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विभाजन विभीषिका दिवस: भारत के दूसरे विभाजन की नींव रख दी गई है!

जिस तरह भारत-विभाजन की ऐतिहासिक विभीषिका इतिहास में अमिट है और जिसे कोई भुला या झुठला नहीं सकता, उसी तरह इस हक़ीक़त को भी कोई नहीं झुठला या भुला सकता है कि मौजूदा सत्ताधीशों के वैचारिक पुरखों का भारत के स्वाधीनता संग्राम से कोई सरोकार नहीं था।
विभाजन विभीषिका दिवस: भारत के दूसरे विभाजन की नींव रख दी गई है!
स्वतंत्रता दिवस समारोह के लिए लाल क़िले की सुरक्षा। फोटो साभार: गूगल 

दुनिया में कोई भी देश या समाज कभी भी अपनी किसी पराजय का दिवस नहीं मनाता है बल्कि उस पराजय को भविष्य के लिए सबक के तौर पर अपनी स्मृतियों में रखता है। लेकिन भारत अब दुनिया का ऐसा पहला और एकमात्र देश हो गया है जो हर साल 14 अगस्त को अपनी पराजय का दिवस मनाएगा। भारत की आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश करने से ठीक एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एलान किया है कि अब से हर वर्ष 14 अगस्त को 'विभाजन विभीषिका दिवस’ के तौर पर मनाया जाएगा।

गौरतलब है कि 74 वर्ष 14 अगस्त के दिन ही पाकिस्तान नामक देश अस्तित्व में आया था जो कि भारत के दर्दनाक विभाजन का परिणाम था। सांप्रदायिक नफरत और हिंसा के वातावरण में हुआ यह विभाजन महज एक देश के दो हिस्सों में बंटने वाली घटना ही नहीं थी बल्कि करीब दशक तक चले स्वाधीनता संग्राम के विकसित हुए उदात्त मूल्यों की, उस संग्राम में शहीद हुए क्रांतिकारी योद्धाओं के शानदार सपनों की और असंख्य स्वाधीनता सेनानियों के संघर्ष, त्याग और बलिदानों की ऐतिहासिक पराजय थी। उसी पराजय का परिणाम था- पाकिस्तान का उदय।

इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि भारत विभाजन की उस परिघटना में बड़े पैमाने पर लोग विस्थापित हुए थे। उस दौरान हजारों लोगों कत्ल कर दिए गए थे और लाखों लोग अपनी जान बचाने के अपना घर-संपत्ति छोड कर इधर से उधर यानी भारत से टूट कर बने पाकिस्तान में चले गए थे और लाखों लोग उधर से इधर आ गए थे। उत्सवप्रेमी प्रधानमंत्री का यह फैसला देश-दुनिया की नजरों में भले ही उनकी और उनकी सरकार के मानसिक और वैचारिक दिवालियापन का प्रतीक और स्वाधीनता दिवस को दूषित करने या उसका महत्व कम करने वाला हो, मगर हकीकत यह है उन्होंने यह फैसला अपनी विभाजनकारी वैचारिक विरासत के अनुरूप ही लिया है।

जिस तरह भारत-विभाजन की ऐतिहासिक विभीषिका इतिहास में अमिट है और जिसे कोई भुला या झुठला नहीं सकता, उसी तरह इस हकीकत को भी कोई नहीं झुठला या भुला सकता है कि मौजूदा सत्ताधीशों के वैचारिक पुरखों का भारत के स्वाधीनता संग्राम से कोई सरोकार नहीं था। मौजूदा सत्ताधीशों और उनके राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी की गर्भनाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और हिंदू महासभा से जुडी हुई है। इन दोनों ही संगठनों ने स्वाधीनता संग्राम से न सिर्फ खुद को अलग रखा था बल्कि स्पष्ट तौर पर उसका विरोध भी किया था। यही नहीं, 1942 के भारत छोडो आंदोलन के रूप में जब भारत का स्वाधीनता संग्राम अपने तीव्रतम और निर्णायक दौर में था, उस दौरान तो उस आंदोलन का विरोध करते हुए आरएसएस और हिंदू महासभा पूरी तरह ब्रिटिश हुकूमत की तरफदारी कर रहे थे।

पाकिस्तान के स्वप्नदृष्टा और संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने तो बहुत बाद में अपने आपको स्वाधीनता आंदोलन से अलग कर पाकिस्तान का राग अलापना शुरू किया था, लेकिन आरएसएस और हिंदू महासभा का तो शुरू से ही मानना था कि हिंदू और मुसलमान दोनों अलग-अलग राष्ट्र हैं और दोनों कभी एक साथ रह ही नहीं सकते। जिस तरह मुस्लिम लीग देश के मुसलमानों में हिंदुओं के प्रति नफरत फैलाने के काम में सक्रिय थी, उसी तरह आरएसएस हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाने में जुटा हुआ था। यानी दोनों ही किस्म की सांप्रदायिक ताकतें अंग्रेज हुकूमत के एजेंडा पर काम कर रही थीं।

स्वाधीनता आंदोलन से अपनी दूरी और मुसलमानों के प्रति अपने नफरत भरे अभियान को आरएसएस ने कभी छुपाया भी नहीं। आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार की (आरएसएस सुप्रीमो 1925-1940) ने सचेत तरीक़े से आरएसएस को औपनिवेशिक शासन के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई से अलग रखा। आरएसएस ने बड़ी राजनीतिक ईमानदारी के साथ ऐसी किसी भी राजनीतिक गतिविधि से ख़ुद को अलग रखा, जिसके तहत उसे ब्रिटिश हुकूमत के विरोधियों के साथ नत्थी नहीं किया जा सके। हेडगेवार की आधिकारिक जीवनी मे स्वीकार किया गया है - ''संघ की स्थापना के बाद डॉक्टर साहब अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के बारे में ही बोला करते थे। सरकार पर टीका-टिप्पणी नहीं के बराबर रहा करती थी।’’

गाँधी जी के नेतृत्व में सभी समुदायो की एकताबद्ध लड़ाई की कांग्रेस की अपील को ठुकराते हुए हेडगेवार ने कहा था- ''हिंदू संस्कृति हिंदुस्तान की जिंदगी की सांस है। इसलिए स्पष्ट है कि अगर हिंदुस्तान की रक्षा करनी है तो हमें सबसे पहले हिंदू संस्कृति का पोषण करना होगा।’’

हेडगेवार ने गाँधी जी के नमक सत्याग्रह आंदोलन की निंदा करते हुये कहा- ''आज जेल जाने को देशभक्ति का लक्षण माना जा रहा है।...जब तक इस तरह की क्षणभंगुर भावनाओं के बदले समर्पण के सकारात्मक और स्थाई भाव के साथ अविराम प्रयत्न नहीं होते, तब तक राष्ट्र की मुक्ति असंभव है।’’ कांग्रेस के नमक सत्याग्रह और ब्रिटिश सरकार के बढ़ते हुए दमन के संदर्भ मे आरएसएस कार्यकर्ताओं को उन्होंने निर्देश दिया था, ''इस वर्तमान आंदोलन के कारण किसी भी सूरत में आरएसएस को ख़तरे में नहीं डालना है’’।

1940 में हेडगेवार की मृत्यु के बाद आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक और प्रमुख भाष्यकार माधव सदाशिव गोलवलकर ने भी स्वाधीनता आंदोलन के प्रति अपनी नफरत को नहीं छुपाया। वे अंग्रेज शासकों के विरुद्ध किसी भी आंदोलन अथवा कार्यक्रम कितना नापसन्द करते थे इसका अंदाज़ा उनके इन शब्दों से लगाया जा सकता है - ''नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले 1930-31 मे भी आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डॉक्टर जी (हेडगेवार) के पास गए थे। इस 'शिष्टमंडल’ ने डॉक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आंदोलन से आज़ादी मिल जायेगी और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डॉक्टर जी से कहा कि वह जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो डॉक्टर जी ने कहा-'ज़रूर जाओ। लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलाएगा?’ उस सज्जन ने बताया, 'दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं, आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।’ तो डॉक्टर जी ने कहा- 'आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो।’ घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गए न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।’’

गोलवलकर द्वारा प्रस्तुत इस ब्यौरे से यह बात तौर पर सामने आ जाती है कि आरएसएस का मकसद स्वाधीनता संग्राम के प्रति आम लोगों को निराश व निरुत्साहित करना था। ख़ासतौर से उन देशभक्त लोगों को जो अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ कुछ करने की इच्छा लेकर घर से आते थे।

अगर आरएसएस का रवैया 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जानना हो तो गोलवलकर के इस वक्तव्य को पढ़ना काफ़ी होगा -

''सन 1942 में भी अनेक लोगों के मन में तीव्र आंदोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परन्तु संघ के स्वयं सेवको के मन मे उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों का कुछ अर्थ नहीं, ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।’’

इस तरह स्वयं गोलवलकर से हमें यह तो पता लग जाता है कि आरएसएस ने भारत छोड़ो आंदोलन के पक्ष में परोक्ष रूप से किसी भी तरह की हिस्सेदारी नहीं की। लेकिन आरएसएस के किसी प्रकाशन या दस्तावेज़ या स्वयं गोलवलकर के किसी वक्तव्य से आज तक यह पता नहीं चलता है कि आरएसएस ने अप्रत्यक्ष  रूप से भारत छोड़ो आंदोलन में किस तरह की हिस्सेदारी की थी। गोलवलकर का यह कहना कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आरएसएस का 'रोज़मर्रा का काम’ ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है। यह रोज़मर्रा का काम क्या था? इसे समझना ज़रा भी मुश्किल नही है। यह काम था मुस्लिम लीग के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हिंदू और मुसलमान के बीच की खाई को गहराते जाना। इस 'महान’ सेवा के लिए कृतज्ञ अंग्रेज़ शासकों ने इन्हें अपनी कृपा से नवाज़ा भी। यह गौरतलब है कि अंग्रेजी शासन में आरएसएस और मुस्लिम लीग पर कभी भी प्रतिबंध नहीं लगाया गया।

सच तो यह है कि गोलवलकर ने स्वयं भी कभी यह दावा नही किया कि आरएसएस अंग्रेज़ विरोधी संगठन था। अंग्रेज शासकों के चले जाने के बहुत बाद गोलवलकर ने 1960 में इंदौर (मध्य प्रदेश) में अपने एक भाषण मे कहा - ''कई लोग पहले इस प्रेरणा से काम करते थे कि अंग्रेजों को निकाल कर देश को स्वतंत्र करना है। अंग्रेजों के औपचारिक रूप से चले जाने के बाद यह प्रेरणा ढीली पड़ गयी। वास्तव में इतनी ही प्रेरणा रखने की आवश्यता नहीं थी। हमें स्मरण रखना होगा कि हमने अपनी प्रतिज्ञा में धर्म और संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र की स्वतंत्रता का उल्लेख किया है। उसमें अंग्रेज़ों के जाने न जाने का उल्लेख नहीं है।’’

जहां तक तिरंगे झंडे का सवाल है, उसके प्रति भी आरएसएस के मन में कभी सम्मान नहीं रहा। आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी पत्र ऑर्गनाइज़र में 14 अगस्त 1947 वाले अंक में लिखा,

“वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगा थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा ना इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा और ना ही अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हो वह बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेह होगा।”

गोलवलकर ने अपने लेख में कहा है, “कौन कह सकता है कि यह एक शुद्ध तथा स्वस्थ राष्ट्रीय दृष्टिकोण है? यह तो केवल राजनीतिक, कामचलाऊ और तात्कालिक उपाय था। यह किसी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अथवा राष्ट्रीय इतिहास तथा परंपरा पर आधारित किसी सत्य से प्रेरित नहीं था। वही ध्वज आज कुछ छोटे से परिवर्तनों के साथ राज्य ध्वज के रूप में अपना लिया गया है। हमारा राष्ट्र एक प्राचीन तथा महान राष्ट्र है जिसका गौरवशाली इतिहास है। तब क्या हमारा कोई अपना ध्वज नहीं था? क्या सहस्त्र वर्षों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं था? निःसन्देह, वह था। तब हमारे दिमाग में यह शून्यतापूर्ण रिक्तता क्यों?” (एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ- 237)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी चुनाव के मौके पर अपने को सुभाष चंद्र बोस की विरासत से जोड़ने की फूहड कोशिश भी करते रहते हैं। लेकिन क्या वे इस बात से इनकार कर सकते हैं कि जिस समय सुभाषचंद्र बोस सैन्य संघर्ष के जरिए ब्रिटिश हुकूमत को भारत से उखाड़ फेंकने रणनीति बुन रहे थे, ठीक उसी समय सावरकर ब्रिटेन को युद्ध में हर तरह की मदद दिए जाने के पक्ष में थे।

1941 में बिहार के भागलपुर में हिन्दू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने ब्रिटिश शासकों के साथ सहयोग करने की नीति का एलान किया था। उन्होंने कहा था, ''देश भर के हिंदू संगठनवादियों (हिन्दू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिन्दुओं को हथियारबंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओ तक आ पहुँची है वह एक ख़तरा भी है और एक मौका भी।’’ इसके आगे सावरकर ने कहा था, ''सैन्यीकरण आंदोलन को तेज किया जाए और हर गांव-शहर में हिन्दू महासभा की शाखाएं हिन्दुओं को थल सेना, वायु सेना और नौ सेना में और सैन्य सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों में भर्ती होने की प्रेरणा के काम में सक्रियता से जुड़े।’’

इससे पहले 1940 के मदुरा अधिवेशन में सावरकर ने अधिवेशन में अपने भाषण में बताया था कि पिछले एक साल में हिन्दू महासभा की कोशिशों से लगभग एक लाख हिन्दुओं को अंग्रेजो की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती कराने में वे सफल हुए हैं। जब आज़ाद हिन्द फ़ौज जापान की मदद से अंग्रेजी फ़ौज को हराते हुए पूर्वोत्तर में दाखिल हुई तो उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने अपनी उसी सैन्य टुकड़ी को आगे किया था, जिसके गठन में सावरकर ने अहम भूमिका निभाई थी।

लगभग उसी दौरान यानी 1941-42 में सुभाष बाबू के बंगाल में सावरकर की हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर सरकार बनाई थी। हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस साझा सरकार में वित्त मंत्री थे। उस सरकार के प्रधानमंत्री मुस्लिम लीग के नेता एके फजलुल हक थे। अहम बात यह है कि फजलुल हक ने ही भारत का बंटवारा कर अलग पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर सम्मेलन में पेश किया था।

हिन्दू महासभा ने सिर्फ 'भारत छोडो’ आन्दोलन से ही अपने आपको अलग नहीं रखा था, बल्कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक पत्र लिख कर अंग्रेजों से कहा था कि कांग्रेस की अगुआई में चलने वाले इस आन्दोलन को सख्ती से कुचला जाना चाहिए। मुखर्जी ने 26 जुलाई, 1942 को बंगाल के गवर्नर सर जॉन आर्थर हरबर्ट को लिखे पत्र में कहा था, ''कांग्रेस द्वारा बड़े पैमाने पर छेड़े गए आन्दोलन के फलस्वरूप प्रांत में जो स्थिति उत्पन्न हो सकती है, उसकी ओर मैं आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं।’’ मुखर्जी ने उस पत्र में 'भारत छोडो’ आन्दोलन को सख़्ती से कुचलने की बात कहते हुए इसके लिए कुछ जरुरी सुझाव भी दिए थे। उन्होंने लिखा था, ''सवाल यह है कि बंगाल में भारत छोड़ो आन्दोलन को कैसे रोका जाए। प्रशासन को इस तरह काम करना चाहिए कि कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आन्दोलन प्रांत मे अपनी जडें न जमा सके। इसलिए सभी मंत्री लोगों को यह बताएं कि कांग्रेस ने जिस आज़ादी के लिए आन्दोलन शुरू किया है, वह लोगों को पहले से ही हासिल है।’’

उपरोक्त तमाम तथ्य यह साबित करते हैं कि आज जो लोग सत्ता में बैठे हैं, उनका और उनके वैचारिक पुरखों का भारत के स्वाधीनता आंदोलन से रत्तीभर भी जुड़ाव नहीं था और इसीलिए उनके लिए स्वाधीनता दिवस का भी सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने स्वाधीनता दिवस को महत्वहीन बनाने, स्वाधीनता आंदोलन के नायकों और शहीदों को अपमानित करने और देश में सांप्रदायिक विभाजन को ज्यादा तेज करने के अपने एजेंडे के तहत 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका दिवस मनाने का एलान किया है। ऐसा करके उन्होंने भारत के एक और विभाजन की नींव रखी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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