Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

पूरा पारिश्रमिक नहीं देने वाले निजी प्रतिष्ठानों के ख़िलाफ़ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने आज पूरा पारिश्रमिक नहीं देने वाले निजी प्रतिष्ठानों के खिलाफ जुलाई के अंतिम सप्ताह तक कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं करने के आदेश दिए, जबकि दिल्ली हाईकोर्ट ने निजी अस्पतालों के अत्यधिक फीस वसूलने पर कोई निर्देश देने से इनकार कर दिया। वेतन न पाने वाले डॉक्टरों के लिए ज़रूर अच्छी ख़बर है कि कोर्ट ने उत्तरी दिल्ली नगर निगम को उनका मार्च का वेतन 19 जून तक देने का शुक्रवार को निर्देश दिया।
SC

नयी दिल्ली: उच्चतम और उच्च न्यायालय ने आज शुक्रवार को अलग-अलग कई महत्वपूर्ण मामलों में दिशा-निर्देश जारी किए। उच्चतम यानी सुप्रीम कोर्ट ने आज अपनी एक अहम सुनवाई में नियोक्ताओं यानी कंपनियों के मालिकों की राहत बरकरार रखते हुए केन्द्र और राज्यों को निर्देश दिया कि लॉकडाउन के दौरान अपने श्रमिकों को पूर्ण पारिश्रमिक नहीं देने वाली निजी कंपनियों के खिलाफ जुलाई के अंतिम सप्ताह तक कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जाये। जबकि उच्च यानी दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली सरकार को ऐसा कोई निर्देश देने से इनकार कर दिया जिसमें यह सुनिश्चित करने का अनुरोध किया गया था कि कोविड-19 के लिए चिह्नित कोई भी निजी अस्पताल मरीजों से अत्यधिक शुल्क नहीं वसूले और न ही धन की कमी के कारण उनका इलाज करने से इनकार करे।

एक अन्य महत्वपूर्ण मामलें में सुप्रीम कोर्ट ने कोविड मरीजों के उपचार ओर शवों के मामले में केन्द्र और राज्यों से मांगा जवाब। उधर हाईकोर्ट ने नगर निगम को अपने रेजिडेंट डॉक्टरों का वेतन देने का निर्देश दिया

कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों को पूर्ण पारिश्रमिक के मामले में सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति अशोक भूषण, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम आर शाह की पीठ ने कहा कि उद्योगों और श्रमिकों को एक दूसरे की जरूरत है और उन्हें पारिश्रमिक के भुगतान का मुद्दा एक साथ बैठकर सुलझाना चाहिए।

पीठ ने वीडियो कांफ्रेन्सिंग के माध्यम से निजी प्रतिष्ठानों की याचिका पर अपना आदेश सुनाते हुये राज्य सरकारों से कहा कि वे इस तरह के समाधान की प्रक्रिया की सुविधा मुहैया करायें और इस बारे में संबंधित श्रमायुक्त के यहां अपनी रिपोर्ट पेश करें।

इस बीच,न्यायालय ने केन्द्र को गृह मंत्रालय के 29 मार्च के सर्कुलर की वैधता के बारे में चार सप्ताह के भीतर एक हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया है। इसी सर्कुलर में कहा गया था कि लॉकडाउन के दौरान निजी प्रतिष्ठान अपने कर्मचारियों को पूरा पारिश्रमिक देंगे।

न्यायालय ने केन्द्र और राज्य सरकारों से कहा कि वे श्रम विभाग के मार्फत उसका आदेश प्रेषित करके समझौता प्रक्रिया शुरू करें।

पीठ ने इस सर्कुलर की वैधता को चुनौती देने वाली तमाम कंपनियों की याचिकाओं को अब जुलाई के अंतिम सप्ताह में सुनवाई के लिये सूचीबद्ध कर दिया है।

गृह मंत्रालय ने 29 मार्च को एक सर्कुलर जारी कर सभी कंपनियों और नियोक्ताओं को निर्देश दिया था कि वे अपने यहां कार्यरत सभी श्रमिकों और कर्मचारियों को बगैर किसी कटौती के लॉकडाउन की अवधि में पूरे पारिश्रमिक का भुगतान करें।

श्रम एवं रोजगार सचिव ने भी सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र लिखा था जिसमें नियोक्ताओं को यह सलाह देने के लिये कहा गया था कि कोविड-19 महामारी के मदेनजर वे अपने कर्मचारियों को नहीं हटायें और न ही उनका पारिश्रमिक कम करें।

इस मामले की सुनवाई के दौरान केन्द्र की ओर से अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कहा था कि लॉकडाउन के बाद से कामगारों के पलायन के मद्देनजर ही सरकार ने अधिसूचना जारी की थी ताकि श्रमिकों को पारिश्रमिक का भुगतान करके कार्यस्थल पर ही उनके रुके रहने को सुनिश्चित किया जा सके।

गृह मंत्रालय के 29 मार्च के सर्कुलर को सही ठहराते हुये वेणुगोपाल ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून के प्रावधानों का भी हवाला दिया था।

केन्द्र ने भी एक हलफनामा दाखिल कर 29 मार्च के निर्देशों को सही ठहराते हुये कहा था कि अपने कर्मचारियों और श्रमिकों को पूरा भुगतान करने में असमर्थ निजी प्रतिष्ठानों को अपनी ऑडिट की गयी बैंलेंस शीट और खाते न्यायालय में पेश करने का आदेश दिया जाना चाहिए।

गृह मंत्रालय ने न्यायालय से कहा था कि 29 मार्च का निर्देश लॉकडाउन के दौरान कर्मचारियों और श्रमिकों, विशेषकर संविदा और दिहाड़ी कामगारों, की वित्तीय परेशानियों को कम करने के इरादे से एक अस्थाई उपाय था। इन निर्देशों को 18 मई से वापस ले लिया गया है।

इस मामले की सुनवाई के दौरान न्यायालय ने सरकार से जानना चाहा था कि क्या औद्योगिक विवाद कानून के कतिपय प्रावधानों को लागू नहीं किये जाने के तथ्य के मद्देनजर केन्द्र के पास कर्मचारियों को शत-प्रतिशत भुगतान नहीं करने वाली इकाइयों पर मुकदमा चलाने का अधिकार है।

न्यायालय ने चार जून को इस मामले की सुनवाई पूरी करते हुये कहा था कि वर्तमान परिस्थितियों में नियोक्ताओं और श्रमिकों के बीच बातचीत से इन 54 दिनों के वेतन के भुगतान का समाधान खोजने की आवश्यकता है।

निजी अस्पतालों के अत्यधिक फीस वसूलने पर निर्देश देने से उच्च न्यायालय का इनकार

दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार को ऐसा कोई निर्देश देने से शुक्रवार को इनकार कर दिया जिसमें यह सुनिश्चित करने का अनुरोध किया गया था कि कोविड-19 के लिए चिह्नित कोई भी निजी अस्पताल मरीजों से अत्यधिक शुल्क नहीं वसूले और न ही धन की कमी के कारण उनका इलाज करने से इनकार करे।

मुख्य न्यायाधीश डी एन पटेल और न्यायमूर्ति प्रतीक जालान की पीठ ने कहा कि हालांकि याचिका में उठाया गया मुद्दा अच्छा है लेकिन वह जनहित मुकदमे में कोई ऐसा आदेश पारित नहीं कर सकती जिसे लागू करना मुश्किल हो।

पीठ ने वीडियो कांफ्रेंस के जरिए सुनवाई के दौरान कहा, ‘‘इस समय हम कोई निर्देश जारी नहीं करना चाहते।’’

पीठ ने सामाजिक कार्यकर्ता और वकील अमित साहनी की याचिका का निस्तारण कर दिया जिसमें एक निजी अस्पताल द्वारा इलाज के लिए जारी शुल्क के संबंध में दिल्ली सरकार के 24 मई के परिपत्र का हवाला दिया गया था।

पीठ ने कहा कि अत्यधिक शुल्क वसूलने के मामले में संबंधित पक्ष ऐसे अस्पताल के खिलाफ अदालत का रुख कर सकता है और जनहित याचिका में आम निर्देश नहीं दिया जा सकता।

अदालत ने साहनी से इस याचिका में उठाए मुद्दे को लेकर दिल्ली सरकार का रुख करने के लिए कहा।

याचिका में कहा गया है कि कोविड-19 के मामले बढ़ने पर प्रदेश सरकार ने कई अस्पतालों को कोविड-19 अस्पताल घोषित किया और उसके तीन जून तक के आदेश में अधिकारियों ने तीन निजी अस्पतालों मूल चंद खैराती लाल अस्पताल, सरोज सुपर स्पैश्यिलिटी अस्पताल और सर गंगा राम अस्पताल को कोविड अस्पताल घोषित किया।

ये अस्पताल आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) मरीजों को 10 प्रतिशत आईपीडी और 25 प्रतिशत ओपीडी सेवाएं मुहैया कराने के लिए बाध्य हैं।

याचिकाकर्ता ने कहा कि उन्होंने इन निजी कोविड-19 अस्पतालों में से एक का परिपत्र देखा जिसमें कोविड-19 मरीज के लिए न्यूनतम बिल तीन लाख रुपये तय किया गया और कहा गया कि मरीज को दो बेड/तीन बेड श्रेणी में चार लाख रुपये अग्रिम भुगतान करने पर ही भर्ती किया जाएगा और अकेले कमरे के लिए पांच लाख रुपये तथा आईसीयू के लिए आठ लाख रुपये का बिल देना होगा।

जनहित याचिका में कहा गया है, ‘‘एक कल्याणकारी राज्य होने के नाते शासन को यह सुनिश्चित करना होगा कि निजी अस्पताल मरीजों से अत्यधिक शुल्क न वसूले और साथ ही जिन मरीजों को फौरन इलाज/आईसीयू की जरूरत है उन्हें पैसे नहीं होने के कारण भर्ती करने से इनकार नहीं किया जाए।’’

न्यायालय ने कोविड मरीजों के उपचार ओर शवों के मामले में केन्द्र और राज्यों से मांगा जवाब

उच्चतम न्यायालय ने अस्पतालों में कोविड-19 से संक्रमित मरीजों के इलाज और उनके साथ ही शवों को रखे जाने की घटनाओं का स्वत: संज्ञान लेते हुये इसे दिल दहलाने वाला बताया और शुक्रवार को केन्द्र और विभिन्न राज्य सरकारों से जवाब मांगा।

न्यायमूर्ति अशोक भूषण, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम आर शाह की पीठ ने इस स्थिति पर चिंता व्यक्त की और कहा कि अस्पताल न तो शवो को ठीक से रखने की ओर ध्यान दे रहे हैं और न ही मृतकों के बारे में उनके परिवार को ही सूचित कर रहे हैं जिसका नतीजा यह हो रहा है कि वे अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं हो पा रहे हैं।

पीठ ने इस मामले की वीडियो कांफ्रेन्सिंग के माध्यम से सुनवाई के दौरान केन्द्र के साथ ही महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु को नोटिस जारी किये। पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा, ‘‘दिल्ली की स्थिति तो बहुत ही भयावह और दयनीय है।’’

न्यायालय ने कहा कि केन्द्र सरकार के दिशा निर्देशों का पालन नहीं हो रहा है। न्यायालय ने राज्यों के मुख्य सचिवों को मरीजों के प्रबंधन की व्यवस्था का जायजा लेकर अस्पताल के स्टाफ और मरीजों की देखभाल के बारे में स्थिति रिपोर्ट पेश करने का निर्देश दिया।

शीर्ष अदालत ने पिछले बृहस्पतिवार को देश के विभिन्न राज्यों में कोविड-19 के मरीजों की ठीक से देखभाल नहीं होने और पीड़ितों के शवों का मर्यादित तरीके से निस्तारण नहीं किये जाने की खबरों का स्वत: ही संज्ञान लिया था।

प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे ने इस स्थिति का संज्ञान लेने के बाद यह मामला न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली पीठ को सौंप दिया था।

समाचार पत्रों में लगातार ऐसे खबरें आ रही हैं कि अस्पतालों में कोविड-19 के मरीजों की ठीक से देखभाल नही हो रही है और इस संक्रमण से जान गंवाने वालों के शवों को भी सही तरीके से नहीं रखा जा रहा है।

उच्च न्यायालय ने नगर निगम को अपने रेजिडेंट डॉक्टरों का वेतन देने का निर्देश दिया

दिल्ली उच्च न्यायालय ने उत्तरी दिल्ली नगर निगम को कस्तूरबा गांधी और हिंदू राव समेत अपने छह अस्पतालों में रेजिडेंट डॉक्टरों को मार्च का वेतन 19 जून तक देने का शुक्रवार को निर्देश दिया।

मुख्य न्यायाधीश डी एन पटेल और न्यायमूर्ति प्रतीक जालान की पीठ ने दिल्ली सरकार को नगर निगम को निधि जारी करने के लिए भी कहा ताकि वह अपने अस्पतालों के रेजिडेंट डॉक्टरों को अप्रैल का वेतन 24 जून तक दे सकें।

पीठ ने केंद्र, दिल्ली सरकार, उत्तरी दिल्ली नगर निगम और विभिन्न डॉक्टर संघों को भी नोटिस जारी कर जनहित याचिका पर अपना रुख स्पष्ट करने के लिए कहा है। यह जनहित याचिका उच्च न्यायालय ने खुद दायर की है।

मामले पर अगली सुनवाई के लिए आठ जुलाई की तारीख तय की गई है।

इस मामले में दिल्ली सरकार का प्रतिनिधित्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल संजय जैन और अतिरिक्त स्थायी वकील सत्यकाम कर रहे हैं जबकि केंद्र की ओर से उसके स्थायी वकील अनिल सोनी पैरवी कर रहे हैं।

सत्यकाम और सोनी ने बताया कि हर महीने उत्तरी दिल्ली नगर निगम के छह अस्पतालों के रेजिडेंट डॉक्टरों को दिया जाने वाला वेतन करीब आठ करोड़ रुपये है।

उच्च न्यायालय ने उन खबरों के आधार पर बृहस्पतिवार को जनहित याचिका दायर की जिसमें बताया गया कि कस्तूरबा गांधी अस्पताल के डॉक्टरों ने इस्तीफा देने की धमकी दी है क्योंकि उन्हें इस साल मार्च से वेतन का भुगतान नहीं किया गया है।

अदालत ने दिल्ली में लॉकडाउन लागू करने के अनुरोध वाली अर्जियों पर सुनवायी से किया इनकार

दिल्ली उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को उन दो जनहित याचिकाओं पर सुनवायी करने से इनकार कर दिया जिसमें आप सरकार को यह निर्देश देने का आग्रह किया गया था कि वह कोविड-19 मामलों में बढ़ोतरी के मद्देनजर राष्ट्रीय राजधानी में लॉकडाउन लागू करने पर विचार करे।

मुख्य न्यायाधीश डी एन पटेल और न्यायमूर्ति प्रतीक जलान की एक पीठ ने मामले को सुना और कहा कि वह कोई नोटिस जारी नहीं करने जा रही है। उसके बाद याचिकाकर्ताओं ने अपनी अर्जियां वापस ले लीं।

इनमें से एक अर्जी एक अधिवक्ता अनिर्बान मंडल द्वारा दायर की गई थी जो चाहते थे कि दिल्ली सरकार शहर में कोविड-19 के मामलों में बढ़ोतरी के मद्देनजर लॉकडाउन लागू करने पर विचार करे।

मंडल की ओर से पेश हुए अधिवक्ता मृदुल चक्रवर्ती ने कहा कि उन्होंने पीठ के समक्ष दलील दी कि मद्रास उच्च न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार से पूछा है कि लॉकडाउन फिर से क्यों नहीं लगाया जा सकता है और बृहस्पतिवार को दिल्ली उच्च न्यायालय की एक अन्य पीठ ने कहा था कि कोविड-19 मामलों में बढ़ोतरी को देखते हुए शहर ‘‘कोरोना राजधानी’’" बनने की दिशा में बढ़ रहा है।

चक्रवर्ती ने कहा कि उन्होंने अदालत के समक्ष यह भी कहा कि सीमित अवधि के लिए लॉकडाउन दिल्ली सरकार को थोड़ी राहत प्रदान करेगा, संक्रमण चक्र को तोड़ेगा और इससे सुविधाएं बढ़ायी जा सकेंगी।

मंडल के मामले में स्वास्थ्य विभाग की ओर से पेश हुए दिल्ली सरकार के अतिरिक्त स्थायी वकील गौतम नारायण ने कहा कि अदालत ने मामले में नोटिस जारी करने से इनकार कर दिया।

हालाँकि, दोनों जनहित याचिकाओं पर सुनवायी नहीं करने का कारण अदालत के आदेश में इंगित किया जा सकता है जो अभी तक उपलब्ध नहीं है।

अन्य अर्जी दूसरे अधिवक्ता अंकित वर्मा द्वारा दायर की गई जो चाहते थे कि कोविड-19 मामलों में बढ़ोतरी के मद्देनजर दिल्ली में लॉकडाउन हो और दिल्ली की सीमाएं सील हों।

दूसरे मामले में स्वास्थ्य विभाग के लिए पेश हुए दिल्ली सरकार के अतिरिक्त स्थायी वकील अनुज अग्रवाल ने कहा कि पीठ ने इस मामले में भी नोटिस जारी करने से इनकार कर दिया।

मंडल ने अपनी अर्जी में कहा कि दिल्ली सरकार ने खुद माना है कि जून के अंत तक राष्ट्रीय राजधानी में कोविड-19 के लगभग एक लाख मामले होंगे और जुलाई के मध्य तक यह संख्या लगभग 2.25 लाख और जुलाई के अंत तक 5.5 लाख हो जाएगी।

उन्होंने कहा कि ऐसे परिदृश्य में, सरकार को दिल्ली में सख्त लॉकडाउन लागू करने पर विचार करना चाहिए।

गतिविधियों को फिर से खोलने का केन्द्र का फैसला जल्दबाजी में नहीं लिया गया: अदालत

दिल्ली उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को कहा कि लॉकडाउन को चरणबद्ध तरीके से खोले जाने संबंधी केन्द्र सरकार का फैसला जल्दबाजी में नहीं लिया गया था और ऐसा कोविड-19 महामारी को फैलने से रोकने और लोगों को भूख से बचाने के प्रयास में संतुलन कायम करने के लिए किया गया था।

अदालत ने कानून के एक छात्र की जनहित याचिका को खारिज करते हुए उस पर 20 हजार रुपये का हर्जाना लगाया। इस छात्र ने केन्द्र के 30 मई के आदेश को चुनौती थी।

केन्द्र ने आदेश दिया था कि निरूद्ध क्षेत्रों में लॉकडाउन को बढ़ाया जा रहा है और निरूद्ध क्षेत्रों के बाहर चरणबद्ध तरीके से गतिविधियों को फिर से खोला जायेगा।

न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति सुब्रमणियम प्रसाद की एक पीठ ने कहा कि सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह स्थिति के प्रति सजग रहे और उसका बारीकी से मूल्यांकन करे और यदि यह पाया जाए कि संक्रमण की दर बढ़ रही है, तो वे हमेशा अपने निर्णय की समीक्षा कर सकते हैं और स्थिति के अनुसार अंकुश लगा सकते हैं।

केन्द्र विमान की टिकटों का पैसा लौटाने के मामले में विमान कंपनियों से बात करे: न्यायालय

उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को केन्द्र और विमान कंपनियों से कहा कि वे कोविड-19 लॉकडाउन की वजह से घरेलू और अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के रद्द करायी गयी टिकटों का पूरा पैसा लौटाने के तौर तरीकों पर विचार करें।

न्यायमूर्ति अशोक भूषण, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम आर शाह की पीठ ने वीडियो कांफ्रेन्सिंग के माध्यम से मामले की सुनवाई करते हुये केन्द्र से कहा कि इस मुद्दे पर साफ रूख अपनाये और पूरा पैसा लौटाने का रास्ता खोजें।

गैर सरकारी संगठन प्रवासी लीगल सेल ने इस मामले को लेकर न्यायालय में याचिका दायर कर रखी है। इसी दौरान यह मुद्दा भी उठाया गया कि कोविड-19 की वजह से दुनिया भर में विमान कंपनियां संकट से गुजर रही हैं और ऐसी स्थिति में लंबित मामले में उन्हें भी सुना जाये।

शीर्ष अदालत इस मामले में अब तीन सप्ताह बाद आगे सुनवाई करेगी।

न्यायालय ने लॉकडाउन की वजह से रद्द करायी गयी टिकटों का पूरा पैसा वापस कराने के लिये दायर याचिका पर सोमवार को केन्द्र और नागरिक उड्डयन महानिदेशालय से जवाब मांगा था।

याचिका में कहा गया था कि रद्द करायी गयी टिकटों का पूरा पैसा नहीं लौटाने की विमान कंपनियों की कार्रवाई को प्राधिकारी द्वारा जारी नागरिक उड्डयन अनिवार्यताओं का उल्लंघन करार दिया जाये।

याचिका के अनुसार टिकट रद्द कराये जाने के मामलों में विमान कंपनियां पूरा पैसा लौटाने की बजाये एक साल की वैधता वाला क्रेडिट दे रही हैं जो नागरिक उड्डयन महानिदेशालय के मई, 2008 के प्रावधान के खिलाफ है।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest