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टीपू सुल्तान, रॉकेट और बीजेपी का झूठ का प्रोपेगैंडा

भाजपा के सोशल मीडिया के योद्घाओं को जाहिर है कि इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि उनकी कहानी न तो इतिहास की किसी किताब में मिलती है और न ही चौथे अंग्रेज़-मैसूर युद्ध के किसी भी विवरण में। 
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तस्वीर सौजन्य : Wikimedia Commons

अंगरेजों की नजर में हैदरअली और टीपू सुल्तान का मैसूर साम्राज्य, भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के रास्ते में एक बड़ी बाधा था। पहले तीन-तीन आंग्ल-मैसूर युद्घों में अंगरेजों की हार हुई थी और चौथे युद्घ में ही वे टीपू सुल्तान को हरा पाए थे। एक ओर हैदराबाद का निजाम और दूसरी ओर पेशवा राज, इन लड़ाइयों में अंगरेजों के सहयोगी थे। यहां से वर्तमान पर आएं। टीपू के खिलाफ भाजपा की लड़ाई कहीं सीमित है। यह तो कर्नाटक के चुनाव के लिए ही है। टीपू के खिलाफ उनका हमला, मुसलमानों के खिलाफ काफी साफ-साफ दिखाई देने वाला हमला है। अब टीपू को बदनाम करने के लिए, सीधे अंगरेजों की पीठ ठोकना तो जाहिर है कि मुश्किल होता, इसलिए उन्होंने तो दो गौड़ा लड़ाकों को खोज निकाला है, जो उनके ही दावे के अनुसार टीपू के खिलाफ लड़े थे और जिन्होंने टीपू को मार गिराया था। इस तरह, वे टीपू को गौड़ों के हाथों पराजित करा रहे हैं, न कि अंगरेजों के। भाजपा के सोशल मीडिया के योद्घाओं को जाहिर है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उनकी यह कहानी न तो इतिहास की किसी किताब में मिलती है और न ही चौथे आंग्ल-मैसूर युद्घ के किसी भी विवरण में। पर जब दांव पर कर्नाटक का चुनाव लगा हो, जाहिर है कि चुनाव जीतने में क्या काम आएगा, इसके सिवा और किसी चीज से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है।

मैसूर के रॉकेट

बहरहाल, जो चीज भाजपा पूरी तरह से अनदेखी ही कर देती है, वह यह है कि हैदर अली और टीपू सुल्तान ने 30 साल से ज्यादा अंगरेजी राज पर ही अंकुश नहीं लगाए रखा था, उन्होंने रॉकेट विज्ञान को भी उस स्तर पर पहुंचा दिया था, जिस स्तर पर उस जमाने में यह विज्ञान और कहीं भी नहीं पहुंचा था।

रॉकेटों का सैन्य महत्व, तोपों के उन्नत होने से घट गया था। तोपों की तुलना में रॉकेट कम दूरी तक मार करते थे और उनके निशाने भी सटीक नहीं होते थे। लेकिन, इसी मुकाम पर रॉकेटों के विज्ञान में हैदरअली तथा टीपू सुल्तान के राज में हुए सुधारों ने अपना रंग दिखाया। जहां योरपीय उस जमाने में अपने रॉकेटों में खोल के तौर पर कार्डबोर्ड या लकड़ी के खोलों का प्रयोग किया करते थे, मैसूर के रॉकेटों में लोहे के  खोल का इस्तेमाल किया गया। इससे इन रॉकेटों में ज्यादा मात्रा में बारूद भरा जा सकता था, जिससे उनकी प्रहार की दूरी और विस्फोटक शक्ति, दोनों बढ़ जाती थीं। इसके अलावा मैसूर के रॉकेटों में रॉकेट के छोर पर पूंछ की तरह बांस के स्तंभों या तलवार का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे न सिर्फ रॉकेट की उड़ान में स्थिरता आती थी बल्कि इससे शत्रु सैनिकों को नुकसान पहुंचाने की सामथ्र्य और बढ़ जाती थी।

हैदर अली और टीपू सुल्तान के नेतृत्व में रॉकेट, मैसूर की सेना की प्रहार शक्ति का एक प्रमुख हिस्सा बन गए थे। ब्रिटिश सेना के लिए मैसूर की सेनाओं की ओर से रॉकेटों के प्रहार का मुकाबला करना मुश्किल हो जाता था। उन्हें इससे पहले कहीं भी इस तरह के हथियारों का सामना नहीं करना पड़ा था। मैसूर के रॉकेटों की बारिश ब्रिटिश सैन्य कतारों को तितर-बितर कर देती थी और पहले तीन आंग्ल-मैसूर युद्घों में उनकी हार का कारण बनी थी। चौथी और आखिरी, श्रीरंगपट्टïनम की लड़ाई में ही, निजाम तथा पेशवाओं के साथ गठजोड़ कर के लड़ते हुए, अंगरेज जीत हासिल करने में कामयाब हुए थे।

वैश्विक संदर्भ

अमरीकी स्वतंत्रता की पक्षधर सेनाओं को ब्रिटिश औपनिवेशिक युद्घों का बखूबी पता था। आंग्ल-मैसूर युद्घ, फ्रांस और इंग्लेंड के बीच उस वृहत्तर लड़ाई के हिस्सा थे, जिसमें अमरीका ने अपनी स्वतंत्रता हासिल की थी, जबकि भारत ने अपनी स्वतंत्रता गंवा दी थी और ब्रिटिश उपनिवेश बन गया था। तब फ्रांसीसियों ने अमरीका के स्वतंत्रता युद्घ में मदद की थी और भारत में, मैसूर के सहयोगी बन गए थे। अमरीकी स्वतंत्रता युद्घ के नेता भी मैसूर को अपनी लड़ाई में एक सहयोगी मानते थे और 1812 में डेलवेअर में हुई समुद्री लड़ाई में, शामिल हुए अपने एक युद्घपोत का नाम उन्होंने ‘‘हैदर अली’’ रखा था।

वास्तव में ब्रिटेन ने उस समय 13 उपनिवेशों--अमरीका के नाभिक--को अगर स्वतंत्र हो जाने दिया था, तो उसकी एक वजह यह थी कि वे एक साथ भारतीय और उत्तर अमरीकी, दोनों युद्घ क्षेत्रों में नहीं लड़ सकते थे। उन्होंने सचेत रूप से इसका चयन किया कि कौन से उपनिवेश, साम्राज्य के लिए ज्यादा मूल्यवान थे और किन्हें साम्राज्य, अपने हाथ से निकलने दे सकता था।

बहरहाल, आंग्ल-मैसूर युद्घों के इतिहास और उनके महत्व की चर्चा मैं इतिहासकारों के लिए छोडऩा चाहूंगा, जो इस काम को करने के लिए ज्यादा सक्षम हैं। इसके बजाए मैं रॉकेट-विद्या के उस समय के विकास और उसके महत्व पर ही अपना ध्यान केंद्रित करूंगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि रॉकेट ही हैं जो आज अंतरिक्ष यात्रियों को सुदूर अंतरिक्ष में लेकर जाते हैं और हमें चांद से लेकर शुक्र तक की छानबीन करने में समर्थ बनाते हैं। और रॉकेट ही हैं जो उन उपकरणों को पृथ्वी से ऊपर ऊंचाई तक पहुंचाते हैं, जहां उन्हें स्थापित कर के हम मानसून, सूूखा तथा साइक्लोन जैसी अन्य जलवायु संबंधी परिघटनाओं पर निगरानी रखते हैं और घर-घर में टेलीविजन के लिए सिग्नल पहुंचाने की भी व्यवस्था करते हैं। और जाहिर है कि उन्हीं के जरिए भांति-भांति के शस्त्रों के प्रयोग की व्यवस्थाएं खड़ी की गयी हैं, जिनमें नाभिकीय बमों जैसे महाविनाश के हथियारों के प्रयोग की व्यवस्थाएं भी शामिल हैं। दुर्भाग्य से विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी, अपरिहार्य रूप से युद्घ तथा कारोबार से जुड़ जाते हैं। रॉकेट विद्या भी इसका अपवाद नहीं है।

टीपू के रॉकेटों का योगदान

तो टीपू के रॉकेटों ने अपने जमाने में दुनिया को क्या नया दिया था? रोद्दम नरसिम्हा ने, 1985 के अपने आलेख, ‘‘रॉकेट्स इन मैसूर एंड ब्रिटेन, 1750-1850’’ में मैसूर के रॉकेटों के इतिहास, इन रॉकेटों के रूप में इस क्षेत्र में हुई नयी प्रगति और अंगरेजों के हाथों में इसके आगे और विकास की, छान-बीन की गयी है। श्रीरंगपट्टïनम पर जीत के बाद, अंगरेज मैसूर के अनेक रॉकेट वूलवर्थ लेकर आए थे, जहां ब्रिटेश का शाही शस्त्रागार स्थित था। यहां इन रॉकेटों के सहारे वही किया गया, जिसे अब विज्ञान की भाषा में रिवर्स इंजीनियरिंग कहा जाता है। अंगरेजों के रॉकेट विद्या प्रोजैक्ट के इंचार्ज, विलियम कॉन्ग्रेव ने कहा था कि, ‘...श्रीरंगपट्टïनम में अंगरेजों को उन (रॉकेटों) से जितना नुकसान हुआ था, उतना शत्रु के गोलों या किसी अन्य हथियार से नहीं हुआ था।’ कॉन्ग्रेव का काम इसकी पड़ताल करना था कि क्यों मैसूर के रॉकेट, अपने योरपीय समकक्षों के मुकाबले कहीं ज्यादा कारगर थे और इस जानकारी के सहारे उन्हें अंगरेजी सेना के उपयोग के लिए, और ज्यादा उन्नत रॉकेट तैयार करने थे।

कॉन्ग्रेव के कई आलेख तथा किताबें मौजूद हैं, जिनसे यह पता चलता है कि क्या वजह थी कि मैसूर के रॉकेट, अपने योरपीय समकक्षों से बेहतर थे। इस जानकारी को लेकर, उन्होंने मैसूर के रॉकेटों को भी और बेहतर बनाने और उनके उत्पादन का मानकीकरण करने का काम किया। उनके इसी योगदान के लिए, इन रॉकेटों को आम तौर पर कॉन्ग्रेव रॉकेटों के नाम से जाना जाने लगा। उन्होंने नौसेनिक बमबारी के लिए, तोप के गोलों के बजाए, रॉकेटों का इस्तेमाल किए जाने के फायदों को भी रेखांकित किया। उन्होंने ध्यान दिलाया  कि तोप के गोलों के दागे जाने के विपरीत, रॉकेटों के दागे जाने पर पीछे की ओर कोई धक्का नहीं लगता है। इसलिए, तोपों से गोलाबारी के विपरीत, रॉकेटों की बड़ी संख्या, पानी के जहाजों से शत्रु पर बरसाना संभव है। जमीन की लड़ाइयों में भी जहां तोप के गोले, रॉकेट के मुकाबले अपने निशाने के मामले में ज्यादा सटीक होते हैं, वहीं रॉकेटों के साथ यह आसानी होती है कि उनके इस्तेमाल के लिए, भारी तोपों की जरूरत नहीं होती है। इसलिए, रॉकेटों को लड़ाई के मैदान में आसानी से लाया जा सकता है और उन्हें आसानी से लंबी दूरी तक ले जाया जा सकता है।

रोद्दम ने इसका भी जिक्र किया है कि उस जमाने में मैसूर में, इंग्लेंड के मुकाबले उच्चतर गुणवत्ता का लोहा बनता था। वैसे तो यह एक अलग ही इतिहास है कि दक्षिण भारत में ज्यादा कार्बन युक्त इस्पात का विकास हुआ था, जिसे भारत से बाहर वूत्ज स्टील के नाम से जाना जाता था। (वूत्ज शब्द संभवत: इस्पात के लिए तेलुगू शब्द, उक्कू से निकला होगा।) यह इस्पात कुठालियों में बनाया जाता था और इनके बने वूत्ज के गोले, मध्य तथा पश्चिमी एशिया में भेजे जाते थे। यहां से यह इस्पात योरप तक पहुंचा था। इन्हीं से दमिश्क की छुरी/कटार निकलीं, हालांकि इस तरह की छुरी/ कटारें दक्षिण एशिया में आम थीं। बहरहाल, उच्च कार्बन इस्पात के उत्पादन और शेफील्ड में उसका इस्तेमाल, जैसाकि मैंने पहले ही कहा एक अलग ही कहानी है, जो कान्ग्रेव रॉकेटों के विकास के साथ सीधे जुड़ी हुई भी नहीं है।

रॉकेट विद्या का लंबा सफर

कॉन्ग्रेव रॉकेटों का अंगरेजों ने फ्रांसीसियों के खिलाफ बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया था, खुद योरप में भी और उत्तरी अमेरिका में भी। ऑर्थर वेलेजली ने और आगे चलकर ड्यूक विलिंगटन तथा विक्टर ने, वाटरलू में रॉकेटों का इस्तेमाल किया था, जैसाकि उस समय की युद्घ की पेंटिंगों में हुए चित्रण में देखा जा सकता है। जैसाकि मैंने पीछे जिक्र किया था, कान्ग्रेव के रॉकेटों का अंगरेजों ने, 1812 में बॉल्टीमोर की लड़ाई में अमरीकी सेनाओं के खिलाफ भी इस्तेमाल किया था। अमरीका के राष्टï्र गान, ‘‘द स्टार स्पेंगल्ड बैनर’’ के पहले ही स्टेंजा में ये पंक्तियां आती हैं:

‘और रॉकेटों की चमक, हवा में फटते बम,
रात भर देते हैं गवाही कि हमारा झंडा, अब भी फहरा रहा है।’

ज्यादा लोग नहीं जानते हैं कि उक्त पंक्तियों में जिन रॉकेटों का जिक्र किया गया है, खास कॉन्ग्रेव के रॉकेट ही थे। उक्त पंक्तियों का लेखक, फ्रांसिस स्कॉट, एक ब्रिटिश पोत पर रखा गया अमरीकी बंदी था और उसने बाल्टीमोर में फोर्ट मैक्ïहैनरी पर हुई बमबारी को देखा था। वहीं से उक्त पंक्तियां निकली थीं। यह दूसरी बात है कि वही ‘‘स्टॉर स्पेंगल्ड बैनर’’ आगे ‘‘फ्रीमेन’’ का भी महिमामंडन करता है और तीसरे स्टेंजा में दासों के लिए मृत्यु तय करता है:

‘कोई हीला नहीं बचा सकता था, भाड़े के टट्टुओं और दासों को,
डर के मारे भाग जाने से या कब्र के विषाद से। ’

‘‘स्टार स्पेंगल्ड बैनर’’ के साथ, श्वेत श्रेष्ठïता तथा दासता की भावनाओं के इस तरह जुड़े होने के ही चलते, अश्वेत अमरीकी एथलीट उसके गाए जाने के समय सम्मान में खड़े होने के बजाए, घुटनों पर बैठने के जरिए अपने विरोध जताते हैं।

इस किस्से का अंत हम भारत के रॉकेट मैन कहलाने वाले, एपीजे अब्दुल कलाम के जीवन के एक प्रसंग से करना चाहेेंगे। कलाम जब नासा की वैलप्स फ्लाइट फैसिलिटी को देखने गए, वहां उन्हें रॉकेट विद्या में टीपू के अग्रणी योगदान का पता चला। इस अमेरिकी संस्थान के मुख्य रिसेप्शन पर, अंगरेजों के खिलाफ टीपू के रॉकेटों के प्रयोग की एक पेंटिंग लगी हुई थी! वास्तविक इतिहास हमेशा ही, गढ़े हुए इतिहास से ज्यादा दिलचस्प होता है।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Tipu Sultan’s Real History is Better Than the Fake One Being Peddled

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