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पाकिस्तान का भू-अर्थशास्त्र बेहतर काम कर रहा है

चार देशों के गठबंधन (QUAD) का विचार बाइडेन प्रशासन को इस एहसास के बाद आया कि "शांति और क्षेत्रीय संपर्क परस्पर मज़बूत होने चाहिए", इस बात को चीन ने लगभग एक दशक पहले महसूस कर लिया था।
14 जुलाई, 2021 को पाकिस्तान के सुदूर उत्तर खैबर पख़्तूनख़्वा में विस्फ़ोट के बाद एक बस के खड्डे में गिरने से नौ चीनी नागरिकों की मौत हो गई।
14 जुलाई, 2021 को पाकिस्तान के सुदूर उत्तर खैबर पख़्तूनख़्वा में विस्फ़ोट के बाद एक बस के खड्डे में गिरने से नौ चीनी नागरिकों की मौत हो गई।

जब पूरी दुनिया इस बात पर मातम मना रही है कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान को मंझदार या   बदनामी में छोड़ रहा है तो ऐसा कर बाइडेन प्रशासन हार के जबड़े से जीत छीन रहा है. आशा की कितनी दुस्साहस है!

संयुक्त राज्य अमेरिका, उज्बेकिस्तान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के प्रतिनिधियों के बीच शुक्रवार को ताशकंद में सैद्धांतिक रूप से एक समझौता हुआ जिसके तहत "क्षेत्रीय संपर्क बढ़ाने पर केंद्रित एक नया चार देशों का राजनयिक मंच बनाना तय हुआ है" जो क्षेत्रीय राजनीति में एक बड़ी घटना है और अमेरिका की रणनीति में रातोंरात बदलाव को चिह्नित करता है जो हलबली वाले भू-अर्थशास्त्र की लड़ाई से बेहतर है। यह अपने आप में काफी लुभावना है।

इस मंच को बनाने का विचार बाइडेन प्रशासन के इस अहसास से उपजा है कि "शांति और क्षेत्रीय संपर्क पारस्परिक रूप से मजबूत रहने चाहिए" - कुछ ऐसा जो चीन ने लगभग एक दशक पहले खोज लिया था।

ताशकंद में जारी संयुक्त बयान में कहा गया है कि चार देश "समृद्ध अंतरराष्ट्रीय व्यापार मार्गों को खोलने के ऐतिहासिक अवसर को पहचानते हैं, [और] चारों पार्टियां व्यापार का विस्तार करने, पारगमन लिंक बनाने और व्यापार-से-व्यावसायिक संबंधों को मजबूत करने के लिए सहयोग करने का मजबूत इरादा रखते हैं।"

सभी पक्ष आपसी सहमति से इस सहयोग के तौर-तरीकों का निर्धारण करने के लिए आने वाले महीनों में मिलने के सहमत हो गए हैं।

यह प्रमुख घटनाक्रम इस बात को रेखांकित करता है कि वाशिंगटन अफगानिस्तान की स्थिरता में शामिल रहना चाहता है। यह अफगान के भीतर विभिन्न गुटों की वार्ता के लिए शुभ संकेत है।

अमेरिका इस बात को लेकर पूरी तरह से सचेत है कि इस क्षेत्र में उसकी प्रतिष्ठा दांव पर है और आज की तारीख़ में दुनिया में बिलकुल अलग-थलग खड़ा है, जैसा कि कथित तौर रूस का ढीठ भरा प्रस्ताव कि वह स्वेच्छा से अमेरिका का द्वारपाल बनने को तैयार है। 

जाहिर है, वाशिंगटन रूसी प्रस्ताव को स्वीकार करने में थोड़ा अनिच्छुक है, जो उसके लिए एक रोड़ा बन सकता है। यह एक हद तक मित्र देशों की क्षेत्रीय धुरी बनाने के उसके विचारशील कदम की व्याख्या करता है जो स्पष्ट रूप से संबंधों को बढ़ावा देने के इच्छुक हैं और इस क्षेत्र में अमेरिका के साथ काम करने के इच्छुक भी हैं। संभावित रूप से, वाशिंगटन अमेरिका-उज्बेकिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान के मंच को शंघाई सहयोग संगठन के मुक़ाबले "तुल्यभार" या उसके जवाब के रूप में इस्तेमाल कर सकता है, जिस पर चीन और रूस का वर्चस्व है।

चीन (और रूस) के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध होने के बावजूद, उज्बेकिस्तान और पाकिस्तान दोनों ही अमेरिका के साथ संबंधों को मज़बूत करने के लिए काफी उत्सुक हैं। और वे फारस की खाड़ी से लेकर चीन के साथ मध्य एशिया की सीमा तक फैले ग्रेटर मिडिल ईस्टर्न आर्क में दो सबसे बड़े देश हैं।

उज्बेकिस्तान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान भी मुस्लिम देश हैं और वे लगभग 30 करोड़ लोगों का बाजार उपलब्ध कराते हैं। निःसंदेह, अमेरिका ने अपना होमवर्क किया हुआ है। इस मंच में "इंडो-पैसिफिक" के तुच्छ नाम के मुक़ाबले व्यवहार्यता झलकती है।

हाल के वर्षों में, अमेरिका उज्बेकिस्तान के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों को विकसित करने पर अतिरिक्त ध्यान दे रहा है, जो न केवल मध्य एशिया का सबसे बड़ा देश है बल्कि राजनीतिक स्थिरता और समग्र विकास पथ में क्षेत्रीय रूप से एक सापेक्ष सफलता की कहानी भी है।

ताशकंद, वाशिंगटन के प्रस्तावों को स्वीकार करने के मामले में काफी उत्सुक रहा है, क्योंकि अमेरिका के साथ मजबूत संबंध रूस के साथ संतुलन बनाने में उसे मदद करते हैं और इसकी रणनीतिक स्वायत्तता को भी मजबूत करते हैं। 

नया मंच अफगानिस्तान के मुद्दों से परे द्विपक्षीय संबंधों की पाकिस्तान की उस लगातार मांग के प्रति अमेरिका की स्वीकृति का भी संकेत देता है। चीन-पाकिस्तान संबंधों में दोष रेखाएं हैं, जिन्हें छिपाना अब संभव नहीं है, और वाशिंगटन के विचार में, पाकिस्तानी अभिजात वर्ग, नागरिक और सैन्य वर्ग, हाल के दशक में अलगाव के बावजूद हमेशा की तरह पश्चिमी-उन्मुख रहे हैं।

निश्चित रूप से, अफगान युद्ध पर से पर्दा हटने के साथ, मध्य एशिया के कराची/ग्वादर बंदरगाहों को जोड़ने वाले रेल/सड़क संपर्क स्थापित करने का समय आ गया है। इससे सुरक्षा की स्थिति में अपेक्षित सुधार होने से मेगा परियोजनाओं को लागू करने का मौका मिलेगा।   निश्चित रूप से, तालिबान को क्वाड या इस मंच से कोई आपत्ति नहीं होगी। पाकिस्तानी बंदरगाहों को आदर्श रूप से संसाधन संपन्न मध्य एशियाई क्षेत्र और अफगानिस्तान को विश्व बाजार से जोड़ने के लिए तैयार किया गया है।

इसमें आगे काफी संभावनाएं हैं। कॉर्नवाल में हाल ही में जी7 शिखर सम्मेलन में वैश्विक ढांचागत निवेश को बढ़ाने के लिए नई पहल पर सहमति हुई थी। वाशिंगटन, डीसी में सेंटर फॉर स्ट्रेटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज द्वारा हाल ही में जारी एक पेपर ने इस नई वैश्विक बुनियादी ढांचे की पहल को चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव [बीआरआई] के जवाब के रूप में देखा जा रहा है, जिसमें वैश्विक बुनियादी ढांचे में निवेश करने के लिए निजी पूंजी के तेजी से निवेश पर जोर दिया गया था। 

जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने गुरुवार को व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति बाइडेन के साथ बातचीत करने के बाद कहा कि जब अगले साल जी-7 की अध्यक्षता करने की जर्मनी की बारी आएगी, तो उससे पहले बर्लिन कॉर्नवाल शिखर सम्मेलन के फैसले को लागू करने का इरादा रखता है। क्या जी7 मध्य एशिया में अमरीका के चार देशों के मंच (QUAD) की पहल में शामिल होगा?

स्पष्ट रूप से, सीपीईसी और चार देशों के मंच (QUAD) दोनों को अपनी थाली में सज़ा कर, पाकिस्तान अपनी विदेश-नीति में भू-अर्थशास्त्र की ओर बदलाव की सफलता का स्वाद चख रहा है। पाकिस्तान का भूगोल इसे बुनियादी ढांचे के विकास में चीन और पश्चिम के बीच प्रतिस्पर्धा का मैदान बनाता है। सीधे शब्दों में कहें तो नया मंच क्षेत्रीय राजनीति को प्रभावित करेगा।

दरअसल, अमेरिका पाकिस्तान को चीन पर उसकी भारी निर्भरता से दूर करने की उम्मीद करता है। नया मंच भारत को पराएपन का एहसास कराएगा जो लक्ष्यहीन रूप से काम कर रहा है। भारत ने चीन के बीआरआई से मुंह मोड़ लिया था लेकिन भारत के मुक़ाबले पाकिस्तान ने 60 अरब डॉलर का सीपीईसी हासिल कर लिया है और अब वह अमेरिका के नेतृत्व वाले क्वाड पर नज़र गड़ाए हुए है।

चीन के साथ भारत के संबंध गहरे ठंडे बस्ते में चले गए हैं और रूस के साथ उसके पारंपरिक मैत्रीपूर्ण संबंध भी खराब हो गए हैं, जबकि पाकिस्तान ने न केवल चीन के साथ अपने संबंधों को समृद्ध किया है, बल्कि वह विश्व व्यवस्था में बहुध्रुवीयता की सफलतापूर्वक खोज कर रहा है।

16 जुलाई को, पाकिस्तान और रूस ने कराची और लाहौर को जोड़ने वाली 2.5 से 3 अरब डॉलर की लागत वाली 1100 किलोमीटर की गैस पाइपलाइन परियोजना के एक बड़े सौदे पर हस्ताक्षर किए हैं, जो आयातित एलएनजी का परिवहन करेगा (जिसके लिए उसने कतर के साथ अलग से एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसके तहत २०० एमएमसीएफडी गैस अगले साल की शुरुआत में कराची के एलएनजी टर्मिनल तक पहुंच जाएगी, जिसे आने वाले वर्षों में 400 एमएमसीएफडी तक बढ़ाया जाएगा।) जबकि, ईरान के साथ भारत की गैस पाइपलाइन परियोजना अभी रुकावटों के साथ अटकी पड़ी है। 

पाकिस्तान चाहता है कि राष्ट्रपति पुतिन इस एतिहासिक गैस पाइपलाइन परियोजना का उद्घाटन करें,  यह उदघाटन इस साल के अंत में या 2022 की शुरुआत में होने की उम्मीद है। दिल्ली को गंभीरता से इस बात का आत्मनिरीक्षण करना चाहिए कि क्या पिछले एक दशक में लगातार पिछली सरकारों के तहत अमेरिका को भावुकता से गले लगाने से क्या कोई महत्वपूर्ण लाभ मिला? 

पाकिस्तान एक बार फिर महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता के बीच अग्रणी देश बनता जा रहा है। लेकिन इस बार, पाकिस्तान अपने भूगोल से लाभ उठाने के लिए तैयार लगता है और अपने समान विकास को आगे बढ़ाने की उम्मीद करता है।

निश्चित रूप से, यह नया मंच अफगानिस्तान पर अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि ज़ाल्मय खलीलज़ाद के दिमाग की उपज है, जिन्होंने लंबे समय से इस बात की वकालत की थी कि अफगानिस्तान को स्थिर करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि पाकिस्तान का इस्तेमाल कर आतंकवाद और चरमपंथ से दूर शांति और विकास के रास्ते इसे पाया जाए या प्रोत्साहित किया जाए। 

पाकिस्तान की युगांतरकारी यात्रा निश्चित रूप से दर्दनाक रहेगी और अनिश्चितताओं का सामना भी कर सकती है, जैसा कि खैबर पख्तूनख्वा प्रांत और इस्लामाबाद में पिछले सप्ताह की घटनाएं इसका एहसास कराती हैं। अमेरिका पाकिस्तान को एक सार्थक साझेदारी की पेशकश करके इसे एक अपरिवर्तनीय बदलाव के रूप में मजबूत करने में मदद कर सकता है।

इस बात की पूरी संभावना है कि चीन अमेरिकी पहल का स्वागत करेगा क्योंकि वह भी चाहता है कि इस क्षेत्र में सुरक्षा और स्थिरता बनी रहे जिससे बीजिंग को भी लाभ होगा। पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सुरक्षा और विकास में चीन का बहुत बड़ा दांव लगा है, और इस संबंध में,  बीजिंग और वाशिंगटन के बीच हितों की एकरूपता की कल्पना पूरी तरह से की जा सकती है।

एम. के. भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज़्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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