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विदेशी विनियम के मोर्चे पर नया ख़तरा

विदेशी मुद्रा संचित कोष में यह गिरावट आंशिक रूप से पुनर्मूल्यांकन के चलते आयी है।
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सितंबर की 23 तारीख को डॉलर की तुलना में रुपए का मूल्य गिरकर, एक नये न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया। रुपया, एक डॉलर में 81 रु का स्तर भी लांंघ गया। इससे पहले, कुछ हफ्ते से रुपए का मूल्य अपेक्षाकृत स्थिर बना हुआ था और 79 और 80 रु के बीच ही मंडराता रहा था।

गिरता रुपया : घटता  विदेशी मुद्रा संचित कोष

रुपए के मूल्य में ताजा गिरावट, इसके मूल्य को थामे रखने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अपने सुरक्षित विदेशी मुद्रा कोष में काफी कमी होने देने के बावजूद हुई है। सच्चाई यह है कि पिछले साल अक्टूबर में भारत का विदेशी मुद्रा संचित कोष अपने शिखर पर पहुंच गया था। लेकिन, उसके बाद से इस 23 सितंबर तक इस कोष में 90 अरब डॉलर से ज्यादा की गिरावट हो चुकी थी और यह कोष घटकर 550 अरब डॉलर से भी नीचे आ चुका था। विदेशी मुद्रा संचित कोष में यह गिरावट आंशिक रूप से पुनर्मूल्यांकन के चलते आयी है। विदेशी मुद्रा संचित कोष में, डॉलर के अलावा दूसरी अनेक मुद्राएं भी रखी जाती हैं और इस स्थिति में डॉलर की तुलना में यूरो के मूल्य में गिरावट ने भी हमारे देश के कुल संचित कोष के डॉलर मूल्य में कमी में एक हद तक योग दिया है। फिर भी, इस कोष में ज्यादातर गिरावट तो रुपए का मूल्य थामे रहने की कोशिश में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अपने इस कोष से डॉलर बाजार में निकाले जाने की वजह से ही हुई है। इसके बावजूद, रुपए का दाम गिर गया है।

रुपए के विनिमय मूल्य में गिरावट से हमारे आयातों का मूल्य बढ़ता है। यह बात तेल जैसे यूनीवर्सल इंटरमीडियरीज यानी हरेक उत्पाद की लागत का हिस्सा बनने वाले मालों के मामले में खासतौर पर लागू होती है। विश्व बाजार में डॉलर में तेल की कीमतें तो वैसे भी रूस के खिलाफ पश्चिम द्वारा लगायी गयी पाबंदियों के बाद काफी बढ़ गयी हैं। ऐसे में रुपये के मूल्य में गिरावट, आयातित तेल की लागत बढ़ाने का ही काम करती है। इससे अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति और बढ़ती है औैर यह रुपए के विनिमय मूल्य को और गिरावट की ओर धकेलता है। इस तरह मुद्रास्फीति की वजह से अवमूल्यन और अवमूल्यन की वजह से और मुद्रास्फीति का दुश्चक्र बन जाता है।

अवमूल्यन और मुद्रास्फीति का दुष्चक्र

कोई भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था इस दुश्चक्र को मजदूरों को निचोड़ने के जरिए ही तोड़ती है। इसके लिए पूंजीवादी अर्थव्यवस्था यह सुनिश्चित करती है कि कीमतों के अनुपात में रुपया मजदूरी में बढ़ोतरी नहीं होने पाए बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था के नजरिए से तो और भी बेहतर होगा कि रुपया मजदूरी में कोई बढ़ोतरी ही नहीं हो। और पूंजीवादी व्यवस्था में जो तथाकथित मुद्रास्फीतिविरोधी कदम उठाए जाते हैं, वे अंतत: सिर्फ एक ही काम करते हैं और वह है रुपया मजदूरी को बढ़ने से रोकना। इसलिए, रुपए के मूल्य में गिरावट का मतलब है, मजदूरों पर हमले का और भी तेज होना।

बहरहाल, यहां एक मुद्दा और भी है। मान लीजिए कि रुपए के मूल्य में गिरावट की वजह से मुद्रास्फीति में कोई बढ़ोतरी हो ही नहीं। यानी बहस के लिए हम यह माने लेते हैं कि विनिमय दर में गिरावट के चलते, आयातों की कीमत बढ़ने सेे जो बढ़ोतरी हो रही होगी, उसे हाथ के हाथ रुपया मजदूरियों में इतनी कमी कर के निष्प्रभावी बना दिया जाएगा कि कीमतें जहां की तहां बनी रहें। लेकिन, उस सूरत में भी रुपए का अवमूल्यन, सटोरियों के बीच तो रुपए का और अवमूल्यन होने की प्रत्याशाएं पैदा कर ही रहा होगा और इसके चलते वे रुपया बाजार में पहले से भी ज्यादा निकालने लगेंगे और इस तरह, रुपए के अवमूल्यन की प्रत्याशाएं खुद ही अपने आप को सच्चाई में तब्दील करने लगेंगी। और रुपए के मूल्य को थामे रखने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक के हाथों में जो विदेशी मुद्रा संचित कोष है उसका पहले ही गिर रहा होना, और ज्यादा अवमूल्यन होने की उक्त प्रत्याशाओं को और ताकतवर बनाने का ही काम करेगा। इस प्रकार, मुद्रास्फीति-अवमूल्यन दुष्चक्र से बिल्कुल अलग, एक और स्वतंत्र दुष्चक्र भी चल रहा है और यह दुष्चक्र है, अवमूल्यन से और ज्यादा अवमूल्यन की प्रत्याशाएं पैदा होने और इन प्रत्याशाओं के चलते वास्तव में और ज्यादा अवमूल्यन होने का। अर्थव्यवस्था आज इन दोनों दुष्चक्रों में फंसती जा रही है और देश के मेहनतकशों को इन दोनों दुष्चक्रों की मार झेलनी पड़ेगी।

बेशक, ऐसा नहीं भी हो सकता था, बशर्ते रुपए के मूल्य में वर्तमान गिरावट, किसी अस्थायी या फौरी कारक से पैदा हुई होती, जो कि वक्त गुजरने के साथ खुद ब खुद खत्म हो जाता। लेकिन, रुपए के मूल्य में वर्तमान गिरावट तो अपनी प्रकृति में ढांचागत है और इसलिए, संक्रमणशील या अस्थायी नहीं है। यह गिरावट दो खास कारकों से पैदा हुई है और इन दोनों में से कोई भी कारक अस्थायी नहीं है। इनमें एक तो है, बढ़ता हुआ चालू खाता घाटा। और दूसरा है, अर्थव्यवस्था में वित्त का डॉलर की ओर या डॉलर डिनोमिनेटेड परिसंपत्तियों की ओर शुद्घ पलायन।

बढ़ता चालू व्यापार घाटा

चालू खाता घाटे के बढ़ने के पीछे मुख्यत: बढ़ता विदेश व्यापार घाटा ही है। भारत के आयात जिस रफ्तार से बढ़ रहे हैं, निर्यातों की बढ़ोतरी की रफ्तार उससे कम है। बेशक, सरकार यह दावा कर रही है कि उसके आयातों में तेजी बढ़ोतरी की वजह यही है कि महामारी के दुष्प्रभावों से हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से उबर रही है। लेकिन, यह पूरी तरह से निराधार है। हम अगर 2019-20 की पहली तिमाही की तुलना, 2022-23 की पहली तिमाही से करें यानी हम अगर महामारी से पहले की एक ‘सामान्य’ तिमाही की और महामारी से निकलने के बाद की सामान्य तिमाही की तुलना करते हैं, तो हम यह देखते हैं कि व्यापार घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 4 फीसद से बढ़कर 5.3 फीसद हो गया है, जबकि उक्त दो तिमाहियों के बीच खुद सकल घरेलू उत्पाद में भी 2.8 फीसद की मामूली बढ़ोतरी तो दर्ज हुई ही थी। बाकी सभी कारकों को बाहर रखने वाली इससे सटीक तुलना दूसरी नहीं हो सकती है। और यह तुलना साफ तौर पर दिखाती है कि व्यापार घाटे में हुई बढ़ोतरी, अर्थव्यवस्था की किसी ‘बहाली’ का या विश्व अर्थव्यवस्था की तुलना में हमारी अर्थव्यवस्था के ज्यादा तेजी से वृद्घि दर्ज कराने का नतीजा हर्गिज नहीं है। यह तो एक स्वायत्त कारक है जिसने वास्तव में मांग के रिसकर बाहर जाने के जरिए, भारतीय अर्थव्यवस्था की अपेक्षाकृत तीव्र वृद्धि की संभावनाओं में बाधा ही डाली है।

इसी प्रकार व्यापार घाटे में बढ़ोतरी को यूक्रेन युद्ध के बाद से तेल तथा अन्य मालों की विश्व बाजार की कीमतों में बढ़ोतरी के सिर पर नहीं डाला जा सकता है। जुलाई तथा अगस्त के महीनों में व्यापार घाटा, अप्रैल-जून की तिमाही के दौरान रहे औसत मासिक व्यापार घाटे से भी ज्यादा रहा है। जुलाई में व्यापार घाटा 28.7 अरब डॉलर था और अगस्त में 28.68 अरब डॉलर। लेकिन, अप्रैल-जून की तिमाही के दौरान औसत मासिक व्यापार घाटा, 22.6 अरब डॉलर ही रहा था। लेकिन, चूंकि तेल के अंतर्राष्ट्रीय बाजार के दामों में अधिकांश बढ़ोतरी अप्रैल-जून की तिमाही में ही हो चुकी थी, जुलाई तथा अगस्त में व्यापार घाटे में दर्ज हुई बढ़ोतरी को, तेल या अन्य मालों की कीमतों में किसी बढ़ोतरी के तर्क से समझा ही नहीं जा सकता है। इसलिए, हमारा सामना जिस परिघटना से है उसे किसी प्रसंगवश आ धमके या अस्थायी कारक से नहीं समझा जा सकता है बल्कि इसकी जड़ें तो हमारी अर्थव्यवस्था की मौजूदा दुरवस्था में ही मिलेंगी।

वित्त का पलायन

आइए, अब हम दूसरे कारक पर चलें यानी वित्त के शुद्ध उत्प्रवाह या पलायन पर। लंबे समय से अमरीका का फैडरल रिजर्व बोर्ड, ब्याज की दरों को शून्य करीब बनाए रहा था। इसके ऊपर से वह ‘परिमाणात्मक ढील’ का सहारा और लेता आया था, जिससे वह सरकारी बांड खरीदता था तथा उसके बदले में अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त संचित धन डालता था। इस सबके पीछे मंशा यही थी कि ‘आवासन के बुलबुले’ के फूटने के बाद से, गतिरोध में फंसी अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिए उत्प्रेरण मुहैया कराया जाए। लेकिन, इस प्रक्रिया में जो बहुत बड़े पैमाने पर तरलता जुटायी जा रही थी, उसका कुछ हिस्सा तीसरी दुनिया के कुछ खास देशों की ओर, भारत जैसे कथित ‘उदीयमान बाजारों’ की ओर खिसक जाता था, जहां वित्त से कमाई की दरें कहीं ज्यादा थीं। इसका नतीजा यह हुआ कि तीसरी दुनिया के इन देशों के लिए चालू खाता घाटों की भरपाई के लिए वित्त जुटाना आसान हो गया। वास्तव में इन देशों की ओर वित्त का प्रवाह इतना ज्यादा था कि वहां संचित विदेशी मुद्रा के भंडार जमा हो गए।

लेकिन, आज अमरीका को और वास्तव में पूरी पूंजीवादी दुनिया को ही जिस तरह मुद्रास्फीति ने अपनी जकड़ में ले लिया है और इसकी शुरूआत यूक्रेन युद्ध से पहले ही हो चुकी थी, उसके चलते फैडरल रिजर्व बोर्ड ने अपने यहां ब्याज की दरें बढ़ाना शुरू कर दिया है और इसके साथ ही उसने ‘परिमाणात्मक ढील’ देना भी बंद कर दिया है। इसका अर्थ यह है कि अब वित्त के शुद्ध प्रवाह की दिशा ही बदल गयी है। पुन: यह भी कोई फैडरल रिजर्व द्वारा अपने रास्ते से अस्थायी तौर पर हटे जाने का मामला नहीं है। उल्टे लगभग शून्य ब्याज दर का पिछला दौर ही, एक अस्थायी विचलन को दिखाता था क्योंकि उस रास्ते पर हमेशा नहीं चलते रहा जा सकता था और इसलिए इस विचलन का अंत तो होना ही था। हालांकि, अमरीका में ब्याज की दरें बढ़ाए जाने के जवाब में, भारत जैसे देश भी अपने यहां ब्याज की दरें बढ़ा रहे हैं, फिर भी आने वाले समय में उस पहले वाले दौर पर लौटना संभव नहीं होगा, जहां वित्त आसानी से उपलब्ध था।

इसका अर्थ यह है कि ठीक उस समय जब हमारा चालू खाता घाटा बढ़ रहा है, इस घाटे के लिए वित्त पोषण खासतौर पर मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि वित्त आसानी से उपलब्ध नहीं रह गया है, भले ही भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज की दरें बढ़ाए जाने के चलते, वित्त का शुद्ध उत्प्रवाह या पलायन रुक भी जाए। इस तरह आने वाले दौर में यही आए दिन की कहानी होगी कि विनियम गिरावट पर होगी तथा इसके चलते मुद्रास्फीति बढ़ रही होगी और अर्थव्यवस्था आम तौर पर गतिरोध में फंसी होगी, जहां बेरोजगारी की दर ऊंची बनी रहेगी।

नवउदारवादी विनियंत्रण नहीं, व्यापार और पूंजी नियंत्रण ही सामान्य हैं

लेकिन, यह एक कहीं गहरी बीमारी की ओर इशारा करता है। परंपरागत तथाकथित मुख्यधारा के आर्थिक सिद्धांत की समस्या सिर्फ यही नहीं है कि वह अपनी प्रकृति से ही पूंजीवादी व्यवस्था की सचाइयों पर पर्दापोशी करता है तथा सिर्फ संचार या सर्कुलेशन के क्षेत्र पर ही ध्यान केंद्रित करने के जरिए, वर्गीय संबंधों को धुंधलाने की कोशिश करता है, उसकी समस्या यह भी है कि सर्कुलेशन के क्षेत्र का उसका विश्लेषण भी पूरी तरह से त्रुटिपूर्ण होता है। वह यह मानकर चलता है कि अगर कीमतों को स्वतंत्रतापूर्वक बढ़ने-घटने के लिए छोड़ दिया जाए तो, सर्कुलेशन के क्षेत्र में बाजार एक संतुलन कायम कर लेगा। लेकिन, अगर तीसरी दुनिया की मुद्राओं को, मांग तथा आपूर्ति में बदलावों के हिसाब से ऊपर-नीचे होने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है, तो उनकी विनियम दर में कोई संतुलन नहीं ही होता है। इसकी वजह यह है कि धनवान, चाहे पहली दुनिया के हों या तीसरी दुनिया के, हमेशा अपनी संपदा डॉलर में या डॉलर में मूल्यांकित परिसंपत्तियों में ही रखना पसंद करते हैं। जब तक पश्चिम का वर्चस्व कायम है, कम से कम तब तक तो यही स्थिति बनी रहने जा रही है। और उनके इस झुकाव की काट करने के लिए, तीसरी दुनिया में ब्याज की दरें असंभव रूप से ऊंचे स्तर पर रखनी पड़ेंगी। और यह भी एक और ही कारण से वित्त के शुद्ध उत्प्रवाह को रोकने के लिए अनुत्पादक हो सकता है। और वह कारण यह है कि इससे तो आर्थिक वृद्धि का ही गला घुट कर रह जाएगा।

इसीलिए, तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में व्यापार व पूंजी नियंत्रणों का लगाया जाना एक सामान्य स्थिति होना चाहिए और नवउदारवाद को एक पूरी तरह से न चल सकने वाली स्थिति होना चाहिए। विश्व अर्थव्यवस्था की असामान्य परिस्थितियों के चलते यह बुनियादी तथ्य, अस्थायी रूप से अब तक नजरों से छुपा रहा था,  बहरहाल अब यह खुलकर सामने आ रहा है।

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