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सत्ता केंद्रित शहरी डिज़ाइन जनता की सरकारी दफ़्तरों तक पहुँच खत्म कर रहे हैं

सरकारी दफ्तरों का डिज़ाइन एक बड़ी चिंता का विषय है, क्योंकि इन दफ्तरों का मक़सद तो को इस बात को सुनिश्चित करना था कि लोगों की अधिक पहुंच हो और वे अधिकारियों के साथ अपनी चिंताओं को साझा कर सकें।
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Image courtesy : Niua.org

शिमला का डिप्टी मेयर चुने जाने के बाद मैंने सबसे पहला काम दफ्तर के बाहर लगी लाल और हरी बत्तियों को हटाने का किया था। इसका मक़सद शहर के लोगों को दफ्तरों तक पहुंच को बिना किसी बाधा सुलभ बनाना था। इसका मक़सद, सरकारी दफ़तरों तक जनता की  पहुंच की बेहतरीन संस्कृति को बढ़ावा देना था जो हिमाचल प्रदेश में अपने प्रारंभिक दिनों से मौजूद है। यहां तक कि पहले के मुख्यमंत्री भी लोगों से बेहतर संवाद सुनिश्चित करते हुए सीधे लोगों से मिलते थे।

यहाँ एक और कहानी है, जिसे हिमाचल प्रदेश के एक सेवानिवृत्त मुख्य सचिव ने सुनाया, उन्होंने बताया कि जब वे त्रिपुरा में कार्यरत थे तो तत्कालीन मुख्यमंत्री नृपेन चक्रवर्ती ने अपने अधिकारियों से कहा कि मुझसे मिलने के लिए कोई समय लेने की जरूरत नहीं है और  दरवाजे में मौजूद के एक छेद से फाइल से ढक कर रखा था। उन्होंने आगे कहा कि हमें, "फाइल कवर को खिसकाने से ही पता चल जाता कि मुख्यमंत्री व्यस्त हैं या नहीं ताकि हम सीधे कमरे में जाकर उनसे मिल सकें।" बाद में ये अधिकारी हिमाचल चले गए थे।  

सरकारी दफ्तरों में जनता की सीधी पहुंच की कई अन्य कहानियाँ भी हैं और दफ्तरों का डिज़ाइन एक बड़ी चिंता का विषय है, जिसका मक़सद यह सुनिश्चित करना है कि लोगों की दफ्तर तक अधिक पहुँच हो और वे संबंधित अधिकारियों के साथ अपनी आवाज़ उठा सकें।

बदलता वक़्त 

हाल ही में कुछ सरकारी दफ्तरों और विशेष रूप से सरकारी मशीनरी के उच्च अधिकारियों के दौरे ने एक परेशान करने वाली प्रवृत्ति दिखाई है।

दिल्ली में सेंट्रल विस्टा की आलोचनाओं में से एक यह है कि इसके निर्माण में आने वाले भारी खर्च और अप्रिय अस्पष्टवादी विचारों के अलावा, इसकी मूल धारणा सिर्फ डिजाइन और निर्माण की जाने वाली इमारतें थीं। राजपथ पर पैदल चलना, जिसे अब कर्तव्यपथ नाम दिया गया है, का उद्देश्य लोगों को सत्तारूढ़ ढांचे के करीब आने के लिए उकसाना था और इसीलिए अधिकांश बड़ी जनसभाओं को बोट क्लब नामक परिसर में अनुमति दी जाती थी। हालाँकि, यह बदलने लगा और जनता को सत्ता के केंद्र से दूर कर दिया गया।  

अब जल्द ही जो विशाल इमारतें बनने वाले हैं उनका डिजाइन यह दिखाना है कि सत्ता का केंद्र वास्तव में बहुत शक्तिशाली हैं। लोगों को ऐसे केंद्रों से उलझने के बजाय उनसे वैसे ही डरना चाहिए जैसे मध्यकाल में विशाल किलों से लोग डरते थे।

शहर का डिज़ाइन, और विशेष रूप से प्रशासन के दफ्तरों का डिज़ाइन, लोगों के साथ समन्वयित होना चाहिए। यह लोगों की कल्पना से भिन्न दूरी पर नहीं होना चाहिए।

दुर्भाग्य से, हाल ही में विधान सभा के चुनाव प्रचार के दौरान शिमला में भी यही देखा गया है। तब, जब चुनाव प्रचार के दौरान वोट मांगने के लिए इन दफ्तरों में जाने का मौका मिला।

उच्च अधिकारियों के दफ्तर आम लोगों की कल्पना से पूरी तरह से बाहर हैं। जिला प्रशासन के कार्यालयों में सामग्री का सरासर डिजाइन और इस्तेमाल लोगों को यह बता रहा था कि उन्हें सत्ता के हलकों से डरना चाहिए। समावेश और स्वामित्व की भावना को बढ़ावा देने के बजाय कार्यालय का प्रवेश द्वार ही डराता है और सत्ता की निरंकुशता को दर्शाता है।

सेंट्रल विस्टा के दौरान आयोजित एक जन सुनवाई में, टीम के एक सदस्य ने सीपीडब्ल्यूडी और डीडीए के अफसरों को बताया कि "भारत के संविधान के अनुसार, हम मालिक (लोग) हैं, आप (अधिकारी) सिर्फ संरक्षक हैं। हालाँकि, जिन संरक्षकों को जनता के लिए काम करना है उन्होंने अपने लिए इसके विशाल अनुपात पर कब्ज़ा कर लिया है और लोगों को अपने से दूर  कर दिया है।

विकल्प ढूँढना

लोगों को सत्ता से दूर करने और लोगों को डराने वाले तरीके से डिजाइन करने का मौजूदा तरीका बिल्कुल भी टिकाऊ नहीं है। यह केवल एक जिले या कार्यालय तक ही सीमित नहीं है; निरपवाद रूप से, देश में दफ्तर स्पेस को डिजाइन करने की सार्वभौमिकता लोगों में डर पैदा करती है, इसलिए वे सत्ता को चुनौती देने की हिम्मत नहीं करते हैं।

डिजाइनिंग के वैकल्पिक तरीकों को सुनिश्चित किया जाना चाहिए ताकि लोग इसे एक चुनौती के रूप में न लें बल्कि अपनी आवाज और मुद्दों को उठाने के लिए इसे अपने घर की तरह ही समझे। शहरी डिजाइन को विशेष रूप से इस पहलू को ध्यान में रखना होगा जहां काम करने वाले लोग अपने मुद्दों को उठा सकते हैं।

बॉन की एक अन्य घटना में, जहां शहर के मेयर निमप्तश ने मुझे अपने कार्यालय में आमंत्रित किया था, मुझे यह देखकर थोड़ा आश्चर्य हुआ कि भारत में हमारे कार्यालयों के विपरीत, मेयर का कार्यालय कैसे काम करता है। मैं थोड़ा जल्दी पहुंच गया और दंग रह गया कि ऑफिस बंद था। कुछ देर बाद मैंने देखा कि एक व्यक्ति ताला खोलकर कार्यालय में प्रवेश करता है। वे खुद मेयर थे। यह पूछने पर कि क्या मैं चाय या कॉफी पसंद करूंगा, मुझसे यह भी पूछा गया कि क्या मैं इसे खुद बनाना चाहूंगा या वे इसे मेरे लिए बनाएंगे।

यह हमारे भारतीय संदर्भ में यह अनसुना है, जहां बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए कर्मचारियों को आदेश देने के विशाल अधिकार भी शामिल हैं। पूछताछ करने पर मुझे बताया गया कि बॉन शहर की परिषद की बैठक तब तक समाप्त नहीं होती जब तक बैठक में शामिल होने वाले लोगों के सभी मुद्दों का समाधान नहीं हो जाता। ऐसे में परिषद को रातभर भी बैठना पड़ सकता है।

बात सिर्फ उस तंत्र या पश्चिम के डिजाइन की नकल करने की नहीं है; यहाँ मुद्दा कार्यकारी और लोगों के बीच की दूरी को कम करना है, लेकिन यह दुर्भाग्य से डिजाइन और काम, दोनों में दूरी को बढ़ा रहा है!

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Urban Design Centred on Power is Alienating People

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