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आयुर्वेद के नाम पर किसी भी दवा को जांच-परीक्षण से छूट नहीं दी जा सकती

जिस तरह का क्लिनिकल ट्रायल बायोमेडिसिन करता है, ठीक वैसे ही क्लिनिकल ट्रायल की अपेक्षा आयुर्वेद की दवाओं के साथ नहीं करनी चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि आयुर्वेद की दवाओं का क्लिनिकल ट्रायल ही नहीं होना चाहिए। दवाओं की जांच परीक्षण की पद्धतियां अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन इनका होना बहुत ज़रूरी है।
आयुर्वेद

कोरोना के दौर में दुनिया को बहुत बुरा झेलना पड़ रहा है। लेकिन अच्छी बात भी हुई है कि लोग के बीच स्वास्थ्य और दवाएं भी चर्चा का विषय बन रही हैं। इसी कड़ी में हम आज भारत में आयुर्वेद और परंपरागत दवाओं से रूबरू होंगे।  

दवा बनाने पर किसी एक व्यक्ति संस्था विचार या विचारधारा का अधिकार नहीं होता है। दवा बनाने की आजादी सबको है। लेकिन दवा किसे कहा जाएगा? जिसे दवा कह कहकर प्रचारित किया जा रहा है वह दवा है या नहीं। यह बात दवा बनने से जुड़े कुछ जांच-परख के तौर तरीकों पर निर्भर करता है। आयुर्वेद पर सबसे बड़ा आरोप यही लगाया जाता है कि बहुत सारी औषधियां बिना जांच-परख के औषधियां या दवाइयां कहकर बेची जा रही हैं।

लेकिन आप कहेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है? मोदी सरकार के आने के बाद साल 2014 में आयुष मंत्रालय बनाया गया था। जब बाकायदा आयुर्वेद यूनानी सिद्ध होम्योपैथी पर काम करने के लिए एक मंत्रालय है तो ऐसा कैसे हो सकता है कि आयुर्वेद की बहुत सारी औषधियां बिना किसी जांच परख के बाज़ार में बिक रही हो?

ऑल इंडिया पीपुल साइंस नेटवर्क के सदस्य डॉक्टर एस कृष्णस्वामी न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहते हैं कि 2014 के बाद बने आयुष मंत्रालय में पैसा तो खूब डाला गया, इसका बजट बढ़ाकर दोगुना कर दिया गया और इसका प्रचार भी खूब हुआ लेकिन हकीकत यह है कि तब से लेकर अब तक आयुष मंत्रालय ने किसी भी दवा के फॉर्मूलेशन को सत्यापित करने के लिए किसी भी तरह का क्लिनिकल ट्रायल नहीं किया है। आसान भाषा में कहा जाए आयुष मंत्रालय के तरफ से पिछले छह सालों में एक भी दवा का क्लिनिकल ट्रायल के आधार पर सत्यापन नहीं हुआ है।

बाबा रामदेव ने परंपरागत दवाओं की दुनिया में मौजूद इसी खामी का फायदा उठाकर एलान कर दिया कि उन्होंने कोरोना की दवाई कोरोनील बना ली है। जबकि हकीकत यह थी कि दवाई बनाने का रजिस्ट्रेशन ही सर्दी खांसी की दवाई बनाने के नाम पर किया गया था। इस कदम से कोरोना की बीमारी पर तो कोई असर नहीं पड़ा लेकिन आयुर्वेद की दुनिया पर फिर से लांछन लग गया। वही लांछन जो आयुर्वेद को लेकर आधुनिक दुनिया में किसी पूर्वाग्रह की तरह फैला हुआ है। पूर्वाग्रह यह कि आयुर्वेद वाले बिना किसी साइंटिफिक प्रोटोकॉल और रेगुलेटरी मेकैनिज्म को अपनाए हुए दवाइयां बाजार में बेचने चले जाते हैं।

आयुर्वेद के पास पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों के बारे में मजबूत ज्ञान तो है लेकिन इस ज्ञान का कोई एविडेंस नहीं है। यह ज्ञान बिना किसी साक्ष्य पर आधारित है। इसलिए आयुर्वेद की दुनिया एक ऐसी दुनिया बन कर रह जाती है जिस पर भरोसा करने से लोग कतराते हैं।

आयुर्वेद और परंपरागत दवाओं के साथ प्रचलित मान्यता के परिचय के बाद भारत में मौजूद आयुर्वेद और परंपरागत दवाओं के हालात को समझने की कोशिश करते हैं। साल 2003 से पहले भारत में डिपार्टमेंट ऑफ ट्रेडिशनल मेडिसिन नाम से ट्रेडिशनल मेडिसिन को बढ़ावा देने और इस पर निगरानी रखने के लिए एक विभाग हुआ करता था। यही विभाग साल 2003 में आयुष विभाग बन गया और बाद में जाकर साल 2014 में आयुष मंत्रालय में बदल गया।

हाल फिलाहल सरकार ने जन औषधि स्टोर से आयुर्वेद दवाओं को बेचने का फैसला लिया है। साल 2017 में अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान का गठन किया है। कई राज्य की सरकारों ने जड़ी बूटियों की खेती के लिए किसानों को मदद करने की योजना भी बनाई है।

इसी मसले पर डॉक्टर इला पटनायक और शुभ रॉय का लेख द प्रिंट में छपा है। इनका कहना है कि आयुर्वेद दवाएं स्वास्थ्य के लिए खतरनाक भी साबित होती हैं। इसके पीछे तीन वजहें होती हैं।

पहला सभी जड़ी बूटी उपयोगी नहीं होती, दूसरा भस्म और पौधों से अलग चीजों का इस्तेमाल दवाइयों में किया जाता है और तीसरा जो सबसे खतरनाक साबित होता है, वह यह है कि आयुर्वेद की दवाओं के साथ एलोपैथी दवाओं का गैर कानूनी मिश्रण किया जाता है। आयुर्वेदिक दवाओं में स्टेरॉयड मिलाने की खबरें बार-बार आती है। यह स्टेरॉयड शरीर में खून का सरकुलेशन बढ़ाकर शरीर को बेहतर होने का झूठा एहसास दिलाते हैं। मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल एक अध्ययन में पाया गया कि 40 फ़ीसदी आयुर्वेदिक दवाओं में स्टेरॉयड मिलाए गए थे। इनका शरीर पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए जरूरी है कि आयुर्वेद का सही ढंग से रेगुलेशन है। सरकार ने जो गाइडलाइन जारी की है उसका इस्तेमाल हो। कंपनियों को पैसा कमाने के लिए छूट न दी जाए।  

रेगुलेश में लापरवाही और तमाम तरह के भ्रष्ट हरकतों की वजह से भारत में आयुर्वेद की साख बहुत अधिक कमजोर हुई है। पूरी दुनिया में आधुनिक दवाओं का साइड इफेक्ट गहराता जा रहा है। शरीर में मौजूद रोगाणुओं ने दवाइयों के प्रति  रेसिस्टेन्स करना सीख लिया है। इसलिए स्वास्थ्य क्षेत्र के विशेषज्ञों का रुझान वैकल्पिक दवाओं की तरफ भी हुआ है। लेकिन अगर वैकल्पिक दवाओं यानी कि परंपरागत दवाओं में धांधली का ऐसा हाल दिखा तो भारत की परंपरागत दवाएं अपना साख बनाने में पिछड़ती चली जाएंगी।

डॉ. मधुलिका बनर्जी पावर पॉलिटिक्स एंड मेडिसिन नामक किताब की लेखिका है और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापिका हैं। डॉक्टर बनर्जी इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि “यह बात सही है कि आयुर्वेद की दुनिया में बहुत अधिक खामियां हैं और यह साफ तौर पर दिखाई भी देती हैं। लेकिन आयुर्वेद की दुनिया बहुत बड़ी और बहुत गहरी है। इसके तह तक पहुंचना आसान नहीं है। मैंने अपने 30 साल के रिसर्च के दौरान पाया है कि आयुर्वेद की दुनिया केवल हिमालय, पतंजलि और डाबर जैसे ब्रांड के तले आने वाले उत्पादों तक सीमित नहीं है।”

उन्होंने कहना है कि परंपरागत दवाएं जैसी कैटगरी इन्हें सही तरीके से परिभाषित नहीं कर सकती है। परंपरागत दवाई कहने से ऐसा लगता है, जैसे किसी प्राचीन समय की किताब में कोई रोगों से इलाज का कोई तरीका लिखा था, उसे हूबहू उसी तरीके से अपना लिया गया। लेकिन ऐसा नहीं है। प्राचीन समय से लेकर अंग्रेजों के आने से पहले तक आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, होम्योपैथ से जुड़े चिकित्सकों ने प्राचीन किताबों में मौजूद बहुत सारी औषधियों की छानबीन की। जो अधूरा था उसे पूरा करने का काम किया। नई औषधियां विकसित की। एक-दूसरे के क्षेत्रो से औषधि से जुड़े तत्व का लेनदेन किया। यानी परंपरागत दवाएं केवल परंपरा की नहीं थी बल्कि इनका एक सिलसिला चलता रहा।

डॉ. मधुलिका का मानना है कि अंग्रेजों के आने के बाद ये सिलसिला अचानक से थम गया। इसके बाद दवाओं की दुनिया में मॉडर्न बायोमेडिसिन का दबदबा हो गया। अंग्रेजों की हुकूमत ने आजादी से पहले और अंग्रेजों की हुकूमत से बनी भारतीय मन: स्थिति ने परंपरागत दवा प्रणाली के वैज्ञानिक तौर-तरीकों से जुड़े सारे दरवाजे और खिड़कियों को बंद कर दिया। इसके बाद हमने कहना शुरू किया कि हमारी परंपरागत दवा प्रणाली वैज्ञानिक आधार की मेथाडोलॉजी को नहीं अपनाती है।

परंपरागत दवाओं से जुड़ी मौजूदा समय में प्रचलित मान्यता के विपरीत बहुत सारे आयुर्वेदिक चिकित्सा ऐसे हैं जो केवल आयुर्वेदिक दवाओं की ही सलाह देते हैं। इन्हें अपने प्रशिक्षण पर इतना भरोसा है कि यह एलोपैथी के दवाओं को गैर कानूनी तरीके से आयुर्वेद के दवाइयों साथ नहीं मिलाते हैं। बिना किसी प्रसिद्धि के लालच में यह अपने काम में लगे हुए हैं।

उनका मानना है कि परंपरागत दवाओं के मामले में प्रशिक्षण देने वाले शिक्षकों में ऐसे शिक्षक शामिल हैं, जो मॉडर्न बायोमेडिसिन और परंपरागत दुनिया के बीच एक जरूरी पुल बनाने का काम करते हैं। चिकित्सा की आधुनिक और जरूरी शैलियों से जरूरी पहलू सीखकर परंपरागत दवा प्रणाली को निखारने का काम करते हैं। इन सब का मकसद यही है कि अगर सही जानकारी कुछ कोशिशों के बाद उपलब्ध हो सकती है और उससे आम जनों की तकलीफ है दूर हो सकती हैं तो क्यों न इस क्षेत्र में ईमानदार कोशिश करते रहा जाए।

डॉ. मधुलिका कहती हैं कि आयुर्वेद की दुनिया में केवल आयुर्वेद की दवाएं बनाने वाली मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों को कामयाबी हासिल हुई है। इन कंपनियों ने आयुर्वेद से जुड़े जरूरी शोध पर कभी ध्यान नहीं दिया। उन प्रक्रियाओं पर कभी ध्यान नहीं दिया जो दवाइयों से जुड़े दावों को पुख्ता बनाते हैं। इनका मानना है कि बढ़िया सी पैकेजिंग, भारत की पुरातन संस्कृति में लिपटा हुआ प्रचार दिखाकर यह कंपनियां बाजार में अपना माल बेचने में हमेशा कामयाब रहेंगी। ऐसा होता भी है। कारोबारी तौर ओर यह कंपनियां मुनाफे में ही रहती हैं। बाजार में आयुर्वेद के उत्पाद के बिक जाते हैं। लेकिन एक लंबे समय का अध्ययन किया जाए तो यह साफ दिखता है की आयुर्वेद के उत्पादों से लोगों का भरोसा टूटता जा रहा है।

डॉ. मधुलिका कहती हैं कि आयुर्वेद और आधुनिक बायोमेडिसिन के बीच प्रतियोगिता की बेईमान भावना मौजूद है। दोनों को एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में नहीं रहना चाहिए। दोनों ज्ञान की परंपराएं एक दूसरे से अलग हैं। शरीर, बीमारी और इलाज के प्रति इनका एक-दूसरे से बिलकुल अलग नजरिया है। इसलिए इन दोनों में दवा बनाने की जांच परख से जुडी प्रक्रिया भी अलग-अलग होगी। जिस तरह का क्लिनिकल ट्रायल बायोमेडिसिन करता है, ठीक वैसे  ही क्लिनिकल ट्रायल की अपेक्षा आयुर्वेद की दवाओं के साथ नहीं करनी चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है की आयुर्वेद की दवाओं का क्लिनिकल ट्रायल ही नहीं होना चाहिए। कहने का मतलब है कि दवाओं की जांच परीक्षण की पद्धतियां अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन इनका होना बहुत जरूरी है। बाबा रामदेव के कोरोनिल के मामले में दवा बनाने की कोई पद्धति ही नहीं थी। इसलिए बाबा रामदेव पर आरोप लगाना बिल्कुल सही है। लेकिन इसके जरिए आयुर्वेद पर गलत धारणा अपना लेना गलत है।

इस तरह का पैमाना बायोमेडिसिन में नहीं अपनाया जाता है। जैसे कि लांसेट जैसी पत्रिका के एडिटर ने बार-बार कहा कि रेमडेसिवीर दवा से जुड़े गैर भरोसेमंद डाटा को पब्लिश करने के लिए फार्मा कंपनियों ने उन पर बहुत बहुत अधिक दबाव डाला था। यह खबर आने के बाद भी पूरे बायोमेडिसिन पर लांछन नहीं लगा केवल रेमडेसिवीर दवा पर लांछन लगा। इसे अपवाद मान कर छोड़ दिया गया तो वैसा ही सलूक आयुर्वेद के साथ क्यों नहीं होना चाहिए। कहने का मतलब है कि अगर आर्युवेद के खिलाफ जमकर सवाल उठायें जा रहे हैं तो आयुर्वेद के साथ अच्छा सलूक किए जाने की भी जरूरत है। यह अच्छा सलूक तभी हो पाएगा जब आयुर्वेद से जुड़ी संस्थाएं अपने काम से लोगों के बीच भरोसा पैदा कर पाएंगी।

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