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हम धर्मनिरपेक्षता और क़ानून के शासन में भरोसा रखने वाले लोग हैं: ज़फ़रयाब जिलानी

अयोध्या भूमि विवाद के मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वकील ज़फ़रयाब जिलानी का कहना है कि उन्हें ख़ुशी है कि केस अब ख़ात्मे की ओर बढ़ चला है।
 Zafaryab Jilani

वरिष्ठ अधिवक्ता ज़फ़रयाब जिलानी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड की तरफ़ से पिछले 45 साल से अयोध्या में बाबरी मस्जिद विवाद की पैरवी कर रहे हैं। बुधवार को ख़त्म हुई सुनवाई के बाद उन्होंने रश्मी सहगल से बातचीत की।

सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के आख़िरी दिन ख़बर आई कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड एक शर्त पर अपना दावा छोड़ने के लिए तैयार है कि समझौते के बाद दूसरी मस्जिदों को निशाना नहीं बनाया जाएगा। आपका क्या कहना है?

सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड इस मामले के पांच दावेदारों में से एक है। इस मुद्दे पर मुझे सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के अध्यक्ष ज़फ़र अहमद फ़ारूक़ी से बात करने का मौक़ा नहीं मिला। लेकिन दूसरों को साथ लिए बिना कोई भी समझौता नहीं हो सकता। अब मध्यस्थता की बातें बेमानी हैं। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुरक्षित रखा है। अब हम इसी के इंतज़ार में हैं।

रिटायर जनरल ज़मीरुद्दीन शाह का कहना है कि अगर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला मस्जिद के पक्ष में आ जाता है तो भी फ़िलहाल हिंदू बहुसंख्यकों की भावनाओं के चलते बहुत कम आसार हैं कि ज़मीन पर कुछ हो पाए। शाह का समुदाय में कोई आधार नहीं है। न ही उन्हें समुदाय की तरफ़ से बोलने का हक़ है। 

लेकिन अगर मुस्लिमों के पक्ष में फ़ैसला आया तो क्या वो हिंदुओं की भावनाओं का ख़याल रखेंगे? क्योंकि हिंदू विवादित स्थल पर प्रार्थना शुरू कर चुके हैं। 

इस मुद्दे पर फ़िलहाल मैं कुछ नहीं बोल सकता। पहले फ़ैसला आ जाने दीजिए, उसके बाद शरीयत तय कर सकता है कि वे किस तरह की अनुमति देंगे। हमारा ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भविष्य में मुलाक़ात कर अपने आगे के क़दमों को तय करेगा।

आज हिंदुओं के एक धड़े में अपने मुस्लिमों भाइयों के लिए सहानुभूति नहीं है। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और AIMPLB के कुछ रूढ़िवादी बयानों ने भी इस नज़रिये को बल दिया है। आपके क्या विचार हैं?

बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी, विश्व हिंदू परिषद की तरह कभी इस मुद्दे को सड़कों पर नहीं ले गई। हम क़ानून के तहत अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं, जबकि उन्होंने सड़कों पर भी जंग छेड़ दी।

अयोध्या मामला अब सत्तर साल पुराना हो चुका है। आप इस केस में बहुत लंबे समय से जुड़े हुए हैं, आपकी इस मामले पर क्या सीख है?

मैं इस केस में पिछले तीस सालों से सक्रिय तौर पर जुड़ा हुआ हूँ। दूसरे परिवादियों की तरह मैं भी चाहता था कि इस मामले को तेज़ी से निपटाया जाए। असली केस 1986 में शुरू हुआ। 2008 में दलीलें शुरू की गईं। इसके पहले बहुत लंबा वक़्त सबूत पेश करने के लिए दिया गया। बहुत सारा वक़्त रिसीवर की नियुक्ति मे भी लिया गया। एक की नियुक्ति की गई, लेकिन उसकी मौत हो गई। तब केस शुरू करने के पहले एक दूसरे को लाया गया।

1989 में मामले को इलाहाबाद हाईकोर्ट के सामने रखा गया, वहीं 1992 में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया। 1994 में सुनवाई फिर शुरू हुई। 2003 में अटल बिहारी सरकार के वक़्त इस केस की दैनिक सुनवाई शुरू की गई। 

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2010 में अपना फ़ैसला सुनाया। लेकिन फ़ैसले से साफ़ हो गया कि तीनों परिवादी, सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला के पास विवादित ज़मीन का मालिकाना अधिकार नहीं है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सही व्याख्या नहीं की। हाईकोर्ट ने उपयोगकर्ता को मालिकाना हक़ से अलग कर दिया। जैसा सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि उपयोगकर्ता के पास ही मालिकाना हक़ होता है। इस मामले में ऐतिहासिक तौर पर उपयोगकर्ता मुस्लिम समुदाय है जो इस तीन मंज़िला मस्जिद की इमारत का इस्तेमाल कर रहा था।

पहले सवाल पर लौटते हैं; 2017 में केंद्र सरकार ने कोर्ट पर मामले की सुनवाई तेज़ करने का दबाव डाला। 2017 में एक विशेष पीठ का गठन किया गया और सुनवाई में तेज़ी आई। हम 1986 से इसे तेज़ी से निपटाए जाने की मांग कर रहे हैं। हमने सुनवाई तेज़ करने के लिए आवेदन भी लगाया था और हम ख़ुश हैं कि आख़िरकार इस मामले का अंत आ गया है।

क्या यह मामला वक़्त के साथ हिंदू-मुस्लिम विवाद बन गया है?

विवाद की शुरूआत 1850 में हुई थी, जब कुछ बैरागियों ने बाहरी अहाते में एक चबूतरा बना दिया। मजिस्ट्रेट ने इसे हटाए जाने का आदेश दिया। लेकिन इसका पालन नहीं किया गया। मुस्लिमों ने चबूतरे को तोड़ने की अपील की। 1885 में निर्मोही अखाड़े के महंत रघुवर दास ने चबूतरे पर छज्जा बनाने के लिए मुक़दमा दायर कर अपील की। लेकिन इसे ठुकरा दिया गया। उन्होंने बाबरी मस्जिद के पास 21X17 फ़ीट आकार के निर्माण की मांग की थी। 

केस को ख़ारिज कर दिया गया क्योंकि मस्जिद पश्चिम में स्थित थी। माना गया कि इसके लिए अनुमति लेना ठीक नहीं है। कोर्ट को अंदाज़ा था कि इससे ख़ून-ख़राबा हो सकता है। दास ने डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के सामने फ़ैज़ाबाद में केस लगाया, जिसे 1886 में ख़ारिज कर दिया गया। 

हिंदुओं के पास कभी अधिकार नहीं था। इसके बाद वे दूसरी अपील लेकर अवध के ज्यूडीशियल कमिश्नर के पास पहुंचे, उसे भी रद्द कर दिया गया। हिंदू बाहरी चबूतरे पर पूजा कर रहे हैं, जिस पर कोई विवाद नहीं है। स्वतंत्रता के बाद उस वक़्त के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की मदद से चोरी से मस्जिद के केंद्रीय गुंबद में मूर्तियां रख दी गईं। 

लेकिन मुस्लिमों के पास मालिकाना हक़ नहीं है?

नहीं, मुस्लिम कभी यह नहीं कह सकते कि वो मस्जिद के मालिक हैं। मस्जिद के मालिक अल्लाह होते हैं। वक़्फ़ बोर्ड 1936 में बना। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में साफ़ कहा गया है कि अगर 'समर्पण का प्रमाण'(Evidence of dedication) उपलब्ध नहीं है तो मस्जिद का उपयोगकर्ता, इसके समर्पण के प्रमाण के लिए पर्याप्त होगा।

लेकिन एक धड़ा ऐसा है जिसका मानना है कि इस मस्जिद में कभी नमाज़ नहीं पढ़ी गई?

वहां हमेशा से नमाज़ पढ़ी जाती रही है। केवल 1934 को छोड़कर, जब दंगों के चलते इसे कुछ दिन के लिए रोका गया था। वह ज़मीन वक़्फ़ बोर्ड की है और 1936 में वक़्फ़ एक्ट पास हुआ था। इसे संसद ने पास किया था। 

क्या आपने कोर्ट को सामने अपने दावे के पक्ष में दस्तावेज़ पेश किए हैं?

हमारे दावे के पक्ष में 150 से ज़्यादा सार्वजनिक दस्तावेज़ हैं। इनमें, 1860 मे राज्य ने कैसे मस्जिद को दान के तौर पर तीन सौ दो रुपये, तीन आना और 6 पैसे दिए, इसके बाद 1934 में राज्य ने इसके जीर्णोद्धार के लिए कैसे पैसा दिया जैसी बातें शामिल हैं। हमने अपने दावे के पक्ष में धार्मिक किताबें और दूसरी किताबों को भी दिखाया है। 

इनमें गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस भी शामिल है, जिसमें एक भी जगह यह नहीं कहा गया कि किसी मंदिर को गिराया गया था। जबकि तुलसीदास बनारस में रहते थे। वाल्मीकि रामायण में भी ऐसा कुछ उल्लेख नहीं है। 

इस दौरान और इसके बाद भी कुछ दूसरी किताबें लिखी गईं, जैसे टेम्पल्स ऑफ़ इंडिया और गैजेटर्स, लेकिन इनमें भी मंदिर का ज़िक्र नहीं मिलता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की खोजबीन में भी इस जगह को रामजन्मभूमि नहीं बताया गया। ऊपर से विभाग ने मलबे से जो कलाकृतियां पेश की हैं, उनमें एक भी मूर्ति इस दावे की पुष्टि के लिए नहीं है। 

क्या आपको लगता है कि सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला, इस समय पूरी तरह से हावी भावनाओं को ध्यान मे रखकर सुनाया जाएगा?

सुप्रीम कोर्ट क़ानून और संविधान का संरक्षक है। अगर सुप्रीम कोर्ट इस बात का फ़ैसला नहीं करेगा, तो कौन सी संस्था कर पाएगी? हमारा सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता में पूरा यक़ीन है और हमें लगता है कि वह सबूतों के आधार पर फ़ैसला करेगा। 

अगर आपके ख़िलाफ़ फ़ैसला आया तो क्या?

हम उसे मान लेंगे। हम क्या कर सकते हैं? हम एक रिव्यू पेटिशन लगा सकते हैं, लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि यह हमारे पक्ष में रहेगा। 

लेकिन अगर फ़ैसला मुस्लिमों के ख़िलाफ़ आता है, तो क्या सरकार यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड और एनआरसी जैसे दूसरे मुद्दे शुरू नहीं करेगी?

मैं एक मुस्लिम हूँ। मेरा अल्लाह पर पूरा विश्वास है। हम कोशिश कर सकते हैं। जो भी हमारे भाग्य में लिखा होगा, वो होगा। हम क़ानून और धर्मनिरपेक्षता के शासन में विश्वास रखते हैं। हमें इसी देश में रहना है और हम यह बात नहीं भूल सकते।

रश्मी सहगल स्वतंत्र पत्रकार हैं

अंग्रेजी में लिखा मूल लेख आप नीचे लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। 

Not Afraid of Any Govt; Believe in Rule of Law, Secularism: Zafaryab Jilani

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