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ओबीसी तबक़े को क्यों हर साल 7 अगस्त मनाना चाहिए

7 अगस्त 1990 की यादों को ताज़ा करने से साफ़ तौर पर पता चलेगा कि कैसे हिंदुत्व की ताक़तों ने सामाजिक न्याय के लिए आंदोलनों को अवरुद्ध किया था। 
VP Singh

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 5 अगस्त को अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए भूमिपूजन कर रहे होंगे, तो न जाने कितने लोग भारतीय राष्ट्र को सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान को तिलांजलि देने के लिए कोस रहे होंगे। अपने इस विलाप में वे संभवत: एक और महत्वपूर्ण घटना को नोटिस करने में विफल होंगे-जिसे सामाजिक न्याय की ताकतों पर हिंदुत्व की विजय कहा जा सकता है, और जिसमें दलित और अन्य पिछड़े वर्ग के नेता और उनकी पार्टियां शामिल हैं।

दुनिया भर में सामाजिक न्याय के असंख्य अर्थ हो सकते हैं, लेकिन भारत में, विशेष रूप से हिंदी हार्टलैंड में, इसका मतलब निम्न जातियों द्वारा सत्ता और शासन की संरचनाओं पर से उच्च जातियों की जकड़ को तोड़ना है। सामाजिक न्याय की उनकी तलाश ने केंद्र सरकार की नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत के आरक्षण देने के प्रावधान जिसे प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने 7 अगस्त 1990 को घोषणा की थी से जबरदस्त गति मिली थी। 

ओबीसी नेताओं की वह तलाश लगता है अब असफल हो गई है, या शायद वे इसे यह भूल गए हैं। उनका भुलक्कड़पन 7 अगस्त को नज़र आएगा। अभी तक ओबीसी नेताओं और उनके बच्चों में से किसी ने भी इसे बड़े जश्न के तौर पर मनाने के बारे में नहीं सोचा है, जबकि आज उस दिन की 30 वीं वर्षगांठ है, जिस दिन संघीय स्तर पर सत्ता में भाग लेने के उनके लंबे संघर्ष को फल मिला था।

आरक्षण में कोटे का यह संघर्ष 1902 से शुरू होता है, जब कोल्हापुर के शासक ने आरक्षण की शुरुआत की थी, उसके बाद 1921 में मैसूर के महाराजा ने इसे लागू किया था। उसी वर्ष, मद्रास प्रेसीडेंसी में सत्ता में आने के बाद, जस्टिस पार्टी ने सभी प्रशासनिक पदों का 48 प्रतिशत हिस्सा गैर-ब्राह्मणों के लिए अलग किया था। 

फिर भी, आरक्षण को सामाजिक विविधता के साधन के रूप में सत्ता के ढांचे को बदलने को राष्ट्रीय स्तर पर बार-बार रोका गया। याद रखें कि 1953 में नियुक्त किए गए पहले पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर दिया गया था, क्योंकि तब के गृहमंत्री जीबी पंत का मानना था कि ऐसा करने से प्रशासनिक दक्षता में कमी आएगी और सबसे अधिक मेधावी लोगों को इसका दंड मिलेगा।

1978 में, जनता पार्टी ने बीपी मंडल की अध्यक्षता में दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया था। 1980 में पेश अपनी रिपोर्ट में, मंडल ने केंद्र सरकार की नौकरियों में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों यानि ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। 1980 तक, हालांकि, इंदिरा गांधी की कांग्रेस सत्ता में लौट आई थी- और मंडल रिपोर्ट तब तक धूल चाटती रही जब तक कि वीपी सिंह ने 7 अगस्त 1990 को इसकी सिफ़ारिशों को स्वीकार नहीं कर लिया।

संघीय स्तर पर ओबीसी आरक्षण को एक सच्चाई बनने में नौ दशक का समय लगा। फिर भी 7 अगस्त की तारीख़ को भुला दिया गया है। किसी भी सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह भविष्य की अपनी रूपरेखा के लिए अपनी अतीत की यादों और प्रतीकों को ताज़ा करे, आने वाली पीढ़ियों के लिए इसकी प्रासंगिकता को बनाए रखना जरूरी है क्योंकि उन्होने इस महत्वपूर्ण घटना को देखा नहीं है।

यह ठीक वैसा ही है जैसा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों ने हासिल किया है। उन कई मील के पत्थरों के बारे में सोचो जिन्हे हिंदुत्व ने 5 अगस्त के भूमिपूजन के लिए पार किए है। 22-23 दिसंबर 1949 की रात को, बाबरी मस्जिद में राम की मूर्ति को स्थापित किया गया था; 1 फरवरी 1986 को, बाबरी मस्जिद के ताले खोले गए; 6 दिसंबर 1992 को, बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था। इन सभी तारीखों को एक साथ एक यादगार हिंदुत्व स्मारक के भव्य प्रदर्शन से जोड़ा गया है ताकि इसकी नियति का एहसास हो सके। (यह एक अलग बात है कि ये तारीखें, कई लोगों के लिए, राष्ट्र पर लगे आघात की याद भी दिलाती हैं।)

7 अगस्त के आसपास इस याद को ताज़ा करना, निश्चित रूप से, हिंदुत्व द्वारा निर्मित इतिहास से सवाल करेगा। यह हमें 27 प्रतिशत आरक्षण के खिलाफ सवर्णों के समर्थन की याद दिलाएगा- और कैसे उनमें से एक बड़े तबके ने गैर-उदार भावनाओं को व्यक्त किया था। यह तारीख़ हमें मंडल के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों को फैलाने में मीडिया की भूमिका के बारे में बताएगा। यह हमें बताएगा कि क्यों दक्षिण भारत में विरोध प्रदर्शन नहीं हुए क्योंकि वहां आरक्षण का लंबा इतिहास है जिसने ओबीसी नेताओं को वहां सत्ता हासिल करने का मौका दिया था।

7 अगस्त 1990 की याद को फिर से ताज़ा करने से ओबीसी तबकों के एक होने से रोकने की हिंदुत्व की साजिश का भंडाफोड़ हो जाएगा। कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और बाबरी मस्जिद को ढहाने का  समर्थन जुटाने के लिए भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा शुरू की थी। राम को मंडल के खिलाफ खड़ा किया गया था, इस उम्मीद में कि हिंदू धार्मिक पहचान जाति की पहचान को कम कर देगी, एक ऐसा मिशन जिसे इतना योग्य माना गया कि देश भर में उसने मौत और तबाही का तांडव मचा दिया जिसे आडवाणी की रथयात्रा के मद्देनजर अंजाम दिया गया था।

फिर भी भाजपा को 1991 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की 51 की सीटों जीत पर ही जी मिली, भले ही फिर जनता दल, जिसमें वीपी सिंह थे, का विभाजन हो गया था। 7 अगस्त की याद को आजा करने पर वह हमें बताएगी कि लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाले अविभाजित बिहार में विपक्षी गठबंधन ने 54 लोकसभा सीटों में से 49 पर जीत हासिल की थी। यह हमें बताएगा कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच चुनावी गठबंधन की वजह से, भाजपा के कार्यकर्ताओं के बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने के ठीक एक साल बाद भी उत्तर प्रदेश में भाजपा को 1993 के विधानसभा चुनाव जीत हासिल नहीं हुई थी।

7 अगस्त की याद समाज के निम्न समूहों या तबकों को बताएगी कि सत्ता में भागीदारी के लिए उनकी खोज तब तक अवास्तविक रहेगी, जब तक वे भिखरे रहेंगे। यह उन्हें बताएगी कि उनके सिकुड़ते समर्थन के आधार को उच्च जाति के मतदाताओं द्वारा संवर्धित नहीं किया जा सकता है, जो अपने पारंपरिक प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए दृढ़ रहेंगे, जैसा कि उन्होंने 1990 में किया था, बिना सत्ता को उनके साथ साझा करने के।

7 अगस्त को याद करने की जरूरत पहले की तुलना में अब और अधिक हो गई है, क्योंकि भारत की जाति-आधारित वर्णव्यवस्था फिर से फल-फूलने के संकेत दे रही है। किसी व्यक्ति के माता-पिता की आय की गणना में उनके वेतन को शामिल करने का हाल ही का प्रस्ताव देखें, अब यह तय करेगा कि आप ओबीसी की मलाईदार परत यानि संपन्न तबके से संबंधित है या नहीं। मलाईदार परत से संबंध रखने वाले लोग आरक्षण का लाभ नहीं उठा सकते हैं।

इस बात की आशंका है कि क्रीमी लेयर निर्धारित करने का कठोर मानदंड ओबीसी तबकों के लिए आरक्षित नौकरियों को भरना कठिन बना देगा, एक ऐसा बिंदु जिसे ओबीसी कल्याण पर बनी संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में दर्ज़ किया है। समिति ने सरकारी आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि यहाँ तक कि मौजूदा फोर्मूले के तहत किसी व्यक्ति की आय की गणना करते वक़्त माँ-बात के वेतन को छोड़ भी दें, तब भी ओबीसी के समूह ए सेवाओं में केवल 13 प्रतिशत और समूह बी सेवा में मात्र 14.8 प्रतिशत लोग हैं। 

ईडब्ल्यूएस को 10 प्रतिशत के आरक्षण की घोषणा से ओबीसी नेताओं की उस कवायद को धक्का लगा जिसमें हमेशा तर्क देते थे, कि जब भी ईडब्ल्यूएस को आरक्षण देने की मांग उठाई जाएगी, आरक्षण पर 50 प्रतिशत कैप को हटाने का लाभ उन्हें किसी भी अन्य सामाजिक समूहों से पहले दिया जाना चाहिए। उन्होंने मंडल को उद्धृत कराते हुए कहा कि उन्होने कभी भी 52 प्रतिशत जनसंख्या के अनुपात में ओबीसी कोटे की सिफारिश नहीं की थी, क्योंकि वे सुप्रीम कोर्ट के कई फैंसलों का समान कराते हुए 50 प्रतिशत हद पार नहीं करना चाहते थे। ऐसा लगता है कि सरकार ने ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण देने के लिए मंडल की दरियादिली का शोषण किया है।

दरअसल, इसे समझने के लिए एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण की जरूरत है कि पिछले दो-तीन वर्षों में सामाजिक रूप से प्रगतिशील क़ानूनों या विधानों के खिलाफ एक संस्थागत हमला किया गया है। उदाहरण के लिए, 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम को बेअसर कर दिया था, लेकिन दलितों के विरोध ने सरकार को यथास्थिति बहाल करने के लिए मजबूर कर दिया। उसी वर्ष, न्यायपालिका ने विश्वविद्यालय स्तर के बजाय विभाग में आरक्षित पदों की संख्या की गणना करने के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के फैसले को सही ठहराया, जैसा कि पहले किया जाता था। गणना की इस पद्धति से विश्वविद्यालयों में आरक्षित नौकरियों की संख्या में काफी कमी आई है। महीनों के विरोध प्रदर्शनों ने सरकार को न्यायिक फैसले को पलटने पर मजबूर किया। फरवरी में फिर से, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है।

2017 के बाद से, मेडिकल कॉलेजों में राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (NEET) में ओबीसी को उनके 27 प्रतिशत कोटे से वंचित कर दिया है। इन सीटों को सामान्य वर्ग के लिए स्थानांतरित कर दिया गया है, जो पिछले तीन वर्षों में ओबीसी की लगभग 11,000 सीटों का नुकसान है। इस सप्ताह ही, चेन्नई उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह इस विवादास्पद मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए एक समिति का गठन करे।

सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के निजीकरण और नौकरशाही में पीछे से भर्ती की इज़ाजत देने के सरकार के फैसले से आरक्षण में और कमी आ जाएगी, क्योंकि क्रिस्टोफ जाफरलॉट और ए कलईरासन ने इंडियन एक्सप्रेस में अपने एक हालिया लेख में इस पर तर्क दिया है। उन्होंने देखा कि, "भारत में सकारात्मक भेदभाव के चक्र से पता चलता है कि इस नीति का कार्यान्वयन दलितों और ओबीसी के राजनीतिक दबदबे को कम करना है।" दूसरे शब्दों में, इन तबकों को तब लाभ तब होता है जब उनका प्रतिनिधित्व करने वाले दल सत्तारूढ़ गठबंधन में होते हैं या सरकार को उनके हितों को दरकिनार करने से रोकने के लिए उनकी अच्छी संख्या होती है।

जैसा कि जोफ्लॉट कहते है कि इस "मूक क्रांति" के खिलाफ हमला तीव्र गति से तब तक जारी रहेगा, जब तक कि निचली जातियां, विशेष रूप से ओबीसी, सामाजिक न्याय के लिए अपनी सदियों पुराने लंबे संघर्ष की यादों को फिर से तरो-ताज़ा नहीं करते हैं या उन्हे फिर से लड़ने के लिए तैयार नहीं होते हैं। यह विशेष रूप से हिंदी हार्टलैंड का कडा सच है, जहां वीपी सिंह के नाम पर एक भी सार्वजनिक भवन ढूंढना असंभव है। इसके विपरीत, उनका नाम से तमिलनाडु के थिरुपथुर शहर में एक मैरिज हॉल बनाया गया है। फिर, पेरियार मणियामई विश्वविद्यालय, त्रिची में एक पुस्तकालय का नाम अर्जुन सिंह के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उच्च शिक्षा में आरक्षण की शुरुआत की थी।

जब हिंदुत्व 5 अगस्त को शंख फूँकेगा, ओबीसी नेताओं को अपने समर्थकों की चेतना को बढ़ाने के लिए 7 अगस्त को बड़े स्तर पर मनाने की कोशिश करनी चाहिए। अतीत की याद को साझा किए बिना किसी आंदोलन का संभवतः कोई भविष्य नहीं हो सकता है।

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, व्यक्त  विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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