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न्यूज़क्लिक पर ईडी के छापे : प्रक्रिया, जो सज़ा बन गई

“हमने जो कुछ भी किया है, उसे लेकर हम पारदर्शी हैं; सब कुछ क़ानून के मुताबिक़ किया गया है।”
प्रबीर पुरकायस्थ
फ़ोटो: सौजन्य: कारवां के लिए शाहिद तांत्रेय

9 फ़रवरी को सुबह तक़रीबन 8 बजे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने डिजिटल समाचार पोर्टल न्यूज़क्लिक से जुड़ी आठ जगहों पर एक साथ छापेमारी शुरू कर दी थी। इन जगहों में दक्षिण दिल्ली के सैदुलाजाब इलाक़े में स्थित वेबसाइट का दफ़्तर और प्रधान संपादक और संस्थापक प्रबीर पुरकायस्थ, एक अन्य संपादक प्रांजल पांडेय और संपादकीय और एकाउंट टीम के पांच कर्मचारियों के निवास स्थल शामिल थे। छह कर्मचारियों के आवासों पर मारे गये छापे उसी रात ख़त्म हो गये, जबकि वेबसाइट के दफ़्तर मे पड़ा छापा 38 घंटे से ज़्यादा समय तक जारी रहा और यह छापेमारी 10 फ़रवरी की रात को जाकर ख़त्म हुई। लेकिन, पुरकायस्थ के घर पर पड़ा छापा 113 घंटों तक चला और 14 फ़रवरी को सुबह 1.30 बजे समाप्त हुआ। न तो पुरकायस्थ और न ही उनकी साथी, लेखिका गीता हरिहरन को इस छापे के दौरान एक पल के लिए भी घर से बाहर जाने की इजाज़त दी गयी।

इस बीच, मीडिया रिपोर्टों ने ईडी के अधिकारियों के हवाले से कहा कि ये छापे विदेशी धन और मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपों से जुड़े थे। 15 फ़रवरी को वेबसाइट की  तरफ़ से जारी एक बयान में कहा गया, “हम क़ानूनी प्रक्रिया की शुचिता का सम्मान करते हैं और मीडिया ट्रायल में शामिल नहीं होना चाहते हैं। हम इस बात की भी पुष्टि करना चाहते हैं कि मीडिया के एक वर्ग में हमारे ख़िलाफ़ लगाये जा रहे चुनिंदा आरोप तथ्यहीन या क़ानूनी आधार पर भ्रामक और बेबुनियाद हैं। हम उचित मंच में इन संबद्ध आरोपों का जवाब देंगे।”

‘द कारवां’ के मल्टीमीडिया रिपोर्टर शाहिद तांत्रेय ने छापे के बाद पुरकायस्थ से बातचीत की थी। उन्होंने न्यूज़क्लिक, इसके वाम दलों के साथ जुड़ाव और इसके मुख्य फ़ोकस, मीडिया आपातकाल और छापे के सिलसिले में बात की। उन्होंने तांत्रेय को बताया, “हमने जो कुछ भी किया है, उसे लेकर हम पारदर्शी हैं; सब कुछ क़ानून के मुताबिक़ हुआ है।”

शाहिद तांत्रेय: क्या आप हमें न्यूज़क्लिक और पत्रकारिता के अपने सफ़र के बारे में बता सकते हैं ?

प्रबीर पुरकायस्थ: मैं पत्रकारिता के क्षेत्र से नहीं हूँ; मैंने लेख लिखे हैं, बस पत्रकारिता से इतना ही जुड़ाव है। मैं विभिन्न मुद्दों पर बहुत सारे लेख लिखता हूं, लेकिन मैं पत्रकार नहीं हूं। ऐसे में मैं न्यूज़क्लिक जैसा कुछ क्यों शुरू करूंगा? यह एक ऐसा क़ानूनी सवाल है, जिसे पूछे जाने की ज़रूरत है और मेरे लिए इसका जवाब देना जरूरी है। इसकी शुरुआत मेरे इस एहसास के साथ हुई कि हम, हमारी पीढ़ी इस सच्चाई को लेकर इस मौक़े को खोते जा रहे हैं कि यह पीढ़ी, आपकी पीढ़ी, मेरे बेटे (प्रतीक) की पीढ़ी, सबके सब उस बारे में नहीं जान पा रहे हैं कि इस समय दुनिया में क्या कुछ घट रहा है, इन घटनाओं को किस तरह देखना है, इस पर प्रिंट और दूसरे मीडिया से अब ज़्यादा कुछ पता नहीं चलता है। विषय वस्तु कुछ ऐसा होती है, जो जानकारी या समझ हासिल करने का उनका प्राथमिक तरीक़ा नहीं है।

आपकी पीढ़ी हमारी पीढ़ी के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा विज़ुअल पर निर्भर रहने वाली पीढ़ी है, और इसके पीछे एक कारण है। जब हम बच्चे थे, तो हमारी बाहरी दुनिया छपी हुई किताबों के ज़रिये नज़र आती थी, यहां तक कि कार्टून और कॉमिक किताबें भी दुर्लभ थीं। हमारी प्राथमिक सूचना के स्रोत ये छपी हुई किताबें रही हैं और दुनिया की समझ इन्हीं किताबों से बनी है। आपकी पीढ़ी को तो हमने आपके पढ़ने से पहले ही टेलीविज़न के सामने बैठा दिया था। बतौर पीढ़ी आप लोग बहुत ज़्यादा दृश्यगत साक्षर हैं।

इसीलिए, मैंने फ़ैसला किया कि मौजूदा पीढ़ी को खोने से पहले हमें उस तरीक़े को अपना लेना चाहिए, जो आपके वैश्विक नज़रिये को बनाने का प्राथमिक तरीक़ा है। इसके पीछे का विचार यही था कि अगर आप आज की घटनाओं को बताना चाहते हैं, और अगर आप यह चाहते हैं कि नौजवान हमारी बात सुनें, तो हमें एक ऐसे ख़ास माध्यम की ज़रूरत होगी, जिसमें वे सहज हों, और जिसके लिए छपी हुई किताबें अच्छी भूमिका नहीं निभाने जा रही थीं। इस तरह न्यूज़क्लिक की शुरुआत हुई।

मैंने कहा था कि मुझे छोटी शुरुआत करनी चाहिए, कुछ छोटे-छोटे प्रयोग करने चाहिए, ताकि यह बहुत महंगा न हो। मेरे पास उस समय (2009 के आसपास) काफी उच्च स्तर की कंसल्टेंसी का काम था। मैंने फ़ैसला किया कि मैं अपने वेतन के एक हिस्से का इस्तेमाल बेसमेंट के किराये का भुगतान करने और उस छोटे से कमरे को बनाने के लिए करूंगा, जो हमारा स्टूडियो होता। प्रतीक ने इसे संभाला, और लाइटिंग और साउंड से जुड़े मसले को किस तरह हल किया जाए, इसका फ़ैसला उन्होंने ही किया। हमारी प्रमुख समस्या यही थी कि गूंजती आवाज़ से कैसे निजात पायी जाये; उतनी सी जगह के बीच चीज़ों को कैसे व्यवस्थित किया जाये, और इसी तरह के और भी कई मसले थे। और इस तरह हमने अपने सफ़र की शुरुआत की। उस समय, अगर हमें 500 से 1000 व्यूज़ भी मिल जाते थे,तो हम बहुत अच्छा महसूस करते थे।

मुझे यह भी एहसास हुआ कि इस तरह के स्पेस पर वामपंथी किसी हद तक कमज़ोर हैं। इसलिए, हमें इस स्पेस पर वाम की मौजूदगी को मज़बूत करने की ज़रूरत है। मुमकिन है कि आज का यह सच नहीं हो। लेकिन, जिस समय की मैं बात कर रहा हूं, उस समय तो उनके लिए इस तरह का स्पेस नहीं था। इस तरह, यह एक अलग ही तरह की पहल थी, और वह यह थी कि हमें वामपंथियों को इस प्रकार की तकनीकों के बारे में शिक्षित करने और इस तरह के स्पेस के प्रति जागरूकता लाने की ज़रूरत है।

शाहिद तांत्रेय: क्या यह पहल दक्षिणपंथी और उनका मीडिया पर नियंत्रण से प्रेरित थी ?

प्रबीर पुरकायस्थ: नहीं-नहीं, उस समय (दक्षिणपंथी मीडिया) अभी-अभी एकदम से उभरती हुई परिघटना थी, मैं 12 से 13 साल पहले की बात कर रहा हूं। बुनियादी तौर पर इंटरनेट पर (न्यूज़क्लिक) उसी का एक जवाब था। वैसे भी इंटरनेट इकोसिस्टम पर गूगल और फ़ेसबुक का डिजिटल एकाधिकार था, ये कुछ ऐसे विषय थे, जिन्हें मैं बतौर एक प्रौद्योगिकी विश्लेषक पढ़ रहा था। मैं तो कहूंगा कि इसमें दक्षिणपंथियों का दखल 2010 के बाद से होना शुरू हुआ है। जब हमने न्यूज़क्लिक की शुरुआत की थी, उस समय दक्षिणपंथी अभी भी वैसी ताक़त नहीं बन पाये थे, जो कि आज बने हुए हैं। क्योंकि वे फ़ेसबुक और ट्विटर पर चले गये थे, फिर वे ही उनके प्राथमिक मंच बन गये थे। लेकिन, मैं तब भी वीडियो प्लेटफ़ॉर्म के साथ चल रहा था और यह उनका प्राथमिक प्लेटफॉर्म नहीं है। उनका प्राथमिक मंच आज भी फ़ेसबुक, व्हाट्सएप और कुछ हद तक ट्विटर ही है।

शाहिद तांत्रेय: न्यूज़क्लिक की रिपोर्टिंग और उसका फ़ोकस बुनियादी तौर पर लोगों से जुड़े मुद्दों पर है। इस सिलसिले में 113 घंटे की इस छापेमारी को आप कैसे देखते हैं?

प्रबीर पुरकायस्थ: भारतीय पत्रकारिता के साथ बढ़ती समस्या यह है कि ज़्यादातर भारतीय प्रेस आंदोलनों पर रिपोर्टिंग नहीं करते हैं। अगर मज़दूरों की हड़ताल होती है, तो जो एकमात्र मुद्दा सामने आता है, वह है ट्रैफ़िक जाम, और वह भी शहर से सम्बन्धित घटनाओं वाले तीसरे पेज पर। मज़दूर शहर में क्यों आये थे, उन्होंने हड़ताल क्यों की, उनकी क्या-क्या मांगें थीं, इस तरह के मुद्दों पर चर्चा नहीं होती है। यह कुछ ऐसा नहीं है जो पहले से रहा हो- पहले तो बक़ायदा मज़दूरों की एक बीट हुआ करती थी, किसानों की बीट हुआ करती थी, लेकिन अब वे बीट मौजूद नहीं हैं। अब तो किसानों के बीट के बजाय, कृषि-जिंस बीट होती है। कृषि को भी जिंस-मूल्य के मुद्दों तक ही सीमित कर दिया गया है। कामगारों की बीट अब उद्योग के बारे में बात करती है, और यह शेयर बाज़ारों के बारे में बताती है।

इस (मीडिया कवरेज) पर तो अब वह ताक़त हावी हो गयी है, जो विज्ञापन दे सकती है; विज्ञापनदाता आज ख़बरों की सामग्री देते हैं। जन आंदोलनों और लोगों से जुड़े मुद्दों को ख़ास तौर पर मुख्यधारा के मीडिया से ग़ायब कर दिया गया है। इसलिए, न्यूज़क्लिक का काम उसी चीज़ को वापस लाना था, यही वजह है कि हमने वीडियो के इस प्रारूप का चुनाव किया। क्योंकि हमारा ज़्यादा से ज़्यादा ध्यान आंदोलनों पर ही है, यही कारण है कि न्यूज़क्लिक मौजूदा प्रशासन की आंख की किरकिरी बना हुआ है।

शाहिद तांत्रेय: न्यूज़क्लिक ने किसानों के चल रहे विरोध को बड़े पैमाने पर कवर किया है और आपके कई पत्रकार इस विरोध स्थल और महापंचायतों के आयोजन स्थल पर मौजूद रहे हैं। क्या आपको लगता है कि विरोध के कवरेज और इस छापेमारी के बीच कोई सम्बन्ध है?

प्रबीर पुरकायस्थ: यह एक ऐसा निष्कर्ष है, जिसे दूसरों को निकालना है। वे जो सोचते हैं, मेरा उससे कुछ लेना-देना नहीं है। यह तो आपको देखना है, जो कुछ हो रहा है, उसे लेकर निष्पक्ष रूप से अपना निष्कर्ष निकालें।

शाहिद तांत्रेय: क्या आप पिछले कुछ दिनों पड़े छापे और घटी घटनाओं के बारे में बता सकते हैं? आपको क्या लगता है कि ऐसा क्यों हुआ?

प्रबीर पुरकायस्थ: छापे तो उस ईमेल में आकर ख़ुद ही अटक गये, क्योंकि मैंने अपने ईमेल कभी डिलीट ही नहीं किये थे। मेरे पास बड़ी संख्या में ईमेल हैं, शायद मेरे जीमेल खाते में तीन लाख से ज़्यादा ईमेल हैं। देर तक चली उस छापेमारी की यही असली वजह थी; उन्हें इन ई-मेल को डाउनलोड करने में बहुत समस्याएं हुईं थीं। हालांकि, उन्होंने तो यही कहा है कि मैंने उन्हें अपना संचार उपकरण और अपना लैपटॉप ज़ब्त नहीं करने दिया, लेकिन हक़ीक़त यह है कि मेरा लैपटॉप, मेरा टैबलेट और मेरे दोनों फ़ोन, सबकुछ वे अपने साथ ले गये। मेरे पास इस समय एक भी फ़ोन नहीं है।

हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि जो भी अधिकारी आये थे, वे नेक इरादों के साथ आये हों। उन्होंने मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया, लेकिन भारत में तो यह प्रक्रिया ही सज़ा बन जाती है। यह प्रक्रिया अभी जारी है और यह बतौर एक संगठन, हमारे साथ यह प्रक्रिया लम्बे समय तक चलने वाली है।

ऐसा क्यों हुआ, यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब आप लोगों को देना है, क्योंकि उस पर मुझे जो कुछ कहना है, वह तो कहने ही जा रहा हूं। मुझे तो यक़ीन है कि यह उस रिपोर्टिंग के चलते ही हुआ है, जिस तरह की रिपोर्टिंग हम करते हैं, हालांकि प्रवर्तन निदेशालय यह दावा कर सकता है कि ऐसा दूसरे कारणों से हुआ है। हमारे वित्तीय निवेशों के बारे में सारी जानकारी, लेनदेन के सारे दस्तावेज़ सार्वजनिक हैं। सरकार की वेबसाइटों पर हमारा हर विवरण उपलब्ध है। हमने जो कुछ किया है, उसे लेकर हम पारदर्शी हैं; सब कुछ क़ानून के मुताबिक़ हुआ है।

हमारे ऊपर हर दिन कोई न कोई नया आरोप लगता ही रहता है। लेकिन,यह हमारा काम नहीं है कि हम हरेक आरोप का बचाव करते रहें। मैं उन आरोपों का जवाब तो बिल्कुल नहीं देने जा रहा हूं,जिसे लेकर हमें लगता है कि पता नहीं उसका स्रोत क्या है। कुछ मीडिया प्लेटफ़ॉर्म का दावा है कि यह ईडी से आ रहा है। मैं इसका जवाब इसलिए नहीं देने जा रहा हूं, क्योंकि यह एक ऐसी चीज़ है, जो हमें पूरी तरह से उलझाये रखेगी और इससे हम वास्तव में जो करना चाहते हैं, उससे दूर हो जायेंगे।

शाहिद तांत्रेय: इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में बताया गया है कि ईडी के छापे "एफडीआई के रूप में कथित रूप से कुल 30.51 करोड़ रुपये के वर्गीकृत कुछ फंड सहित" विदेशी पैसे से सम्बन्धित थे। क्या आप जवाब दे सकते हैं कि ये फ़ंड क्या हैं और ये आपके पास कैसे आये ?

प्रबीर पुरकायस्थ: जो भी निवेश आये हैं, वे कंपनी की बैलेंस शीट पर सार्वजनिक हैं और यह भारतीय रिज़र्व बैंक के ज़रिये आये हैं। इस समय हमारी आय का 26 प्रतिशत तक विदेशी निवेश डिजिटल प्लेटफ़ॉर्मों में क़ानूनी माना जाता है। हालांकि हमारा विदेशी निवेश उससे काफ़ी कम है, यह तक़रीबन नौ प्रतिशत है। किसी भी मामले में इसे लेकर कुछ भी ग़ैर-क़ानूनी नहीं था, क्योंकि तब तक (डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म में एफ़डीआई पर कैप सितंबर 2019 में लागू किया गया था) डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म में विदेशी निवेश पर कोई रोक नहीं थी। ऐसे में मुद्दा क्या है, मुझे समझ में नहीं आ रहा है? यह मुद्दा क्यों उठाया जा रहा है,यह भी समझ से बाहर है।

दूसरी बात यह है कि हमारा मूल राजस्व मॉडल यह रहा है कि हम विदेशों में अच्छी गुणवत्ता वाला कंटेंट यानी विषय-वस्तु बेचते हैं। एक खास प्लेटफ़ॉर्म इसे हमसे ख़रीदता है और इसे वह वितरित कर देता है। सभी तरह के लेनदेन एकदम सामने हैं, रिटर्न दाखिल किये गये हैं। कंपनियां ऐसे ही कारोबार करती हैं, उनके पास पूंजी होती है और उनके पास राजस्व होता है। सवाल है कि इस तरह का व्यवसाय करना अपराध क्यों माना जाता है, जो पूरी तरह से क़ानूनी हो? हम राजस्व पैदा कर पाने में सक्षम हैं और हमने कुछ निवेश भी हासिल किये हैं, तो फिर इसे एक समस्या क्यों माना जा रहा है? हमने जो कुछ भी किया है, उसमें क़ानून का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है और अगर इस तरह का कोई मामला उठाया जाता है, तो मुझे यक़ीन है कि हम कानून की किसी भी अदालत में अपने इस क़दम को सही साबित कर सकते हैं।

शाहिद तांत्रेय: आप इस प्लेटफ़ॉर्म पर किस तरह की विषय-वस्तु बेचते हैं?

प्रबीर पुरकायस्थ: बुनियादी पत्रकारिता और अंतर्राष्ट्रीय समाचार सामग्री। वह चीज़, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ग़ायब है, वह है आपकी समाचार सामग्री, आपके पास जो कुछ सामग्री है, वह एपी (एसोसिएटेड प्रेस), रॉयटर्स, एएफ़पी (एजेंस फ़्रांस-प्रेस) की तरफ़ से मुहैया करायी जाती है, इसका मतलब पश्चिम के दर्शकों के लिए है और इसकी सामग्री बहुत हद तक पश्चिम केंद्रित होती है। वह सामग्री हमारे हित में नहीं है। पश्चिम की नज़र तीसरी दुनिया की तरफ़ तभी जाती है, जब चक्रवात, प्राकृतिक आपदा, तख़्तापलट जैसी घटनायें घटती हैं, पश्चिम के लिए यही ख़बर है, अन्यथा कोई ख़बर ही नहीं है।

जनांदोलन; जिन समस्याओं का सामना आम लोग कर रहे होते हैं; ये वे समस्यायें, जो शक्तिशाली देशों के मुक़ाबिल हैं, ये ही वे चीज़ें हैं, जिन्हें हम कवर करना चाहते हैं। जब प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया का गठन किया गया था, तो इसके गठन के पीछे का एक कारण यह था कि यह एक ऐसा दृष्टिकोण अपनायेगा, जो पश्चिमी मीडिया से स्वतंत्र होगा। अगर हम पश्चिमी मीडिया पर नज़र डालें, तो तीसरी दुनिया वहां पूरी तरह से एक आपदा थी। असल में उन दिनों भारत को आर्थिक और वित्तीय रूप से संकटग्रस्त एक ऐसे देश के तौर पर देखा जाता था, जो कभी भी ख़ुद का पेट भर पाने में सक्षम नहीं होगा।

ऐसे में आप पश्चिम के चश्में से ख़बरों को कैसे नहीं देख पायेंगे, यही वह बात है, जिससे इतर हम करने की कोशिश कर रहे थे। इस तरह की ख़बरों के लिए हर जगह लोगों के बीच एक प्रतिक्रिया है और यही हमारा राजस्व मॉडल है। इस समय, सरकार के मुताबिक़ वह इस तरह के कारोबार को बढ़ावा दे रही है, विदेशी निवेश और ज़्यादा से ज़्यादा निर्यातों को बढ़ावा दे रही है। फिर, हम पर निवेश हासिल करने का आरोप क्यों लगाया जा रहा है?

शाहिद तांत्रेय: क्या आप इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में उल्लेखित- 9.59 करोड़ रुपये का पहली किस्त और 20.92 करोड़ रुपये की दूसरी किस्त के लेनदेन का ब्योरे दे सकते हैं? क्या ये मासिक भुगतान थे?

प्रबीर पुरकायस्थ: मैं आंकड़े देने की स्थिति में इसलिए नहीं हूं, क्योंकि मुझे आंकड़ों की जांच करनी होगी। लेकिन, हां एक राशि एकमुश्त निवेश के तौर पर आई। दूसरी राशि मासिक बिलिंग और मासिक आय है, और मुझे लगता है कि हमारे पास तीन महीने का बिलिंग चक्र है- मुझे लगता है कि यह तक़रीबन दो साल की अवधि के लिए है।

शाहिद तांत्रेय: कुछ मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि एक महीने पहले दिल्ली पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा ने न्यूज़क्लिक के ख़िलाफ़ पहली सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की थी। क्या आपके पास उस एफ़आईआर की कॉपी है?

प्रबीर पुरकायस्थ: हमें तो यह भी नहीं पता है कि कोई एफ़आईआर भी है।

शाहिद तांत्रेय: गौतम नवलखा का न्यूज़क्लिक के साथ क्या सम्बन्ध है, क्योंकि कुछ मीडिया रिपोर्टों ने इस छापे को उनके साथ भी जोड़ने की कोशिश की है? (गौतम नवलखा एल्गार परिषद मामले में आरोपी पत्रकार हैं, और अप्रैल 2020 से जेल में हैं)

प्रबीर पुरकायस्थ: गौतम एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। वह एसोसिएट संपादक थे और फिर बेदाग़ साख वाली पत्रिका, ईपीडब्ल्यू (इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल विकली) के साथ बतौर परामर्श संपादक कार्यरत थे। मैं गौतम को लंबे समय से जानता हूं। हमने कुछ सॉफ़्टवेयर कंपनियों में एक साथ काम किया था।

वह न्यूज़क्लिक में क्यों थे? वह एक पत्रकार हैं और पत्रकारिता में उनका एक विशिष्ट करियर है। क्या ईपीडब्ल्यू से पूछा गया है कि गौतम इतने लंबे समय से वहां क्यों थे? आख़िर हमसे ही इसके बारे में पूछताछ क्यों की जा रही है? हमारे पास तो दिल्ली विश्वविद्यालय (एल्गार परिषद मामले से जुड़े) के प्रोफ़ेसर भी हैं, क्या उन्होंने इसे लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय में छापेमारी की है ?

किसी का किसी विचारधारा में यक़ीन रखना उसका मौलिक अधिकार होता है। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि अगर किसी व्यक्ति को एक निश्चित विचारधारा में यक़ीन हो सकता है, तो उसे काम करने की इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए। अगर उस यक़ीन के परिणामस्वरूप आप ऐसे काम करते हैं, जो कुछ क़ानूनों का उल्लंघन करते हैं, तो निश्चित रूप से आप पर क़ानून की अदालत में फ़ैसला किया जा सकता है, और अगर अदालत सहमत है, तो दंडित किया जायेगा। हक़ीक़त तो यही है कि सुप्रीम कोर्ट ने कई बार इस मुद्दे पर फ़ैसला भी दिया है कि एक निश्चित विचारधारा में यक़ीन होने का मतलब यह नहीं है कि किसी व्यक्ति को इस यक़ीन की बुनियाद पर दोषी ठहराया जाये। इसे कुछ दूसरी तरह से समझना होगा और ऐसा ही कुछ मामला (गौतम का) है। इसलिए, यह नहीं हो सकता कि मैं इस मामले को पहले ही तय कर लूं, जिसे सरकार ने साबित ही नहीं किया है, और किसी शख़्स के ऊपर सिर्फ़ इसलिए तोहमत लगा दिया जाय क्योंकि वह किसी विचारधारा में यक़ीन करता है।

शाहिद तांत्रेय: मेनस्ट्रीम मीडिया आमतौर पर क्रोनी कैपिटलिज्म के बारे में रिपोर्टिंग नहीं करता है, लेकिन न्यूज़क्लिक ने इस पहलू को कवर किया है, और आपका अडानी समूह के साथ मुकदमा भी चल रहा है। क्या इस क़दम को आप मीडिया का मुंह बंद करने की कोशिश के रूप में देखते हैं?

प्रबीर पुरकायस्थ: हमारे पास उस मामले में एक न्यायाधीश का आदेश है कि इस मामले की सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं की जा सकती है, इसलिए हम अडानी समूह या अडानी क्या कर रहे हैं, उस बारे में बोलने की स्थिति में नहीं हैं। (सितंबर 2020 में अडानी पॉवर राजस्थान लिमिटेड ने दो रिपोर्टों के लिए न्यूज़क्लिक के ख़िलाफ़ आपराधिक और दीवानी मुकदमे दायर किये थे, और 100 करोड़ रुपये के नुकसान की भरपाई की मांग की थी। मामले की कार्यवाही शुरू होनी बाक़ी है, लेकिन अहमदाबाद की एक अदालत ने वेबसाइट को अडानी पर आगे की रिपोर्टिंग करने से प्रतिबंधित कर दिया है)। व्यापक समस्या तो यही है कि हमेशा कारोबारी घरानों और उन लोगों के बीच एक अनुचित लड़ाई रही है, जो इन बड़े व्यावसायिक घरानों को कवर करना चाहते हैं।

बड़े व्यावसायिक घरानों के पास पर्याप्त पैसे हैं और क़ानूनी विशेषज्ञों के लिहाज़ से उनके पास ताक़त है, जो लोगों के ख़िलाफ़ एक न्यायिक क्षेत्राधिकार से दूसरे न्यायायिक क्षेत्राधिकार में मामले-दर-मामले दर्ज कर सकते हैं। और अगर आप मामले दर्ज करते हैं, तो मीडिया घराने इससे लड़ेंगे। यह पूरी प्रक्रिया वही है, जिसे लड़ाई का क़ानूनी हथियार कहा जाता है, जहां आप क़ानून का इस्तेमाल आलोचना को ख़त्म करने के साधन के तौर पर करते हैं। वास्तव में मौजूदा परिदृश्य यही है, और यही हमेशा से बड़ी पूंजी की रणनीति भी रही है।

शाहिद तांत्रेय: आप आपातकाल के दौरान एक साल तक जेल में रहे थे। क्या आप हमे अपने अनुभवों को विस्तार से समझा सकते हैं?

प्रबीर पुरकायस्थ: मैं पश्चिम बंगाल के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में था। उस समय वहां नक्सली आंदोलन ज़ोरों पर था, लेकिन सीपीएम [भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)] भी उस समय बेहद मज़बूत थी। जैसा कि हम जानते हैं, उस समय असल में इस पार्टी के रिश्ते नक्सलियों के साथ ठीक नहीं चल रहे थे। यह सबको पता है कि दोनों के बीच उस समय शारीरिक झड़पें (physical clashes) भी होती थीं। इसे जिस तरह सुलझाया गया, वह काफ़ी मुश्किल था और मुझे नहीं लगता कि दोनों पक्ष इसे बहुत अच्छी तरह अंजाम दे पाये।

लेकिन, उस समय बहुत बड़ी ताक़तें काम कर रही थीं। न सिर्फ़ भारत, बल्कि दुनिया भर के विभिन्न हिस्सों में बड़े पैमाने पर आंदोलन चल रहे थे। पेरिस में छात्रों का आंदोलन चल रहा था (मई 1968 में छात्रों का वह विरोध प्रदर्शन फ़्रांस में नागरिक अशांति का कारण बना, जो पिछले तक़रीबन दो सालों से चल रहा था), वियतनाम में (1950 से 1970 के दशक तक वियतनाम में संयुक्त राज्य अमेरिका के युद्ध के ख़िलाफ़) आंदोलन चल रहा था,  जिसने हमारी पूरी पीढ़ी को प्रेरित किया था। सच्चाई तो यही है कि अगर आज भी आप पश्चिम देशों में जाते हैं, तो वहां के लोग अब भी वियतनाम पीढ़ी के बारे में बात करते मिलेंगे। हम 60 के दशक की पीढ़ी थे, और यही वह समय था, जब मेरे लिए वाम राजनीति का उदय हुआ। और मैं वामपंथी आंदोलन का हिस्सा बन गया, पहले मैं पश्चिम बंगाल में था, फिर कानपुर और इलाहाबाद आ गया। इन्हीं जगहों पर मैंने कारोबारियों के आंदोलन (trade-wing movement) और छात्र आंदोलन, दोनों में भाग लिया। यहीं से मेरा छात्र राजनीति में प्रवेश हुआ। और यह जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली) में जाकर ख़त्म हुआ, जहां मैंने स्कूल ऑफ कंप्यूटर एंड सिस्टम साइंसेज में दाखिला लिया। मैं अकेला छात्र था। एक फेलोशिप थी और वह फेलोशिप मुझे मिल गयी।

आपातकाल अभी-अभी घोषित ही हुआ था और हम एक छात्र के निष्कासन का विरोध कर रहे थे। कुलपति ने कुछ लोगों को उनकी राजनीति के चलते प्रवेश सूची से बाहर कर दिया था और ऐसा सरकार के निर्देश पर किया गया था। वो स्याह समय था। उस समय जो छात्रा, छात्र संघ की बैठक की अध्यक्षता कर रही थीं, वह मेरी मंगेतर थीं, तीन दिन की हड़ताल के कारण उन्हें विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया था। हड़ताल के दूसरे दिन मेनका गांधी, मुझे जहां तक याद है कि स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज़, जर्मन सेंटर में अपनी कक्षा में भाग लेने आयी थीं। उस समय छात्र संघ के अध्यक्ष, वही डीपी त्रिपाठी थे, जिनका हाल ही में निधन हो गया है और जो अपने निधन के समय तक राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के महासचिव थे, उनके साथ मैं और इंद्राणी मजुमदार, जो जेएनयू के छात्र भी थे- हम तीनों ने मेनका से कहा कि आपको कक्षा में भाग लेने नहीं जाना चाहिए, क्योंकि आपको इसलिए ऐसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि एक छात्र को निष्कासित कर दिया गया है और सभी छात्र इस मामले में एकजुटता दिखाते हुए कक्षा में नहीं जा रहे हैं। वह वापस चली गयीं।

उस समय, संजय गांधी दिल्ली के युवराज थे और एक पीएस भिंडर थे, जो डीआईजी (डिप्टी इंस्पेक्टर-जनरल) थे। भिंडर इमरजेंसी की एक जानी-मानी हस्ती हैं। हर सुबह वह संजय गांधी से मिलने जाते थे और इसका विवरण शाह आयोग की रिपोर्ट (28 मई 1977 को केंद्र सरकार द्वारा स्थापित आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों की जांच करने के लिए गठित आयोग) में दिया गया है। संजय ने साफ़ तौर पर उन्हें झिड़की देते हुए कहा था, “यह सब क्या है? मेरी पत्नी जेएनयू में अपनी कक्षा में शामिल नहीं हो सकीं और आप कहते हैं कि दिल्ली में सब कुछ सामान्य है। ऐसा कैसे हो सकता है?"

ऐसे में भिंडर विश्वविद्यालय चले आये, त्रिपाठी वहां से (कहीं और) निकल गये थे और उन्होंने मुझे गिरफ़्तार कर लिया। यह बड़ी ख़बर बन गयी, क्योंकि जेएनयू से जुड़े बहुत सारे अंतर्राष्ट्रीय संबंध थे- स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़, स्कूल ऑफ़ लैंग्वेजेज़, दूतावासों के भी वहां कनेक्शन थे। यह अंतर्राष्ट्रीय समाचार बन गया कि एक छात्र को दिन दहाड़े कैंपस से उठा ले जाया गया है,क्योंकि वे सादे कपड़ों में आये थे। मुझ पर आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम के तहत आरोप क़ायम किया गया और तिहाड़ ले जाया गया। मैं छह महीने तिहाड़ जेल और छह महीने आगरा जले में रहा। तिहाड़ में मैं अरुण जेटली और नानाजी देशमुख और कई ऐसे लोगों के साथ एक ही वार्ड में था, जिन्हें बाद में लोगों ने भुला दिया।

हमने एडीएम जबलपुर केस के तौर पर मशहूर एक याचिका दायर की थी (एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामला बंदी प्रत्यक्षीकरण और इसके निलंबन से सम्बन्धित एक ऐतिहासिक फ़ैसला है)। मेरा वकील आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (MISA) के कई मामलों को संभाल रहा था, बाद में वह विधि आयोग का हिस्सा बन गया, और दरअस्ल वह आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) का आदमी था। मुझे लगता है कि मैं उन बहुत कम लोगों में से एक था, जिन्हें अदालत से कुछ राहत मिली थी- मुझे अपनी मास्टर डिग्री के वाइवा के लिए इलाहाबाद ले जाया गया था, क्योंकि मैंने अभी-अभी अपनी मास्टर डिग्री के लिए थीसिस जमा की थी- हालांकि ट्रेन में ले जाते हुए मेरे हाथों में हथकड़ियां लगी हुईं थीं। और मैं पुलिस की देखरेख में हथकड़ियों में ही वापस आया था। जिन लोगों ने मुझे उस हालत में देखा होगा, उन्होंने मुझे बहुत ख़तरनाक अपराधी समझा होगा। लेकिन, यह इकलौती यात्रा थी, जब मैंने अनारक्षित डिब्बे में सफ़र किया था और इसमें कोई समस्या भी नहीं हुई थी। मैंने जिस पल ट्रेन के डिब्बे में प्रवेश किया, वह डिब्बा तुरंत खाली हो गया और मेरे पास एक बर्थ थी।

शाहिद तांत्रेय: चूंकि आपने इमरजेंसी देखी है, क्या आपको उस समय और इस समय के बीच कुछ समानतायें दिखती हैं?

प्रबीर पुरकायस्थ: यह एक ऐसा सवाल है,जो मुझसे अक्सर पूछा जाता है और इसमें समानतायें तो हैं, लेकिन असमानतायें भी हैं। यह सच है कि उस समय प्रशासन के पास ऐसी शक्तियां थीं, जिनके ज़रिये प्रेस का मुंह बंद कर दिया गया था। प्रेस वैसा कुछ नहीं लिख सकता था, जैसा कि वह चाहता था और जो कुछ भी वह लिख रहा था, उसे सेंसर के लिए जमा करना होता था। इन दबावों के तहत संचालित इंडियन एक्सप्रेस ने तब भी अपनी सत्यनिष्ठा बनाए रखी थी, और छोटे-छोटे ऐसे कई संगठन थे, उनमें सेमिनार नामक एक पत्रिका भी थी, जिसे रोमेश थापर की तरफ़ से चलाया जा रहा था, इन सबने अपनी सत्यनिष्ठा को क़ायम रखा हुआ था। वे सरकारी ग़ुलाम नहीं हो पाये थे या सरकार का दुष्प्रचार नहीं कर पाये थे, या फिर वह नहीं कर पाये, जिसे स्टेनोग्राफ़र पत्रकारिता कहा जाता है, यानी डिक्टेशन ले लो और इसे अपने ख़ुद के समाचार आइटम के तौर पर पेश कर दो, जिसे कि आप इस समय होते देख रहे हैं। लेकिन,सत्यनिष्ठा को क़ायम रख पाने वाली पत्रकारिता तादाद में बहुत थोड़ी थी और बिरले थी। और तब भी जो कुछ वे कर सकते थे, उसकी एक सीमा थी।

यह सब ज़ोर-ज़बरदस्ती से कायम था; भारत की सुरक्षा (1915 का अधिनियम) की आड़ में आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम(MISA) के तहत विभिन्न प्रेस स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया था। एक ऐसी पूरी की पूरी क़ानूनी संरचना थी, जिसका इस्तेमाल लोगों की आवाज़ को दबावने के लिए किया जाता था, विरोध प्रदर्शन की इजाज़त नहीं थी। इसके पीछे का विचार यह था कि आंदोलन ख़तरनाक होते हैं; प्रशासन को सभी अधिकार दिया जाये और वे आपके लिए तमाम चीज़ें करेंगे। यह एक प्रकार से सरकार का माई बाप वाला मॉडल था।

यह भी सच है कि भारतीय मध्यवर्ग शुरुआत में आपातकाल का विरोधी नहीं था, क्योंकि भारतीय मध्यवर्ग की सहानुभूति उन तानाशाही सरकारों के प्रति थी। उन्हें लगता था कि इस देश के ग़रीब लोग बहुत ज़्यादा घमंडी (uppity) हो रहे हैं और अगर मध्यम वर्ग का कोई बड़ा आदर्श नेता होता, तो देश में सब कुछ बहुत बेहतर होता। एक ऐसा छुपा हुआ आकर्षण था, जिसे एक मज़बूत नेता, एक सैन्य शासन, तानाशाही की ज़रूरत के सिलसिले में मध्यम वर्ग के ड्राइंग रूम में सुना जा सकता था। लेकिन, जब आपातकाल लागू हुआ, तभी मध्यम वर्ग महसूस कर पाया कि किसी कांस्टेबल की ताक़त उनके ख़ुद के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा थी। लेकिन, उन्होंने इससे पहले जिन विशेषाधिकारों का इस्तेमाल किया था, इस समय राज्य के किसी भी अधिकारी के ख़िलाफ़ होने की स्थिति में वे उनका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे थे।

जब श्रीमती (इंदिरा) गांधी को लग गया कि वह सुरक्षित हैं, तो उन्होंने चुनावों की (18 जनवरी 1977) घोषणा कर दी, यह लोकतंत्र की फिर से बहाली थी (हालांकि 21 मार्च 1977 को आपातकाल आधिकारिक तौर पर ख़त्म हो गया। इंदिरा की कांग्रेस वह चुनाव हार गयी और जनता पार्टी की तरफ़ से नामित मोरारजी देसाई, भारत के पहले ग़ैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने)। वे भारतीय, जो (इमरजेंसी) के दौरान बहुत निष्क्रिय और आज्ञाकारी दिख रहे थे, उन्होंने आपातकाल ख़त्म होते ही अपनी सच्ची भावनाओं को सामने रख दिया। श्रीमती गांधी और सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान के लिए भी यह एक तरह का झटका था कि लोग खुलकर जो बातें नहीं कह सकते, इसका मतलब यह नहीं होता कि वे उन्हें स्वीकार भी कर रहे होते हैं।

(आपातकाल) कुछ ऐसा था, जिसमें सरकार का समर्थन करने वाला कोई ठोस संगठित बल नहीं था और यह कुछ ऐसा था, जो प्रशासनिक मशीनरी की तरफ़ से ऊपर से थोपा गया था, यह आपातकाल और इस दौर के बीच का एक फ़र्क़ है। छात्र परिषद, यूथ कांग्रेस, ये दोनों उस गिरोह के साथ ज़रूर आ मिले थे, जिसे बाद में हमने "संजय गांधी ग़ुंडा ब्रिगेड" कहा था, इन्हें छोड़कर धरातल पर अधिकारों को ख़त्म किये जाने के समर्थन में कोई नहीं आया था। लेकिन, आपातकाल के समर्थन में किसी तरह की कोई संगठित लामबंदी नहीं थी।

दूसरा, कांग्रेस के पास एक ऐसी विचारधारा नहीं थी, जहां यह तय कर दिया जाता कि कुछ ख़ास वर्ग भारतीय नागरिकता के दायरे से बाहर हैं। कांग्रेस की विचारधारा में ऐसा भी कुछ नहीं था, जिसे राष्ट्रीय आंदोलन ने निर्मित किया था, और वह भी नहीं था, जिसका दावा कांग्रेस सार्वजनिक रूप से कर सकती थी। वे इसे अनुशासन की महज़ एक छोटी सी अवधि कह सकते थे, उस समय विनोबा भावे ने इस "अपातकाल को अनुशासन पर्व" बताया था। आपातकाल छोटी अवधि (तयशुदा अवधि) के लिए था, इसे राज्य के भीतर एक संरचना में नहीं बदला जा सकता था।

लेकिन, इस समय हम जो कुछ देख रहे हैं, वह कुछ अलग है। राज्य की संरचना स्पष्ट रूप से वैसी ही है, बल्कि इसे खोखला किया जा रहा है। ऐसी संगठित शक्ति का उभार हुआ है, जो राज्य की ताक़त की सराहना करती है। संगठित बल का ख़तरा है, और अगर प्रतिरोध होता है, तो ये उस प्रतिरोध के ख़िलाफ़ भी सामने आ जाते हैं। राज्य और इस तरह की राजनीति के बीच एक तरह का समझौता है।

शाहिद तांत्रेय: आपका मतलब ग़ैर सरकारी घटकों से है या वे उपद्रवी तत्व हैं?

प्रबीर पुरकायस्थ: वे उपद्रवी तत्व नहीं हैं; वे देश की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक ताक़त हैं। यह एक प्रकार की सांप्रदायिक राजनीति है, जो यह तय करती है कि कुछ लोग नागरिक हैं और कुछ लोगों को नागरिक नहीं होना चाहिए, भले ही भारतीय संविधान सभी लोगों को बतौर नागरिक स्वीकार करता है। और अगर वे नागरिक हों भी, तो उनका पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं होना चाहिए; उन्हें राजनीति के बारे में बात नहीं करनी चाहिए; संभवत: उन्हें वोट भी नहीं देना चाहिए; और अगर वे वोट देते भी हैं, तो उनके पास कोई ऐसा उम्मीदवार नहीं होना चाहिए, जिसका वे समर्थन कर सकें। कांग्रेस ने अपनी आनुवांशिक संरचना में इस तरह की अलग-थलग कर देने वाली राजनीति नहीं की थी, लेकिन आरएसएस में तो इस तरह की राजनीति इसके जीन का एक हिस्सा है। यही फ़र्क़ है।

ठीक है कि औपचारिक तौर पर हमारे पास अब भी अदालतें हैं। लेकिन, अब आपके पास एक प्रकार का ऐसा अनौपचारिक सत्तावादी शासन है, जिसमें क़ानून तो मौजूद हैं, मगर अदालत पूरी तरह संचालित नहीं हैं; यह आंशिक राहत भले ही प्रदान करता हो, लेकिन बहुत सारे मुद्दों पर, मसलन- कश्मीर मामले पर अदालतों ने मामलों को लम्बा खींच दिया। सही मायने में यह इंसाफ़ नहीं पाने जैसा ही था।

ऐसे में न्याय प्रणाली के औपचारिक दिखावे हैं, प्रेस की स्वतंत्रता भी औपचारिक है, लेकिन यह है कि आपके पास प्रेस को चुप कराने का अलग साधन हैं, और न्यायपालिका को चुप कराने के लिए उस साधन का इस्तेमाल तो उस हद तक नहीं नहीं होता, जिस हद तक न्यायपालिका को अपराध का साथी बनाने के लिए होता है। यही तो फ़र्क़ है कि (आपातकाल के दौरान) राहत प्रदान करने की औपचारिक संरचना मौजूद नहीं थी; औपचारिक रूप से लोग वह सबकुछ नहीं लिख सकते थे,जो कुछ वे चाहते थे; उनके अधिकार उनसे छीन लिये गये थे।

लेकिन, इस समय जो अलग-अलग ताक़तों का संयोग है, वह अधिकारों को अपेक्षाकृत कहीं ज़्यादा और तेज़ी से दुर्गम बना दे रहा है और इसीलिए, यह एक लंबी लड़ाई है। यह लड़ाई ज़्यादा मुश्किल इसलिए है, क्योंकि यह न सिर्फ़ हमारे अधिकारों को बनाये रखने की लड़ाई है, बल्कि लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सही जगह पर टिकाये रखने की भी लड़ाई है।

शाहिद तांत्रेय: 2014 के बाद से हमने नफ़रत के चलते होने वाले अपराधों को बढ़ते हुए देखा है और अल्पसंख्यकों को भी दबाया जा रहा है। क्या आपातकाल के दौरान भी यही हालत थी?

प्रबीर पुरकायस्थ: हां, दमन तो था, मगर उस दमन की प्रकृति धार्मिक नहीं थी। उस दौरान तुर्कमान गेट कांड हुआ था,जिसमें मुस्लिम समुदाय पर हमला किया गया था। (अप्रैल 1976 को पुलिस ने दिल्ली के तुर्कमान गेट पर किसी विध्वंस अभियान (demolition drive ) के दौरान गोली चला दी थी। कितने मारे गये थे और कितने लोग उजाड़ दिये गये थे, इसका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है। सच्चाई का पता लगाने वाली एक समिति के मुताबिक़, कई विध्वंस में से वह एक तोड़-फोड़ को अंजाम देने वाले राजनीतिक विचारों पर आधारित था और उसका निशाना जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी की पूर्ववर्ती पार्टी) और जामा मस्जिद का गढ़ था।)

लेकिन, वैचारिक तौर पर कोई शक नहीं कि कांग्रेस की सरकार अल्पसंख्यक को अलग-थलग करने वाली सरकार तो बिल्कुल नहीं थी। इस समय जो कुछ भी आप देख रहे हैं, वह (वीडी) सावरकर के सिद्धांत पर होते हुए देख रहे हैं, जिसके मुताबिक़ अल्पसंख्यक देश में रह तो सकते हैं, लेकिन अनिवार्य रूप से उन्हें दूसरे दर्जे के नागरिक के तौर पर रहना होगा। हालांकि, औपचारिक तौर पर इस समय भी आप ऐसा तो नहीं कर सकते, ऐसा कर पाना मुश्किल है। लेकिन, अनौपचारिक रूप से इसे आप विभिन्न तरीकों अंजाम दे सकते हैं।

यही वह पृष्ठभूमि है, जिसके चलते किसानों का आंदोलन इतना अहम हो गया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तरह, मुस्लिम और जाट किसान एक साथ आ गये हैं। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के दौरान जो (दो समुदायों के बीच) दोफाड़ हुआ था, उसकी खाई किसान आंदोलन के साथ वहां आने वाले लोगों ने पाट दी है (सितंबर 2013 में एक ऐसे इलाक़े में मुसलमानों और जाटों के बीच दंगे भड़क गये थे, जहां साम्प्रदायिक अशांति कभी देखी नहीं गयी थी। कई भाजपा सदस्यों पर दंगे भड़काने के आरोप लगे थे और इस इलाक़े में बाद के होने वाले आम चुनाव और विधानसभा चुनावों में भाजपा ने जीत हासिल की थी)।

ऐसे में उनके लिए आंदोलन इसलिए बहुत ख़तरनाक हैं, क्योंकि तब आप एक अलग तरह की एकता का निर्माण करते हैं। वह जातीय और सामुदायिक विभाजन, जो भाजपा का हथियार है, वह लोगों की एकता के बीच चल नहीं पाता है। इसीलिए, किसानों के आंदोलन, कामगारों के आंदोलन, इस तरह के बाक़ी जनांदोलन आरएसएस और भाजपा की विचारधाराओं के लिए ख़तरा बन जाते हैं।

यह साक्षात्कार पहली बार द कारवां में प्रकाशित हुआ था।

इस साक्षात्कार को संपादित और संक्षिप्त किया गया है।

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Newsclick ED Raids: The Process Becomes the Punishment

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