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रुपए का नीचे गिरना: एक खतरनाक घटना

मोदी सरकार की निष्क्रियता सिर्फ लोगों को संकट की गहराई में ही नहीं धकेल रही है; यह अर्थव्यवस्था को ऐसी अस्थिरता की तरफ भी धकेल रही है जो भारत को आईएमएफ और विश्व वित्तीय बाजारों के सामने हाथ फ़ैलाने के लिए मजबूर कर सकती है।
Rupee downfall

देश में एक शानदार दृश्य बनाया जा रहा है। रुपया नीचे फिसल रहा है और अब इसे "नए उभरते देशों" की सभी मुद्राओं में सबसे कमजोर माना जा रहा है। इस वजह से, आयात में रुपए की कीमत, विशेष रूप से तेल, के मामले में हर रोज बढ़ रही है (दुनिया में कच्चे तेल के बाज़ार में रुझानों से परे)। आयातित कच्चे तेल में यह वृद्धि उपभोक्ताओं को डीजल और पेट्रोल की ऊँची कीमतों के रूप में झेलना पड़ रहा है,जो दैनिक तौर पर बढ़ती जा रही हैं। उपभोक्ताओं, सबसे गरीब उपभोक्ताओं सहित जो  अप्रत्यक्ष रूप से उच्च पेट्रो-उत्पाद की कीमतों से पीड़ित हैं, हर किसी की आंखों के सामने कीमतें  दैनिक तौर पर बढ़ रही हैं, फिर भी सरकार पूरी तरह से कुछ भी नहीं कर रही है।

इस निष्क्रियता के लिए कोई स्पष्टीकरण प्रदान नहीं किया गया है। लेकिन अगर कोई सरकार की आर्थिक नीति निर्माताओं  को कुछ नियम बताना चाहे तो वह   इस प्रकार हो सकता है: रुपये में गिरावट स्वचालित रूप से तब रुक जाएगी जब विनिमय दर "संतुलन" तक पहुंच जाएगी, जिसे एक ऐसे परिस्थिति के रूप में परिभाषित किया जाता है, जहां व्यापार घाटा कम हो जाता है (क्योंकि रूपये में आयी गिरावट की वजह से निर्यात को बढ़ावा मिलता है और आयात में कमी आती है ) एक स्तर पर जहां इसे पूंजी प्रवाह के जरिये  वित्त पोषित किया जा सकता है (खुद को इस विश्वास से उत्साहित किया जाता है कि रूपये  की गिरावट बंद हो गई है)।

तथ्य यह है कि रुपया फिलहाल फिसल रहा है। यह केवल इस दृष्टिकोण की तरफ इशारा करता है कि इसका मूल्य संतुलन स्तर से ऊपर है; एक बार संतुलन स्तर तक पहुंचने के बाद गिरावट बंद हो जाएगी और इसलिए इसे उस स्तर तक पहुंचने की अनुमति दी जानी चाहिए। इसलिये,सरकार को मुस्तैदी से बैठना चाहिए और इस गिरावट को संतुलन तक पहुंचने की अनुमति दे देनी चाहिए।

बाज़ार में यह भरोसा कि यह बिना हस्तक्षेप से संतुलन के हालत में पहुँच जाएगा। यह बहुत ही बेतुकी बात है। इसके पीछे कुछ कारण है: अगर कोई यह सोचता है कि बिना हस्तक्षेप के संतुलन तक पहुंच जा सकता है तो वह उपभोक्ता को असहनीय कीमत वहन करने की तरफ धकेल रहा है।(अनाजों की राशनिंग करने के पीछे भी यह तर्क दिया जाता है)

इसके अलावा, इस तरह का संतुलन अस्तित्व में नहीं हो सकता है। विदेशी मुद्रा बजार के लिए, विशेष तौर पर इस मामलें में, जब इसे लागू करने की कोशिश की जायेगी तो रुपया गिरता चला जाएगाI और यह तब तक गिरेगा जब तक ऊँची आयात दरों के कारण बढ़ती महंगाई से लोगों के जीवन पर कहर न बरपने लगेI   

लोगों की जीवन परिस्थितियों के सन्दर्भ में इस तरह का एक संतुलन क्यों नहीं बन सकता इसके भी कारण हैंI मुद्रास्फीति घरेलू सामान की कीमतों को बढ़ा देती है जिससे विश्व बाज़ार में उनकी प्रतिस्पर्धात्मकता को कम कर देती हैI इसलिए, हालांकि, रुपये के मूल्यह्रास के कारण विश्व बाज़ार में घरेलू सामान की प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ जाती है (कुछ समय के लिए हम इस तर्क को मान लेते हैं और यह भी कि इससे अंततः निर्यात बढ़ेगा), उसी मुद्रास्फीति द्वारा उत्पन्न मुद्रास्फीति मूल्यह्रास उनकी प्रतिस्पर्धात्मकता को कम कर देता है।

हालांकि हम मान रहे हैं कि व्यापार घाटे पर मूल्यह्रास का प्रभाव सकारात्मक होगा, फिर भी यह प्रभाव दिखने में काफी समय लगेगाI इसलिए मूल्यह्रास की वजह से तुरंत चीज़ें बेहतर नहीं होंगीI दूसरी तरफ, मुद्रास्फीति के कारण यह उम्मीद बनी रहती है कि रुपया और भी गिरेगा। इसलिए, सट्टेबाज़ रुपये से दूर रहते हैं, जिससे इसमें और गिरावट आती है, जिससे और गिरावट की संभावना बनती है, और इससे एक कुचक्र बन जाता हैI

दूसरे शब्दों में, जब रुपया फिसल रहा है, तो कुछ भी ऐसा नहीं होता जिससे सट्टेबाज़ों को यह लगे कि हालात जल्द ही सुधरेंगेI इसके साथ ही मुद्रास्फीति की वजह से उन्हें यह लगता है कि हालात बेहतर होने में बहुत समय लगेगा और उन्हें यह भी भरोसा हो जाता है कि दूसरे सट्टेबाज़ रूपये को और भी गिराएंगेI इसलिए अवमूल्यन और मुद्रास्फीति की यह परिघटना लगातार जारी रह सकती है, और वह भी बिना रूके हुए और बहुत ही छोटे अन्तराल मेंI

इसलिए दुनिया में लगभग हर जगह विदेशी मुद्रा बाजारों को सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है (शायद अमेरिका को छोड़कर, जिसकी मुद्रा को अमूमन पर "सोने जितना विश्वसनीय" माना जाता है)। यह विशेष रूप से तीसरी दुनिया के देशों में होता है जिनकी मुद्राएँ पहले भी लंबे समय तक गिरावट की प्रक्रिया का शिकार बनी हैं। उदाहरण के लिए, सिर्फ तीन दशक पहले, अमेरिकी डॉलर का मूल्य 13 रुपये था; अब यह 72 रुपये से अधिक है। इसलिए, कोई न्यूनतम मूल्य नहीं है जिस पर कोई रुपया के स्थिर होने की उम्मीद कर सकता हो। इसी वजह से सरकारी हस्तक्षेप की अनुपस्थिति में विनिमय दर में गिरावट का कारण बनती है।

इसके अलावा एक अतिरिक्त कारक भी है। अमेरिका की सस्ती धन नीति के चलते कई भारतीय कंपनियों ने विश्व वित्तीय बाज़ारों से उधार लिया है क्योंकि वहाँ कम ब्याज़ दरे हैं। रुपए का मूल्यह्रास उनकी परिसंपत्तियों की तुलना में उनकी देनदारियाँ बढ़ा देता है और इसलिए उन्हें दिवालियेपन की ओर धकेल देता हैI और इस स्थिति का अंदेशा सट्टेबाज़ों को रुपया से दूर ले जायेगा और इसके और पतन में योगदान देगा।

नरेंद्र मोदी सरकार विदेशी मुद्रा बाज़ार और इसे प्रभावित करने वाले पेट्रो-उत्पाद बाज़ार में हस्तक्षेप करने से इंकार कर न सिर्फ लोगों की तरफ से अपना मुँह फेर रही है बल्कि उन्हें और गहरे संकट की ओर धकेल रही हैI इससे अर्थव्यवस्था को ऐसी स्थिति में भी धकेला रहा है कि उसे अंततः आईएमएफ और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बाज़ार के पास जाना होगा, जो तमाम “शर्तें” लगाकर हमें ग्रीस की ही तरह सरकारी ख़र्चे में कटौती करने के लिए मजबूर करेंगेI

हालांकि मोदी सरकार की निष्क्रियता की व्यापक निंदा हो रही है लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर किया क्या जाना चाहिए? इस स्थिति में कोई भी बुर्जुआ सरकार दो चीज़ें करेगी: एक, ब्याज़ दर को बढ़ाएगी, दूसरा, रुपये को स्थिर करने के लिए रिज़र्व बैंक द्वारा विदेशी मुद्रा भंडार का उपयोग। अगर आईएमएफ़ जाने से पहले मोदी सरकार कुछ भी करती है तो यही करेगीI लेकिन ब्याज़ दर में वृद्धि न सिर्फ मंदी जैसी स्थिति पैदा करेगी और विशेष रूप से छोटे उत्पादकों को नुकसान पहुंचाएगी बल्कि ये उपाय रुपये में गिरावट को रोकने के लिए पर्याप्त भी नहीं होंगे।

यहाँ मूलभूत समस्या यह है कि भारत के पास लंबे समय से चालू खाते में घाटा चल रहा है जो इससे पहले चिंता का कारण नहीं बना क्योंकि नव उदारवादी शासन के भीतर वित्तीय प्रवाह हमेशा वित्तपोषण के लिए पर्याप्त था; और ऐसा इसलिए था क्योंकि उन्नत पूंजीवादी देशों की तुलना में भारत की ब्याज दर अधिक थी। यह मानना कि ब्याज दर में वृद्धि करने से एक बार फिर काम बन जायेगा और हमारे भुगतान संतुलन पर कोई भी असर पड़ने से बचा जा सकेगा, यह सोच इस तथ्य को नज़रअंदाज़ करता है कि दुनिया भर में नव उदारवादी नीतियों का वर्चस्व एक अंत तक पहुँच गया हैI

नवउदारवादी नीतियों के लिए उन्नत पूंजीवादी दुनिया में अब सामाजिक समर्थन कम हो रहा हैI यह न सिर्फ इन देशों में दक्षिणपंथी पार्टियों के उभार में नज़र आ रहा है बल्कि इस तथ्य में नज़र आता है कि जहाँ भी ऐसी ताकतें सत्ता में आई हैं (मसलन अमेरिका में) वहाँ इन्हें नवउदारवादी नीतियों में मजबूरन फेरबदल करने पद रहे हैंI (चूंकि यह अधिकार वित्त पूंजी द्वारा समर्थित है, यह पूरी तरह नव-उदारवादी शासन को कभी भी खत्म नहीं करेगा)।

वास्तव में डोनाल्ड ट्रम्प यही कर रहे हैं: वह, नव उदारवाद के केंद्र, पूँजी के मुक्त प्रवाह को नहीं रोक रहे, बल्कि वह अमेरिकी कंपनियों के आर्थिक गतिविधियों को देश से बाहर ले जाने या अपने प्लांट देश के बाहर स्थित करने पर कुछ सीमित कर रहे हैं, और इन कदमों से प्रभावित पूँजीपतियों को करों में भारी छूट देकर उनकी क्षतिपूर्ति कर रहे हैंI  ट्रम्प के इन कदमों से भी ज़ाहिर हो रहा है कि नवउदारवादी वर्चस्व अपने अंत तक पहुँच चुका हैI

इससे वित्तीय हलकों में अनिश्चितता पैदा हुई है, जिससे दुनिया की तमाम देशों से रुपया वापस अमेरिका लेकर जाने की प्रवृत्ति बढ़ गयी हैI इसका भास इसी से किया जा सकता कि डॉलर का भाव लगभग सभी मुद्राओं के मुकाबले में बेहतर हो रहा हैI इस सन्दर्भ में, भारत में मंदी के माहौल में भी ऊँची ब्याज़ दरें न तो इतनी पूँजी पैदा करेंगी कि चालू खाते के घाटा पूरा किया जा सके और न रूपये के गिरते हुए दाम को रोकेंगीI

लेकिन फिर, यह पूछा जा सकता है कि क्या ऊँची ब्याज़ दर से उत्पन्न मंदी आयात को कम कर व्यापार घाटे को उस बिंदु तक नहीं पहुँचा सकती है जहाँ उसे संतुलित किया जा सके? अगर एक बार को यह बात मान भी ली जाये कि ऐसा हो सकता है तो भी यह व्यापार घाटे से निपटने का एक जन-विरोधी तरीका है।

व्यापार घाटे, मतलब हमारे आयात का हमारे निर्यात से अधिक होना, को (एम. वाई-एक्स) के रूप में लिखा जा सकता हैI जहाँ एम सकल घरेलू उत्पाद की प्रति इकाई आयात गुणांक, वाई को सकल घरेलू उत्पाद और एक्स को निर्यात करने के लिए संदर्भित करता है। ब्याज दर में वृद्धि वाई को कम करके व्यापार घाटे को कम करने का प्रयास करती है (यानी मंदी उत्पन्न करना); लेकिन इस प्रक्रिया में यह बेरोजगारी, संकट और विनाश उत्पन्न करता है।

व्यापार घाटे को कम करने का एक अधिक प्रभावी और कम जनविरोधी तरीका एम, आयात गुणांक को कम करना है। और इसे सोच-समझ के साथ आयात को कम करने के माध्यम से किया जा सकता है, यानी ऐसी चीज़ों का आयात कम करना जिससे लोगों की आजीविका पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं। अब जब कि दुनिया के अग्रणी पूंजीवादी देश के राष्ट्रपति ट्रम्प ने खुद ही घरेलु बाज़ार की सुरक्षा करना शुरू कर दिया है (अब वह दूसरों को “खुले व्यापार” के फ़ायदे नहीं सुना सकते), तो क्यों भारत भी अपने लोगों को बर्बादी से बचाने की कोशिश क्यों न करे, और साथ ही अपनी अर्थव्यवस्था को आईएमएफ़ और विश्व वित्तीय बाज़ार के सामने हाथ फ़ैलाने से बचाएI बल्कि इसकी जगह विलासिता की वस्तुओं पर नियंत्रण करे और अनावश्यक आयात में को ख़त्म करेंI 

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