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राष्ट्रपति की यात्राएँ बनीं राजनीतिक खिलौना, दलित वोटरों को रिझाने की कोशिश

वैसे तो 14वें राष्ट्रपति के रूप में श्री कोविंद के कार्यकाल को कई बातों के लिए याद किया जाएगा, लेकिन इसी क्रम में हाल ही में हुईं उनकी उत्तर प्रदेश यात्राओं का जिक्र खास तौर पर किया जाएगा।
श्री कोविंद

भारत के राष्ट्रपति के रूप में रामनाथ कोविंद ने बीती 25 जुलाई अपने कार्यकाल के चार वर्ष पूरे कर लिए हैं। यानी अब वे अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में हैं। अगले साल यानी 2022 में 25 जुलाई को उनका पांच वर्षीय कार्यकाल पूरा हो जाएगा। देश के 14वें राष्ट्रपति के रूप में वैसे तो उनका कार्यकाल कई बातों के लिए याद किया जाएगा और उसकी अलग-अलग व्याख्याएं भी होंगी, लेकिन उनके कार्यकाल को याद करने के क्रम में हाल ही में हुई उनकी अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश की दो यात्राओं का जिक्र खास तौर पर किया जाएगा।

हमारे देश में राष्ट्रपति के पद पर आमतौर पर सरकार की पसंद का या सरकारी पार्टी से जुड़ा व्यक्ति ही चुना जाता है, लेकिन चुने जाने के बाद उससे अपेक्षा की जाती है कि वह दलीय राजनीति और सरकार के रोजमर्रा के कामकाज से अपने को सर्वथा दूर रखेगा। यह अपेक्षा संविधान सम्मत भी है, जिसके पूरा होने से इस सर्वोच्च पद की और उस पर बैठने वाले की गरिमा बढ़ती है। लेकिन आमतौर पर राष्ट्रपति की तटस्थता का पलड़ा उस पार्टी या सरकार की और उसकी विचारधारा की ओर ही झुका रहता है, जो उसे इस पद पर पहुंचाती है। मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी इसके अपवाद नहीं हैं। 

राष्ट्रपति पद के चुनाव में कोविंद बेशक भारतीय जनता पार्टी और उसके गठबंधन के उम्मीदवार थे। इससे पहले भाजपा की सरकार ने ही उन्हें राज्यपाल भी बनाया था और उससे भी पहले वे लंबे समय तक भाजपा के माध्यम से राजनीति में सक्रिय थे। उनके राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उनसे स्वभाविक अपेक्षा थी कि वे अपने दलीय और वैचारिक निष्ठा से अलग हट कर संवैधानिक मर्यादा के मुताबिक अपनी भूमिका निभाएंगे। लेकिन अफसोस कि वे एक भी मौके पर ऐसा नहीं कर सके। 

राष्ट्रपति को देश का अभिभावक और संविधान का संरक्षक माना जाता है लेकिन हमारे यहां फखरुद्दीन अली अहमद, ज्ञानी जैल सिंह, एपीजे अब्दुल कलाम, प्रतिभा पाटिल, प्रणब मुखर्जी आदि ने तो राष्ट्रपति पद पर रहते हुए ज्यादातर समय सरकार के अभिभावक और संरक्षक की भूमिका ही निभाई है। रामनाथ कोविंद भी अपने इन्हीं पूर्ववर्ती प्रथम पुरुषों की इसी श्रेणी में ही शुमार किए जा सकते हैं, बल्कि कई मामलों में तो वे अपने इन पूर्ववर्तियों से भी आगे निकल चुके हैं।

इस सिलसिले में बीते चार सालों के दौरान सरकार के कई संविधान विरोधी फैसलों पर बगैर कोई सवाल उठाए अपनी मंजूरी के दस्तखत करना, महाराष्ट्र में बहुमत न होते हुए भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनवाने के लिए राष्ट्रपति शासन हटाने के केंद्र सरकार के फैसले पर आधी रात को अपनी मंजूरी की मुहर लगाना और राम मंदिर के लिए पांच लाख रुपए का चंदा देने जैसे कामों को खास तौर पर याद किया जा सकता है। यही नहीं, पिछले दो महीनों के दौरान उनकी उत्तर प्रदेश की दोनों यात्राएं भी इसी श्रेणी में आती हैं। 

बेशक भारत गणराज्य का राष्ट्रपति होने के नाते रामनाथ कोविंद को यह पूरा अधिकार है कि वे देश-दुनिया में जहां जाना चाहे, जब जाना चाहे जा सकते हैं। अपने इसी अधिकार के तहत उन्होंने पिछले दो महीने के दौरान अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश की दो बार यात्राएं की हैं। राष्ट्रपति अपने गृह राज्य और गृह गांव-नगर की यात्रा पर जाएं, इसमें कुछ भी नया और आपत्तिजनक नहीं है। देश के लगभग सभी पूर्ववर्ती राष्ट्रपति ऐसा करते रहे हैं, लेकिन किसी भी राष्ट्रपति की ऐसी यात्रा के कभी राजनीतिक निहितार्थ नहीं निकाले गए जैसे कि मौजूदा राष्ट्रपति की दोनों यात्राओं के निकाले गए हैं। 

चूंकि उत्तर प्रदेश में कुछ महीने बाद विधानसभा का चुनाव होना है और ऐसे में राष्ट्रपति ने अपनी यात्राओं के दौरान जिस तरह के कार्यक्रमों में शिरकत की, जिस तरह उन कार्यक्रमों से विपक्षी दलों के नेताओं को दूर रखा गया और राष्ट्रपति ने उन कार्यक्रमों में जिस तरह राज्य सरकार के कामकाज की तारीफ की, उससे उनकी यात्रा के राजनीतिक निहितार्थ निकाले जाना और यात्रा पर सवाल उठना लाजिमी है।

राष्ट्रपति की दूसरी उत्तर प्रदेश यात्रा हाल ही में संपन्न हुई है। 26 से 29 अगस्त तक अपनी इस चार दिवसीय यात्रा के दौरान राष्ट्रपति ने लखनऊ में भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में शिरकत की। उन्होंने लखनऊ में ही सैनिक स्कूल में नवनिर्मित ऑडिटोरियम का लोकार्पण किया और साथ ही सैनिक स्कूल की हीरक जयंती पर विशेष डाक टिकट जारी किया। गोरखपुर में राष्ट्रपति ने आयुष विश्वविद्यालय का शिलान्यास और गोरक्षनाथ विश्वविद्यालय में अस्पताल भवन का उदघाटन किया। यात्रा के अंतिम दिन वे लखनऊ से प्रेसिडेंशियल ट्रैन से अयोध्या गए, जहां उन्होंने रामलला यानी भगवान राम के दर्शन किए और उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति तथा पर्यटन विभाग की विभिन्न परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया।

चूंकि कुछ ही महीनों बाद उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव होना है और ऐसे में लखनऊ, गोरखपुर और अयोध्या में राष्ट्रपति के लिए जिस तरह के कार्यक्रम रखे गए और उन कार्यक्रमों में राष्ट्रपति ने जिस तरह राज्य सरकार के कामकाज की तारीफ की, उससे लगा ही नहीं कि यह भारत के राष्ट्रपति का दौरा है, बल्कि ऐसा लगा जैसे प्रधानमंत्री या भाजपा के किसी बडे नेता का दौरा है। यही वजह है कि सूबे के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी ने सीधे-सीधे आरोप लगाया कि भाजपा राष्ट्रपति की यात्रा का राजनीतिकरण कर रही है।

राष्ट्रपति की पहली उत्तर प्रदेश यात्रा जून महीने के आखिरी सप्ताह में हुई थी। इस यात्रा के दौरान वे अपने रिश्तेदारों और पुराने परिचितों से मिलने के लिए अपने गांव गए थे। अपनी इस पांच दिन की यात्रा के दौरान राष्ट्रपति दिल्ली से अपने गृह नगर कानपुर तक प्रेसिडेंशियल ट्रैन से गए थे। कहने को तो यह राष्ट्रपति की नॉस्टेल्जिया यानी पुराने दिनों को याद करने वाली यात्रा थी, लेकिन असल में इसका भी राजनीतिक इस्तेमाल ही ज्यादा हुआ था। 

राष्ट्रपति बनने के चार साल बाद रामनाथ कोविंद को उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव से ऐन पहले अपने गांव और परिजनों की याद आना भी महज इत्तेफाक नहीं माना जा सकता। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी ऐसी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी कि राष्ट्रपति की यात्रा को महज़ एक संयोग माना जाए। उन्होंने आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राष्ट्रपति की यात्रा का भरपूर राजनीतिक इस्तेमाल किया। यह और बात है कि इससे भाजपा की चुनावी राजनीति कितनी सधेगी, इसका पता चुनाव के बाद ही लगेगा।

राष्ट्रपति की यात्रा के चुनावी इस्तेमाल का पहला संकेत इसी बात से मिला कि वे दिल्ली से कानपुर तक ट्रैन से गए। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की यात्राओं के लिए खासतौर से 8500 करोड़ रुपए का विशेष विमान खरीदा गया है। लेकिन राष्ट्रपति ने उस विमान का इस्तेमाल करने के बजाय ट्रैन से यात्रा की। उनकी विशेष प्रेसिडेंशियल ट्रैन जहां-जहां से गुजरी, वहां इसकी खूब चर्चा हुई। कानपुर पहुंचने से पहले देहात के दो स्टेशनों झिंझक और रुरा पर ट्रैन रुकी, जहां राष्ट्रपति ने अपने स्कूल के दिनों और सार्वजनिक जीवन के शुरुआती दौर के अपने परिचितों से मुलाकात की। 

फिर कानपुर पहुंचने के बाद राष्ट्रपति वायु सेना के हेलीकॉप्टर से अपने गांव परौंख पहुंचे तो वहां उतरते ही उन्होंने गांव की मिट्टी को छूकर नमन किया। इस मौके पर उन्होंने कहा कि उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि गांव का उनके जैसा व्यक्ति राष्ट्रपति पद तक पहुंचेगा। यह एक तरह से उनके द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति धन्यवाद ज्ञापन था। इससे पूरे प्रदेश के दलित, पिछडे और वंचित समुदाय को एक बडा संदेश देने की कोशिश की गई। राष्ट्रपति ने दो दिन कानपुर और अपने गांव में बिता कर अपने सम्मान में आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों शिरकत की। 

राष्ट्रपति की उस यात्रा की सबसे उल्लेखनीय और चौंकाने वाली बात यह रही कि उन्होंने एक कार्यक्रम में अपने भाषण के दौरान अपने को मिलने वाले वेतन का जिक्र किया और बताया कि उन्हें हर महीने पांच लाख रुपए मिलते हैं, जिसमें से पौने तीन लाख रुपए टैक्स में चले जाते हैं। उन्होंने इस सिलसिले में एक शिक्षक के वेतन और उसकी बचत की तुलना खुद की स्थिति से करते हुए कहा कि उनसे ज्यादा बचत तो एक शिक्षक की होती है। राष्ट्रपति ने संभवतया यह बात महंगाई और आर्थिक संकट के मौजूदा दौर में सरकार द्वारा लोगों से ज्यादा कर वसूलने लेकिन लोगों को ज्यादा रियायतें न दे पाने को न्यायसंगत ठहराने के मकसद से कही हो। अगर ऐसा है तो यह भी एक किस्म की राजनीति का ही हिस्सा माना जाएगा।

अगर इसे राजनीति न भी माने और कहें कि राष्ट्रपति ने अपनी आमदनी और बचत को लेकर बहुत सरल तरीके से अपने मनोभावों को व्यक्त किया, तो सवाल है कि राष्ट्रपति को यह सब कहते हुए यह बताने की क्या जरूरत थी कि उनके वेतन पर कितना टैक्स कटता है? क्या उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि उनका भाषण खत्म होते ही लोग तमाम स्रोतों से पता लगा लेंगे कि देश के राष्ट्रपति को कितना वेतन मिलता है और उस पर कितना टैक्स कटता है? 

लोगों ने ऐसा ही किया और राष्ट्रपति की यह बात प्रामाणिक रूप से गलत पाई गई कि राष्ट्रपति के वेतन पर टैक्स कटता है। आधिकारिक तौर पर यह सामने आया कि राष्ट्रपति का वेतन पूरी तरह कर मुक्त होता है।

ऐसे में पांच लाख में से पौने तीन लाख रुपया हर महीने टैक्स देने वाली राष्ट्रपति की बात सार्वजनिक जीवन में न सिर्फ मजाक का विषय बनी बल्कि इससे राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पद की गरिमा, मर्यादा और प्रतिष्ठा को भी कहीं न कहीं खरोंच पहुंची। 

अपनी इस यात्रा के आखिरी दिन राष्ट्रपति ने लखनऊ में आंबेडकर स्मारक का शिलान्यास किया था। इस काम के लिए इससे बेहतर समय नहीं हो सकता था। गौरतलब है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में दलित वोट के लिए बहुत सघन राजनीति कर रही है। सूबे में 21 फीसदी दलित आबादी है, जिसका बड़ा हिस्सा बहुजन समाज पार्टी के साथ जाता रहा है। इसीलिए आंबेडकर स्मारक के शिलान्यास की टाइमिंग पर मायावती ने सवाल उठाया था और कहा था कि अगर भाजपा सचमुच में आंबेडकर का सम्मान करती होती तो अभी तक स्मारक बन कर तैयार हो गया होता और इस समय तो उसका उदघाटन होना चाहिए था। मायावती ने चाहे जो कहा हो मगर भाजपा ने तो अपना दांव चल दिया और उसमें राष्ट्रपति को भी शामिल कर लिया।

राष्ट्रपति सचिवालय चाहता तो इन दोनों यात्राओं पर उठे विवादों और सवालों से बच जा सकता था, लेकिन उसकी ओर से ऐसा कुछ नहीं किया गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने जैसा चाहा, राष्ट्रपति सचिवालय की ओर से वैसा होने दिया गया। कोई आश्चर्य नहीं कि उत्तर प्रदेश में चुनाव से पहले राष्ट्रपति की ऐसी ही एक-दो यात्राएं और हो जाएँ। कहने की आवश्यकता नहीं है कि पिछले सात वर्षों के दौरान जिस तरह न्यायपालिका, चुनाव आयोग और अन्य संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा और साख का हनन हुआ है, उसमें अब देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद भी शुमार हो गया है।

उपरोक्त विचार व्यक्तिगत हैं 

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