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नोएडा की झुग्गी-झोपड़ी पुनर्वास योजना ख़त्म, अब भी अधर में लटका है ग़रीबों का भविष्य

एक दशक तक ख़राब तरीक़े से लागू किये जाने के बाद झुग्गी पुनर्वास योजना ख़त्म हो गयी है। इस योजना के तहत नये बने फ्लैटों में से महज़ 10% फ़्लैट ही भर पाये हैं।
Noida

एनसीआर में नोएडा के इस तकनीकी केंद्र में जगमगाती, बड़ी संख्या में तेज़ी से खड़ी होतीं इमारतों ने इस ज़िले के इन इलाक़ों के कई झुग्गी-झोपड़ियों में हमेशा ही भारी तबाही मचायी है। इस स्याह पहलू के बारे में आम लोगों को भी पता है, लेकिन तब भी इन झुग्गियों में रहने वालों की वस्तुगत स्थितियों की अनदेखी की जाती है। इन मलिन बस्तियों में सफ़ाई, कुपोषण, न्यून साक्षरता और खुले में शौच की समस्या अब भी प्रचलन में है।

इन मलिन बस्तियों में रहने वाले ज़्यादातर लोग उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल से हैं। झुग्गी-झोपड़ियों में रह रहे इन लोगों की आर्थिक स्थिति हमेशा से ख़राब रही है, लेकिन इसके साथ ही आईटी टेक पार्कों और कॉरपोरेट हब का विस्तार इसके समानांतर होता रहा है। ज़्यादतर स्लम इलाक़े नोएडा के सेक्टर 4,5, 8, 9 और 10 जैसे कई सेक्टरों में पाये जाते हैं। लगातार बढ़ते आईटी हब की इस प्रकृति के चलते यह साफ़ हो जाता है कि नोएडा प्राधिकरण को इन मलिन बस्तियों से छुटकारा पाने की ज़रूरत है,यही वजह रही है कि नोएडा प्राधिकरण ने झुग्गी-झोपड़ी पुनर्वास योजना (झुग्गी पुनर्वास योजना) की शुरुआत की थी। 2011 में शुरू हुई इस योजना का मक़सद नवनिर्मित फ़्लैटों में नोएडा के झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों का पुनर्वास करना रहा है।

नोएडा सेक्टर-10 की एक झुग्गी बस्ती हरौरा में रहने वाले राजेंद्र पांडे (65) याद करते हैं कि वह 1986 में इस झुग्गी बस्ती में आये थे।राजेंद्र कहते हैं, ''जब हम यहां आये थे, तो इस जगह की हालत ख़ौफ़नाक़ थी। हमने किसी तरह अपनी झुग्गी डाल ली थी, फिर बाद में जाकर ईंटों के घर बनने लगे। मैं बहुत छोटा था, और चूंकि आर्थिक स्थिति ख़राब थी, इसलिए हम कभी पढ़-लिख नहीं पाये।” स्लम पुनर्वास योजना के बारे में बात करते हुए वह कहते हैं, "यह योजना किसी के लिए भी फ़ायदेमंद नहीं रही है और सफल भी नहीं हो पायी है।"

वह बताते हैं कि लोगों ने इस योजना को पसंद नहीं किया और इसका एक कारण पैसे ख़र्च कर पाने के सामर्थ्य की समस्या है। वह कहते हैं, ''हम इस योजना के तहत मासिक किस्तों का भुगतान नहीं कर सकते।''

इस योजना में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को उनके आवेदनों के आधार पर फ़्लैट आवंटित किये जाते हैं, और आवंटित फ़्लैट की दर के आधार पर उन्हें मासिक किश्तों का भुगतान करना होता है। अपार्टमेंट की क़ीमत 4.75 लाख रुपये से लेकर 6.80 लाख रुपये तक की होती है। यहां रहने वाले परिवार मुख्य रूप से ऐसे मज़दूर तबक़े से जुड़े हैं, जिनकी आमदनी बहुत छोटी है और ये लोग शहर की चारों ओर अपने शारीरिक श्रम के बूते अपना जीवन यापन करते हैं। इनमें से ज़्यादतर लोग निचली जातियों के हैं, और यही बात उनके सामाजिक-आर्थिक अभाव का संकेत भी देती है। इस तरह, 20 सालों की अवधि में 2,000 रुपये से लेकर 5,000 रुपये तक के मासिक किश्तों का भुगतान कर पाना काफी हद तक असंभव हो जाता है।

राजेंद्र कहते हैं, “इसके पीछे एक और कारण है और वह है-काग़ज़ी कार्रवाई। ठीक है कि मेरे इलाक़े के बहुत सारे लोगों ने इस योजना के लिए आवेदन नहीं किया है,लेकिन जिन्होंने भी किया, उनके आवेदन ख़ारिज हो गये।” कोई भी आवेदन दुरुस्त हो,इसके लिए कई दस्तावेज़ पेश करने होते हैं, और ऐसा कर पाने में असमर्थता से आम नौकरशाही  की जड़ता को बढ़ावा मिलता है। आख़िरकार वही हुआ,जो कि होना था, क्योंकि इस योजना के शुरू होने के एक दशक बाद पिछले साल इस स्लम पुनर्वास योजना को अपना मक़सद पूरा किये बिना ही बंद कर दिया गया। साल 2011 से 2018 तक के बीच नोएडा के अलग-अलग सेक्टरों की मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों की कुल आबादी में से महज़ 30% ने ही इस योजना के लिए आवेदन किया था। नोएडा के कई सेक्टरों में तक़रीबन 11,000 झुग्गी-झोपड़ी वाले घर हैं। इस समय बने हुए फ़्लैटों में से सिर्फ़ 10% मे ही लोग रह रहे हैं, बाक़ी फ़्लैट ख़ाली पड़े हैं।

नोएडा की झुग्गी बस्ती स्थित अरविंद के घर का एक संकरा दालान।

हालांकि, इस योजना का फ़ायदा नहीं मिल पाने की वजह ख़र्च करने का सामर्थ्य और नौकरशाही की लालफ़ीताशाही ही एकलौती वजह नहीं हैं। कई लोग अपने ख़ुद के रोज़गार को लेकर भी चिंतित हैं; झुग्गी-झोपड़ियों के भीतर सड़क किनारे उनके लगाये गये अनगिनत स्टॉल इन झुग्गी-झोपड़ियों की अर्थव्यवस्था से बहुत ज़्यादा जुड़े हुए हैं। इस तरह, इस नयी व्यवस्था में वैकल्पिक अवसरों की कमी ही झुग्गी-झोपड़ियों के लोगों के अपने इन इलाक़ों को छोड़ने की अनिच्छा के लिए ज़िम्मेदार है।

इसके अलावा, मलिन बस्तियों की अपनी कई समस्यायें भी हैं। किसी कंपनी में क्लीनर का काम करने वाले नौजवान सरोज का कहना है कि इन झुग्गियों में पानी की सुलभता एक अहम मुद्दा है. सरोज कहते हैं, ''सरकार बड़ी-बड़ी कंपनियों के बनायी गयी इमारतों में पानी की उचित आपूर्ति तो कर देती है, लेकिन हमें अपने नलों से आते खारे पानी पर ही निर्भर रहना पड़ता है।'' वह आगे कहते हैं, "ऐसे में पीने के लिए हमें पानी या तो ख़रीदना पड़ता है, या फिर हमें कंपनी की उन्हीं इमारतों से पानी लेना होता है, जहां पीने योग्य पानी की उचित आपूर्ति होती है।"

पिछली पीढ़ियों के लिए उच्च शिक्षा का कोई मतलब नहीं रहा है। मलिन बस्तियों में सफ़ाई और स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रखा जाता है, और आमतौर पर इन इलाक़ों को साफ़ रखने के लिए सरकार के लिए ज़रूरी माने जाने  वाली किसी भी तरह की कोई कोशिश नहीं की गयी है। इन्हीं झुग्गी-झोपड़ियों में कपड़ा सिलने का काम करने वाले अरविंद कुमार (45) का कहना है कि 1990 में जब वे नोएडा सेक्टर-10 के इस झुग्गी-झोपड़ी इलाक़े में आये थे, तो उनके पास सिर्फ़ 5वीं तक ही पढ़ने का मौक़ा था। अरविंद कहते हैं, "चूंकि मेरा परिवार मुझे आगे स्कूल नहीं भेज सकता था, इसलिए बाद में मैंने चाय की छोटी-छोटी दुकानों में बतौर मज़दूर काम करना शुरू कर दिया था। हमारी इन झुग्गी बस्ती में रह रहे मेरी उम्र के ज़्यादतर वयस्कों की यही कहानी है।" भले ही माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने की कोशिश करते हों,लेकिन जिस तरह पुरानी पीढ़ी के लिए बेहतर शिक्षा और नौकरियों की कोई गुंज़ाइश नहीं रही थी, उसी तरह इन छोटे बच्चों को भी उसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। अरविन्द की पत्नी रुचि देवी का कहना है कि शाम के समय दिनभर के काम से लौटने वाले मर्द आमतौर पर नशे में होते हैं, और इससे झुग्गी-झोपड़ियों में तनावपूर्ण स्थिति और बढ़ जाती है। रुचि सवाल करती हैं, "यहां लोगों का आपस में झगड़ना और उलझना आम बात है। पति पत्नी से झगड़ते हैं, पड़ोसी-पड़ोसी से झगड़ते हैं।तो  क्या ऐसे माहौल में हमारे बच्चे पढ़ सकते हैं ?"

अतीत में ऐसी कई घटनायें हुई हैं, जहां सरकारी अफ़सरों ने बिना किसी पूर्व सूचना के झुग्गियों को तहस-नहस कर दिया था। अरविंद कहते हैं,"सरकार के इस तरह की कार्रवाइयों के चलते मेरे कई दोस्तों के पास अब घर नहीं रहा। कभी-कभी तो अफ़सर आते हैं और लोगों को अपने घर से निकलने के लिए तैयार करने की कोशिश करते हैं, लेकिन, अगर हम मना कर देते हैं, तब भी वे अपनी जेसीबी मशीन ले आते हैं और हमारे घरों को ध्वस्त कर देते हैं।" जिन लोगों के घरों को तोड़ दिया गया, उनके लिए तो यही उपाय बचता है कि वे किसी दूसरी खुली जगह या किसी और झुग्गी-झोपड़ी में चले जायें और लकड़ी के तख़्तों के सहारे तनी हुई तिरपाल की चादरों के नीचे एक अस्थायी बसेरा बना लें।

अरविंद कहते हैं,"स्थानीय विधायक भी इन्हीं बड़ी (रियल एस्टेट) कंपनियों के साथ खड़े होते हैं, और हमारी शिकायतों को कभी नहीं सुनते। वे इन बड़ी कंपनी की इमारतों की मदद हर तरह से पहुंचाते हैं, लेकिन उनके पास हमारे पास आने का वक़्त कभी नहीं निकल पाता।"  

आम तौर पर चाहे पुनर्वास की कोई भी बड़ी योजना हो, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों में इन बड़े अफ़सरों के इस तय हमले का डर निरंतर बना रहता है कि उनके घर और रोज़ी-रोटी कहीं छीन जायें।राजेंद्र कहते हैं, "आज या कल, हमारे हाथ से हमारे घर छिन जायेंगे। और हम जानते हैं कि इस बात की सबसे ज़्यादा संभावना है कि हमें सुरक्षित स्थान पर पुनर्वास नहीं किया जाये।"  

(कुशल चौधरी और गोविंद शर्मा स्वतंत्र पत्रकार हैं)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Noida’s Slum Rehabilitation Scheme Ends, but the Poor Still Left in the Lurch

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