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तीसरी दुनिया में बाहरी क़र्ज़ की समस्या

कमोडिटी की क़ीमतों में गिरावट ने इन देशों को अपने भुगतान संतुलन की व्यवस्था करने के लिए अधिक बाहरी ऋण लेने को मजबूर किया है।
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तीसरी दुनिया के लिए बढ़ता बाहरी ऋण भारी समस्या है। इनमें से हाल ही में अर्जेंटीना का ऋण संकट केवल एक उदाहरण था। इस समस्या की जड़ में विश्व बाज़ार में प्राथमिक वस्तु की क़ीमतों का गिरना है जो अप्रैल 2011 में शुरू हुआ था।

साल 2020 के मार्च और अप्रैल महीने में निश्चित रूप से यह गिरावट तेज़ रही है लेकिन भले ही हम इन दो महीनों को छोड़ दें जो महामारी के काल हैं तो हम पाते हैं कि अप्रैल 2011 और दिसंबर 2019 के बीच सभी कमोडिटी प्राइस इंडेक्स में 38% की गिरावट आई है। इसे आईएमएफ अर्थात अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (बेस 2016) द्वारा तैयार किया गया।

चूंकि बड़ी संख्या में तीसरी दुनिया के देश विशेष रूप से अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में प्राइमरी कमोडिटी एक्सपोर्ट पर काफी भरोसा करते हैं ऐसे में इन कमोडिटी की क़ीमतों में गिरावट ने उन्हें अपने भुगतान संतुलन को मैनेज करने के लिए अधिक बाहरी ऋण के लिए मजबूर किया है।

बाहरी ऋण में वृद्धि के साथ-साथ बाहरी ऋण शोधन (एक्सटर्नल डेट सर्विसिंग) में भी समान रूप से वृद्धि हुई है। लेकिन महामारी और इसको लेकर हुए लॉकडाउन की वजह से ज़्यादातर देशों के लिए इस तरह की डेट सर्विसिंग अब बिल्कुल असंभव हो गई है।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया इस तरह के लॉकडाउन से कमोडिटी की क़ीमतों में और अधिक तीव्र गिरावट हुई। इससे कमोडिटी एक्सपोर्ट की मात्रा में गिरावट भी हुआ है जिससे तीसरी दुनिया के ज़्यादातर देशों के निर्यात का मूल्य तेज़ी से घटा है।

दो अन्य कारकों ने इस तरह के गिरावट को प्रभाव को बढ़ा दिया है: एक यह है कि महानगर में काम करने वाले श्रमिकों द्वारा भेजी गई रक़म में गिरावट है और दूसरा तीसरी दुनिया से वित्त का आउटफ्लो होना है। हालांकि ये आउटफ्लो जो मार्च महीने में तेज़ था वह थोड़ा कम हो गया है फिर भी इसने अधिकांश देशों के भुगतान का संतुलन बेहद अनिश्चित स्थिति में छोड़ दिया है।

इस आउटफ्लो का एक परिणाम यह रहा है कि तीसरी दुनिया की कई करेंसी की क़ीमतें गिरी हैं जिससे उनके बाहरी ऋण बोझ के साथ-साथ उनके ऋण-शोधन भार (चूंकि ये ऋण विदेशी मुद्राओं में अनुबंधित होता है) में बहुत वृद्धि हुई है।

लेकिन सार्वजनिक वित्त के संकट के साथ ऋण शोधन संकट उलझा हुआ है। इन देशों में सरकारी राजस्व का एक अच्छा भाग निर्यात आय पर कर लगाने से आता है। महामारी से पहले ही निर्यात आय घटने के साथ और इससे भी अधिक महामारी के बाद सरकारी राजस्व में कटौती हुई है, जो इस सच्चाई के अतिरिक्त कि सरकारी बजट में बाहरी सार्वजनिक ऋण का शोधन का भी प्रावधान है, जो अब- तत्काल-आवश्यक राहत और हेल्थकेयर व्यय को शामिल करता है जिसे प्राप्त करना अधिक कठिन है।

बेशक राजकोषीय घाटे को बढ़ाकर और आपूर्ति एवं वितरण प्रबंधन के माध्यम से इस तरह के बढ़े हुए घाटे के किसी भी मुद्रास्फीति की गिरावट को रोकने के लिए सरकार इस तरह के ख़र्च को फाइनेंस कर सकता है; लेकिन इनमें से अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं के वैश्विक वित्त के बंधन को देखते हुए इस तरह का कोई भी फैसला विदेशी पूंजी के आउटफ्लो को फिर से शुरू करेगा जिससे इन देशों की समस्या और भी बढ़ जाएगी। इसलिए, इस महामारी के दौरान आवश्यक हेल्थकेयर पर भी आवश्यक ख़र्च बाहरी ऋण के कारण प्रदान करना मुश्किल हो जाता है।

यह इस संदर्भ में है कि तीसरी दुनिया के देश ऋण में राहत देने के लिए कहते रहे हैं और जी-20 अब "राहत" के एक कार्यक्रम के साथ आगे आया है। इस समझौते की परिकल्पना तीसरी दुनिया के सबसे ग़रीब 77 देशों द्वारा सरकारों पर बकाया सभी द्विपक्षीय ऋणों के लिए है, सभी ऋण-शोधन भुगतानों का आठ-महीने का स्थगन होगा जो 1 मई और 31 दिसंबर 2020 के बीच होगा; लेकिन आईएमएफ और विश्व बैंक को ऋण-शोधन भुगतान निर्धारित समय पर किया जाना है (जब तक कि रियायतें अलग से नहीं की जाती हैं) और निजी लेनदारों के लिए भी है(फिर उस सीमा को छोड़ कर के कि ऐसे निजी लेनदारों को स्वैच्छिक आधार पर छूट की अनुमति दी जाए)।

ऐसे देश-से-देश ऋणों की ऋण अदायगी जो 2020 में होने वाली थी 2022 तक स्थगित हो सकती है और फिर तीन वर्षों 2022, 2023 और 2024 तक जा सकती है। (नए ऋण-शोधन भुगतान जो आठ महीने की अवधि के बाद होगा वह ख़त्म हो गया है, यह संभवतः नए पुनर्भुगतान शेड्यूल के अनुसार काम किया जाएगा)।

इसमें कोई चौंकाने वाली बात नहीं है कि यह समझौता जिसे 16 अप्रैल 2020 को घोषित किया गया था उसकी प्रशंसा की गई; लेकिन वास्तव में यह वैश्विक वित्त और विकसित देश की सरकारों की असहिष्णुता को दर्शाता है जो उनका समर्थन करते हैं।

सबसे पहले इस पूरे समझौते में केवल देश-से-देश ऋण शामिल हैं; यह निजी लेनदारों को शामिल नहीं करता है जिन्हें अपनी इच्छा से अपनी रियायतें देने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिए गए हैं। दूसरा, यह समझौता केवल ऋण और ऋण-शोधन के स्थगण होने की कल्पना करता है, न कि देश-से-देश ऋण के एक पैसा के भुगतान का। इसका मतलब यह है कि जब पुनर्भुगतान का समय आता है तो अब से कुछ साल बाद बड़ी मात्रा में ऋण-चुकौती का हिसाब किताब होगा।

चूंकि 77 ग़रीब देशों के निर्यात की मात्रा में तब तक कोई वृद्धि नहीं होगी और चूंकि वे अपने प्राइमरी कमोडिटी एक्सपोर्ट पर जो क़ीमत हासिल करते हैं वे वर्तमान समय की तरह मंदी की स्थिति में रहेंगे। ये विश्व अर्थव्यवस्था के साथ पूरी तरह दो वर्षों तक मंदी की स्थिति में होगा। पुनर्भुगतान की बाध्यता की ये मात्रा फिर से इन देशों पर एक असंभव बोझ लाद देगी। फिर इन्हें अपने अल्प निर्यात आय से भुगतान करने की आवश्यकता होगी, न केवल उस क़र्ज़ से जिसका भुगतान 2022 में होना वाला था बल्कि इसके अलावा इस क़र्ज़ का एक हिस्सा जो उन्हें 2020 में भुगतान करना था।

यह केवल ऋण संकट का स्थगन नहीं है और यह उसको लेकर बहुत आंशिक है, लेकिन एक ऐसा स्थगन जो वास्तव में भविष्य में संकट का बोझ और भी बड़ा कर देगा। G-20 को अपनाने के लिए एकमात्र उचित रास्ता सबसे ग़रीब 77 देशों के बाहरी ऋण को रद्द करना होगा जो कि G-20 पर विशेष रूप से भारी बोझ भी नहीं होगा।

77 देशों का कुल बाहरी ऋण जो G-20 कार्यक्रम के तहत ऋण-पुनर्निर्धारण के योग्य हैं वह लगभग 750 बिलियन डॉलर होता है जबकि G-20 देशों का कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 78.286 ट्रिलियन डॉलर है। इसलिए सबसे ग़रीब 77 देशों का कुल ऋण G -20 की जीडीपी के 1% से भी कम है। ऋण की माफी जो जीडीपी के 1% से कम है वह G -20 के लिए मुश्किल से कठिन होता।

वास्तव में कुछ साल पहल ब्रैंड्ट कमीशन ने हर साल तीसरी दुनिया के देशों को सहायता के रूप में विकसित देशों की जीडीपी का 1% के लक्ष्य का सुझाव दिया। दूसरे शब्दों में ब्रैंडट कमीशन हर साल उत्तर से दक्षिण में स्थानांतरण की एक राशि का सुझाव दे रहा था जो कि सबसे ग़रीब 77 देशों के कुल ऋण के बराबर है, उसे माफ किया जाना चाहिए।

जब विली ब्रांट ने इस आंकड़े का सुझाव दिया था तो किसी ने भी इसके अत्यधिक होने का नहीं सोचा था; इसके विपरीत, इसकी हर जगह से स्वीकृति मिली थी, हालांकि किसी भी देश ने बेशक इसे लागू नहीं किया। लेकिन मुद्दा यह है कि जी-20 की जीडीपी का 1% ऋण-माफी के लिए समर्पित किया जा रहा है और वह भी हर साल नहीं बल्कि सिर्फ एक बार सभी के लिए कल्पना के किसी भी स्तर कोई बड़ी बात नहीं है। हालांकि, यह वह नहीं है जो जी -20 द्वारा हस्ताक्षरित समझौता प्रदान करता है।

ये ऋण संकट केवल तीसरी दुनिया की घटना नहीं है। यहां तक कि ग्रीस, स्पेन और इटली जैसे यूरोपीय यूनियन के कई देश इससे प्रभावित हैं। इसलिए हम आने वाले दिनों में इसके बारे में बहुत कुछ सुनेंगे।

लेकिन अगर ऐसा नहीं है और वित्त पूंजी अपनी रक्तरंजित-मानसिकता को प्रदर्शित करना जारी रखती है तो ऐसे माफी को लागू करने के लिए पीड़ित देशों के भीतर एक बहुत मज़बूत आंदोलन होगा। दूसरे तरीके से कहें तो अगर वित्त पूंजी स्वेच्छा से ऋण-माफी को स्वीकार नहीं करती है तो इसे ऐसी माफी के लिए लोगों के बीच एक उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ेगा। यह कल्पना करना कि महामारी के समाप्त होने के बाद वित्त के निर्विवाद रूप में हम वापस आ सकते हैं जो ख़तरनाक है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

Problem of External Debt in the Third World

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