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संकीर्ण लक्ष्यों के साथ कई राष्ट्र वाह्य अन्तरिक्ष पर कब्जा जमाने की फ़िराक में हैं

दुनिया को अपनी मुट्ठी में करना इनका लक्ष्य है और इसे हासिल करने के लिए अन्तरिक्ष पर अपने प्रभुत्व के मार्ग को अपनाया जा रहा है।
Nations with Narrow Goals

1957 के बाद से ही जब पहली बार कृत्रिम उपग्रह धरती की कक्षा में भेजा गया था, तबसे तकरीबन 8,500 उपग्रह अबतक भेजे जा चुके हैं। इनमें से लगभग 2,200 के आसपास अभी काम कर रहे हैं। पहले से ही जिस द्रुत गति से अन्तरिक्ष में उपग्रहों की संख्या को झोंका जाना शुरू हो चुका था, उसे अब एलन मस्क की स्पेसएक्स ने कई गुना बढ़ाने का काम कर दिया है।

खबर है कि इस कम्पनी को बारह हजार की संख्या तक छोटे उपग्रहों को लॉन्च करने की इजाजत दे दी गई है, और इसकी योजना में तीस हजार अन्य उपग्रहों को लॉन्च करने के लिए अनुमति लेने की योजना शामिल है। आज के दिन स्पेसएक्स के पास वाणिज्यिक उपग्रहों को अन्तरिक्ष में स्थापित करने का सबसे विशाल-नक्षत्र मौजूद है, और प्लेनेट लैब्स नामक एक अन्य अमेरिकी कम्पनी, जिसका दावा 150 उपग्रहों को अन्तरिक्ष में भेजने का रहा है, को इसने काफी पीछे छोड़ दिया है। पृथ्वी की कक्षा में उपग्रहों की इस प्रकार की भारी भरमार के कई गंभीर निहितार्थ हैं।

पहली बात तो यह है कि कुछ कम्पनियां जो कि ज्यादातर एक देश से ही हैं, ने अन्तरिक्ष पर अपना कब्जा जमाना शुरू कर दिया है। हालाँकि स्पेसएक्स का जोर हमेशा से हाई-स्पीड इन्टरनेट मुहैय्या कराने जैसे नागरिक उद्येश्यों तक ही सीमित रहा है, जिसमें उन क्षेत्रों तक दूरसंचार को पहुंचाने का लक्ष्य शामिल था, जहाँ पर इसकी पहुँच न के बराबर बनी हुई है। लेकिन महाशक्ति वाले राष्ट्र से सम्बद्ध कम्पनी होने के चलते इस क्षेत्र में आक्रामक तौर पर खुद को विस्तारित करने के रणनीतिक और सैन्य मायने भी हैं। सुरक्षा निहितार्थ कहीं ज्यादा गंभीर हैं, क्योंकि एक अस्थिर दुनिया में रहते हुए अन्तरिक्ष के सैन्यीकरण का खतरा बढ़ना स्वाभाविक है।

वैसे तो अन्तरिक्ष में अभी तक कोई सीधा टकराव देखने को नहीं मिला है, लेकिन जासूसी और टोह लेने वाले उपग्रहों का चलन पिछले कई दशकों से जारी है, जिसमें आस-पास मौजूद सैन्य जानकारियों को भेजा जाता रहा है। हालांकि कई देशों ने अपने यहाँ पहले से ही उपग्रह-रोधी मिसाइल टेस्ट सफलतापूर्वक संचालन कर रखा है, लेकिन वे सभी इन देशों की भावी योजनाओं के समक्ष कुछ भी नहीं हैं। इनकी मंशा दुनिया पर आधिपत्य जमाने के लिए अन्तरिक्ष को एक औजार की तरह इस्तेमाल करना है। कार्ल ग्रॉसमैन की 2001 में आई पुस्तक अन्तरिक्ष में हथियारों की होड़, की प्रस्तावना को लिखते समय मशहूर अमेरिकी सैद्धांतिक भौतिकशास्त्री मिचिओ काकू लिखते हैं “अन्तरिक्ष को हथियारों से चाक-चौबंद करने से धरती पर हर किसी की सुरक्षा को लेकर एक वास्तविक खतरा उत्पन्न हो चुका है। यह अन्तरिक्ष में नए हथियारों की होड़ में काफी तेजी लाने वाला साबित होने जा रहा है। दुनिया के अन्य देश अमेरिकी स्टार वार कार्यक्रम को भेदने के काम में बुरी तरह से जुट जाएंगे, या वे स्वयं को इसी प्रकार के अभियान से जोड़ लेंगे।”

संयुक्त राष्ट्र ने हालांकि 1967 में ही “वाह्य अन्तरिक्ष संधि” की रुपरेखा को तय कर दिया था, जिसमें अंतरिक्ष के शस्त्रीकरण पर रोक लगाने की बात शामिल थी। खासतौर पर अन्तरिक्ष में सामूहिक विनाश के हथियारों के इस्तेमाल और अन्तरिक्ष में विस्तारवाद की नीति पर रोक लगाना शामिल था। लेकिन अन्तरिक्ष में विस्तारवादी नीति को रोक पाने में यह विफल रहा। संयुक्त राज्य की एक निजी कंपनी ने जिस प्रकार से अन्तरिक्ष के क्षेत्र में बड़ी छलांग ली है, सैन्य और वाणिज्यिक लिहाज से ऐसा कत्तई नहीं लगता कि बाकी लोग इस क्षेत्र में बिना कोई चुनौती दिए चुप बैठने वाले हैं। स्पेसएक्स की इस महत्वाकांक्षी योजना के प्रतिउत्तर में कई अन्य कंपनियों के इस रेस में कूदने की पूरी-पूरी सम्भावनाएं बनी हुई हैं। रूस और चीन सहित कई देश जो अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के विकास का नेतृत्व करते हैं, वे अपने उपग्रहों के प्रक्षेपण अभियानों में तेजी ला सकते हैं। इसके अलावा अब यह खबर भी सामने आ रही है कि संयुक्त राज्य अमेरिका अपने तथाकथित “आर्टेमिस एकॉर्ड” के तहत वाह्य अन्तरिक्ष संधि की सीमा का एकतरफा निर्धारण करना चाहता है, जिससे कि उसके आर्थिक और सैन्य हितों के मद्देनजर अन्तरिक्ष अनुसन्धान का कार्य बदस्तूर जारी रहे। 

संयुक्त राज्य द्वारा चाँद और मंगल के संसाधनों के दोहन के दरवाजों को खोलकर यह तनाव को बढ़ाने वाला साबित होने जा रहा है। हालाँकि आर्टेमिस एकॉर्ड के बारे में घोषणा की गई है कि इसका उद्येश्य शांतिपूर्ण अन्तरिक्ष अन्वेषण तक सीमित है।

6 अप्रैल को अपने कार्यकारी आदेश में संयुक्त राज्य ने जोर देते हुए कहा है कि “अमेरिकियों का वाह्य अन्तरिक्ष में वाणिज्यिक अनुसंधान करने से जुड़ने, वसूली, और संसाधनों के इस्तेमाल की नीति पूरी तरह से उचित और कानूनसम्मत है। वाह्य अन्तरिक्ष का क्षेत्र क़ानूनी और शारीरिक तौर पर मानव कार्यकलापों के लिए अपने आप में एक विशिष्ट क्षेत्र है, और संयुक्त राज्य अमेरिका इसे वैश्विक आमजन के तौर पर नहीं देखता।”

काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस में लिखते हुए डेविड पी फिडलर ने हाल ही में इशारा किया है कि इस कार्यकारी आदेश के जरिये पहले से ही काफी समय से जो तथ्य पता थे उनको ही पुख्ता करने का इसने काम किया है। इसमें अन्तरिक्ष को लेकर संयुक्त राज्य की स्थिति “शेष विश्व के साथ इसे साझा करने की नहीं” रही है, और इसलिए इस कार्यकारी आदेश ने आलोचनाओं के दरवाजे खोल दिए हैं। रुसी अन्तरिक्ष एजेंसी रोसकॉसमॉस ने इस अमेरिकी पहल की तुलना अन्तरिक्ष में क्षेत्रों और संसाधनों को हथियाने के तौर पर अमेरिकी उपनिवेशवाद से की है। इसी प्रकार रुसी अधिकारियों ने आर्टेमिस एकॉर्ड के बारे में नाराजगी जाहिर की है और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों से उसकी तुलना को लेकर संदेह व्यक्त किया है। वहीं रोसकॉसमॉस के निदेशक ने जोर देकर कहा है कि ‘आक्रमण का सिद्धांत आज भी वही है, वो फिर चाहे चाँद हो या ईराक के बारे में बात हो।’

ऐसी प्रतिक्रियाओं को देखते हुए लगता है कि रूस और उसके साथ के देश अवश्य ही इस मसले को यूएन कमेटी ऑन पीसफुल यूजेस ऑफ आउटर स्पेस या चाँद पर प्रतिद्वंदी शासन की पहलकदमी की शुरुआत कर सकते हैं” फिडलर लिखते हैं। अर्मेटिस एकॉर्ड निश्चित तौर पर तनाव बढाने वाला कदम है क्योंकि इसमें चाँद और मंगल के इस्तेमाल के द्वार खुलने जा रहे हैं। यह एक ऐसी परियोजना है जिसमें संयुक्त राज्य द्विपक्षीय सहयोगियों की तलाश कर रहा है। 

यह कहना पूरी तरह से असंभव है कि किस हद तक अन्तरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में निश्चित और घोषित आर्थिक लाभ रिटर्न से मेल खाते हैं, खासतौर पर तब जबकि उपग्रह प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में शोध और प्रक्षेपण में लागत काफी ऊँची बनी हुई है। ऊँची लागत को देखते हुए यह अंदेशा बराबर बना रहता है कि हो न हो इस अन्तरिक्ष अभियान के पीछे सैन्य मकसद ही न कहीं छिपा हो।

अमेरिका के लिए अन्तरिक्ष के सैन्य इस्तेमाल का एजेंडा काफी लम्बे अर्से से बना हुआ है। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत नाज़ी शासन में काम करने वाले प्रमुख राकेट इंजीनियरों को अमेरिका ने अपने पास बुला लिया था। इन लोगों ने कुछ बेहद विनाशकारी अन्तरिक्ष युद्ध के साजोसामान की योजना बनाई थी। मीडिया से प्राप्त खबरों के अनुसार भविष्य के लिए सैकड़ों परमाणु हथियारों से लैस उपग्रहों की प्रणाली के प्रस्ताव थे। 

वाह्य अन्तरिक्ष संधि में विशेष तौर पर अन्तरिक्ष में परमाणु हथियारों के प्रश्न पर पूरी तरह से रोक लगी हुई थी, लेकिन जैसा कि कार्ल ग्रॉसमैन ने पीछे 2001 में लिखा था “अमेरिका अन्तरिक्ष पर ‘नियन्त्रण’ करना चाहता है और अन्तरिक्ष से उसका इरादा नीचे धरती पर ‘प्रभुत्व’ जमाए रखने का है। अमेरिकी सैन्य दस्तावेजों में ‘नियन्त्रण’ और ‘प्रभुत्व’ शब्दों को बार-बार दुहराया जाता है। इसके पश्चात अमेरिकी सेना चाहेगी कि अन्तरिक्ष में वह हथियारों के साथ मौजूद रहे।” वे इस बात को भी दोहराते हैं कि शेष विश्व भी “चुप बैठे रहने” और अन्तरिक्ष में अमेरिकियों के प्रभुत्व को स्वीकार करने नहीं जा रहे हैं। “यदि अमेरिका अपने इस अन्तरिक्ष-साम्राज्यवाद के कार्यक्रम के साथ आगे बढ़ता है और अन्तरिक्ष में हथियारों का जमावड़ा लगाता है तो चीन और रूस जैसे अन्य देश भी अमेरिका से उसी के स्तर पर जाकर निपटेंगे। ऐसे में हथियारों की होड़ और अंततः अन्तरिक्ष में युद्ध का होना अवश्यंभावी हो जाता है।”

अन्तरिक्ष कार्यक्रमों के अपने वृहद-पैमाने के नागरिक और सैन्य नतीजे और इस्तेमाल हो सकते हैं, जिसमें दूरसंचार की दृष्टि से, मौसम का पुर्वानुमान, जीपीएस टेक्नोलॉजी इत्यादि शामिल हैं। हालाँकि हर नागरिकों से जुड़े काम में कहीं न कहीं सैन्य सन्दर्भ भी जुड़ जाता है। सैन्यीकरण की शुरुआत उपग्रहों के जरिये जासूसी से शुरू होती है और इसका विस्तार यह खुले जंग तक जा सकता है, जिसमें सेटेलाइट को निष्क्रिय करने से लेकर नष्ट करने तक का काम शामिल है। अन्तरिक्ष पर नियन्त्रण इस प्रकार एक तरह से समूचे गृह पर नियन्त्रण से जुड़ा हुआ है।

अन्तरिक्ष युद्ध एक अस्तित्व के खतरे से जुड़ा प्रश्न है, लेकिन इसके साथ ही कुछ और तात्कालिक खतरे भी हैं। हजारों की तादाद में उपग्रह अपनी कक्षा में चल रहे हैं, ऐसे में उनके आपस में टकराने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इसके साथ ही सैन्य मकसद से की जाने वाली टेस्टिंग, पहले से ही गंभीर चुनौती बन चुके अन्तरिक्ष में मौजूद मलबे को बढ़ाने वाला साबित होने जा रहा है। पहले से ही तकरीबन 18,000 बड़े वस्तुओं को अन्तरिक्ष में कचरे के रूप में सूचीबद्ध किया जा चुका है, लेकिन यदि छोटे से छोटे कचरे की गिनती की जाए तो इस कचरे की संख्या 1.20 करोड़ से अधिक के होने का अनुमान है।

खगोलविदों को भी अन्तरिक्ष में प्रकाश प्रदूषण की शिकायतें रही हैं। नवम्बर 2019 में न्यू यॉर्क टाइम्स से बात करते हुए स्मिथ कॉलेज के खगोलशास्त्री जेम्स लोवेनथल ने बताया था कि “आसमान में भारी संख्या में चमकीले चलायमान वस्तुएं मौजूद हैं....। इस बात की प्रबल सम्भावना है कि खगोल विज्ञान का अस्तित्व ही न कहीं संकट में पड़ जाए।” ऐसा इसलिए है क्योंकि रोशनी की एक भीड़ दृश्यता को नष्ट कर देती है और वैज्ञानिको के काम में बाधा पैदा करती है जोकि उपग्रह की इमेजरी पर आधारित है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्तरिक्ष के सैन्य इस्तेमाल की रफ्तार कभी भी उस बिंदु तक न पहुँच जाए, जहाँ से वापस लौटना ही संभव न हो सके। लेकिन आज इस बात की तत्काल आवश्यकता है कि किसी भी देश के या इसकी कम्पनियों के वर्चस्व को रोका जाए, यहाँ तक कि इस गृह से परे भी इस काम को किये जाने की आवश्यकता है। संयुक्तराष्ट्र महासभा में 90% से अधिक देश अन्तरिक्ष के सैन्यीकरण को रोकने के पक्ष में थे और ना ही आम तौर पर नागरिक ही अन्तरिक्ष युद्ध के पक्ष में थे। आज जरूरत इस बात की है कि जनता के आन्दोलन को संयुक्त राष्ट्र और अन्य अन्तरराष्ट्रीय संगठनों पर लगातार दबाव बनाये रखा जाए, ताकि वे शांति, न्याय और पर्यावरण संरक्षण के प्रति वैश्विक वायदे को निभा सकें और इस बात को सुनिश्चित करें कि अन्तरिक्ष के अन्वेषण का मकसद सिर्फ और सिर्फ समस्त जीवित प्राणियों के कल्याण के लिए ही किया जाने वाला है।

लेखक सेव अर्थ नाउ अभियान के संयोजक हैं। उनकी हालिया किताबों में प्रोटेक्टिंग अर्थ फॉर चिल्ड्रेन शामिल है। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Nations with Narrow Goals Are Trying to Capture Outer Space

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