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जन विश्वास क़ानून : सेहत से खिलवाड़ करने वाली दवा कंपनियों को मिल जाएगी छूट ?

सबसे विवादास्पद संशोधन, ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट (1940) की धारा 27(डी) में है जिसके अंतर्गत निम्न स्तरीय गुणवत्ता वाली दवाओं के निर्माण के मामले में दवा कंपनियों पर आपराधिक मुक़दमा चलाने से छूट दे दी गई है।
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27 जुलाई को लोकसभा में मणिपुर मुद्दे पर जारी विरोध के शोर के बीच ही जन विश्वास (प्रावधान संशोधन) विधेयक, 2023 को सरकार ने पारित करा लिया। विधेयक पेश करते वक्त मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि "यह बहुत से मामलों में आपराधिक मुकदमे व सज़ा के प्रावधानों को गैर आपराधिक बना कर जुर्माने लायक अभियोगों में बदल देगा। इससे कारोबारियों में छोटी गलतियों के लिए आपराधिक मुकदमे की कार्रवाई का भय समाप्त हो जाने से ईज़ ऑफ डुइंग बिज़नेस को बढ़ावा मिलेगा।" इस मकसद के तहत इस कानून के द्वारा 42 कानूनों की 183 धाराओं-उपधाराओं में आपराधिक मुकदमे व सज़ा के प्रावधानों को समाप्त कर दिया गया है। इन मामलों में अब पुलिस के द्वारा आपराधिक मुकदमा न चला कर संबंधित विभागों द्वारा जुर्माना लगाकर मामला समाप्त कर दिया जाएगा।

इन 42 कानूनों में भी सबसे विवादास्पद व सामाजिक हानि की संभावना वाला संशोधन ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 की धारा 27(डी) में है जिसके अंतर्गत निम्न स्तरीय गुणवत्ता वाली दवाओं के निर्माण के मामले में दवा कंपनियों पर आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट दे दी गई है। अब इसमें दो साल तक की कैद की सज़ा व जुर्माने के स्थान पर मात्र जुर्माना अदा करने पर ही फार्मा कंपनियों के मालिकों व प्रबंधकों को छूट मिल जाएगी। निम्न स्तरीय दवाओं पर फार्मा कंपनियों को सज़ा का डर न रहने से मरीज़ों के स्वास्थ्य व जान को होने वाले खतरे को देखते हुए डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मियों व अन्य कार्यकर्ताओं ने इस पर सख्त विरोध जताया है।

विरोध पश्चात सरकार ने इस पर प्रेस वक्तव्य जारी कर सफाई दी है कि ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 की धारा 27(ए), (बी) व (सी) में संशोधन नहीं किया गया है। सरकार बता रही है कि नकली व फर्जी दवाओं को आपराधिक मुकदमे व कैद की सज़ा से छूट नहीं दी गई है क्योंकि ये मामले इन तीन धाराओं के अंतर्गत आते हैं और उन मामलों में आजीवन कारावास तथा मृत्युदंड तक की सज़ायें जारी रहेंगी। सिर्फ 27(डी) में छूट दी गई है जो स्तरीय गुणवत्ता से निम्न अर्थात नॉट ऑफ स्टैन्डर्ड क्वालिटी (एनएस्क्यू) दवाओं के लिए ही लागू होता है। सरकार तथा फार्मा लॉबी बता रहे हैं कि एनएस्क्यू दवाएं सिर्फ कानूनी तौर पर निर्धारित न्यूनतम स्तर से कुछ नीचे गुणवत्ता वाली होती हैं और ऐसी दवाओं से कोई शारीरिक हानि नहीं होती। अतः इन मामलों में मुकदमा व सज़ा के प्रावधान से समाज को कोई लाभ नहीं। इससे मात्र न्यायपालिका पर बोझ बढ़ता है और देशी-विदेशी निवेशक भयभीत होकर पर्याप्त निवेश न करने से दवा उद्योग का विकास बाधित होता है।

सरकार व फार्मा लॉबी के तर्क से मिलावटी दवा वह होती है जिसमें कोई बाहरी ज़हरीला नुकसानदायक तत्व घुस आया हो, जैसे कफ सीरप में डाइ एथिलीन ग्लाईकोल जिससे बच्चों की मृत्यु हो सकती है। यह धारा 27(ए) के अंतर्गत आता है। इसी तरह बिना लाइसेंस दवा बनाने या दवा पर जो लेबल है उसके बजाय कुछ और होने को नकली दवा माना जाता है। सरकार ने सफाई दी है कि इन पर सज़ा फिलहाल जारी रहेगी। सज़ा से छूट सिर्फ गैर नुकसानदायक मामलों में दी गई है।

स्वास्थ्य संबंधी जोखिम का मामला होने की वजह से सरकार व फार्मा लॉबी के इस उपरोक्त तर्क की गहन जांच पड़ताल ज़रूरी है। आखिर ये एनएस्क्यू दवाएं क्या होती हैं? किसी दवा में घोषित से कम मात्रा में सक्रिय फार्मा तत्व का होना एनएस्क्यू का एक उदाहरण है। उदाहरण के तौर पर कोई मरीज़ गंभीर आहार नाल संक्रमण या सांस की नली में संक्रमण की वजह से अस्पताल में भर्ती है, ऐसे मामलों में अक्सर सिपरोफ्लोक्सासिन नामक एंटी बायोटिक दवा दी जाती है। अगर इस दवा में घोषित डोज़ के 50% से कम सक्रिय एंटी बायोटिक तत्व हो तो यह एनएस्क्यू दवा की श्रेणी में आएगा। अगर सक्रिय तत्व 15 या 25% हो तब भी यह मामला एनएस्क्यू श्रेणी में ही आएगा। किंतु हम इसके परिणाम की कल्पना कर सकते हैं। गंभीर मामलों में कुछ समय तक पर्याप्त सक्रिय तत्व की कमी वाली दवा से मरीज़ की मृत्य हो सकती है। उसकी बीमारी अधिक गंभीर होने से उसे लंबे महंगे इलाज की ज़रूरत पड़ सकती है। फिर एंटी बायोटिक दवा की डोज़ का अधूरा कोर्स उसमें एंटी बायोटिक दवाओं के लिए प्रतिरोधक क्षमता बना सकता है जो भविष्य में कई बीमारियों में घातक सिद्ध हो सकता है। क्या सरकार व फार्मा लॉबी की बात सही है कि एनएस्क्यू दवा से शारीरिक हानि नहीं होती?

इसी तरह भारत में मिट्टी व पानी की अशुद्धता की वजह से बहुत से बच्चे हुकवर्म, पिनवर्म, व्हिपवर्म आदि कृमियों से पीड़ित होकर एनिमिया व कुपोषण के शिकार होते हैं। ऐसे क्षेत्रों में बच्चों को सालाना अलबेंडाजोल दवा दी जाती है। यह शरीर में घुलनशील क्रिया द्वारा प्रभाव डालती है। लेकिन अगर यह शरीर में घुले नहीं तो इसका प्रभाव नहीं होगा। इसके लिए घुलनशीलता का न्यूनतम स्तर निर्धारित है। किंतु घुलनशीलता के अभाव में इसे नकली या मिलावटी नहीं बस एनएसक्यू माना जाएगा। पर वास्तव में ऐसी दवा लेने वाला बच्चा सही से वृद्धि न कर एनिमिया व कुपोषण का शिकार होगा और उसका शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होगा, शिक्षा में भी वह पिछड़ जाएगा। किंतु सरकारी तर्क से यह शारीरिक हानि नहीं है!

आईसीयू में मरीज़ों को स्टेरॉइड इंजेक्शन जीवन बचाने के लिए दिए जाते हैं। उनमें बैक्टिरीअल एंडोटॉक्सिन रह जाने को भी भारत में एनएस्क्यू ही माना जाता है जबकि यह अत्यंत हानिकारक सिद्ध हो सकता है। एंटीबायोटिक दवाओं, इंजेक्शनों, बच्चों के कीड़ों, आदि मामलों में ऐसे बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैं जो सरकारी नियमों से एनएस्क्यू में आते हैं, नकली या मिलावटी दवा नहीं माने जाते। इन सब से भारी शारीरिक हानि हो सकती है। लेकिन अब ये सभी आपराधिक मुकदमे व कैद की सज़ा से मुक्त कर दिए गए हैं। फार्मा पूंजीपतियों की लॉबी के लिए यह बड़ी जीत है।

हमने पिछले कुछ महीनों में ही भारत में नकली, मिलावटी, निम्न स्तरीय दवाओं के उत्पादन के कई मामले देखे हैं। इससे देश में तो सरकारी ढील से उतनी कार्रवाई नहीं हुई है लेकिन वैश्विक स्तर पर भारतीय दवाओं का बाज़ार बेहद प्रभावित हुआ है। गाम्बिया में कुछ महीने पहले ऐसे ही कफ सीरप की वजह से 19 बच्चों की मृत्यु हो गई थी। श्रीलंका ने अभी कुछ दिन पहले ही 50 व्यक्तियों की आंखों में इंफेक्शन पश्चात गुजरात की इंडियाना ऑफ्थैल्मिक्स नामक भारतीय फार्मा कंपनी को वहां दवा आयात के लिए ब्लैक लिस्ट कर दिया है।

इससे हम समझ सकते हैं कि भारतीय दवा उद्योग में गुणवत्ता नियंत्रण की कितनी बदतर स्थिति है। ऐसे में हमारे देश में दवाओं की गुणवत्ता की विस्तृत जांच व नियंत्रण तथा निम्न गुणवत्ता के मामलों में सख्त कार्रवाई की ज़रूरत है। असल में तो यह भी शोध का विषय होना चाहिए कि निम्न गुणवत्ता की दवाओं की वजह से भारतीय जनता पर कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है और सुधार का अन्य उपाय न होने पर पूरे दवा उद्योग को तुरंत राष्ट्रीयकरण कर सार्वजनिक नियंत्रण में ले लेना चाहिए और उसके गुणवत्ता के समस्त डाटा को गुप्त रखने के बजाय पारदर्शी पद्धति से सामाजिक जानकारी का विषय बना देना चाहिए।

इसके बजाय नरेंद्र मोदी की सरकार अपनी पूंजीपरस्त नीतियों के अंतर्गत फार्मा कंपनियों और उनमें निवेश करने वाले देशी-विदेशी पूंजीपतियों के पहले से ही ऊंचे मुनाफों को और भी अधिक बढ़ाने के लिए उन्हें जनता के स्वास्थ्य पर घातक हमला करने की खुली छूट दे रही है। यह इस सरकार के सर्वांगीण जनविरोधी दृष्टिकोण व नीतियों का एक और प्रमाण है।   

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