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एक और महाशक्ति का पीछा करती तेल की क़ीमत

अमेरिका के लिए, आपदा प्रतीक्षा कर रही है क्योंकि मुद्रास्फीति का भूत अर्थव्यवस्था को सता रहा है और आगे सर्दी का मौसम भी आने वाला है।
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ओपेक+ देशों ने तेल का उत्पादन और बढ़ाने की बाइडेन की मांग अनसुनी कर दी, 04 नवम्बर 2021

भू-राजनीतिक लोकवार्ताओं में अफगानिस्तान को पूर्व सोवियत संघ के अंत का कारण माना जाता है, लेकिन वास्तव में, वर्ष 1989 तक युद्ध उसके लिए "खून बहने वाला घाव" नहीं हुआ होता, अगर तेल निर्यात से होने वाली सोवियत आय में भारी गिरावट नहीं हुई होती।

पूर्व रैंड (RAND) पॉलिसी विश्लेषक और लेखक टैड डेली (अफगानिस्तान एंड गोर्बाच्योव ग्लोबल फॉरेन पॉलिसी, एशियन सर्वे, मई 1989) की विशेषज्ञ की आज राय है कि "अफगान संघर्ष की सैन्य और वित्तीय लागत ने, यद्धपि वह कोई मामूली लागत नहीं थी, फिर भी उसने दुनिया की एक महाशक्ति (पूर्व सोवियत संघ) की क्षमताओं पर शायद ही इतना दबाव डाला था।"

चेरनोबिल दुर्घटना (1986) से सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था और उसके ऊर्जा उद्योग को एक बड़ा आघात हुआ था। इसके बाद, तात्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन प्रशासन में केंद्रीय खुफिया एजेंसी (सीआइए) के तत्कालीन निदेशक विलियम केसी ने सऊदी अरब के किंग फहद के साथ गुप्त रूप से फॉस्टियन डील की थी। इस पर अमल करते हुए सऊदी अरब ने तेल की निकासी पांच गुना से भी ज्यादा कर दी थी। नतीजतन, दुनिया के बाजार में तेल की कीमतें 32 डॉलर प्रति बैरल से गिरकर 10 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी। इससे यूएसएसआर (सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ) की वार्षिक आय के एक बड़े हिस्से को बड़ा नुकसान हुआ था, जो पहले से ही काफी बजट घाटा झेल रहा था।

इसके तीस साल बाद इतिहास एक बार फिर दोहराया जा रहा है। अब तेल की कीमतों से जूझने की बारी अमेरिका की है। वह तेल की कीमतों में आए बड़े उछाल से नाराज है। दरअसल, कोरोना महामारी के चलते महीनों लॉकडाउन में घिरी रही दुनिया की बड़ी आबादी का टीकाकरण होने के बाद अब एशिया से यूरोप और उत्तरी अमेरिका में आर्थिक गतिविधियों में पुनरुज्जीवन लाने का समर्थन कर रही है।

तिस पर एक पूर्वानुमान यह है कि अब आगे भीषण सर्दी आने वाली है, जिसमें तेल जैसे ईंधन की मांग और बढ़ने वाली है। तेल की निरंतर कम आपूर्ति, प्रमुख क्षेत्रों और इलाकों में हो रहे आर्थिक सुधारों और बाजारों पर बढ़ते बाहरी दबाव; इनमें अपनी भूमिका निभा रहे हैं। बड़े निवेशक बैंकों का अनुमान है कि तेल की कीमत $100 डॉलर प्रति बैरल तक हो सकती है। गोल्डमैन सैक्स का कहना है कि 90 डॉलर प्रति बैरल कीमत होने का अनुमान एक रूढ़िवादी दृष्टिकोण हो सकता है। हालांकि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को $100 प्रति बैरल तक तेल की कीमत का पहुंच जाना "काफी संभव” लगता है।

इस परिदृश्य में अमेरिका के लिए यह आपदा प्रतीक्षा कर रही है क्योंकि मुद्रास्फीति का भूत उसकी अर्थव्यवस्था को सताने लगा है। वॉल स्ट्रीट जर्नल अखबार ने अक्टूबर में ही बताया था कि अमेरिकी श्रम विभाग के उपभोक्ता-मूल्य सूचकांक द्वारा मापी गई मुद्रास्फीति अगस्त से 12 महीनों में 5.3% थी, जो पिछले 12 वर्षों में लगभग अपने उच्चतम स्तर पर थी।

मुद्रास्फीति का मनोविज्ञान संदेहास्पद है। न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट है कि "श्रम बाजार में श्रमिकों की प्रमुखता है, वे दशकों में अब तक की सबसे बड़ी वेतन-वृद्धि का उपभोग कर रहे हैं और कामगार रिकॉर्ड दरों पर अपनी नौकरी छोड़ रहे हैं।"

अमेरिका में मुद्रास्फीति का दबाव ऐसे समय में आया है, जब जो बाइडेन प्रशासन मंगलवार के निराशाजनक चुनाव परिणाम मिलने के बाद मतदाताओं के मिजाज को बदलने के लिए अत्यधिक दबाव का अनुभव कर रहा है और अपने नागरिकों पर खर्च करने की योजना बना रहा है। पेन व्हार्टन बजट मॉडल का अनुमान है कि बाइडेन की $ 1.75 ट्रिलियन की सामाजिक व्यय-योजना वास्तव में $ 3.9 ट्रिलियन के करीब होगी, जबकि इस खर्च के लिए धन के पुनर्सृजन का प्रबंधन केवल $ 1.5 ट्रिलियन के करीब ही रह सकता है।

तेल की कीमतें और मुद्रास्फीति के स्तर, इसके कारण और प्रभाव के संबंध में परस्पर जुड़े हैं, क्योंकि अर्थव्यवस्था में तेल एक प्रमुख उत्पादक सामग्री है। जैसे-जैसे तेल की कीमतें बढ़ती हैं, मुद्रास्फीति - जो जीवनयापन का खर्च, व्यवसाय करने की लागत, उधार लेने के पैसे, बंधक, कॉर्पोरेट और सरकारी बॉन्ड प्रतिफल आदि जैसी सामान्य मूल्य प्रवृत्तियों की माप होती है- वह उसी दिशा में ऊंची से उच्चतर होती जाती है।

तेल की कीमतों में वृद्धि की पृष्ठभूमि के खिलाफ, राष्ट्रपति बाइडेन ने मांग की कि ओपेक+ (रूस और सऊदी अरब के बीच के कॉन्डोमिनियम) को आपूर्ति को बढ़ावा देना चाहिए। लेकिन ओपेक+ ने इस पर ध्यान नहीं दिया। बाद में, हताश बाइडेन ने मीडिया से कहा, "यदि आप गैस की कीमतों पर एक नज़र डालें, और आप तेल की कीमतों को देखें तो आपको यह लग जाएगा कि ये रूस या ओपेक देशों द्वारा अधिक तेल की निकासी करने से इनकार करने का दुष्परिणाम हैं।"

लेकिन ओपेक+ (पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन) बेपरवाह बना हुआ है। पिछले गुरुवार को एक वर्चुअल बैठक के बाद संगठन की तरफ से दिए गए बयान में कहा गया है कि वह जुलाई में अपनी बैठक में अनुमोदित मासिक उत्पादन समायोजन व्यवस्था का पालन करेगा। जाहिर है, तेल उत्पादक देश बहुत जल्दी उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए उत्सुक नहीं हैं, उन्हें डर है कि कोविड-19 के नए प्रकोप में वैश्विक आर्थिक सुधार में अभी भी कमी आ सकती है।

ऊर्जा की बढ़ी हुई कीमतें न केवल निकट समय में मुद्रास्फीति को बढ़ावा देने वाली हैं, बल्कि इससे अमेरिकी डॉलर भी कमजोर होगा। इससे पहले कि "हरित क्रांति" मध्यम अवधि में खेल के नियमों का पुनर्निर्धारण कर दे, इसी बीच, रूस और सऊदी अरब दोनों ही अपने विशाल तेल भंडार से अधिक से अधिक कीमत हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं।

निश्चित रूप से, यह बाइडेन के लिए "गोर्बाच्योव मोमेंट" है। वे इस पूर्व सोवियत नेता की जगह खड़े हैं और रिपब्लिकन उनके दरपेश इस कठिन समय का अपने लिए फायदा उठाने की ताक में हैं। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के ऊर्जा सचिव रहे रिक पेरी ने चेतावनी दी है कि, "आज आपदा की आशंका बहुत वास्तविक है कि हम व्यापार को सचमुच चालू रख सकते हैं या नहीं।" टेक्सास के पूर्व गवर्नर पेरी बिग ऑयल के करीबी हैं।

पेरी ने सीएनबीसी को बताया: "बाइडेन प्रशासन की प्रतिबंधात्मक कार्रवाइयां-पाइपलाइन को नकारना, ड्रिलिंग नहीं कराना, विदेशों में तेल और गैस परियोजनाओं का वित्तपोषण नहीं करना...ये सब की सब ट्रम्प प्रशासन के दौर में हासिल की गई ऊर्जा स्वतंत्रता में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन है।"

फिलहाल क्रूड ऑयल 82 डॉलर प्रति बैरल के आसपास है। शुक्रवार को, सऊदी अरामको ने अपने अरब लाइट क्रूड के लिए दिसंबर में विक्रय मूल्य को बढ़ाकर 2.70 डॉलर प्रति बैरल कर दिया, जो इस महीने से 1.40 डॉलर अधिक है। यह संकेत है कि मांग मजबूत बनी हुई है।

फिर भी, बाइडेन के पास कुछ विकल्प तो हैं। शायद, वे रणनीतिक पेट्रोलियम भंडार से तेल छोड़ने का आदेश दे सकते हैं, जिसमें ओपेक+ से अमेरिका द्वारा आयात किए जाने वाले कुल तेल की जगह एक वर्ष से अधिक समय तक चलने लायक पर्याप्त कच्चा तेल है; वे अमेरिकी तेल निर्यात पर प्रतिबंध लगा सकते है; या, वे एक कार्टेल के रूप में कार्य करने के लिए ओपेक पर मुकदमा चलाने के लिए कानून बनाने का प्रयास कर सकते हैं (जो निश्चित रूप से एक लंबी प्रक्रिया है)। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि इनमें से कोई भी विकल्प निकट समय में गैसोलीन की कीमतों को कम नहीं कर सकता है।

दूसरी तरफ, यह जोखिम है कि अगर बाइडेन तेल की कीमतों में बड़ी गिरावट लाने का लक्ष्य हासिल कर भी लेते हैं, तो यह उल्टा उनके खिलाफ जा सकता है और शेल तेल गतिविधियों को और धीमा कर सकता है, और इन सबसे अगले साल कीमतों में बहुत अधिक वृद्धि होगी, जब कांग्रेस का मध्यावधि चुनाव होने वाला होगा।

बेशक, इनमें बाइडेन के लिए सबसे अच्छा विकल्प रूसी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन और सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान से फोन पर बातचीत कर उनसे अधिक तेल की निकासी का अनुरोध करना ही हो सकता है। लेकिन इसके लिए बाइडेन को जिद छोड़ना होगा। पर वे ऐसा करने में बहुत कमजोर लगते हैं। अलबत्ता, यह काम ट्रंप कर सकते थे।

निश्चित रूप से, तेल बाजार एक और महाशक्ति-अमेरिका-को ताना मार रहा है। तत्कालीन सोवियत संघ तो मंदी की गहरी खाई में गिर गया, जिसका पेरेस्त्रोइका ने अंत कर दिया और जिसके चलते रूसी नेता बोरिस येल्तसिन को सोवियत संघ की शासन-प्रणाली का एक मुखर एवं कठोर आलोचक बना दिया था। अब सोवियत संघ से अमेरिका की समानता है, क्योंकि बाइडेन के पास भी आगे बढ़ने के लिए एक पेरेस्त्रोइका है और यह अस्तित्वगत भी है।

(एमके भद्रकुमार पूर्व राजनयिक हैं। वे उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रहे हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)

सौजन्य: इंडियन पंचलाइन

अंग्रेजी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

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