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पब्लिक सेफ़्टी एक्ट: मनमुताबिक़ हिरासत में ली जाने की कार्रवाईयां जारी, नए कश्मीर में असहमति की कोई जगह नहीं

कयूम की तरफ़ से जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट में रिट पेटिशन लगाई गई थी, जिसे ख़ारिज कर दिया गया था। इसके बाद पेटेंट अपील दाखिल की गई थी।
पब्लिक सेफ़्टी एक्ट: मनमुताबिक़ हिरासत में ली जाने की कार्रवाईयां जारी, नए कश्मीर में असहमति

अनुच्छेद 370 के निरसन के बाद से कश्मीर के ज़मीनी हालातों में बहुत कम परिवर्तन आया है। अब्दुल हन्नान किरमानी और राजेश कुमार लिखते हैं कि पत्रकार सज्जाद गुल की गिरफ़्तारी बताती है कि कैसे "पब्लिक सेफ़्टी एक्ट या पीएसए" का असहमति को कुचलने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल हो रहा है। 

हाल में कश्मीर पत्रकार सज्जाद गुल को गिरफ़्तार कर उनके ऊपर पीएसए (पब्लिक सेफ़्टी एक्ट) लगा दिया गया था। बता दें अब्दुल को आपराधिक षड्यंत्र से जुड़े आरोप लगाकर पुलिस ने गिरफ़्तार किया था। जैसे ही उन्हें कोर्ट से ज़मानत मिलने वाली थी, उनके ऊपर पीएसए लगा दिया गया। गुल "द कश्मीर वाला" के साथ काम करते थे, उनके ऊपर हाल में एंटी-टेरेरिस्ट ऑपरेशन के बारे में ट्वीट के ज़रिए भ्रामक जानकारी फैलाने का आरोप लगा था।

जम्मू-कश्मीर पब्लिक सेफ़्टी एक्ट को 1978 में तत्कालीन मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला लेकर आए थे। इससे प्रशासन को किसी भी व्यक्ति को सिर्फ़ शक के आधार पर गिरफ़्तार करने की असीमित ताकत मिल जाती है। इस कानून की जड़, 1915 के भारत की सुरक्षा अधिनियम (डिफ़ेंस ऑफ इंडिया एक्ट) में देखी जा सकती है, जो अंग्रेजों के दौर में पारित हुआ था। जब कश्मीर गुलाम था, तो वहां पब्लिक सेफ़्टी एक्ट, 1946 पारित हुआ था। मौजूदा अधिनियम को इसी का उत्तराधिकारी माना जाता है। 1946 के कानून को तब इसलिए पारित किया गया था, ताकि "कश्मीर छोड़ो आंदोलन" के सदस्यों को सिर्फ़ सार्वजनिक कानून व्यवस्था का हवाला देकर निरोधक स्तर पर गिरफ़्तार किया जा सके। 

पब्लिक सेफ़्टी एक्ट को लागू करने की बात को यह कहकर न्यायोचित ठहराया गया कि इसका उपयोग लकड़ी के तस्करों के खिलाफ़ किया जाएगा, ताकि जंगलों को सुरक्षित रखा जा सके। लेकिन शायद ही कभी लकड़ी तस्करों को इस अधिनियम के तहत गिरफ़्तार किया गया है। वास्तविकता यह है कि इस अधिनियम का उपयोग राजनीतिक बढ़त हासिल करने और पूर्ववर्ती कश्मीर राज्य में बुलंद आवाज़ों को नियंत्रित करने के लिए किया जाता रहा है। 

5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर राज्य से उसका विशेष दर्जा छीन लिया गया और जम्मू-कश्मीर को महज़ एक केंद्र शासित प्रदेश बनाकर छोड़ दिया गया। यह ऐसा कदम था जिसके ज़रिए केंद्र सरकार का राज्य पर नियंत्रण पुख़्ता किया गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के निरसन का मतलब है कि अब भारतीय संसद द्वारा पारित सभी कानून जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश पर लागू होंगे और पूर्व जम्मू-कश्मीर विधानसभा द्वारा पारित अधिकतर कानूनों को निरस्त कर दिया जाएगा। लेकिन जिस एक कानून को नहीं हटाया गया, वह है जम्मू-कश्मीर पब्लिक सेफ़्टी एक्ट (जेके पीएसए)।

5 अगस्त को लिए गए फ़ैसले की तैयारी बहुत पहले ही कर ली गई थी। फिर निरसन के दिन राज्य ने कर्फ़्यू, गिरफ़्तारियों, हिरासतों, टेलिकम्यूनिकेशन शटडॉउन व अन्य तरीकों से पूरी ताकत से स्थानीय आबादी को दबाया। इतने बड़े पैमाने के बदलाव ज़मीन पर दबाव और हथियारों के ज़रिए लागू किए गए। राज्य के हथियारों के ज़खीरे में पब्लिक सेफ़्टी एक्ट अलग ही दिखाई देता है। 

वास्तविकता यह है कि इस कानून का उपयोग राजनीतिक फायदा लेने और पूर्ववर्ती कश्मीर राज्य में बुलंद आवाज़ों को नियंत्रण करने के लिए किया जाता रहा है।

यह एक ऐसा अधिनियम था, जिसे राज्य विधानसभा द्वारा पारित किया गया था, जिसका मक़सद स्थानीय समस्याओं को हल करना था। इसका इतिहास धड़ल्ले से उपयोग और स्थानीय प्रदर्शनों को कुचलने के लिए इस्तेमाल का रहा है। उदाहरण के लिए, हम जेकेपीएसए के 2010 से 2016 के बीच हुए इस्तेमाल पर नज़र डाल सकते हैं। 2010 में 322 लोगों पर इस अधिनियम के तहत जुलाई और सितंबर में मामला दर्ज किया गया। जबकि 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद यह आंकड़ा बढ़कर 921 तक पहुंच गया। इसलिए कश्मीर में सरकारों ने बिना ट्रायल के लोगों को जेल में बंद करवाने के लिए इस अधिनियम का खूब उपयोग किया है। अलग-अलग नागरिक समाज संगठनों (जैसे मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल) द्वारा प्रकाशित रिपोर्टों में यह तथ्य बखूबी दिखाया गया है कि इस अधिनियम का ज़्यादातर शिकार युवा और सत्ता का विरोध करने वाले रहे हैं। 

आवाज़ों को कुचलना

कश्मीर में सामाजिक-राजनीतिक तस्वीर बेहद तेज बदलावों से गुजर रही है। इस तरह के बदलावों को अलग-अलग कर बिल्कुल सटीक ढंग से यहां बताना संभव नहीं है, लेकिन इन बदलावों के नतीज़े मीडिया की हालत और घाटी में शांत हो चुके सामाजिक माहौल से साफ़ नज़र आते हैं। बदलाव की इस प्रक्रिया में जेकेपीएसए ने अहम भूमिका निभाई है। जो भी लोग सत्ता से सवाल करते हैं या इस बदलाव को चुनौती देते हैं, ऐसे लोगों को लगातार हिरासत में लिया जाता रहा है। गुल की गिरफ़्तारी ऐसा ही एक उदाहरण है। 

बांदीपुरा जिले के शाहगुंद इलाके से आने वाले 26 साल के गुल कश्मीर केंद्रीय विश्व विद्यालय से "कंवर्जेंट जर्नलिज़्म" की पढ़ाई कर रहे थे। उन्हें 16 जनवरी को पीएसए के तहत हिरासत में लिया गया था। यह पहली बार नहीं था जब प्रशासन ने गुल का उत्पीड़न किया हो। उनके पहले सबसे पहली एफआईआर फरवरी, 2021 में दर्ज की गई थी। वह प्रशासन की नज़रों में तब आए, जब उन्होंने बांदीपुरा में प्रशासन द्वारा घर गिराने के एक अभियान का खुलासा किया। संबंधित तहसीलदार ने गुल को बुरे नतीज़े भुगतने की चेतावनी दी थी। लेकिन यह एफआईआर ही पहले उनकी गिरफ़्तारी, बाद में उनके ऊपर पीएसए (इस महीने की शुरुआत में) लगाए जाने की वज़ह बनी। यह एफआईआर उनके घर पर सैनिकों के कई दौरों के बाद दायर की गई: उन्हें प्रशासन द्वारा इसलिए प्रताड़ना झेलनी पड़ रही थी कि उन्होंने एक स्टोरी की थी, जिसमें गोलीबारी में मारे गए एक शख़्स के परिवार वालों ने दावा किया था कि शख़्स की हत्या, अतिरिक्त-न्यायिक हत्या है।

गुल के मामले में अधिकारी उन्हें लंबे वक़्त से चुप कराने के लिए गिरफ़्तारी की धमकियां दे रहे थे। लेकिन जब गुल पीछे नहीं हटे, तो उन्होंने गुल को आईपीसी की धारा 120B (आपराधिक षड्यंत्र के लिए सजा), 505(2) (दो समुदायों के बीच नफ़रत, घृणा, दुश्मनी बढ़ाने वाले वक्तव्य देना) और 120B (ऐसे लांछन लगाना या दावे करना, जो राष्ट्रीय अखंडता के खिलाफ़ जाते हैं) के तहत गिरफ़्तार कर लिया। इस मामले में गुल को एक स्थानीय कोर्ट से ज़मानत मिल गई थी। 

जब पुलिस को लगा कि इस मामले में गुल की जल्द ही ज़मानत हो जाएगी, तो उन्होंने गुल को जेकेपीएसए के तहत हिरासत में ले लिया। एक बार फिर यह अधिनियम जिस चीज के लिए बदनाम है, उसी के लिए इस्तेमाल किया गया।  

जैसा पहले ही बताया गया है कि अनुच्छेद 370 को लगाए जाने की तैयारी पहले ही शुरू कर दी गई थीं। इसलिए 5 अगस्त से पहले ही लोगों को हिरासत में लिया जाना शुरू हो गया था। इस घटना के दो साल बाद यह पता चला है कि अनुच्छेद 370 के निरसन से पहले लोगों को उनकी विचारधारा के लिए तक हिरासत में लिया गया था। इस पर गौर करना जरूरी है कि विचारधारा का जेकेपीएसए की धारा 8 के तहत हिरासत में लिए जाने से कोई संबंध नहीं है। यह बात समझाने के लिए हम मियां कयूम का मामला लेते हैं।

दरअसल कयूम को विचारधारा के तहत हिरासत में लिया गया था।

वरिष्ठ अधिवक्ता और जम्मू व कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष मियां अब्दुल कयूम को 4 और 5 अगस्त, 2019 के बीच की रात में सीआरपीसी की धारा 107 और 151 के तहत हिरासत में लिया गया था। बाद में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की आदेश संख्या DMS/PSA/105/2019 के ज़रिए 7 जनवरी, 2019 को उन्हें जेकेपीएसए के तहत हिरासत में लिया गया। कयूम को हिरासत में लिए जाने के लिए उनकी उन गतिविधियों को आधार बनाया गया, जिसके चलते उनके ऊपर 2008 और 2010 में मामला दर्ज हुआ था। 

जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में उनकी तरफ से दायर की गई याचिका को खारिज कर दिया गया, इसके बाद एक ख़त और एक "पेटेंट अपील" दायर की गई। जिसके ऊपर जस्टिस अली मुहम्मद मागरे और जस्टिस विनोद चटर्जी कौल की डिवीज़न बेंच ने सुनवाई की। अंतिम फ़ैसला देने वाले मागरे ने अपीलकर्ता की तरफ़ दायर किए गए 7 दस्तावेज़ों पर प्रतिक्रिया दी। अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया गया कि हिरासत में लेने के लिए जिन गतिविधियों को आरोप के तौर पर पेश किया गया है, उनसे उन्हें आज की तारीख़ में हिरासत में लिए जाने की आपात जरूरत सिद्ध नहीं होती, ना ही दोनों को कोई संबंध सिद्ध होता है। यहां जिन गतिविधियों की बात की गई है, वह कयूम की विचारधारा से जुड़ी हैं। आदेश के पैराग्राफ़ 48 में जस्टिस मागरे विचारधारा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यह "एक जिंदा ज्वालामुखी की तरह है।" आखिरकार कयूम की विचारधारा को उन्हें हिरासत में लिए जाने के लिए आधार मान लिया गया। 

व्यापक और अस्पष्ट आधार

पब्लिक सेफ़्टी एक्ट की धारा (8)(1)(i) किसी व्यक्ति को "सार्वजनिक सुरक्षा और राज्य की रक्षा" के आधार पर हिरासत में लेने का अधिकार देती है। इन दोनों शब्दावलियों को इस अधिनियम में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया। इसलिए इनका गलत इस्तेमाल होता है। यह हैरान करने वाला है कि हिरासत संबंधी कानूनों में इन शब्दावलियों का कितना ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है, जबकि इन्हें परिभाषित करने की ज़िम्मेदारी नहीं समझी जाती। जब पुलिस की रिपोर्ट और दूसरे तथ्यों के आधार पर पीएसए डोज़ियर बनाए जाते हैं, तो इसी तरह की व्यापक और अस्पष्ट शब्दावलियों का इस्तेमाल किया जाता है।

कोर्ट लगातार हिरासत में लेने के प्रशासनिक आदेशों में संक्षिप्त और सटीक घटनाओं का जिक्र करने को कहते रहे हैं। मोहम्मद युसूफ रथर बनाम् जम्मू-कश्मीर राज्य(1979) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा:

"यह कोर्ट हिरासत में लिए जाने के आधार में स्पष्टता की कमी की निंदा करता है, क्योंकि इससे हिरासत में लिए गए व्यक्ति के संविधान के अनुच्छेद 22(5) प्रदत्त मौलिक अधिकार का हनन होता है, जो उसे 'हिरासत के आदेश' के आधार के बाद अपना प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का अधिकार देता है। इस अनिवार्यता का उद्देश्य यह है कि संबंधित शख़्स को अपनी हिरासत के खिलाफ़ जल्द से जल्द मौका मिल जाए। लेकिन जब हिरासत का आधार ही अस्पष्ट हो, इतना कि व्यक्ति प्रभावी प्रतिनिधित्व ही पेश ना कर पाए, ऐसे में स्वाभाविक है कि यह मौका व्यक्ति से छीन लिया गया है।"

लेकिन युसुफ रथर को इस कानून में 1985 में धारा 10A जोड़े जाने से झटका लगा। हमारे विचार में यह धारा अकेले ही कई लोगों की अवैध और मनमुताबिक़ हिरासत के लिए ज़िम्मेदार रहा है। इस धारा में हिरासत के आधारों को विभाज्य कर दिया गया है। मतलब हर आधार को अलग-अलग कर देखा जा सकता है। इस धारा के शब्द कहते हैं, "ऐसा आदेश इसलिए अवैध या अक्रियान्वित नहीं हो सकता कि हिरासत के लिए बताए गए एक या कुछ आधार इस आदेश में  (1)अस्पष्ट हैं 2) गैर-मौजूद हैं 3) मामले से संबंधित नहीं हैं...."

चूंकि इसमें आधारों को विभाज्य कर दिया है, ऐसे में हर एक आधार पर अलग-अलग ही हिरासत को तौला जा सकता है। मतलब अगर हिरासत में लेने का एक आधार अस्पष्ट भी है, तो भी इससे पूरा आदेश निरसित नहीं हो सकता। इससे एक अनोखी समस्या खड़ी हो जाती है, जिसकी कयूम के मामले से व्याख्या होती है।

कयूम के मामले में गोपनीय इंटेलीजेंस रिपोर्ट पर विश्वास किया गया था, जिन्हें जजों को दिखाया गया था, लेकिन हिरासत में लिए गए शख़्स को नहीं। इस तरह की जानकारी को साझा ना किए जाने का उल्लेख पीएसए की धारा 13(ii) में है। लेकिन एक ऐसे मामले में जहां हिरासत सभी मामलों में रद्द पाई जाती है, लेकिन गोपनीय रिपोर्ट में आरोपित गतिविधियों के आधार पर उसे सही ठहराया जाता है, क्या ऐसे में हिरासत में लिए गए शख़्स के अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता?

यहां स्थिति नाजुक है, जहां हिरासत का आदेश उस जानकारी के आधार पर सही ठहराया जा सकता है, जो हिरासत में लिए गए शख़्स को उपलब्ध ही नहीं कराई जा रही और आदेश को दूसरे आधारों पर रद्द नहीं करवाया जा सकता।

रिवोल्विंग डोर डिटेंशन (चक्रीय हिरासत)

पीएसए में उल्लेखित हिरासत में लिए जाने का एक मुख्य आधार है, "अगर इस बात की पूरी संभावना है कि तुम्हारी (हिरासत में लिए गए शख़्स की) की ज़मानत हो जाएगी।" इससे एक नया चक्र शुरू हुआ है, जिसे "रिवोल्विंग डोर डिटेंशन (चक्रीय हिरासत)" कहा जाता है। जब किसी व्यक्ति को सामान्य दंडात्मक कानूनों में गिरफ़्तार किया जाता है और उन्हें ज़मानत मिल जाती है, तो पुलिस उन्हें आगे भी हिरासत में रखने के लिए उन्हें जेकेपीएसए में हिरासत में लेती है। साथ ही, अगर हिरासत के एक आदेश को रद्द कर दिया जाता है या उसकी समय सीमा ख़त्म होजाती है, तो एक दूसरा आदेश पारित कर दिया जाता है। 

यह चीज़ कश्मीरी अलगाववादी नेता और जम्मू-कश्मीर मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मसरत आलम भट के मामले में देखी गई। उनके ऊपर पाकिस्तान समर्थक होने के आरोप लगे हैं और उन्हें करीब़ 11 सालों से हिरासत में रखा गया है। उन्हें अलगाववादी राजनीतिक पार्टी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी की सितंबर 2021 में मौत के बाद, पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया है। नीचे दी गई सूची मसरत आलम के खिलाफ़ जारी किए गए 38 हिरासत आदेशों में से 22 का समय बताती है।

मसरत आलम भट का जेके पीएसए के तहत हिरासत में लिए जाने की अलग-अलग घटनाएं और वक़्त

लेखकों द्वारा हाईकोर्ट के अलग-अलग फ़ैसलों से इकट्ठा किया गया आंकड़ा

हम गुल की गिरफ़्तारी और हिरासत में इस अवधारणा का दोहराव देखते हैं। उन्हें हिरासत के आदेश में कहा गया है कि उनकी रिपोर्टिंग केंद्र शासित प्रदेश की आलोचना करने वाली थी और वे लगातार 'सरकार विरोधी' खबरों को खोजते रहते थे। अहम यह है कि एक स्थानीय कोर्ट से जमानत मिलने के बाद यह आदेश आया था।  द कश्मीर वाला के संपादक पीरजादा फहाद कहते हैं कि गुल की गिरफ़्तारी प्रतिशोधी है और उन्हें पीएसए के तहत हिरासत में लिया जाना, उन्हें दूर रखने का एक आसान तरीका है।

जब किसी व्यक्ति को सामान्य दंडात्मक कानून में गिरफ़्तार किया जाता है, तो वे ज़मानत लेने के हक़दार होते हैं। इन लोगों को लगातार हिरासत में रखने के लिए पुलिस इन्हें जेकेपीएसए के तहत हिरासत में लेती है। फिर जब एक हिरासत का आदेश रद्द कर दिया जाता है, या उसकी मियाद ख़त्म हो जाती है, तो अगला आदेश जारी कर दिया जाता है। 

अनुच्छेद 370 के निरसन के दिन संसद को संबोधित करते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था, "मैं आंशिक तौर पर इस बात से सहमत हूं कि जम्मू-कश्मीर के लोगों और शेष भारत में विश्वास की कमी है; ऐसा इसलिए है क्योंकि यह विश्वास बनाने के कोई प्रयास नहीं किए गए।" अब जब निरसन के भी दो साल बीत गए हैं, तब भी सरकार ने विश्वास बनाने के कोई प्रयास नहीं किए। अगर थोड़ा-बहुत विश्वास बचा भी हुआ है, तो पीएसए का बेइंतहां इस्तेमाल उसे भी ख़त्म कर रहा है। 

(अब्दुल हन्नान किरमानी जम्मू-कश्मीर कोलिशन ऑफ़ सिविल सोसायटी में रिसर्च इंटर्न हैं। वहीं राजेश कुमार द लीफलेट में इंटर्न हैं। दोनों ही नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में पहले साल के छात्र हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

साभार: द लीफ़लेट

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Public Safety Act: with Continuing Arbitrary Detentions, Dissent has no Place in Naya Kashmir

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