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पंजाब: नवजोत सिंह सिद्धू के चक्कर में कांग्रेस के साथ कहीं खेल न हो जाए!

पंजाब विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के अंदर उठापठक और राज्य में केंद्रीय नेतृत्व का हस्तक्षेप पार्टी के भविष्य पर जो भी असर छोड़े, फिलहाल कई जानकारों को लगता है कि कांग्रेस अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारने की तैयारी कर रही है।
नवजोत सिंह सिद्धू

कांग्रेस आला कमान के फैसले के बाद नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब कांग्रेस की कमान तो मिल गई है, लेकिन राज्य में कांग्रेस पार्टी की मुसीबतें अभी कम नहीं हुई हैं। पार्टी के भीतर की कलह, सिद्धू और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच जारी रस्साकशी पार्टी का अगले साल विधानसभा चुनाव में खेल बिगाड़ भी सकती है। ऐसे में बड़ा सवाल है कि आखिर विधानसभा चुनाव से पहले केंद्रीय नेतृत्व ने कैप्टन अमरिंदर सिंह की सिद्धू के प्रति नापसंदगी के बावजूद ये फैसला क्यों लिया और यह राज्य में पार्टी के भविष्य पर क्या असर डालेगा?

मालूम हो कि नवजोत सिंह सिद्धू ने साल 2004 में भारतीय जनता पार्टी के साथ अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की थी, जब वो अमृतसर से सांसद चुने गए थे। साल 2014 में पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली को अमृतसर से चुनाव लड़ाया गया और सिद्धू को राज्यसभा भेज दिया गया। साल 2016 में वो बीजेपी से अलग हो गए और साल 2017 में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस में शामिल हो गए। उन्हें कांग्रेस में लाने में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की अहम भूमिका थी। हालांकि उस समय भी कैप्टन अमरिंदर सिंह इस फ़ैसले से सहमत नहीं थे।

कैप्टन अमरिंदर की हाईकमान के साथ असहजता

वैसे कांग्रेस को करीब से जानने वाले ये भी कहते हैं कि कैप्टन अमरिंदर की हाईकमान के साथ हमेशा एक असहजता दिखती रही है। 2015 में भी राहुल गांधी कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष बनाने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन पंजाब में संगठन पर मजबूत पकड़ से कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपना रास्ता बना लिया। उनकी अगुवाई में साल 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पंजाब में 117 में से 77 सीटें हासिल कर शानदार जीत दर्ज की।

पंजाब विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहीं अनिता कौशल बताती हैं कि सिद्धू और सिंह के बीच की लड़ाई तो सरकार बनते ही शुरू हो गई थी। अमरिंदर 2017 के विधानसभा चुनाव के समय सिद्धू को कांग्रेस में लाने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन यह साफ़ था कि सिद्धू का कांग्रेस में प्रवेश गाँधी परिवार के आशीर्वाद से हुआ था और 2017 का चुनाव जीतने पर अमरिंदर सिंह को सिद्धू को कैबिनेट मंत्री बनाना पड़ा।

अनीता कौशल के मुताबिक, “स्थानीय स्तर पर देखें तो कांग्रेस विधायकों से सिद्धू को भरपूर समर्थन कभी नहीं मिला, अक्सर उन्हें ‘अकेले खिलाड़ी' के रूप में ही देखा गया है। हालाँकि अब कुछ विधायक सिद्धू के प्रति केंद्रीय नेतृत्व की मेहरबानी देखकर अपने सुर जरूर बदल रहे हैं लेकिन वो भी कंफ्यूज़न की स्थिति में ही हैं, जिसका फायदा दोनों ही खेमे उठाना चाहते हैं। कुल मिलाकर अगर आज की तारीख में पंजाब कांग्रेस के अंदरूनी कलह को देखें तो इसकी वजह साफ तौर पर पार्टी हाईकमान की बेवक़ूफ़ी ही है।”

कैप्टन और सिद्धू के बीच की खींचतान

राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो सीएम कैप्टन और सिद्धू बीच की खींचतान तब परवान चढ़ी जब सिद्धू ने यह घोषणा की कि वे प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के शपथ ग्रहण समारोह का हिस्सा बनने के लिए पाकिस्तान जाएंगे। अमरिंदर ने सिद्धू को इस बात पर पुनर्विचार करने की सलाह दी लेकिन उस सलाह को दरकिनार करते हुए सिद्धू वाघा बॉर्डर पार कर उस समारोह का हिस्सा बनने के लिए गए। मामला पेचीदा तब हो गया जब अमरिंदर ने पाकिस्तानी सेना प्रमुख क़मर जावेद बाजवा के साथ सिद्धू के गले मिलने की खुली आलोचना की।

2018 में सिद्धू को एक बड़ा झटका तब मिला जब पंजाब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के उस फ़ैसले का समर्थन किया जिसमें 1998 के रोड रेज़ मामले में सिद्धू को दोषी ठहराया गया था और तीन साल की जेल की सज़ा सुनाई गई थी।

इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनावों में आठ संसदीय सीटें जीतने के बाद अमरिंदर सिंह का राजनीतिक क़द और बढ़ा और उन्होंने सिद्धू पर सीधा निशाना साधना शुरू किया। यहाँ तक कि अमरिंदर ने सिद्धू को एक नॉन-परफ़ॉर्मर तक कह डाला और उनसे स्थानीय निकाय विभाग वापस ले लिया गया। आख़िरकार सिद्धू को 2019 में अमरिंदर कैबिनेट से इस्तीफ़ा देना पड़ा।

पंजाब की राजनीति पर नज़र रखने वाली स्थानीय पत्रकार आरजू अहुजा कहती हैं कि पंजाब में कांग्रेस की मज़बूरी सिद्धू और कैप्टन दोनों ही हैं। पार्टी किसी एक को तवज्ज़ों नहीं दे सकती। इसका बड़ा कारण है कि जब 2014 में कांग्रेस के बड़े नेता लोकसभा चुनाव लड़ने से कतरा रहे हैं, उस समय सोनिया गाँधी के कहने पर अमरिंदर ने अरुण जेटली के ख़िलाफ़ अमृतसर से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए हामी भरी और जीत भी हासिल की। ये चुनाव लड़ने के समय अमरिंदर पंजाब विधानसभा में विधायक थे।

कांग्रेस के विधायक कन्फ्यूज़!

कैप्टन के नेतृत्व में ही 2017 में सत्ता में  कांग्रेस की 10 साल बाद वापसी हुई थी। अमरिंदर सिंह की यह जीत इस मायने में बेहद अहम थी कि मोदी लहर के बावजूद कांग्रेस ने ये जीत हासिल की। इसके बाद पार्टी ने 2019 में 13 लोकसभा सीटों में से 8 सीटें जीतीं और इससे अमरिंदर का कद और ऊंचा हो गया और आला कमान चाह कर भी उन्हें किनारे नहीं लगा सका।

आरजू के अनुसार, “अब परिस्थितियां थोड़ी बदली हैं। कैबिनेट मीटिंग में जब दो विधायकों के बेटों को नौकरी दिए जाने का मुद्दा उठाया गया तो कभी कैप्टन अमरिंदर के वफ़ादार माने जाने वाले मंत्रियों- तृप्त रजिंदर बाजवा, सुखजिंदर सिंह रंधावा और सुख सकारिया ने भी इसका पुरज़ोर विरोध किया। इसके अलावा इस समय पंजाब में ये बात भी चल रही है कि कैप्टन ने कुछ काम नहीं किया और कई वादे नहीं निभाए और बादल परिवार को खुली छूट दी जिसके वजह से उनके विरोधी फलते-फूलते रहे।"

गौरतलब है कि इस समय पंजाब में कृषि कानूनों को लेकर बीजेपी के खिलाफ पहले ही माहौल बना हुआ है। जिसका फायदा शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी ले सकते हैं। बाकी राज्यों की तरह यहां भी कांग्रेस खुद अपने झगड़ों में फंसी हुई है। ऐसा लगता है कि मानो पार्टी ने केरल, असम और बंगाल में शून्य पर पहुँचने के बाद भी कोई सबक नहीं सीखा है।

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