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पंजाब में बाढ़: बेबस ‘पुरबिया प्रवासी मज़दूर’ पलायन को मजबूर

“शर्मनाक है कि ये प्रवासी मज़दूर पलायन करने को मजबूर हैं और राज्य के सियासी दलों को इस से कोई मतलब ही नहीं। क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे पक्के वोट बैंक नहीं हैं?”
punjab flood
प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

पूरब(पूर्व) से आने वाले प्रवासी मज़दूर जिन्हें आम बोलचाल में 'पुरबिया' कहा जाता है, वे पंजाब की कृषि व्यवस्था और अन्य काम-धंधों की रीढ़ हैं। कई जगह तो अपरिहार्य। स्थायी रूप से यहां रहने वाले 'पुरबिया' प्रवासी मज़दूरों की तादाद भी लाखों में है और प्रतिवर्ष तकरीबन दस लाख से भी ज़्यादा मज़दूर धान और गेहूं की रोपाई तथा कटाई के लिए पंजाब आते हैं। तब पंजाब उनका 'दूसरा देस' बन जाता है। रेलवे स्टेशनों, सरकारी तथा प्राइवेट बस अड्डों पर बड़ी तादाद में किसान अथवा ज़मींदार खुद उन्हें लेने आते हैं। कुछ मज़दूर और ठेकेदार पुराने ज़मींदारों के साथ चले जाते हैं तो कुछ ज़्यादा मज़दूरी के लिए नए ज़मींदारों के साथ। कनक यानी गेहूं की कटाई सिर पर थी और धान की रोपाई का वक़्त आने को था, जब रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर मेले जैसा माहौल था।

कोरोना वायरस ने पंजाब आने वाले मज़दूरों को बहुत जख्म दिए। पल में वे बेरोज़गार हो गए और कर्फ्यू के चलते उन्हें पैदल सुदूर बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा अपने गांवों का रूख करना पड़ा। हकीकत में तब्दील वह एक ऐसा बुरा सपना था जो लाख कोशिशों के बावजूद उनकी यादों के अंधेरे कोने में जगह बनाए हुए है। कोरोना महामारी ने इंसानी देह को तो बेइंतहा नुकसान पहुंचाया ही, इंसानियत को भी खात्मे की ओर ले गई।

मौजूदा वक़्त में पंजाब के 19 जिले और हज़ारों गांव बाढ़ की चपेट में हैं। रोजी-रोटी की तलाश में पंजाब आने वाले पुरबिया मज़दूर एक बार फिर गहरी पशोपेश में हैं। खुद सरकारी आंकड़े बताते हैं कि आने वाले दिनों में बाढ़ और ज़्यादा परेशान कर सकती है। सरकार के मौसम विभाग ने येलो अलर्ट जारी किया हुआ है। धान रोपाई के वक़्त लाखों की तादाद में प्रवासी मज़दूर बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, व उड़ीसा से यहां आए थे। अनुमान के मुताबिक इनमें से आधे रोपाई के बाद लौट गए और आधे कटाई के लिए यहां रह गए। कुछ रेहड़ी अथवा फेरी के काम में लग गए। ज़्यादातर मज़दूरों के पैसे अथवा उजरत ज़मींदारों के पास रह गई कि फसल कटाई के बाद पैसे मिलेंगे। लेकिन अचानक आई बाढ़ ने लाखों एकड़ में लगी धान की फसल को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया। कुदरत प्रदत बेरहम आपदा ने किसानों को रातों-रात हर लिहाज़ से विवश कर दिया। सूबे में हालांकि कटाई मशीनरी का इस्तेमाल भी बड़े पैमाने पर होता है लेकिन यहां के खेतों को प्रवासी मज़दूरों के हाथ बेहद रास आते हैं। मशीनरी में भी मानवीय श्रम लगता है और उसमें भी प्रवासी मज़दूरों की अहम भूमिका रहती है।

बिहार के सिरोही गांव के श्रीकृष्ण सिंह अपने साथ आए 47 खेत मज़दूरों के 'प्रधान' थे। जुलाई के पहले हफ्ते में संगरूर जिले में पड़ने वाले गांव तूर के ज़मींदारों ने काफी दवाब और कई तरह के प्रलोभन के साथ उन्हें रोका कि उनका जत्था धान की कटाई के बाद ही वापिस जाए। इस बीच उनके खेतों की सब्जियां मंडी में बेचे।

श्रीकृष्ण सिंह के मुताबिक वह और उनके साथी रुक गए लेकिन जैसे ही बाढ़ ने दस्तक दी तो ज़मींदार ने उन्हें जाने के लिए कह दिया और यह भी कहा कि मेहनताना उन्हें गेहूं के सीज़न में ही मिल पाएगा। इसलिए भी कि सारी की सारी फसल बाढ़ की चपेट में आ गई है और आने वाले कुछ महीनों में इस पर एक दाना भी उगने वाला नहीं। मिलने वाला सरकारी मुआवज़ा बहुत कम होगा‌। गेहूं की बिजाई तक हालात सामान्य हो जाएंगे।

श्रीकृष्ण सिंह बताते हैं कि उनके 'देस' जाने वाली तमाम रेलगाड़ियां रद्द हैं। प्राइवेट परिवहन वाले कहीं जाने के लिए जितने रुपयों की मांग करते हैं, वह दे पाना संभव नहीं। यह सिर्फ श्रीकृष्ण सिंह और उनके साथियों की कहानी नहीं बल्कि कई जगह ऐन मौके पर मज़दूरों को इसी तर्ज पर जवाब दे दिया गया। यानी पुरबिया प्रवासी मज़दूर अब बड़ी असमंजस की स्थिति में फंसे हैं, खाने की संकट है हालांकि गुरुद्वारे और राहत कैंप उनके संकट का फौरी समाधान बने हुए हैं।

वहीं उत्तर प्रदेश के बलिया के रामेश्वर सिंह और उनके 55 सदस्यीय जत्थे का हाल भी कमोबेश यही है। वे लोग अपने गांव से जालंधर के गांव गीदड़पिंडी धान की रोपाई और कटाई के लिए आए थे। यह इलाका वैसे भी सतलुज दरिया के किनारे बसा हुआ है। प्रचंड बारिश ने कहर ढाह दिया। फसल चार फुट पानी के नीचे बह गई और शायद अब उसका नामोनिशान भी न मिले। रामेश्वर और उसके साथियों से ज़मींदार का वादा था कि बीच के वक्फे में वे लोग सब्जी आदि का काम कर लें, कटाई के बाद उन्हें पारिश्रमिक मिल जाएगा। पारिश्रमिक की बाबत अब जवाब यह मिला है कि गेहूं की रोपाई के वक़्त हिसाब कर दिया जाएगा। फिलहाल संभव नहीं है।

कोरोना वायरस के वक़्त भी इन श्रमिकों पर ऐसा ही संकट आया था। रेलगाड़ियां रद्द थीं और आखिरकार कर्फ्यू के बीच पुलिस की सख्ती का सामना करते हुए वे यहां से निकले थे। इस बार प्रशासनिक और पुलिसिया कर्फ्यू नहीं है, कुदरत का कर्फ्यू है। श्रमिक जब कोविड के दौरान पंजाब से गए थे तो कहा जा रहा था कि वे वापस नहीं लौटेंगे लेकिन तमाम सरकारी दावों के बावजूद उन्हें मजबूरी वश आना पड़ा। इस बार तो कई ज़मींदार खुद उन्हें लेने के लिए उनके पास तक गए। प्रकृति बदली तो प्रवृत्ति भी बदल गई। यही समय का सच है।

कुछ मज़दूरों से बात करने की कोशिश की लेकिन वे अपना नाम नहीं बताना चाहते क्योंकि उन्हें डर है कि ज़मींदारों को भनक लग गई कि उन्होंने मीडिया से बात की है तो वह उनकी मज़दूरी दबा सकते हैं। तमाम प्रवासी मज़दूरों को गाड़ियां खुलने का इंतज़ार है। लेकिन यहां सवाल उठता है कि वे यहां बाढ़ के हालात में करेंगे भी क्या?

बाढ़ का सबसे ज़्यादा कहर रूपनगर, तरनतारन, फिरोजपुर, फतेहगढ़ साहिब, जालंधर, फरीदकोट, कपूरथला, पटियाला, मोगा, फाजिल्का, मानसा, पटियाला, पठानकोट और बठिंडा में देखने को मिला है। इन्हीं जिलों में सबसे ज़्यादा पुरबिया प्रवासी मज़दूर आए थे। ये तमाम जिले व्यापक रेल संजाल से जुड़े हुए हैं। श्रमिकों के लिए आवाजाही कमोबेश आसान है। लेकिन फिलहाल बहुत सी सवारी रेलगाड़ियां बाढ़ की वजह से रुकी हुई हैं।

पंजाब के मार्क्सवादी नेता मंगतराम पासला का कहना है कि "मज़दूरों की बदतर स्थिति पर भगवंत मान सरकार फौरन गौर करें या उन्हें उनके मूल राज्य वापस भेजने का कोई पुख्ता इंतज़ाम करे। सीपीआई नेता जगरूप सिंह के अनुसार राज्य सरकार को पुरबिया प्रवासी मज़दूरों के लिए भी राहत कोष की स्थापना करनी चाहिए। आखिर वे इतने सालों से पंजाब के 'अन्नदाता' की भूमिका निभा रहे हैं। भारतीय किसान यूनियन के नेता सुरजन सिंह का कहना है कि पूरब से आए श्रमिकों के लिए ठीक वही हालात खड़े हो गए हैं जैसे कोरोना काल में हुए थे। बेशक तब औद्योगिक सेक्टर में काम करने वाले मज़दूरों को भी जाने के लिए मजबूर होना पड़ा था लेकिन इस बार उनके सामने वैसी दिक्कत नहीं है, जैसी खेतिहर प्रवासी मज़दूरों के साथ है।

यकीनन पंजाब में बाढ़ फसल के एक बड़े हिस्से को निगल गई है। कई लोगों के जान गंवाने की ख़बर है। जानवरों के मारे जाने का आकलन होना भी बाकी है। सरकारी विसंगतियों की वजह से हालात का तथ्यात्मक पूर्वानुमान नहीं हो सका और प्रशासन तब जागा जब जगह-जगह तटबंध टूटने लगे। गांवों का संपर्क शेष दुनिया से कट गया और इश्तिहारों में दावे किए जा रहे हैं कि हालात गंभीर तो है लेकिन नियंत्रण में है।

ख़बरों के मुताबिक़ सरकार ने फिलहाल 1285 करोड़ रुपए का नुकसान बताते हुए तत्काल केंद्र से टीम भेजने के लिए कहा है। नुकसान का सही अंदाज़ा बारिश रुकने और बाढ़ का पानी एकदम नीचे चले जाने पर लगेगा। लोग-बाग अपना बचाव खुद कर रहे हैं। शनिवार सुबह जालंधर, कपूरथला, पटियाला, होशियारपुर, रोपड़, लुधियाना सहित कई जिलों में मूसलाधार हुई। नदियां इस बारिश के चलते और ज़्यादा उफान पर आ गई हैं। दो दिन पहले तक जलस्तर कुछ कम होने लगा था लेकिन अब स्थिति और ज़्यादा नाज़ुक हो गई है। कोरोना वायरस के दौरान पहली बार देखा जब इंसानियत पर सवालिया निशान लगे। बढ़ते उपभोक्तावाद और पूंजीवाद ने इंसानियत को काफी हद तक खत्म कर दिया है। पुरबिया प्रवासी मज़दूरों की हालत देखकर तो यही लगता है।

शर्मनाक है कि पुरबिया प्रवासी मज़दूर पलायन कर रहे हैं और राज्य के सियासी दलों को गोया इस से कोई मतलब ही नहीं। क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे पक्के वोट बैंक नहीं हैं? कोई अधिकारी, राजनेता इस पर गंभीरता से बात करने को तैयार नहीं। क्या उनकी सीमित सोच में यह नहीं आता कि अगर पूरब से श्रमिक यहां न आएं तो कृषि के साथ-साथ इंडस्ट्री भी तबाह हो जाएगी। कड़वी सच्चाई है कि ज़्यादातर यहां किसान परिवार के लोग या तो सदा के लिए विदेश गए हुए हैं या अन्य कारणों से खेती को वक़्त नहीं दे पाते। ये पुरबिया प्रवासी मज़दूर है हैं जो इनके खेत संभालते हैं। खैर, आज आलम क्या है? बाढ़ की विपदा आई तो मज़दूर अपने-अपने प्रदेशों में लौटने के लिए विवश हो गए हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया में इनकी तकलीफों को जगह नहीं मिलती है। हां, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर घूमते-फिरते पुरबिया प्रवासी मज़दूरों की मार्मिक दास्तान उनके चेहरों पर लिखी ज़रूर मिलेगी।

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