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क्या हैं उत्तराखंड के असली मुद्दे? क्या इस बार बदलेगी उत्तराखंड की राजनीति?

आम मतदाता अब अपने लिए विधायक या सांसद चुनने की बजाय राज्य के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के लिए मतदान करने लगा है। यही वजह है कि राज्य विशेष के अपने स्थानीय मुद्दे, मुख्य धारा और सरोकारों से दूर होते जा रहे हैं। 
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पाँच राज्यों में होने वाले चुनावों में राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान हालांकि सबसे ज़्यादा उत्तर प्रदेश के चुनावों में है लेकिन जिन शेष चार राज्यों पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में चुनाव हो रहे हैं वो सभी राज्य अपने- अपने भू-राजनैतिक संदर्भों के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं। इन परिस्थितियों के मद्देनजर राज्यों की आकांक्षाएँ भी अलग-अलग हैं।

हालांकि देश में अब प्रादेशिक राजनीति का महत्व निरंतर कम होता जा रहा है और ऐसा लगने लगा है कि आम मतदाता अब अपने और अपने क्षेत्र लिए विधायक या सांसद चुनने की बजाय राज्य के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के लिए मतदान करने लगा है। यही वजह है कि राज्यों में होने वाले चुनावों में किसी राज्य विशेष के अपने स्थानीय मुद्दे राजनीति की मुख्य धारा और सरोकारों से दूर होते जा रहे हैं। राजनैतिक दल मात्र अब चुनावी राजनीति के केंद्र में हैं। इसलिए विधान सभा या लोकसभा के चुनाव अनिवार्य रूप से किसी एक दल या एक नेता को सत्ता तक पहुंचाने के जरिया मानत्र बनते जा रहे हैं।

फिलहाल जिन पाँच राज्यों में चुनाव हैं उनकी भू-राजनैतिक परिस्थितियों को देखें तो सभी बहत महत्वपूर्ण राज्य हैं। जहां पंजाब सरहदी राज्य है वहीं उत्तराखंड पर्वतीय सरहदी राज्य है। गोवा अगर समुद्री रास्ते के लिहाज एक सरहद बनाता है तो वहाँ की सामाजिक परिस्थितियाँ भी एकदम भिन्न हैं। मणिपुर जहां भारत की जैव विविधतता के साथ- साथ सरहद का भी राज्य है तो उत्तर प्रदेश देश की सबसे बड़ी आबादी के नाते देश की सत्ता की दशा-दिशा निर्धारित करने वाला राज्य है।

हालांकि राष्ट्रीय मीडिया का पूरा ध्यान केवल और केवल उत्तर प्रदेश पर है जिसकी अपनी ज़ाहिर वजहें हैं। सत्तासीन भाजपा का आगे का भविष्य इसी प्रदेश पर टिका हुआ है। इसके अनुपात में उत्तर प्रदेश से ही 9 नवंबर 2000 में अलग होकर अस्तित्व में आए उत्तराखंड के चुनावों के बारे में सबसे कम ध्यान जा रहा है। एक पर्वतीय और सरहदी राज्य को अपने वजूद में आए 21 साल हो चुके हैं। यहाँ राज्य की पाँचवीं विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि राष्ट्रीय मीडिया के साथ साथ राजनैतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व भी जैसे यहाँ कम रुचि ले रहे हैं।

उत्तराखंड की राजनीति कई मामलों में अनूठी और अस्थिर किस्म की रही है। महज़ चार विधासभाओं के कार्यकाल में यहाँ 10 मुख्यमंत्री बनाए गए हैं। इसके साथ ही बने झारखंड और छत्तीसगढ़ को देखें तो तस्वीर बिलकुल अलग है। मुख्यमंत्रियों के लिहाज से देखें तो उत्तराखंड की राजनीति आंतरिक तौर पर न केवल बहुत अस्थिर रही है बल्कि यह छोटा राज्य जैसे दो प्रमुख राष्ट्रीय राजनैतिक दलों भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का उपनिवेश रहा है।

हाल ही में जब तीरथ सिंह रावत को बदल कर पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया गया तब भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और देश के रक्षा मंत्री राजनाथ जी सिंह ने कहा कि- ‘यह हमारा फैसला होगा कि हम कितने भी मुख्यमंत्री बदलें’। राजनाथ सिंह जब यह कह रहे हैं तब उनके इस बयान में यह भी निहित है कि इस राज्य की जनता की आकांक्षाएँ कोई महत्व नहीं रखतीं। लेकिन यह केवल भाजपा के साथ ही नहीं है बल्कि कांग्रेस ने भी नारायण दत्त तिवारी को छोड़कर किसी एक मुख्यमंत्री के साथ पूरा कार्यकाल नहीं किया है।

मुख्यमंत्री बदले जाने के ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। उत्तराखंड की जनता अपने अलग राज्य के 21 साल के जीवन में 9 पूर्व मुख्यमंत्रियों और 10 मार्च के बाद पूर्व होने जा रहे दसवें मुख्यमंत्री का बोझ ढो रही है। इसके अलावा पूर्ण बहुमत प्राप्त राजनैतिक दल के रहते दो दो बार राष्ट्रपति शासन के दौर भी इसी प्रदेश ने देखे हैं। इन निर्णयों में हालांकि इस प्रदेश के मतदाताओं की कोई भूमिका और भागीदारी नहीं रही है।

हम जानते हैं कि उत्तराखंड इस समय अपने गठन के बाद से सबसे बुरे दौर में है। यह दौर राजनीति की अदूरदर्शिता ने पैदा किया है। नए राज्य के रूप में उत्तराखंड के गठन से ही जिस तरह की नीतियाँ अपनाई गईं उनका स्थायी रूप से बुरा असर यहाँ के लोगों पर पड़ा है। कितने ही गाँव बेचिराग हो चुके हैं और कितने ही गाँव ऐसे हैं जहां बसर कर रहे लोगों की औसत आयु 50 साल से ऊपर है। कहने को नए लेकिन इसमें स्थायी रूप से रह गए लोगों की औसत आयु के हिसाब से सबसे बूढ़ा राज्य बन चुका उत्तराखंड इन चुनावों से क्या उम्मीदें कर रहा है? यह जानने की ज़रूरत न तो खुद राजनैतिक दलों को महसूस हो रही है और न ही राष्ट्रीय मीडिया को ही। युवाओं के पलायन की इन ऐतिहासिक परिस्थितियों में भी राजनैतिक दलों के पास कोई ऐसी दृष्टि नहीं है कि इन मूल सवालों को हल किया जा सके।

‘देव भूमि’ के पर्याय के रूप में जाने जाने वाले इस पर्वतीय राज्य में पिछले कुछ वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ती न केवल बढ़ी ही है बल्कि उनकी तीव्रता और मारकता भी कई गुना ज़्यादा हो रही है। इसका सीधा कारण दिल्ली से तय होने वाली इसके विकास की नीति है जो यहाँ के संसाधनों पर आधारित है। कभी जो स्थानीय संसाधनों के रूप में लाखों पहाड़ियों के जीवन और आजीविका के स्थायी आधार रहे हैं आज उन्हीं संसाधनों के बारे में दिल्ली से योजनाएँ तय हो रही हैं और जो इस राज्य के लिए बार बार विनाशकारी साबित हो रही हैं। इन त्रासदियों से सबक लेने और अपनी नीति-नियोजन का नज़रिया बदलने की बजाय बार-बार यही विध्वंसक नीतियाँ इस राज्य और यहाँ के लोगों पर थोपी जा रही हैं।

इस चुनाव में भी स्थिति बदलती नज़र नहीं आ रही है। हालांकि कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में स्थानीय मुद्दों को तवज्जो देते हुए रोजगार और पलायन के सवालों पर ध्यान केन्द्रित किया है। महिलाओं की प्रगति और उत्तराखंड की विशेष परिस्थितियों के मद्देनजर भू-कानून और प्राकृतिक संसाधनों के पारंपरिक इस्तेमाल आदि को लेकर भी एक योजना दी है लेकिन यह स्थानीयता कब राष्ट्र की ‘ऊर्जा जरूरतों’ में बदल जाएगी और फिर वही ‘रन ऑफ द रिवर’ या बड़ी बड़ी अधोसंरचनाओं के लिए यहाँ के पहाड़ों की कुर्बानी शुरू हो जाएगी कहना मुश्किल है और इसकी वजह केवल यही है कि इस प्रदेश की अपनी स्थानीय राजनीति बेहद लाचार, अवसरपरस्त और कमजोर है।

अपने गठन के बाद से उत्तराखंड में चुनावी राजनीति एक फार्मूले के तहत चल रही है जिसमें कोई भी एक दल दुबारा सत्ता में नहीं आता। इसके मायने हालांकि यही हैं कि यहाँ की जनता हर चुनाव में बदलाव के लिए मतदान करती है लेकिन उनके जीवन में बदतरी के अलावा उन्हें कुछ हासिल नहीं होता है।

इस प्रदेश को स्थायी तौर पर अपनी राजनीति बदलने की ज़रूरत है और राजनैतिक दलों को अपनी प्राथमिकताएँ। दिलचस्प है कि औपनिवेशिक दौर में इस विशेष भौगोलिक राज्य के लिए आज़ाद भारत के नीति-निर्धारकों से कहीं प्रगतिशील दृष्टि थी। वह मानते थे कि इसकी भौगोलिक संरचना से किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ या बेहद कम हस्तक्षेप किए बिना कैसे अपने यहाँ के लोग अपने परंपरगत ज्ञान से इन विकट परिस्थितियों में जीवन यापन कर लेते हैं। यही वजह रही कि वन पंचायतें जैसी प्रशासनिक व्यवस्था देकर औपनिवेशिक सरकार ने यहाँ के संसाधनों और वाशिंदों के परस्पर पूरक रिश्तों को मान्यता दी। आज अपने गठन के 20 साल बाद यह राज्य उन्हीं संसाधनों को स्थानीय लोगों से हड़प लेने की बलात कोशिशें करता दिखलाई पड़ रहा है। सन 2008 से यहाँ भारत की संसद से पारित वन अधिकार मान्यता कानून 2006 लागू है जिसके तहत सामुदायिक वन संसाधनों पर एक गाँव का हक़ उसकी ग्राम सभा के माध्यम से होगा। लेकिन 1921 से चली आ रही वन पंचायत की इस व्यवस्था को अभी तक मान्यता नहीं दी सकी बल्कि इस कानून के क्रियान्वयन की दिशा में उत्तराखंड का प्रदर्शन बेहद खराब रहा है।

उत्तराखंड जब बना ही था तब यहाँ जैविक खेती को अनिवार्य रूप से एक नीति के तौर पर अपनाया गया था। यह एक प्रगतिशील राजनैतिक नज़रिया और नीति थी कि इस हिमालयी राज्य की उर्वरता इतनी अच्छी है और जैव विविधतता का संरक्षण किया जाना बहुत ज़रूरी है इसलिए इस राज्य में हाइब्रिड बीजों और उनकी खेती के लिए अनिवार्य बना दिये गए कीटनाशकों या कृत्रिम खाद का इस्तेमाल नहीं होगा।

लेकिन यह नीति और टिकाऊ विकास के लिए वैज्ञानिक पहल भी केवल राजनैतिक दलों की दिल्ली से संचालित राजनैतिक एजेंडे की भेंट चढ़ गयी। यह जानना भी दिलचस्प है कि जब यह अलग राज्य नहीं था तब कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में इसकी अकादमिक क्षमता पूरे देश में सर्वश्रेष्ठ थी। आज भी इस छोटे राज्य में करीब 35 वैज्ञानिक संस्थान और 24 सरकारी विश्वविद्यालय मौजूद हैं लेकिन इस राज्य की जरूरतों के हिसाब से और इसकी भगोलिक संरचना की सुरक्षा के लिए कोई ठोस नीति नहीं बन सकी है।

पर्यावरण, जंगल, जैव विविधतता, नदियां और यहाँ की खेती यहाँ के जीवन के आधार हैं। जिन्हें बचाना और संवारना यहाँ की राजनीति की प्राथमिकता होना चाहिए लेकिन यही सब कुछ यहाँ की दिल्ली केन्द्रित राजनीति के लिए सबसे अप्रासांगिक मुद्दे बन चुके हैं।

हाल ही में सिटिज़न नाम के एक गैर-सरकारी संगठन ने एक अच्छी पहल की है और इन मुद्दों को विधान सभा चुनाव के मद्देनजर मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया है। इन्होंने एक नागरिक अभियान चलाया है जिसका नारा है कि ‘हम उस दल को वोट देंगे जो ग्रीन मेनिफेस्टो लाएँगे’ (‘विल वोट फॉर द पार्टी दैट टेक्स अप ग्रीन मेनिफेस्टो)। इस नागरिक अभियान ने एक मेनिफेस्टो भी तैयार किया है जिसमें पेड़ों की जियो टैगिंग की जाये ताकि अवैध काटाई बंद हो, सत्तर साल से पुराने पेड़ों को विरासत (हैरिटेज) का दर्जा मिले, ऐसी सम्पत्तियों को विशेष लाभ मिलें जो पेड़ों और बागानों का संरक्षण करती हैं, रैन वाटर हार्वेस्टिंग की दिशा में काम हो और पर्यटन क्षेत्रों में पैदा होने वाले कूड़े, प्लास्टिक जलाने पर प्रतिबंध घोषित हों। हालांकि यह अभियान केवल देहरादून या कुछ और शहरों तक ही सीमित है लेकिन मौजूदा राजनीति में यह नागरिकों का यह दखल अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए।

ऐसा ही एक हस्तक्षेप उत्तराखंड वन पंचायत संघर्ष मोर्चा ने किया है। कई जिलों के स्थानीय संगठनों के इस मोर्चे ने भी 2008 से लंबित वन अधिकार मान्यता कानून के अनुसार यहाँ के गांवों की वन पंचायतों को सामुदायिक हक़ देने की प्रमुख मांग के साथ साथ वन गुर्जर समुदायों और टोंगिया जनजाति के वन संसाधनों के अधिकारों मांग की है। देखा जाए तो उत्तराखंड में 70 विधानसभा सीटों में से 54 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां 13000 वन पंचायतों को उनके लंबित हक़ देना एक निर्णायक माहौल बना सकता है।

हालांकि सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी ने जो वादे अलग-अलग नामों से अपने-अपने कथित घोषणा पत्रों में किए हैं वो इस पर्वतीय राज्य की आकांक्षाओं से बहुत दूर नज़र आते हैं। इन मुद्दों को अपने घोषणा पत्र में कितना तरजीह देती हैं। आम आदमी पार्टी ने हालांकि दिल्ली के तजुर्बे से शिक्षा, स्वास्थ्य और फ्री बिजली जैसे मुद्दों को ही प्रमुखता दी है। कांग्रेस ने जिस उदारता से अपना घोषणा पत्र बनाया है अगर उतनी ही ज़िम्मेदारी से उन्हें सत्ता में आने पर लागू भी करे तो शायद इस प्रदेश के हालात बदलें।

(लेखक दो दशकों से सामाजिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं। सामयिक मुद्दों पर लिखते हैं)

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