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दिल्ली दंगों के 'साज़िश' मामले की तीसरी चार्जशीट: पुलिस के दावे बनाम सबूत

हिंसा "पूर्व नियोजित" थी और "बेसबब" अंजाम दी गयी थी। जांचकर्ताओं का दावा है कि हिंदुओं ने आक्रामकता का "जवाब दिया" था।
दिल्ली दंगों के 'साज़िश' मामले की तीसरी चार्जशीट: पुलिस के दावे बनाम सबूत
फ़ाइल फ़ोटो।

नई दिल्ली: उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फ़रवरी, 2020 के सांप्रदायिक दंगों के पीछे कथित साज़िश की जांच कर रही दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने फिर कहा है कि घातक हिंसा "सोची-समझी", "पूर्व नियोजित" थी और मुस्लिम समुदाय ने "अकारण" ही इसे अंजाम दिया था।

सेल का दावा है कि जिस दंगे में 53 लोगों की मौत हुईं थी, वे तब शुरू हुए थे, जब "चांद बाग़ और नये और पुराने मुस्तफ़ाबाद इलाक़ों में रहने वाले मुसलमानों को लामबंद किया गया और उन्हें गली-कूचों से बाहर लाया गया और उस मुख्य वज़ीराबाद रोड पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया गया, जिसमें यमुना विहार और भजनपुरा के इलाक़े (मिली जुली आबादी वाले नज़दीकी इलाक़े) आते हैं। ताकि हिंसक 'चक्का जाम' को बढ़ावा दिया जा सके, उस हिंसा में पुलिस कर्मियों और ग़ैर-मुस्लिम समुदायों को क्रूरता के साथ डराया-धमकाया गया था और उन्हें घातक चोटें आयीं थीं।''

जांचकर्ताओं ने आरोप लगाया कि "अन्य समुदाय" (हिंदुओं) ने आत्मरक्षा में महज़ "जवाबी कार्रवाई" की थी, "चूंकि मानव जीवन की गतिशीलता में एकमात्र स्थिर कारक वह समय है, जो घटनाओं को वैसे ही दर्ज करता है, जिस तरह वे वास्तव में घटित हो रही होती हैं"।

एफ़आईआर संख्या 59/2020 में दायर उस दूसरे पूरक आरोप पत्र में निष्कर्ष पर पहुंचा गया है, जो विश्वविद्यालय के छात्रों और शोधार्थियों-शरजील इमाम, मीरान हैदर, आसिफ़ इक़बाल तन्हा और गुलफ़िशा फ़ातमा, सफ़ूरा जरगर, नताशा नरवाल और देवांगना कलिता और कार्यकर्ता उमर ख़ालिद, ख़ालिद सैफ़ी, शिफ़ा-उर-रहमान और राजनीतिक नेता-इशरत जहां और ताहिर हुसैन, अन्य के ख़िलाफ़ कड़े ग़ैरक़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत दर्ज किया गया था।

23 फ़रवरी की शाम को यमुना पार के इलाक़ों में तनाव चरम पर पहुंच गया था, जो बाद में पूरे 72 घंटों तक चलने वाले दंगे में बदल गया था। उस हिंसा में कुल 53 लोग मारे गये थे और 500 से ज़्यादा लोग घायल हो गये थे।

यह आख़िरी रिपोर्ट 16 सितंबर, 2020 के मुख्य आरोप पत्र के सिलसिले में है। इसके बाद उसी साल 22 नवंबर को पहला पूरक आरोप पत्र जारी किया गया था।

300 पन्नों के आरोप पत्र में पुलिस ने चांद बाग़ में सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के विरोध स्थल के आसपास हुई हिंसा की ख़ास तौर पर जांच करके कथित साज़िश की गहराई तक जाने का दावा किया है। ज़ाहिर तौर पर यहां हुई घटनाओं (हेड कांस्टेबल, रतन लाल की हत्या और कई पुलिस अधिकारियों पर हुए शारीरिक हमले) को "बड़े पैमाने पर साज़िश" से जोड़ने की कोशिश की गयी है।

जबकि पहले दो चार्जशीट अभियुक्तों से ज़ब्त किये गये मोबाइल फ़ोन से निकाले गये विवरण और व्हाट्सएप चैट पर आधारित थे, पुलिस की यह थियरी दिल्ली सरकार की तरफ़ से इस इलाक़े में लगाये गये कैमरों से निकाले गये सीसीटीवी फ़ुटेज पर आधारित है।

पुलिस ने उन 33 सीसीटीवी कैमरों का विश्लेषण करने का दावा किया है, जिनमें से ए-97, नाला रोड, चांद बाग़ में स्थापित एक ही सीसीटीवी चालू था। बाक़ी या तो चालू नहीं थे या "जानबूझकर" बिजली स्रोत से डिस्कनेक्ट कर दिये गये थे, या उन्हें अपनी जगह से हटा दिया गया था और कपड़ों से ढक दिया गया था। पुलिस का दावा है कि उसने एक किशोर लड़के को पहचान के आधार पर पकड़ लिया था, जिसे उस ख़ास काम पर लगाया गया था, उससे पूछताछ की गयी और उसके ख़िलाफ़ किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के तहत कार्रवाई की गयी।

पुलिस ने आरोप लगाते हुए कहा, "इस काम को 24 फ़रवरी, 2020 को 12:26:59 बजे से लेकर 12:50:57 बजे तक बहुत ही व्यवस्थित तरीक़े से 24 मिनट की बहुत ही कम अवधि में अंजाम दिया गया था।"

जांचकर्ताओ का दावा है कि चांद बाग़ और मुस्तफ़ाबाद में लगे सीसीटीवी कैमरों को बंद कर दिये जाने से पुलिस और बहुसंख्यक समुदाय पर हमले करने के लिए दंगाइयों को जुटाने में मदद मिली थी।

दावे बनाम ग़ायब कड़ियां

1. पुलिस का दावा है कि ये दंगे 24 फ़रवरी को चांद बाग़ के वज़ीराबाद मुख्य मार्ग से शुरू हुए थे। हालांकि, हक़ीक़त यह है कि 23 फ़रवरी को मौजपुर ट्रैफ़िक सिग्नल के पास भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता, कपिल मिश्रा के भड़काऊ भाषण के बाद घटनायें शुरू हुई थीं और इसके केंद्र ज़ाफ़राबाद और मौजपुर थे।

नागरिकता क़ानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NPR) के विरोध में ज़ाफ़राबाद-मौजपुर-बाबरपुर मार्ग को जाम कर रहे लोगों को हटाने के लिए पुलिस को अल्टीमेटम देने के तुरंत बाद मिश्रा मौक़े से चले गये थे, वहां भीड़ जमा हो गयी और सीएए विरोधी आंदोलनकारियों पर पथराव शुरू कर दिया था।

उस भीड़ की अगुवाई कथित तौर पर धुर दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी नेता, रागिनी तिवारी ने की थी, वह फ़ेसबुक पर लाइव थीं और लोगों को हिंसा में भाग लेने और मुसलमानों पर हमला करने के लिए उकसा रही थीं।

पथराव की उस घटना से इलाक़े का माहौल तनावपूर्ण हो गया था, जिस वजह से सीएए विरोधी प्रदर्शनकारी उत्तर-पूर्वी दिल्ली के एक अन्य इलाक़े, कर्दमपुरी में एक और धरने पर बैठ गये थे।

जबकि दिल्ली पुलिस ने व्हाट्सएप ग्रुप, 'डीपीएसजी' की लिखित सामग्री की एक प्रतिलिप का इस्तेमाल कथित साज़िश को साबित करने के लिए सबसे अहम सबूतों में से एक के तौर पर किया है, जहां उस ग्रुप के सदस्यों को इस बात पर चर्चा करते देखा गया कि ज़्यादा से ज़्यादा असरदार बनाने को लेकर सीएए के विरोध प्रदर्शनों को किस तरह आयोजित किये जाने चाहिए। लेकिन, पुलिस की तरफ़ से बड़े पैमाने पर पेश किये गये "घटनाओं के कालक्रम" में इसका कहीं ज़िक़्र तक नहीं मिलता है।

यहां तक कि शाम 5:38 बजे डीपीएसजी व्हाट्सएप ग्रुप पर शेयर किया गया एक मैसेज़ इस सच्चाई की पुष्टि करता है कि हिंसा 23 फ़रवरी को दोपहर में ही शुरू हो गयी थी। उस मैसेज़ में लिखा है, “मौजपुर इलाक़े में सीएए समर्थक प्रदर्शनकारी स्थानीय लोगों और सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों पर पथराव कर रहे हैं।”

इस संदेश के प्रसारित होने के कुछ समय बाद ही समूह के सदस्यों ने पथराव से जुड़े वीडियो शेयर करना भी शुरू कर दिया था। इस आरोप के समर्थन में भी पर्याप्त सबूत हैं कि मौजपुर के तिकोनी सड़क पर मिश्रा के भाषण की प्रकृति बेहद उत्तेजक थी और इसका ही नतीजा था कि इस इलाक़े में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी।

इस आरोप को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूतों की मौजूदगी के बावजूद पुलिस दंगों के इस ज्वलंद बिन्दु की व्याख्या नहीं करने का विकल्प चुनकर इस सच्चाई को छिपाती दिख रही है। इस बात का दावा किया जाता है कि चांद बाग़ से शुरू हुए दंगे शायद पुलिस को मिश्रा और तिवारी को क्लीन चिट देने में मदद पहुंचाते हैं।

2. जांचकर्ताओं का दावा है कि एक ही तारीख़ (24 फ़रवरी, 2020) और अवधि (दोपहर 12 बजे से दोपहर 1 बजे तक) के मुस्लिम बहुल चांद बाग़ और मुस्तफ़ाबाद (पुराने और नये) के 33 सीसीटीवी कैमरे और खजूरी ख़ास, करावल नगर, सोनिया विहार और ज्योति नगर के ग़ैर-मुस्लिम बहुल इलाक़ों के 43 कैमरे इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के लोग लामबंद थे, जबकि ग़ैर-मुसलमानों वाले इलाक़ों में जन-जीवन "शांत" और "स्थिर" था।

यह दो मामलों को शिद्दत से उठाता है: पहला, पुलिस 23 फ़रवरी को हुई हिंसा की अनदेखी क्यों कर रही है और ग़ैर-मुस्लिम बहुल मौजपुर का सीसीटीवी फ़ुटेज चार्जशीट का हिस्सा क्यों नहीं है? दूसरा, पुलिस का दावा है कि 24 फ़रवरी को दोपहर 12 बजे से दोपहर 1 बजे के बीच ग़ैर-मुस्लिम इलाक़ों में कोई भीड़-भाड़ नहीं थी, लेकिन सवाल है कि इस चार्जशीट में इन "शांत और स्थिर" इलाक़ों के दृश्यों को शामिल क्यों नहीं किया गया?

इसके अलावा, उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हर जगह ऊपर बतायी गयी अवधि के दौरान ही लोगों के लामबंद होने की उम्मीद करना अतार्किक है।

3. इस आरोप पत्र में पुलिस ने यह भी निष्कर्ष निकाला है कि ये दंगे उन "प्रमुख साज़िशकर्ताओं और मास्टरमाइंडों की तरफ़ से सोचा-समझा और पूर्व नियोजित थे, जिनके नाम और पहचान इस अदालत के सामने पहले ही रखे जा चुके हैं"।

हर आपराधिक जांच को अदालत में प्रस्तुत किये गये सबूतों के साथ उस आरोपी के बीच की कड़ियों को सीधे-सीधे स्थापित किये जाने की ज़रूरत होती है, जिसके बारे में माना जाता है कि उसने अवैध कार्य किया है। उस मोहम्मद सलीम ख़ान के आपराधिक इरादे को स्थापित करने के मक़सद से जांचकर्ताओं ने ऐसे दृश्य संलग्न किये हैं, जहां उसे भीड़ में हाथ में छड़ी लिए देखा जा सकता है। मोहम्मद सलीम ख़ान पहले से ही यूएपीए के तहत सलाखों के पीछे है और पुलिस इसे ही चांद बाग़ विरोध स्थल का मुख्य आयोजक बताती है।

हालांकि, ऐसा लगता है कि जांच के दौरान उसे और उसके किये गये अपराध के बीच की कड़ी को जोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया है क्योंकि दूसरी ओर से इसी अवधि के दृश्य को संलग्न नहीं किया गया है। अगर हिंदू बहुल इलाक़ों की फ़ुटेज होती तो यह साबित हो सकता था कि दूसरे गुट की तरफ़ से उकसावे का कोई मामला तो नहीं था।

दूसरी बात कि सीसीटीवी कैमरों को कथित तौर पर "जानबूझकर" बेअसर करने और मुस्लिम दंगाइयों की "अकारण" लामबंदी के आरोपों के बीच स्थापित होती कड़ी के समर्थन में भी कोई ठोस सबूत नहीं है।

साज़िश के इन तीनों आरोपपत्रों और अदालत को सौंपे गये सबूतों को देखते हुए ऐसा लगता है कि इन दंगों के "मास्टरमाइंड" और उनके ख़िलाफ़ पेश किये गये सबूतों के बीच कोई कड़ी नहीं है। ऐसा भी दिखता है कि सीसीटीवी कैमरों को निष्क्रिय करने और ऐसा करने वाले आरोपी के बीच की कड़ी के समर्थन में भी कोई सबूत नहीं है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Police Claims Vs Gaping Holes: Inside the Third Chargesheet in Delhi Riots' ‘Conspiracy’ Case

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