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प्रधानमंत्री ने अपनी किस 'तपस्या’ में कमी रह जाने की बात कही?

प्रधानमंत्री कहते हैं कि यह समय किसी को भी दोष देने का नहीं है, लेकिन सवाल यह है कि यह समय नहीं है दोष देने का तो फिर सरकार के दोषों पर कब चर्चा होनी चाहिए और क्यों नहीं होनी चाहिए?
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गुरु नानकदेव के प्रकाश पर्व पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चिर-परिचित नाटकीय अंदाज में तीनों कानूनों को वापस लेने के फैसले का ऐलान करते हुए कहा है कि यह समय किसी को भी दोष देने का नहीं है। उन्होंने बेहद मासूमियत से कहा, शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रह गई, जिसके कारण हम दीये के प्रकाश जैसा सत्य कुछ किसानों को समझा नहीं सके। मगर सवाल है कि यह समय नहीं है दोष देने का तो फिर सरकार के दोषों पर कब चर्चा होनी चाहिए और क्यों नहीं होनी चाहिए? आखिर पूरे एक साल से तो सरकार ही आंदोलनरत किसानों को तरह-तरह से लांछित और अपमानित करते हुए, क्रूरतापूर्वक उनका दमन करते हुए उन्हें दोषी ठहरा रही थी। सवाल यह भी है कि प्रधानमंत्री आखिर अपनी किस तपस्या में कमी रह जाने की बात कर रहे हैं?

बडे कॉरपोरेट घरानों के फायदे के लिए आनन-फानन में बनाए गए कृषि कानूनों को अपनी मौत का परवाना मान कर इनके खिलाफ पिछले एक साल से आंदोलन कर रहे किसानों को बदनाम करने, उन्हें डराने और उनका मनोबल तोड़ने के लिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, उनकी सरकार के मंत्रियों ने, उनकी पार्टी के मुख्यमंत्रियों, सांसदों, विधायकों सहित तमाम नेताओं ने, सोशल मीडिया पर सक्रिय उनके समर्थकों ने और कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया ने क्या-क्या नहीं कहा और क्या-क्या नहीं किया! क्या प्रधानमंत्री इसे ही अपनी और अपनी सरकार की तपस्या मानते हैं?

प्रधानमंत्री मोदी ने आंदोलनकारी किसानों को आंदोलनजीवी और परजीवी कहा। उनकी सरकार के किसी मंत्री ने किसानों को खालिस्तानी कहा, तो किसी ने माओवादी, किसी ने पाकिस्तानी, किसी ने देशद्रोही, किसी ने टुकडे-टुकडे गैंग और किसी ने गुंडा-मवाली कहा। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि किसी के भीड जुटा लेने से कानून वापस नहीं लिए जा सकते। आरोप लगाए गए कि आंदोलन विदेशी ताकतों के इशारे पर और विदेशी आर्थिक मदद से चल रहा है, जिसका मकसद सरकार को अस्थिर करना है। यह सब करना भी शायद प्रधानमंत्री की निगाह में 'तपस्या’ ही था।

आंदोलनकारी किसानों को दिल्ली में आने से रोकने के लिए कांटेदार तार बिछाए गए, सड़कों पर कीलें ठोंके गए, खाइयां खोदी गईं, किसानों पर लाठियां बरसाई गईं, कड़कड़ाती सर्दी में उन ठंडा पानी फेंका गया, उनके ट्रैक्टर और अन्य वाहन जब्त किए गए। यही नहीं, उन्हें वाहन से कुचल कर मारा भी गया। केंद्र सरकार के जिस मंत्री का बेटा इस लोमहर्षक कांड का आरोपी है, उसे कई दिनों तक पुलिस ने गिरफ्तार ही नहीं किया। जब सुप्रीम कोर्ट ने मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए सख्ती बरती, तब कहीं जाकर उसकी गिरफ्तारी हुई और उस पर मुकदमा कायम किया गया। हालांकि उसे बचाने के प्रयास सरकार के स्तर पर आज भी जारी है। यह बात किसी और ने नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने कही है। यही नहीं, इस कांड से दो दिन पहले सार्वजनिक रूप से किसानों को धमकाने वाला वह बाहुबली मंत्री भी आज तक सरकार में बना हुआ है। इसके बाद भी जब प्रधानमंत्री कहते हैं कि शायद हमारी तपस्या में कोई कमी रह गई तो हैरानी होती है। आखिर वे यह 'तपस्या’ और कितनी करना चाहते थे?

दिल्ली की सीमाओं पर अहिंसक तरीके से आंदोलन कर रहे किसानों पर पुलिस की मौजूदगी में सत्तारूढ़ दल से जुड़े गुंडों ने हमला किया। उनके तंबुओं पर पथराव किया गया, उनमें आग लगाने की कोशिशें की गईं। दिल्ली में प्रवेश करने वाले सभी रास्तों को बैरिकेड्स लगा कर बंद कर दिया गया और तोहमत किसानों पर लगाई गई कि उन्होंने रास्ता रोक रखा है। सरकार की ओर से यही झूठ सुप्रीम कोर्ट में भी बार-बार बोला गया। प्रधानमंत्री को शायद इसी 'तपस्या’ में कमी रहने का मलाल है।

आंदोलनकारी किसान नेताओं का मनोबल तोड़ने के लिए उनके घरों पर आयकर और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के छापे डलवाए गए। किसानों पर झूठे आरोप लगा कर उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किए गए। आंदोलन प्रभावित एक राज्य के मुख्यमंत्री तो खुलेआम अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को किसानों पर हमला करने और उनके सिर फोड़ देने के निर्देश देते दिखाई दिए। ऐसे ही निर्देश उसी राज्य के एक प्रशासनिक अधिकारी भी पुलिसकर्मियों को देते हुए दिखे। उनके इन निर्देशों पर पुलिस और सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं को अमल करते हुए भी पूरे देश ने देखा। इसके बावजूद प्रधानमंत्री को लगता है कि उनकी 'तपस्या’ में कोई कमी रह गई है।

पिछले एक वर्ष से जारी किसानों का यह आंदोलन दुनिया के इतिहास में संभवत: इतना लंबा चलने वाला पहला ऐसा आंदोलन है, जो हर तरह की सरकारी और सरकार प्रायोजित गैर सरकारी हिंसा का सामने करते हुए भी आज तक पूरी तरह अहिंसक बना हुआ है। हालांकि इसको हिंसक बनाने के लिए सरकार की ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। तमाम तरह से उकसावे की कार्रवाई हुई है, लेकिन आंदोलनकारियों ने गांधी के सत्याग्रह का रास्ता नहीं छोड़ा है। यही नहीं, इस आंदोलन ने सांप्रदायिक और जातीय भाईचारे की भी अद्भुत मिसाल कायम की है, जिसे तोड़ने की सरकार की तमाम कोशिशें भी नाकाम रही हैं। अपनी इस नाकामी को ही शायद प्रधानमंत्री ने अपनी 'तपस्या’ में कमी बताया है।

किसानों को छलने, उन्हें हतोत्साहित करने और उनके आंदोलन को तोड़ने के लिए सरकार ने ही प्रयास नहीं किए बल्कि न्यायपालिका ने भी इस काम में कुछ हद तक परोक्ष भूमिका निभाई। किसान आंदोलन शुरू होने के दो महीने बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने तीनों कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा दी थी और तीन सदस्यों की एक कमेटी बना कर इस मामले में सलाह-मशविरे की प्रक्रिया शुरू कराई थी। हालांकि आंदोलनकारी किसानों ने अपने को इस प्रक्रिया दूर रखा था, फिर भी देश के दूसरे कुछ किसान संगठनों और कृषि मामलों के जानकारों ने अपने सुझाव सुप्रीम कोर्ट की कमेटी को दिए थे। कमेटी ने 31 मार्च को अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी थी। लेकिन कमेटी की रिपोर्ट मिलने के बाद उस पर आगे कार्यवाही करने के बजाय पहले तो सुप्रीम कोर्ट गरमी की छुट्टियों पर चला गया और छुट्टियां खत्म होने के बाद भी उसने रिपोर्ट को खोल कर देखा तक नहीं।

यह सब चलता रहा और इस दौरान ठंड, गरमी, बरसात और कोरोना महामारी का सामना करते हुए आंदोलन स्थलों पर करीब 800 किसानों की मौत हो गई। लेकिन ‘गाड़ी के नीचे कुचल जाने वाले कुत्ते के बच्चे की मौत पर भी द्रवित हो जाने वाले’ प्रधानमंत्री पर इसका कोई असर नहीं हुआ। सरकार के मंत्री और सत्तारूढ़ दल के नेता उन किसानों की मौत को लेकर भी निष्ठुर बयान देते रहे, खिल्ली उड़ाते रहे। इसी के साथ सरकार की ओर से यह बात भी लगातार दोहराई जाती रही कि कानून किसी भी सूरत में वापस नहीं लिए जाएंगे।

तीनों कानून अभी भी वापस नहीं लिए जाते अगर दस राज्यों की 29 विधानसभा और तीन लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजे भाजपा के लिए निराशाजनक नहीं आते और पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव सिर पर नहीं होते। पांचों राज्यों और खासकर भाजपा की उम्मीदों के प्रदेश उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए राजनीतिक हालात बेहद प्रतिकूल हैं। हालांकि सरकार के ढिंढोरची की भूमिका निभाने वाला मीडिया हमेशा की तरह भाजपा की स्थिति मजबूत बता रहा है लेकिन प्रधानमंत्री ने उस पर भरोसा नहीं करते हुए अपनी सरकार की खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट पर भरोसा किया है, जिनमें भाजपा की राजनीतिक जमीन खिसकने का अंदेशा जताया जा रहा हैं।

इसीलिए चुनाव और वोट को ही अपना सबकुछ समझने वाले प्रधानमंत्री चाहते हैं कि किसानों को आंदोलन खत्म हो जाए, इसीलिए उन्होंने अपनी जान से ज्यादा प्यारे तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने का ऐलान किया है और इसीलिए वे कह रहे हैं कि यह समय किसी को दोष देने का नहीं है, शायद हमारी तपस्या में कोई कमी रह गई है। यानी आंदोलनरत किसान और उनके परिवारजन पिछले एक साल से जिन दुश्वारियों का सामना कर रहे हैं, उसके लिए सरकार को दोष मत दीजिए। उनकी सरकार और पार्टी ने पूरे एक साल तक किसानों के आंदोलन को बदनाम करने, उसे दबाने और उसका दमन करने के लिए जो-जो हीन हथकंडे अपनाए हैं, उनमें कुछ कमी रह गई है। किसान इसके लिए उनका शुक्रिया अदा करे और अपना आंदोलन खत्म कर दें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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