ते में चला गया है। यह जारी है।

न्यूज़क्लिक से बातचीत के दौरान नंदिता हक्सर कहती हैं कि कश्मीर से आर्टिकल 370 को हटाए जाने के बाद इस समझौते को होने में दिक्कत आ रही है। नागा गुट पहले की अब कठोर मांग रख रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि कहीं उनका भी हश्र कश्मीर जैसा न हो इसलिए अलग संविधान और झंडे की मांग कर ली जाए। यहां यह समझने वाली बात है कि पहले  नागा आंदोलन की मांग सारे नागा कौम को एक करने से जुड़ी होती थी। जिसमें बर्मा यानी आज के म्यांमार से जुड़े नागा भी हुआ करते थे।  बाद में जाकर यह केवल भारत के नागाओं तक सीमित हो गया।  और इनकी मांग केवल भारत के नागाओं को एक करने तक रह गयी।  लेकिन कश्मीर ने शायद उन्हें सजग करने का काम किया है।

नंदिता हक्सर आगे कहती हैं कि इन गुटों का अलावा एक आम नागा यही चाहता है कि सभी नागा एक राज्य के अंदर रहें। एक ज़मीन पर साथ रहें।  उनकी एक ही सीमा हो। यह मांग शुरू से लेकर आज तक बनी हुई है। बस अंतर इतना हुआ है कि अब यह भारतीय राज्य की प्रभुता भी स्वीकारने के लिए तैयार है और म्यांमार के नागा इसमें शामिल नहीं है।

तकरीबन 90 फीसदी से अधिक नागा बापटिस्ट चर्च से जुड़े हैं।  नागा समझौते में इनकी भी अहम भूमिका है। नागा आंदोलन से इनकी दो असहमतियां रही हैं। पहली यह नागा आंदोलन के साम्यवादी और समाजवादी मकसद के समर्थक नहीं है। दूसरा यह लड़ाई के बजाय शांति से समझौता चाहते हैं।  इनका प्रभाव देखते हुए शुरू में ही नागा आंदोलन ने अपने आपको सोशलिस्ट बनाने का फैसला ले लिया था।  इसलिए इन्होंने शुरुआत में इस आंदोलन को नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड का नाम दिया था।

नंदिता हक्सर कहती हैं कि नागा और कश्मीरी समुदाय को डेवलपमेंट शब्द से बहुत चिड़ हैं। केंद्र को लगता है इसके जरिये वह दूर हो रहे लोगों को अपनी तरफ से लाती है लेकिन ऐसा नहीं है। नागाओं के बीच अमीर और गरीब की खाई है। और बढ़ती जा रही है। इसे कोई नहीं एड्रेस करता है। प्रवास की वजह से गाँव के गाँव खाली हो रहे हैं। नागा गांवों की तो कोई बात ही नहीं करता। मुझे नहीं लगता कि नागा गुट ग्रामीण नागाओं की बात रखते भी हैं। पहाड़ी गांव में पानी की किल्लत है। जलवायु परिवर्तन की वजह से फसलें बर्बाद हो रही हैं। लोग मजदूरी के लिए गाँव छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं। गाँव खाली हो रहे हैं। समझौता होना तो जरूरी है लेकिन जरूरी यह भी है कि आम नागाओं की जिंदगी को कोई सुनें। ताकि नागा जिंदगी पटरी पर आ जाए।  

(नोट : इस लेख के लिए सामग्री कई आधिकारिक और गैर आधिकारिक वेबसाइट,  समाचार पत्रों और सिविल सेवा परीक्षा से जुड़ी साइट से जुटाई गई है।)

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