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पैगंबर विवाद: "सभ्य राष्ट्र" के रूप में भारत की विरासत पर यह एक कलंक है
भविष्य के भारत को लेकर,मोदी का दृष्टिकोण क्या है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, सच्चाई यह है कि भारत तब तक बेहतर प्रगति नहीं कर सकता है जब तक कि देश की आबादी के लगभग पांचव हिस्से को विकास से बाहर रखा जाता है और राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग किया जाता है।
एम. के. भद्रकुमार
08 Jun 2022
Translated by महेश कुमार
MODI
प्रधानमंत्री मोदी और जॉर्डन के बादशाह अब्दुल्ला ने 28 फरवरी, 2018 को नई दिल्ली में 'इस्लामिक विरासत: समझ और संयम को बढ़ावा देना' वाले सम्मेलन को संबोधित किया था(File Photo)

भारत में मुस्लिम विरोधी राजनीति ने लाल रेखा को लांघ लिया है और इसके प्रति मुस्लिम दुनिया में बढ़ता आक्रोश समझ में आता है, हालांकि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने नुकसान को कम करने के लिए तेजी से काम किया है। लेकिन असली मुद्दा यह है कि दुनिया ने इस बात पर ध्यान दिया है कि भारत में मुस्लिम विरोधी राजनीति अपने चरम पर पहुंच गई है और जो देश की लोकतांत्रिक नींव को कमजोर कर रही है।

अमेरिकी विदेश विभाग ने पिछले हफ्ते नरेंद्र मोदी सरकार की निगरानी में भारत में स्थिति की गंभीरता को लेकर चिंता जताई थी। इसलिए बड़ा सवाल यह है कि क्या मौजूदा मामले में बीजेपी का डैमेज कंट्रोल सरकार को जिम्मेदारी से मुक्त कर देता है या वह अभी भी एक ग्रे जोन बना हुआ है।

प्रसिद्ध पैटर्न के अनुसार, शीर्ष सरकारी अधिकारी गायब हो गए हैं। भारतीय जनता अब इस तरह के नाटक की अभ्यस्त हो गई है, जहां सरकार, सत्ताधारी पार्टी के कैडरों के घृणित व्यवहार के बहाव में खुद को दिखावटी रूप से दूर करती है, और फिर जीवन आगे बढ़ जाता है और सब भुला दिया जाता है।

लेकिन इंटरनेट के इस युग में, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इतना ज्ञानी तो है कि वह अपनी राय बना सकता है और उसे इतना तो पता ही होता है कि भारतीय राष्ट्र और पार्टी अलग-अलग ग्रहों में नहीं रहते हैं।

भारतीय हुकूमत इनकार की स्थिति में है, जबकि देखा यह गया है कि पश्चिम एशिया में, हाल के वर्षों में भारत के लिए जनमत का ज्वार प्रत्यक्ष रूप से प्रतिकूल रूप से बदल गया है। इसके गहरे भू-रणनीतिक निहितार्थ हैं जिन्हे निश्चित रूप से महसूस किया जाएगा,और ये प्रभाव छोटे और लंबे समय तक भारतीय हितों और क्षेत्रीय प्रभाव के प्रति हानिकारक हो सकते हैं। यदि ऐसा है, तो फिर आप जमीन पर बैठकर शोक न मनाए कि चीन ने अपने विस्तारित पड़ोस में "सॉफ्ट पावर" के रूप में भारत को काफी पीछे छोड़ दिया है।

पश्चिम एशियाई निज़ाम ने परंपरागत रूप से एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया है। यूएई ने प्रधानमंत्री मोदी को अमीरात में एक हिंदू मंदिर के उद्घाटन की अनुमति भी दी थी। लेकिन फिर, संयुक्त अरब अमीरात एक अजीब देश है जिसमें देश की आबादी का केवल 7 या 8 प्रतिशत हिस्सा मूल अरब आबादी है और "जनमत" के रूप में कुछ भी नहीं है। यह कहना  पर्याप्त होगा कि हाल के वर्षों में भारत के प्रति अरब शासक अभिजात वर्ग के दिल और दिमाग में वास्तविक भावनाएं क्या हैं, बताना थोड़ा मुश्किल है।

भारत में तय राय यह है कि अरब कुलीन वर्ग अवसरवादी हैं और खुद इस्लाम का बहुत कम सम्मान करते हैं। भारतीय आम तौर पर, विशेषज्ञों की राय सहित, अब्राहम समझौते को मुस्लिम पश्चिम एशिया में सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के राजनीतिक छल की अभिव्यक्ति के रूप में देखते थे। निश्चित रूप से यह वहाँ की वास्तविक के बारे में बड़ी गलतफहमी है, क्योंकि यह समझ मूल रूप से फिलिस्तीनी मुद्दे के मामले में मुस्लिम राष्ट्रों की धार्मिकता के साथ भ्रमित करता है। इजरायल को मान्यता देने के मामले में संयुक्त अरब अमीरात के साथ शामिल होने से सऊदी अरब का इनकार घरेलू जनता की राय के मामले में शासक परिवार की उच्च स्तर की संवेदनशीलता का संकेत देता है।

निस्संदेह, इस तरह की गलतफहमी ने विदेश और सुरक्षा नीति के अभिजात वर्ग के वर्गों पर  कहर बरपाया है और समय के साथ भारतीय नीतियों को प्रभावित किया है। यहां तक कि एक मत यह भी है कि भारत को इजरायल के साथ गठबंधन करना चाहिए और खाड़ी क्षेत्र में उसकी विभाजनकारी राजनीति में भाग लेना चाहिए।

इसका कारण यह है कि पिछले सप्ताह भाजपा के दो शीर्ष पदाधिकारियों द्वारा इस्लाम पर जो अभद्र टिप्पणी की गई, यह पार्टी हलकों के उच्च पदों में से इस आम धारणा से आई होगी कि जब तक भारत शेखों के साथ पारस्परिक लाभ का व्यापार ( “win-win” business) करता है, तब तक वह देश में मुस्लिम विरोधी कट्टरता को बढ़ावा दे सकते हैं।

लेकिन यह सरासर भोलापन है। पैन-इस्लामवाद इतिहास का एक तथ्य है। इस प्रकार, मुस्लिम दुनिया में जोरदार प्रतिक्रिया से सरकार गलत कदम पर पकड़ी गई है। खाड़ी के अधिकांश देशों ने कथित तौर पर राजनयिक स्तर पर अपना विरोध दर्ज़ किया है। यहां तक कि जॉर्डन, जिसका "उदारवादी इस्लाम" का एक शानदार रिकॉर्ड है, ने भी अभद्र भाषा की निंदा की है। सोशल मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि पश्चिम एशियाई राष्ट्र भारत सरकार से "सार्वजनिक माफी" की मांग कर रहे हैं।

निश्चित रूप से, सऊदी अरब और ईरान का रुख यहां प्रमुख टेम्पलेट या खाका बन गया है। दोनों देशों ने अपनी निंदा में शब्दों की कमी नहीं की है। इसके मुताबिक,यह भी महत्वपूर्ण है कि सऊदी विदेश मंत्रालय ने "भाजपा द्वारा प्रवक्ता को निलंबित करने की कार्रवाई का स्वागत किया है।" समान रूप से, ईरान के विदेश मंत्रालय ने तेहरान में भारतीय राजदूत के साथ एक बैठक के बाद नोट किया कि "इस मुद्दे पर खेद व्यक्त किया और कहा कि इस्लाम के पैगंबर के प्रति किसी भी तरह की अभद्र टिप्पणी मंजूर नहीं होगी।।"

भारतीय दूत ने ज़ोर देकर कहा कि,“यह भारत सरकार का रुख नहीं है और हम सभी धर्मों का  अत्यधिक सम्मान करते हैं। उन्होंने कहा कि जिस व्यक्ति ने पैगंबर मुहम्मद का अपमान किया है, उसके पास कोई सरकारी पद नहीं है और केवल उसी पार्टी में उसका पद है, जहां से उसे बर्खास्त किया गया था।

स्पष्ट तौर पर, रियाद और तेहरान दोनों ने "उम्मा" में मौजूद गुस्सावर या कट्टरपंथी तत्वों के तीखेपन को कम करने के लिए अतिरिक्त आलोचना की है। हैरानी की बात नहीं है कि पाकिस्तान पूरी तत्परता के साथ मैदान में कूद पड़ा है।

ईरान के विदेश मंत्री हुसैन अमीर-अब्दुल्लाहियन इस सप्ताह के अंत में भारत आने वाले थे। उम्मीद है कि यात्रा योजना के अनुसार आगे बढ़ेगी। विश्व व्यवस्था में अत्यधिक उथल-पुथल और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की बढ़ती नाजुकता की पृष्ठभूमि के खिलाफ भारत और ईरान को अपने संबंधों को फिर से स्थापित करने की तत्काल जरूरत है।

निस्संदेह, तेहरान का दायित्व है कि वह देश के 1979 के संविधान के अनुसार, इस्लामी क्रांति की विरासत को मूर्त रूप देते हुए, दुनिया में कहीं भी उठ रहे मुस्लिम मुद्दों पर बोलें। लेकिन, उस ने कहा, ईरान के पास भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई रिकॉर्ड नहीं है। इसके विपरीत, ईरान कठिन समय में भी भारत का एक इच्छुक साथी रहा है।

1992 में भी, अयोध्या की घटनाओं और उससे उत्पन्न अन्य घटनाओं और सांप्रदायिक हिंसा के बाद, तेहरान ने राजनयिक स्तर पर अपनी मजबूत चिंता और बेचैनी को उठाया था,जबकि अंतर-राष्ट्र संबंध के अपने कार्य को जारी रखा था। वास्तव में, अगस्त 1993 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने ईरान की एक ऐतिहासिक यात्रा की थी, जिसके दौरान उन्होंने मजलिस को संबोधित किया था - ऐसा करने वाले एक गैर-इस्लामी देश के वे पहले नेता थे - और सुप्रीम लीडर अयातुल्ला खामेनी ने उनकी अगवानी की थी और कोम सेमनेरी (Qom Seminary) के मौलवियों ने उनका स्वागत किया गया था।

बेशक, वर्तमान स्थिति अलग है क्योंकि उपरोक्त सभी मापदंडों की हद पार हो गई है और मुस्लिम मानस के सबसे पवित्र तारे को इसने छू लिया है, लेकिन यह "सभ्य राष्ट्र" के रूप में भारत की विरासत पर एक कलंक भी छोड़ता है। घटना की निंदा करने के लिए शब्द पर्याप्त नहीं हैं। सरकार को बिना किसी अपवाद के बोलना चाहिए और अपना मुंह खोलना चाहिए।

और सबसे बेहतर बात तो कुछ कार्यवाही करना होगा। सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण बात, इस पल को एक वेक-अप कॉल के रूप में गंभीरता से लिया जाना चाहिए क्योंकि राजनीतिक औचित्य के कारणों के साथ भाजपा के कट्टरता को पोषित करने के खतरे इसमें शामिल हैं। दूसरा, दुनिया में सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश के रूप में भारत की अद्वितीय स्थिति (और फिर भी ओआईसी से इसका बहिष्कार) भारतीय कूटनीति के लिए गंभीर चुनौतियां हैं।

हमारा दृष्टिकोण अपर्याप्त और पुरातन - और प्रासंगिक है। साउथ ब्लॉक की कूटनीति में यूरोप और अमेरिका पर इस तरह का अत्यधिक ध्यान न केवल अनुचित है, बल्कि भारत के "निकट विदेश" की उपेक्षा का जोखिम भी है जहां भारत के महत्वपूर्ण हित हैं। निश्चित रूप से, कोई ऐसा रास्ता जरूर होगा जिससे भारत सऊदी और ईरानी सद्भावना का लाभ उठा सके? उसे चीनी और रूसी कूटनीति का अनुकरण करना चाहिए।

तीसरा, ऐसी स्थितियों में सरकार को भाजपा के तंबू में मौजूद दुष्ट हाथियों के खिलाफ इसी किस्म की निर्णायक कार्रवाई करते रहना चाहिए। काश, यह सब पीएम मोदी के साथ ही रुक जाता। भविष्य के भारत के लिए उनके दृष्टिकोण से कोई फर्क नहीं पड़ता, स्पष्ट सत्य यह है कि भारत तब तक बेहतर प्रगति नहीं कर सकता जब तक देश की आबादी का लगभग पांचवां हिस्सा विकास से बहिष्कृत रहेगा और राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग रहेगा। इस जटिल गुत्थी को  केवल मोदी ही सुलझा सकते हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें: 

An Appalling Slur on the Civilisation State That is India

Narendra modi
Nupur Sharma
Qatar
India
Communalism

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