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प्रशांत भूषण, कोर्ट की अवमानना और मोटरसाइकिल डायरीज़

आख़िर कोर्ट ने एक वकील को निशाना क्यों बनाया?
प्रशांत भूषण

हम सभी जानते हैं कि व्यक्तिगत चीजें, बहुत लंबे समय से राजनीतिक हो चली हैं। लेकिन जब संस्थानों की बात होती है, तो व्यक्तिगत और राजनीतिक, दोनों में स्पष्ट अंतर होता है। न्यायपालिका एक संवैधानिक संस्थान है। जो लोग भारत की उच्च न्यायपालिका में जगह बनाते हैं, वह इसके दफ़्तरों में अहम भूमिकाएं निभाते हैं। ऑफिस और ऑफिस में तैनात होने वाले लोग, दोनों हमेशा अलग होते हैं। इन पदों को न्यायिक अधिकार इसलिए दिए गए हैं, ताकि वे अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करवा सकें, ना कि खुद को व्यक्तिगत तौर पर सुरक्षित कर सकें।

जब न्यायाधीश इन दोनों में अंतर करना भूल जाते हैं, तब "आपराधिक अवमानना" के मामले सामने आते हैं। शुक्रवार को प्रशांत भूषण के साथ जो हुआ, वह इसी चीज को दिखाता है।

हालांकि संसद ने आपराधिक अवमानना के लिए विधायी ढांचा बनाया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना अंतर्निहित क्षेत्राधिकार को लागू किया। और तय किया कि आपराधिक अवमानना को स्वत: संज्ञान लेते हुए भी क्रियान्वित किया जा सकता है। मतलब कोर्ट के अपने प्रस्ताव पर इसे लागू किया जा सकता है। इस मामले में बिना एटॉर्नी जनरल की सहमति के अवमानना याचिका दाखिल की गई, जबकि कानून के तहत एटॉर्नी जनरल की सहमति लेना जरूरी होता है। कोर्ट के प्रशासनिक हिस्से में स्वत: संज्ञान लेते हुए, जरूरी सहमति को छोड़कर इसे चालू करने की अनुमति दे दी गई। हालांकि प्रशासनिक फ़ैसले को ना तो समीक्षा और ना ही परीक्षण के लिए उपलब्ध करवाया गया। किसने इस अवमानना की अनुमति दी, यह सब कैसे हुआ और ऐसा क्यों हुआ, इस तरह के तमाम सवालों पर हमें अंधेरे में छोड़ दिया गया। 

कोर्ट की अवमानना कानून को बॉयपास कर, एटॉर्नी जनरल की सहमति के बिना चलाई गई आपराधिक अवमानना के लिए कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 129 पर निर्भर हो जाता है, जिसके तहत कोर्ट के पास, बतौर "कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड", अवमानना के लिए सजा देने की शक्ति है। उस ताकत पर किसी ने सवाल नहीं उठाए हैं। दरअसल विवाद उस प्रक्रिया पर हैं, जो "कोर्ट की अवमानना कानून" में दी गई है और जिसके ज़रिए उस शक्ति को सक्रिय किया जाता है। कोर्ट का कद तभी बढ़ता, जब उसने एटॉर्नी जनरल को अपनी बात रखने के लिए बुलाया होता और अवमानना के आवेदन के परीक्षण का पहला स्तर बनाया होता। हर अवमानना पर सजा देना जरूरी नहीं होता, यह एक नीतिगत फ़ैसला होता है, जिसे एटॉर्नी जनरल जनहित में लेता है।

एक तेज़तर्रार 'बार (BAR)' के बिना, तेज़ तर्रार न्यायपालिका मुमकिन नहीं

इस फ़ैसले का सबसे ख़तरनाक नतीज़ा यह होगा कि अब कोर्ट के पास वह शक्ति मानी जाएगी, जिसके ज़रिए वह अपनी मनमर्जी पर अवमानना की प्रक्रिया शुरू करवा सकता है, और उसके लिए सजा दे सकता है।

किसी अपराध के लिए बिना चार्ज लगाए सीधे दोषी ठहरा देना या कोर्ट की बदनामी करने में संबंधित शख्स की भावना के होने या ना होने की बात को भुला देना।।। क्या यह संवैधानिक भी है? केवल इसी बात से यह फ़ैसला कानून के नज़रिए से त्रुटिपूर्ण, संविधान विरोधी हो जाता है। साथ में यह जीवन के अधिकार और बोलने की स्वतंत्रता के अधिकार के लिए बड़ा झटका बन जाता है।

यह भी दिलचस्प है कि कोर्ट ने एक 30 साल से प्रैक्टिस कर रहे वकील को कोर्ट की अवमानना का दोषी ठहराने का फ़ैसला लिया। वकील, न्यायपालिका की स्वतंत्रता के पहली पंक्ति के रक्षक होते हैं। किसी और से ज़्यादा बेहतर, वकील यह बात जानते हैं कि कोर्ट के भीतर क्या चल रहा है। न्यायाधीश उनके पूर्व सहयोगी होते हैं, वकील कोर्ट के न्यायाधीशों के काम पर 24 घंटे नज़र रखते हैं। न्यायधीश आते-जाते रहते हैं। पर वकील बने रहते हैं। वकील, एक मुख्य न्यायाधीश के बाद दूसरे मुख्य न्यायाधीश को आते-जाते देखते हैं, जो अपने व्यक्तिगत विचारों के मुताबिक़, फ़ैसले लेते और पलटते हैं। किसी और की तुलना में, वकील अपनी याददाश्त में न्यायपालिका का इतिहास ज़्यादा संजोकर रखते हैं।

इसलिए यह कोई संयोग नहीं है कि कोर्ट ने प्रेस के बजाए किसी वकील को निशाना बनाने का फ़ैसला लिया।

जिन दो ट्वीट्स पर सवाल उठ रहे हैं, उनमें से एक में मुख्य न्यायाधीश पर टिप्पणी की गई थी, जो अनौपचारिक कपड़ों में एक हर्ले डेविडसन मोटरसाइकिल पर सवार थे। फ़ैसले में माना गया है कि यह एक "व्यक्तिगत" मामला था। जजों को व्यक्तिगत और सांस्थानि मामले में अंतर का पता था। फिर समस्या कहां खड़ी हो जाती है?

दरअसल यह वह टिप्पणी थी, जिसमें कहा गया कि कोर्ट लॉकडाउन में है और जनता को न्याय से वंचित कर रहा है, इसी से कोर्ट नाराज़ हो गया। यहीं से फ़ैसला "व्यक्तिगत" तौर पर प्रशांत भूषण के खिलाफ़ हो गया और इसने अपनी संवैधानिक दिशा खो दी। आखिर उनका अपराध क्या है- उनकी पहचान? 

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प्रशांत भूषण

वह 30 साल से कोर्ट में काम कर रहे हैं, जिसमें लोकतंत्र की रक्षा और न्यायिक जवाबदेहियों की दिशा में काम शामिल है। उन्होंने लॉकडाउन में कोर्ट जाकर मेलिसियस प्रोसेक्यूशन के खिलाफ़ राहत लेने में कामयाबी पाई। इसलिए, क्या उनके ट्वीट को खराब नीयत वाला माना जा सकता है। क्या यह कोई तार्किक बात है?

हमें बताया गया कि लॉकडाउन में कोर्ट ने 626 रिट पेटीशन और कुल 12,567 मामलों पर सुनवाई की। फिर भी जम्मू-कश्मीर में जारी लॉकडाउन का अहम सवाल कोर्ट के सामने लंबित पड़ा हुआ है, जिसमें व्यक्तिगत आज़ादी का भी बड़ा सवाल है। कोर्ट की आलोचना पर नज़र रखने वाला कोई भी आसानी से समझ सकता है कि प्रशांत भूषण की टिप्पणी उन 12,567 मामलों के बारे में नहीं थी, बल्कि वह उन मामलों के बारे में थी, जिनकी सुनवाई नहीं की जा रही है। सिर्फ़ आंकड़े आपको पूरी तस्वीर नहीं बता सकते। दरअसल आप क्या सुनते हैं, कब सुनते हैं और क्यों सुनते हैं, यह चीज बहुत अहम है।

एक ऐसी व्यवस्था में जब न्यायपालिका से मिलने वाले समय की बहुत कम आपूर्ति है, तब आप न्यायपालिका का समय किस तरह आवंटित करते हैं, वह न्याय की गुणवत्ता को तय करता है। यह केवल अपनी संख्या से नहीं, बल्कि गुणवत्ता से मापा जाता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई के लिए जिन मामलों को "आपात" बताया जा रहा है, उसकी कुछ समय से लगातार आलोचना हो रही है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला व्यक्तिगत तौर पर सुप्रीम कोर्ट के व्यवहार की रक्षा करने में लग जाता है, वह इस बात की जांच नहीं करता कि क्या प्रशांत भूषण की आलोचना कोर्ट की अवमानना के स्तर तक पहुंचती है या नहीं। ऐसा लगता है कि इस फ़ैसले के ज़़रिए कोर्ट प्रशांत भूषण को गलत ठहराना चाह रहा हो, वह भी बिना सुनवाई का मौका दिए।

कोर्ट बिलकुल सही तरीके से इस मामले में कहता है कि भारत में "लोकतंत्र की मौत" का सवाल एक राजनीतिक सवाल है। लेकिन फिर लोकतंत्र के रक्षक (सुप्रीम कोर्ट) की आलोचना करना अनुमति प्राप्त राजनीतिक अभिव्यक्ति नहीं तो और क्या है?

हमें बताया गया कि न्याय तक पहुंच ना होने वाली "उनकी जानकारी के हिसाब से टिप्पणी गलत थी"। लेकिन यहां तथ्यात्मक तौर पर "गलत" और किसी के जानकारी के हिसाब से गलत होने में अंतर है। आखिर मेरे अपने नज़रिए को "मेरी अपनी जानकारी के हिसाब से गलत" कैसे ठहराया जा सकता है? प्रशांत भूषण का नज़रिया है कि न्याय तक पहुंच को रोका जा रहा है। जज का मानना है कि यह राय आंकड़ों और तथ्य पर आधारित नहीं है। कोई क्या सुने या क्या ना सुने, यह उसका अपना फ़ैसला होता है, इसलिए अगर कोई नागरिक प्रशांत भूषण टिप्पणी करता है, तो यह उसकी बुरी नीयत कैसे दिखाता है? यही संवैधानिक चीज व्यक्तिगत हो जाती है।

जज इस बात को मानने के लिए तैयार हैं कि न्यायपालिका को सुधारने के नज़रिए से उसके क्रियान्वयन पर अच्छी नीयत के साथ विचारों में अंतर हो सकता है। लेकिन फिर प्रशांत भूषण की टिप्पणी को किस आधार पर बुरी नीयत वाला बताया जा रहा है? इसके बाद तथ्यात्मक सामग्री पर भी गौर करने से इंकार किया जा रहा है।

"ट्वीट से साफ़ तौर पर यह दिखाने की कोशिश की गई है कि देश की सर्वोच्च संवैधानिक कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट ने पिछले 6 सालों में भारतीय लोकतंत्र के खात्मे में एक अहम किरदार अदा किया है। इसमें कोई शक नहीं है कि ट्वीट से न्यायपालिका के संस्थान में जनता का विश्वास हिलेगा। हम ट्वीट के पहले हिस्से की सच्चाई या दूसरी चीजों में नहीं जाना चाहते, क्योंकि हम इस सुनवाई को राजनीतिक विमर्श का मंच बनाना नहीं चाहते। हम केवल न्यायपालिका को हुए नुकसान से चिंतित हैं। हमारे विचार में ट्वीट से भारत के सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायाधीश के सम्मान और अधिकार को ठेस पहुंचती है और यह सीधे कानून की ताकत को चुनौती देता है।"

कोर्ट बिलकुल सही तरीके से कहता है कि भारत में "लोकतंत्र की मौत" एक राजनीतिक सवाल है, फिर लोकतंत्र की रक्षा करने वाले की आलोचना को अनुमति प्राप्त राजनीतिक भाषण क्यों नहीं माना जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट संविधान और लोकतंत्र का रक्षक है। भारतीय लोकतंत्र की अवस्था पर आलोचना करने के अधिकार में सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाईयों की आलोचना करने का अधिकार भी शामिल होता है। लेकिन पहेल से अनुमति प्राप्त, बाद में अचनाक प्रतिबंधित अधिकार से पता चलता है कि प्रशांत भूषण को सिर्फ़ इसलिए अवमानना का दोषी नहीं ठहराया गया कि कोर्ट को लगा कि उन्होंने जो कहा है, वह कोर्ट की अवमानना है। उन्हें इसलिए दोषी ठहराया गया है कि जो कहा गया है, उसे कहने वाला प्रशांत भूषण है। इससे ऐसा लगता है कि यह बेंच और बार के सदस्य के बीच व्यक्तिगत लड़ाई है, जो अवमानना की सुनवाई में लड़ी जा रही है।

कई सामाजिक कार्यकर्ताओं की मांग है कि जो व्हिसलब्लोअर कानून आएगा, उसमें वकीलों को भी शामिल किया जाए। मैं अपने लिए बात करूं, तो मैं वकील हूं, क्योंकि मेरा विश्वास है कि अपनी वकालत के ज़रिए हमारी बुनियादी स्वतंत्रता की रक्षा करने के क्रम में, मैं अपना संवैधानिक कर्तव्य निभा रही हूं। इस नज़रिए से देखें तो मेरा कोर्ट में किया गया काम राजनीतिक होता है।

दरअसल यहां कोर्ट अपनी कार्रवाइयों को सही ठहराने के लिए आत्मरक्षा के स्तर तक फिसल गया।

इस फ़ैसले के भविष्य पर क्या परिणाम होंगे? क्या यह वकालत के पेशे को चुप करा देगा? अगर ऐसा होता है, तो यह बहुत त्रासद होगा, क्योंकि, जैसा मैंने पहले कहा था कि वकील संविधान की रक्षा करने वाले पहले पंक्ति क रक्षक होते हैं, किसी और से ज़्यादा उन्हें व्हिसिल ब्लोअर के तौर पर सुरक्षा की जरूरत होती है। अब इसके लिए वक़्त आ चुका है। हमने हाल में कार्यपालिका में उन वकीलों को निशाना बनाने की प्रवृत्ति देखी है, जो कोर्ट के ज़रिए उन्हें न्याय करवाने के लिए मजबूर करते हैं। हमारे कोर्ट को इसे सीधे कानूनी प्रतिनिधित्व के अधिकार पर हमले के तौर पर देखना चाहिए। आखिर इसका असर हर नागरिक पर होगा, जिसे कोर्ट जाना पड़ता है।

बिना एक तेज़तर्रार बार के, तेजतर्रार न्यायपालिका संभव नहीं है। हम वकील इस फ़ैसले के सबसे बड़े पीड़ित हैं। कोर्ट का संदेश साफ़ है- चुप रहो या अवमानना झेलो।

इस फ़ैसले से प्रेस का झुकना मुमकिन नहीं लगता। बल्कि आपातकाल की तरह संपादकीय की खाली जगह छोड़कर विरोध देखना बेहद दिलचस्प होगा। या प्रेस को न्यायपालिका की आलोचना ना करने के लिए कहना, बिलकुल जस्टिस डेनिंग द्वारा मेंढ़क पर की गई कथित कार्रवाई जैसी होगी। दरअसल जस्टिस डेनिंग पर एक बार आरोप लगा था कि उन्होंने एक मेंढ़क के खिलाफ़ आवाज करने पर प्रतिबंधात्मक आदेश दिया था।

यह फ़ैसला इस बात का एक आदर्श उदाहरण है कि किसी फ़ैसले को कैसे नहीं लिखा जाना चाहिए। मोटरसाइकिल चलाने वाले अब हर्ले डेविडसन को नजरंदाज़ करना चाहेंगे, इसके बजाए वे हीरो होंडा या डिस्कवर पर देशभर की बीमारियों के साथ-साथ वंचित तबके के लोगों से रूबरू होना चाहेंगे। बिलकुल वैसे ही, जैसे लैटिन अमेरिका ने चे ग्वेरा ने अपनी यात्राओं में किया था।

(लेखिका भारत की पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल और सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील हैं। यह लेख पहले ब्लूमबर्गक्विंट में प्रकाशित हुआ था।)

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Prashant Bhushan, The Question Of Contempt, And Motorcycle Diaries

 

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