Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

सियासत: मुद्दाविहीन राजनीति के दौर में दलितों का सहारा कौन?

देश की समस्याएं क्या हैं, लोगों की परेशानियां और प्राथमिकताएं क्या हैं? इससे दूर इन दिनों राजनीति में पिछड़ा, अति पिछड़ा और आदिवासी समाज के उद्धार को छोड़ उन्हें साधने का दौर शुरू हो गया है।
caste
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : गूगल

देश की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर भले ही हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हों, तिरंगा लगाकर अपनी देशभक्ति का प्रमाण देने की कोशिश कर रहे हों... जो शायद अच्छी बात हो सकती थी। अगर हम अपनी आंखे खुली रखते।

तब हमें दिखाई पड़ता कि 75 बरस गुज़र जाने के बाद आज भी हमारे समाज में किसी को परखने के लिए कई तरह के पैमाने निर्धारित हैं, ये पैमाना आपकी कौम पर आधारित है? आपकी जाति आधारित है? आप किस वर्ग से आते हैं, इस पर आधारित है।

और इसी पैमाने का बेजा इस्तेमाल हमारे देश में विकास की गंगा बहा देने का जुमला छोड़ने वाले कुछ तथाकथित नेता करते हैं और हमारी जाति के आधार पर हमारा इस्तेमाल करते हैं।

जबकि आज से 72 साल पहले 1950 में जब हमने संवैधानिक गणतंत्र को अपनाया था, तब सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक और धार्मिक रूप से भेदभाव झेल रहे लोगों को मुख्य धारा में लाने की कोशिश के तहत कुछ विशेष या यूं कहें कि मौलिक अधिकार दिए गए थे।

मौलिक अधिकार और विशेष दर्जा सब कुछ संविधान के तहत दिए गए, जिसमें धारा 330, 332 और 244 के मुताबिक उन्हें राज्य, देश और स्थानीय निकायों में प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया।

इसके बावजूद सामाजिक रूप से प्रताड़ना झेलने के अलावा दलितों को सरकारी संस्थानों में भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है, न्यायिक व्यवस्था, नौकरशाही, सरकारी महकमों, उच्च शिक्षण संस्थाओं, उद्योग-धंधों और मीडिया में दलितों की उपस्थित लगभग नहीं के बराबर है।

जिसमें सबसे महत्वपूर्व और अन्यायिक घटना प्रतिनिधित्व में दलितों की कमी है।

हम आज ये बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि बहुत दूर न जाकर पिछले कुछ वर्षों या महीनों की राजनीतिक देखेंगे, तो पता चलेगा कि देश की सर्वोच्च कुर्सी से लेकर किसी राजनीतिक पार्टी की सर्वोच्च कुर्सी तक कैसे पिछड़ा, अति पिछड़ा और आदिवासी समाज को एक मोहरे का तरह की तरह इस्तेमाल किया जाता है, और समाज में वाहवाही लूटने की कोशिश की जाती है।

शुरुआत करते हैं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से... जिन्हें कुर्सी पर बिठाए जाने की एक वजह जो साफ दिखाई देती है... वादों, दावों, नीतियों में हर तरह से घुटने टेक चुकी सरकार के पास सिर्फ पिछड़ों, अति पिछड़ों और आदिवासियों का सहारा है।  

आपको याद होगा कि कैसे मौजूदा केंद्र सरकार के बड़े-बड़े हो हल्का करने में लगे थे, कि हमने देश को पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति दे दी, टीवी चैनलों पर बैठकर सिर्फ द्रौपदी मुर्मू के नाम की माला से विपक्षियों की गर्दन साधी जा रही थी, ये भी कहा जा रहा था कि राष्ट्रपति मुर्मू वहां से आती हैं, जहां आज़ादी के बाद से आजतक बिजली नहीं पहुंच पाई, मुर्मू के गांव के लोग दूसरे गांव जाते थे अपना मोबाइल फोन चार्ज करने के लिए।

अब आप ही सोचिए... इस वेवजह के बखान में मुख्य क्या है? द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना या फिर ओढ़िशा के मयूरगंज गांव में जहां आदिवासी समाज रहता है, वहां बिजली न आना?

सामाजिक तौर पर शायद बिजली न आना.. लेकिन राजनेताओं के लिए ज़रूरी है कि हमने एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बना दिया।

द्रौपदी मुर्मू से पहले भी राष्ट्रपति रहे रामनाथ कोविंद दलित समाज से आते थे, जिन्हें भारतीय जनता पार्टी ने वोटों के लिए खूब भुनाया, और इसका नतीजा रहा कि उसे भारी बहुमत से जीत भी मिली।

सिर्फ भाजपा ही नहीं देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस भी अब अपने दल का सर्वोच्च नेता एक दलित को ही बनाने वाली है। पिछले कई सालों से एक ही मांग उठ रही थी, कि कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन होगा?  गांधी परिवार से होगा या फिर ग़ैर गांधी परिवार से... फैसला करने में वक्त लगा। कई नाम आए, चले गए और आख़िरकार पार्टी ने अध्यक्ष पद के लिए चुनावों की घोषणा की, तो कांग्रेस सांसद शशि थरूर के सामने मल्लिकार्जुन खड़गे को खड़ा कर दिया गया, जिनका जीतना लगभग तय माना जा रहा है। अगर मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बनते हैं, तो ये पार्टी के भीतर बहुत बड़ा बदलाव होगा। क्योंकि बाबू जगजीवन राम के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे ऐसे दूसरे अध्यक्ष होंगे जो दलित समाज से आते हैं, और ये सबकुछ करीब 51 सालों के बाद होगा।

दूसरी ओर कांग्रेस ने लगभग छह महीने के इंतजार के बाद उत्तर प्रदेश में दलित चेहरे पर दांव लगाते हुए बृज लाल खबरी को अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी है, इसी के साथ पूर्वांचल, अवध, प्रयाग, बुंदेलखंड, ब्रज और पश्चिम जोनों में प्रांतीय अध्यक्ष तैनात किए गए हैं। इनमें भी जातीय समीकरणों के हिसाब से बिसात बिछाने की कोशिश की गई है, अब देखना यह है कि लगातार निराशाजनक प्रदर्शन कर रही कांग्रेस पार्टी के लिए यह प्रयोग कितना कामयाब होता है।

हालांकि इतना साफ है कि यूपी में कांग्रेस पार्टी बृजलाल खाबरी के जरिए प्रदेश में दलित समाज को पार्टी जोड़ने के कवायद में जुटेगी। बृजलाल खाबरी पार्टी में आक्रामक दलित नेता के तौर पर जाने जाते हैं, बतौर अध्यक्ष उनके कंधों पर प्रदेश भर में दलित समाज को जोड़ने की बड़ी जिम्मेदारी होगी।

यानी जहां भारतीय जनता पार्टी अभी तक मुद्दाविहीन राजनीति अपनाकर जातीय समीकरण बेहतर करने के लिए मोहरे बिछा रही थी, तो अब कांग्रेस भी इसी रेस में शामिल हो गई है, और दक्षिण से लेकर उत्तर तक जातीयों के आधार पर जनता को साधने की कवायद शुरु हो गई है।

साल 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद जिस तरह बड़े संवैधानिक पदों को जातियों के आधार पर भरने की कोशिश की गई है, वो दर्शाता है कि जनता के विकास वाली बातें अब कागज़ों में दफ्न हो जाने वाली हैं।

ख़ैर.. वोटों के लिए इन राजनीतिक पार्टियों का पिछड़ा, अति पिछड़ा और आदिवासी मोह समय-समय पर जागता रहेगा, लेकिन हमें समझना चाहिए कि इन पार्टियों और नेताओं ने ये मोह महज़ अपने मतलब के वक्त तक ही सीमित रखा है।

जैसे राजनीतिक दलों में दलितों के साथ भेदभाव का आलम ये है कि शीर्ष नेतृत्व पर तथाकथित ऊंची जातियों का दबदबा ही रहता है, दलितों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के तहत रखा जाता है और वो सिर्फ़ आरक्षित सीटों पर सामान्य जाति के वोटरों के रहमो-करम पर ही चुने जाते हैं। जो दलित नेता राजनीति में अपनी ताक़त दिखाने की कोशिश करता है, उसे बाहर का दरवाज़ा दिखा दिया जाता है।

उदाहरण के तौर पर कुछ पार्टियों या नेताओं के नाम लिए जाएं तो उत्तर प्रदेश में रामअचल राजभर और लालजी वर्मा जैसे कई दलित नेताओं को मायावती ने पार्टी से निकाल दिया, यह महज एक इत्तेफाक है या इसके पीछे कोई ‘अंडर करेंट’ है? पिछले 74 सालों में बाबू जगजीवनराम को छोड़ कोई दलित नेता राष्ट्रीय स्तर पर पनप नहीं पाया। उत्तर प्रदेश में मायावती और बिहार में रामविलास पासवान को दिमाग में रख पाने तक सफलता ही मिली। वैसे मायावती ने 2007 में प्रभावी ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के ज़रिए समावेशी राजनीति की ओर कदम तो बढ़ाया और सभी वर्गों के वोट से प्रदेश में सरकार भी बनाई, लेकिन अपने प्रयोग को वो बहुत आगे नहीं ले जा सकीं और राष्ट्रीय राजनीति की राह से भटक गईं। वहीं पासवान ख़ुद निर्वाचित होते रहे, पर बिहार में दलितों को लामबंद नहीं कर सके और पासी-समाज तक ही सीमित होकर रह गए। ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कोई दलित नेता राष्ट्रीय राजनीति तो दूर अपने प्रदेश में ही पूरी तरह स्थापित क्यों नहीं हो पाता?

इनके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन जो हमें दिखाई पड़ते हैं, वो ये हो सकते हैं कि दलित समाज में राजनीतिक को लेकर हमेशा कश्मकश बनी रही है। क्योंकि दलितों को राजनीति में शुरुआत करने के लिए कई बंधनों को तोड़ आगे निकलना पड़ता है, बड़े-बड़े धरने रैलियां करनी पड़ती हैं। समाज में ख़ुद की पहचान बनानी पड़ती है। ये सब कुछ करने के लिए भी पहले समाज के ही सवर्णों की मुट्ठी में बंद कानून व्यवस्था की लाठियां, गालियां, मार और दंश झेलना पड़ता है। जबकि ठीक उलट सामान्य या सवर्णों को समाज में उनका तथाकथित सम्मान जगह दिलाने में मदद कर जाता है।

उदाहरण लीजिए... सावित्री बाई फुले का, फूलन देवी का, ज्योतिबा फुले का या फिर मौजूद दौर में दलितों की राजनीतिक कर रहे भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद का।

इन सभी ने समाज में ख़ुद की जगह बनाई, लेकिन इन संघर्षों की एक अलग कहानी भी है।

यानी इन सभी घटनाओं को हम एक लाइन में यूं कह सकते हैं कि लोकतंत्र का इस्तेमाल दलितों के राजनीतिक संघर्षों को कुचलने के लिए किया जाता है, और शायद किया जाता रहेगा।

(व्यक्त विचार निजी हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest