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न उचित मुआवज़ा मिला, न स्थाई नौकरी; ज़मीन वापसी की उम्मीद भी ख़त्म

जिस प्लांट का प्रमुख उद्देश्य और लक्ष्य खेती किसानी का सर्वांगीण विकास हो, उसी के द्वारा किसानों की खेती नष्ट की जा रही है।
IFFCO

प्रयागराजपिछले लगभग तीन दशक से इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर कोऑपरेटिव लिमिटेड, यानी इफको से अपनी ज़मीन वापस पाने की लड़ाई लड़ रहे साठ वर्षीय जगदीश सिंह के अंदर आज भी गुस्सा और मायूसी दोनों है, हो भी क्यों न, ज़मीन भी गई और उचित मुआवजा भी नहीं मिल पाया। अपनी डेढ़ बीघा ज़मीन उन्होंने इफको को इस विश्वास पर दी कि इसका उन्हें बाज़ार के भाव के हिसाब से अच्छा मुआवजा मिलेगा। लेकिन डेढ़ बीघा के बदले मिला बस 22 हजार रुपए।

वे कहते हैं जिन भी किसानों की जमीन इफको प्लांट के अगल बगल थी उनका जाना तय था, लेकिन एक किसान की जमीन कौड़ियों के भाव लेना और अन्य वादे भी पूरा न करना, इससे बड़ा धोखा और क्या हो सकता है। इफको प्रशासन ने एक स्थाई नौकरी का वादा किया था। ऐसा भी कुछ नहीं हुआ। जगदीश सिंह प्रयागराज जिले के फूलपुर तहसील के भुलई का पूर्वा गांव के निवासी हैं। वे बताते हैं सत्तर के दशक में इफको स्थापना के बाद एक बार पुनः नब्बे के दशक में फिर उसका विस्तारीकरण का काम शुरू हुआ जिसमें इफको के इर्द गिर्द बसे पांच-छह गांवों के करीब साढ़े तीन सौ परिवारों की जमीनें ली गई थीं। जमीन लेते वक़्त कम्पनी ने हर घर से एक स्थाई नौकरी देने और इफको के इर्द-गिर्द बसे गांवों को कंपनी की ओर से विशेष सुविधाएं देने की बात कही थी, लेकिन ये सारे वादे केवल कागजी ही रह गए।

उन्होनें बताया, "जब हम ग्रामीणों ने इसका विरोध करते हुए इफको प्रशासन से बात की तो, उन्होनें प्लांट का विस्तारीकरण होते ही स्थाई नौकरी देने की बात कही, लेकिन एक बार फिर यहां प्रशासन झूठा साबित हुआ। नौकरियां मिली भी तो अस्थाई तौर पर और आज भी यह अस्थाई प्रणाली जारी है। जगदीश सिंह बताते हैं इफको प्रशासन के इस रवैए से गुस्साए कुछ किसान अदालत भी गए, लेकिन वहां भी लंबा वक्त खिंचता गया और अपने पक्ष में कुछ न होता हुआ देखते हुए धीरे-धीरे सब ने केस छोड़ दिया। उनके मुताबिक केस छोड़ने का एक कारण पैसों का अभाव भी था, अपनी खेती किसानी छोड़ कर आख़िर कोई कब तक अदालत के चक्कर लगाता।" 

अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर इफको ने जमीन किस लिए ली थी और क्यों किसान अब अपनी जमीन वापसी की मांग कर रहे हैं। जबकि किसानों के मुताबिक इफको प्रशासन भी उनकी जमीन वापसी की बात पिछले चौदह सालों से कर रहा है। लेकिन जमीन अभी तक वापस नहीं की गई है।

इसी गांव के एक अन्य किसान गुलाब सिंह बताते हैं कि तब इफको ने हम किसानों की जमीनें एश पौंड ( राख और पानी भरने का तलाब) बनाने के लिए ली थी, कहा गया था कि प्लांट इन जमीनों का उपयोग अपना पानी और राख एकत्रित करने के लिए करेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्योंकि प्लांट पूरी तरह से गैस आधारित हो चुका था। राख की उसे जरूरत नहीं थी। उनके मुताबिक 2006 में इफको प्रशासन ने विस्तारीकरण के लिए ली गई किसानों की जमीन वापस करने की बात कही लेकिन चौदह साल गुजर जाने के बाद भी किसानों को उनकी जमीन नहीं मिल पाई। गुलाब सिंह कहते हैं इफको ने हमारी जमीनों का समतलीकरण कर उसमें अनाज उगाकर वापसी की बात कही थी। लेकिन यहां भी उसने हम किसानों को छला। उनके मुताबिक इफको ने जो भी वादा ग्रामीणों से किया था, उसका लिखित प्रमाण भी उन लोगों के पास है।

वे कहते हैं जब जब हम अपने हक के लिए मुखर हुए, तब तब इफको प्रशासन ने न केवल हमारी एकता को तोड़ने का प्रयास किया बल्कि दमनकारी नीति अपनाते हुए अस्थाई नौकरी में रखे ग्रामीणों को निकालने का काम भी किया। गुलाब सिंह और जगदीश सिंह की तरह अपनी ज़मीन गंवाने वाले अन्य किसानों की भी बस अब इफको प्रशासन से एक ही मांग है कि जब अब कंपनी के लिए जमीन का कोई उपयोग नहीं तो उन्हें उनकी जमीनें वापस कर दी जाए। वे कहते हैं हमारी जमीनें इफको के लिए अनुपयोगी है, लेकिन हम किसानों के लिए वे जीवनदायिनी है। स्थाई नौकरी के सवाल पर गुलाब सिंह कहते हैं अब हम ग्रामीण उनके बहकावे में नहीं आने वाले, अब हमें न नौकरी चाहिए और न इफको प्रशासन यह देने की क्षमता रखता है। ग्रामीणों के मुताबिक इफको ने स्थानीय लोगों की बजाय बाहरी लोगों को नौकरी देना ज्यादा उचित समझा। इसलिए अब ग्रामीण नौकरी की उम्मीद तो छोड़ ही चुके हैं, बस अब उनकी एक ही मांग हैं कि उन्हें उनकी जमीनें वापस की जाएं अन्यथा भविष्य में ग्रामीण फिर एकजुट होकर आंदोलन का रास्ता अपनाएंगे। ग्रामीणों का गुस्सा और शिकायत बस इतनी भर नहीं.

एक बात जो और जानने को मिली कि किस तरह इफको के गंदे पानी की वजह से उनकी खेती चौपट हो रही है। एक किसान के लिए इससे बड़ा दर्द और क्या हो सकता है कि वह अपनी खेती योग्य ज़मीन पर केवल इसलिए अनाज पैदा नहीं कर सकता क्योंकि उसकी जमीन की उर्वरकता प्लांट के गंदे पानी की भेंट चढ़ गई हो। अफसोसजनक बात तो यह है कि जिस प्लांट का प्रमुख उद्देश्य और लक्ष्य खेती किसानी का सर्वांगीण विकास हो, उसी के द्वारा किसानों की खेती नष्ट की जा रही हो. इन सब के बावजूद किसानों की बात भी न सुनी जा रही हो तो सवाल उसके कार्यप्रणाली पर उठना लाज़मी है।

किसानों से बात करने जाने के क्रम में हमने वह जगह भी देखी जहां इफको का सीवेज पॉण्ड है जिसमें प्लांट का सारा गंदा पानी उसी बड़े से तालाब में एकत्रित होता है। इत्तेफाक से वहां हमारी मुलाकात शिवभवन से हो गई। शिवभवन उन किसानों में से हैं जिनकी जमीन इफको के सीवेज पाउंड के किनारे है। वे बताते हैं जिस भी किसान की जमीन इस गंदे पानी के तलाब के इर्द गिर्द है, उनकी उपज तो चौपट समझो। तालाब में हमेशा पानी भरा होने और अक्सर अत्यधिक बहाव के चलते अधिकांश पानी खेतों की ओर बढ़ जाता है। इससे उनकी जमीनों में नमी भरी रहती है। वे कहते हैं हमेशा जमीन गीली रहने के कारण उस पर कोई पैदावार नहीं हो पाती और इसी के चलते इस बार धान की फसल एकदम चौपट हो गई जिससे उनको काफी नुकसान हुआ।

शिव भवन बताते हैं उनके गांव भूलई का पूर्वा की करीब तीस बीघा जमीन इफको के पानी की भेंट चढ़ गई। इसी तरह अन्य गांवों की भी जमीन का यही हाल है। उनके मुताबिक तीन साल पहले तक इफको ने अपने छोड़े गए पानी के लिए इंतजाम किया था। लेकिन फिर पिछले तीन सालों से हम किसान इफको की लापरवाही के चलते बुरी स्थिति में आ गए हैं। वे कहते हैं पिछले तीन सालों से हम लगातार इफको प्रशासन से गुहार लगा रहे हैं कि वे अपने पानी की निकासी के लिए उचित व्यवस्था करे इस बीच बातचीत का दौर भी चला, लेकिन अभी तक इफको द्वारा कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया है जिसका भारी खामियाजा किसानों को उठाना पड़ रहा है। वे कहते हैं एक किसान के लिए इससे बड़ी पीड़ा और क्या हो सकती है कि उसकी आंखों से सामने उसकी उपजाऊ भूमि दम तोड़ती रहे और वे चाह कर भी उसे बचा न पाए। तो वहीं गढ़ौल गांव के निवासी सुभाष पटेल अपने आम के पेड़ों को दिखाकर कहते हैं इफको के प्रदूषण के कारण आम की पैदावार पर भी असर पड़ा है , केवल गुठलियां नजर आती हैं आम नहीं और जो होते भी हैं उनका साइज़ छोटा ही रह जाता है।

लंबे समय से  किसानों और श्रमिकों के बीच में काम करने वाले इलाहाबाद के सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. कमल उसरी कहते हैं, “मामला सिर्फ़ विश्व की सबसे बड़ी किसान सहकारी संस्था इफको द्वारा किसानों मजदूरों के शोषण का नहीं है। बल्कि सन 1947 में भारत की आज़ादी यानी सत्ता हस्ताक्षरन के बाद जो सरकारें सत्ता में आई शुरुआत में जन संघर्षों के दबाव में कुछ जनहित में फैसले जरूर किए। लेकिन बाद में जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय गोलबंदी बढ़ने से जनदबाव कमजोर पड़ गए, जिससे सरकारें पूरी तरह बेलगाम हो गई हैं। सोसल वेलफेयर स्टेट के कंसेप्ट को इनकार करते हुए आज सब कुछ बाजार के हवाले कर रही है इसी का नतीजा है कि जनता की सवारी रेलवे, बी एस एन एल, कोल ब्लॉक, बीपीसीएल, एअरपोर्ट सहित सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को पूंजीपतियों को बेच दे रही है। यकीनन बाजारीकरण का प्रभाव इफको पर भी हुआ। इसलिए आज किसानों के हित के लिए बनी इफको जैसी संस्था कुछ पूंजीपति घरानों को खुश करने के लिए किसानों मजदूरों के शोषण में व्यस्त हो गई हैं यदि ऐसा न होता तो जो संस्था खेती और किसानों के हित के लिए बनी थी, आज वही उनके प्रति नजरअंदाज बनी हुई हैं। कहते हैं न यदि किसी को सुनाई न दे तो उसे सुनाने का एकमात्र रास्ता जनांदोलन है।"

ये साधारण किसान जानते हैं कि उनकी लड़ाई विश्व की सबसे बड़ी सहकारिता संस्था इफको से है लंबे समय से चला आ रहा यह संघर्ष और समय मांग सकता है बावजूद इसके इन्हें पूरी उम्मीद है कि जीत उनकी ही होगी।

नोट: (इस सम्बन्ध में जब इफको का पक्ष जानने के लिए उनके जनसंपर्क अधिकारी से टेलीफोनिक संपर्क किया गया तो उन्होंने इस बाबत अपने वरिष्ठ अधिकारियों से बातचीत कर के निश्चित तौर पर जल्दी ही इफको का पक्ष बताने के लिए टेलीफोन करने की बात कही, लेकिन काफी इंतजार के बाद भी उनके द्वारा कोई संपर्क नहीं किया गया)

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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