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क्वाड और काबुल, दोनों एक दूसरे से कभी नहीं मिल पायेंगे

अगर भारत अमेरिकी रणनीतियों के ख़िलाफ़ जाता है,तो अफ़ग़ानिस्तान में अपने महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक हितों की रक्षा को लेकर भारत जो कुछ कर सकता है, इसकी अपनी गंभीर सीमायें हैं।
क्वाड और काबुल, दोनों एक दूसरे से कभी नहीं मिल पायेंगे
25 सितंबर, 2020 को विदेश मंत्री एस.जयशंकर (दायें),तत्कालीन अफ़ग़ान उत्तरी गठबंधन के नेता,रशीद दोस्तम (बायें) से नई दिल्ली में मिले।

नई दिल्ली के लिए अफ़ग़ानिस्तान के सिलसिले में नीति नियोजन एक मुश्किल से भरी क़वायद बन गया है। यहां तक कि जैसे ही अफ़ग़ानिस्तान 19 साल के अमेरिकी नेतृत्व वाले युद्ध से बाहर निकल जाता है,वैसे ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार,अजीत डोभाल जैसे दिग्गज खिलाड़ी के लिए भी आने वाला समय चुनौतीपूर्ण हो जायेगा। मुश्किल यही है कि क्षेत्रीय सुरक्षा में क्वाड, लद्दाख में गतिरोध,कोरोनावायरस महामारी और इसी तरह की कुछ और परेशानियों के तार आजकल कहीं न कहीं अमेरिका से जुड़ हुए हैं।

यहां तक कि काबुल में एक "अंतरिम सरकार" को सत्ता हस्तांतरण के मुद्दे पर भारत की एक "क्षेत्रीय सर्वसम्मति" पाने के मक़सद से अफ़ग़ान की उच्च स्तरीय सुलह परिषद के अध्यक्ष के तौर पर अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह पिछले मंगलवार को एक मुश्किल मिशन पर दिल्ली पहुंचे, ट्रम्प ने एक ट्वीट के ज़रिये यह सूचना देते हुए सबको चौंका दिया कि उनका इरादा क्रिसमस तक अमेरिकी सैनिकों की वापसी का है।

मॉस्को ने इसे ट्रम्प का चुनावी स्टंट क़रार दिया है,लेकिन ट्रम्प ने बाद में ज़ोर देकर कहा कि वह इसे लेकर पूरी तरह गंभीर हैं, क्योंकि 19 साल से “निरंतर चल रहे” इस युद्ध को जारी रखने का कोई मतलब नहीं रह गया है। ट्रम्प बिल्कुल सही कह रहे हैं।

लेकिन,रूस के लोग जब कभी ट्रंप को लेकर कुछ सोचते हैं,तो वे शायद ही कभी ग़लत होते हैं। और उसका खंडन अफ़ग़ानिस्तान पर रूसी राष्ट्रपति के दूत और अफ़ग़ान मामलों में रूस के तुरूप के पत्ते की तरह काम कर रहे ज़मीर काबुलोव की तरफ़ से आया।

ट्रम्प ने यह बात शायद दोहा में चल रही शांति वार्ता पर नज़र रखते हुए कही हो, लेकिन, अड़ियल तत्वों ख़ासकर राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के लिए यह किसी सटीक मौक़े की तरह था। क्या यह महज़ संयोग हो सकता है कि ट्रम्प ने जैसे ही ट्वीट किया, वैसे ही ग़नी दोहा पहुंच गये ?  

यह भारत के लिए एक दुख की घड़ी है। भारत ने कभी भी ज़रूरतमंद अफ़ग़ान मित्र की ओर पीठ नहीं मोड़ी। मगर,यह एक अमेरिकी ख़ासियत है,जो यह मानती है-‘बाक़ी का जो हो,हम तो चले’।

भारत को पता है कि काबुल में अमेरिका की तरफ़ से स्थापित कोई भी "अंतरिम सरकार" तालिबानी (पाकिस्तानी) एजेंडे को ही लागू करने के तौर पर सामने आयेगी। संक्षेप में कहा जाये,तो यह पूरी तरह से एक विरोधाभासी स्थिति है।

इसे लेकर दिल्ली को बुरी तरह चिंतित होना चाहिए,जैसा कि हाल ही में तालिबान विरोधी उत्तरी गठबंधन के नेता, रशीद दोस्तम द्वारा की गई "निजी यात्रा" से पता चलता है कि वे किसी  तिनके के सहारे की तरह हैं। अप्रत्याशित रूप से अब्दुल्लाह के साथ दिल्ली में हुई वार्ता में डोभाल के अगल-बगल चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़, जनरल बिपिन रावत और थल सेनाध्यक्ष, जनरल मनोज नरवाने थे। यह ज़ोरदार संदेश था।

इसी बीच तालिबान के सिलसिले में एक नया नैरेटिव हाल ही में स्थापित हुआ है, जिस पर बहुत कुछ लिखा भी गया है। इस नैरेटिव के मुताबिक़, तालिबान अमीरात को छोड़ने के लिए तैयार है और सत्ता की साझेदारी  को लेकर उसने अपने दरवाज़े खुले रखे हैं; और, तालिबान को इस बात का एहसास है कि उसकी अपनी पसंद की सरकार वाली कोई प्रणाली नहीं हो सकती है, और उसे वार्ता के ज़रिये उस आम सहमति तक पहुंचना ही होगा, जो सभी हितधारकों, सभी पक्षों और ज़्यादातर अफ़ग़ान लोगों के लिए स्वीकार्य हो।

यह नैरेटिव हमें यक़ीन दिलाता है कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई उस तालिबान के साथ एक ख़ास मौक़े की तलाश में हैं, जिसमें वे उनकी बात नहीं सुनते हुए दिखे और उनसे दूरी बनाते हुए दिखे, तालिबान के ज़्यादातर नेता पाकिस्तान से बाहर चले गये हैं और अगर तालिबान को दोहा में चल रही वार्ता पसंद है, तो उसे पाकिस्तान से एक दूसरी बनाये रखना होगा।  

इस नैरेटिव का एक और भी हिस्सा यह है कि पाकिस्तानी सेना अब तालिबान को अफ़ग़ान राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा बनने, लोकतांत्रिक प्रक्रि में भागीदारी करने और राजनीतिक पार्टी बनाने और चुनाव लड़ने की सलाह दे रही है।

बेशक,किसी तर्कसंगत दिमाग़ से सोचा जाय,तो इस मोहक कथा के साथ समस्या यह है कि इसका कोई व्यावहारिक सुबूत नहीं है। इसके अलावा, यह किसी नैरेटिव का एक ऐसा पैकेज है,जिसे या तो पूरी तरह स्वीकार कर लिया जाय,या फिर पूरी तरह नकार दिया जाये।

दोहा से जिस तरह की ख़बरें आ रही हैं,उससे इतना तो तय दिखता है कि तालिबान,राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के साथ काम करने को लेकर कभी सहमत नहीं होंगे, जिन्हें वे एक अमेरिकी कठपुतली के तौर पर ही मानते हैं, और तालिबान के लड़ाके इसे अपने साथ सामंजस्य बनाने को लेकर किसी विश्वासघात की कार्रवाई के तरह लेंगे।कहने का मतलब यह है कि ग़नी ने तालिबान को मुजाहिदीन नेता गुलबुद्दीन हिकमतयार के साथ हुए सौदे की तर्ज पर दो साल पहले जिस सौदे की पेशकश की थी, वह अब विचार के लायक़ नहीं रहा है।

सभी बातों पर विचार करने से इतना तो साफ़ हो जाता है कि शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने और युद्ध विराम के लिए एक अंतरिम सरकार अनिवार्य हो गयी है। वाशिंगटन प्रतिष्ठान इस विचार को लगातार बढ़ावा दे रहा है।

अब्दुल्लाह के पाकिस्तान और भारत दौरे को इसी रोशनी में देखा जा सकता है। इस बात से पूरी तरह सहमत हुआ जा सकता है कि वाशिंगटन और इस्लामाबाद ने काबुल में एक अंतरिम सरकार बनाने को लेकर अब्दुल्लाह को अपनी आगामी परियोजना के लिए भारतीय समर्थन पाने के लिए प्रोत्साहित किया है। बेशक, यदि भारत ग़नी से अपने रिश्ते को तोड़ देता है, तो वह व्यावहारिक रूप से ख़त्म हो जायेगा।

अमेरिका  इस युद्ध को ख़त्म करने और उस बड़े खेल के अगले चरण में पहुंचने की जल्दीबाज़ी में हैं, जिसकी व्यूह रचना रूस और चीन जैसे उन दो "संशोधनवादी" शक्तियों से निपटने के लिए की गयी है और जो अमेरिका के वैश्विक आधिपत्य को चुनौती देते हैं।

तालिबान के साथ काबुल के भविष्य की शासन की संरचना अमेरिकी हितों के अनुरूप है। तालिबान ने बाद के दौर में अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी बनाने की अपनी उत्सुकता कभी छिपाई नहीं है।

अमेरिका अल-क़ायदा के साथ तालिबान के नज़दीकी रिश्ते को सार्वजनिक रूप से खारिज करने की अनिच्छा की अनदेखी करने के लिए भी तैयार है। मसला तो यही है कि अमेरिका का अल-क़ायदा से जुड़ा एक जटिल अतीत भी है।

वास्तविता यही है कि अमेरिका ने ही पहली बार तालिबान के पैदा होने से तक़रीबन एक दशक पहले अल-क़ायदा को अफ़ग़ानिस्तान के मैदान में उतारा था। दूसरी बात कि अमेरिका अल-क़ायदा और तालिबान को एक अविभाज्य रिश्ते में बांधने वाले मज़बूत वैवाहिक और व्यापारिक सम्बन्धों के साथ बंध जाने का अभ्यस्त रहा है।

यह स्पष्ट करना ज़रूरी होगा  कि अल-क़ायदा लड़ाके के रिश्ते उन तालिबान कैडरों के साथ भी घनिष्ठ हैं, जिनमें भविष्य के लिहाज़ से मध्य एशिया, चीन, रूस, ईरान, आदि के ख़िलाफ़ भू-राजनीतिक संघर्षों की सहज क्षमता हैं।

दिलचस्प बात यह है कि रॉबिन राफ़ेल, जिन्होंने 1990 के दशक में अपनी प्रारंभिक अवस्था में तालिबान का पोषण किया था और पाकिस्तानी अभिजात वर्ग के साथ जबरदस्त सम्बन्ध बनाये थे, उन्होंने हाल ही में नव-अमेरिका-पाकिस्तान-तालिबान की टुकड़ी को और भी पुष्ट करने के लिए संगठित करना तब शुरू कर दिया है, जब अफ़ग़ानिस्तान में इनके मुश्किल समय बीत चुके हैं और अब उसे रूस,चीन और भारत के ख़िलाफ़ इन्हें भू राजनीतिक संघर्ष करना है।

सैद्धांतित तौर पर आगामी अफ़ग़ान संक्रमण में इस बात को लेकर भारत को ख़ुश होना चाहिए कि भारत का एक पुराना दोस्त,अब्दुल्लाह, ग़नी के बाद बनने वाली अंतरिम सरकार का मुखिया बन सकते हैं। यह शायद भारत के लिए एक प्रकार की जीत है।

लेकिन,बड़ा सवाल यही है कि अब्दुल्लाह तालिबान पर लगाम लगाने या भारत के लिए खेल के मैदान को सुरक्षित करने के लिहाज से किस हद तक कारगर होंगे ? हिंदू कुश में सत्ता बंदूक की नली से निकलती है, और अब्दुल्ला ने अपने हाथों में कभी भी कलाश्निकोव नहीं थामा है।

अगर साफ़ तौर पर बात की जाये,तो वास्तविक ख़तरा तो यही है कि जो जीत सामने दिखायी पड़ रही है,उसे भारत पिछले दो दशकों से पाकिस्तान के साथ चल रही अफ़ग़ानी मैदान की लड़ाई से मिलती हार के जबड़े से छीन रहा है, यह जीत एक विध्वंसकारी जीत हो सकती है।

मगर,सवाल है कि आख़िर विकल्प क्या है ? एक बड़े अड़चलन के तौर पर क्वाड के साथ अगर भारत अमेरिकी रणनीतियों के ख़िलाफ़ जाता है,तो अफ़ग़ानिस्तान में अपने महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक हितों की रक्षा को लेकर भारत जो कुछ कर सकता है, इसकी अपनी गंभीर सीमायें हैं। राफ़ेल जैसे अहम खिलाड़ी भारत के प्रति कभी भी हितैषी रुख़ नहीं रखते।

आख़िर में कहा जा सकता है कि पाकिस्तान के राजनीतिक क्षितिज पर तूफ़ान के बादल मंडरा रहे हैं, क्योंकि ज़्यादातर प्रमुख विपक्षी दल पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) के घेरे में आ चुके हैं ताकि देश के शक्तिशाली जनरल राजनीति पर अपनी पकड़ ढीला कर दे और इमरान ख़ान के प्रशासन के लिए अपना समर्थन वापस ले ले।

पीडीएम इस समय देशव्यापी विरोध अभियान शुरू करने जा रहा है। जब मौलाना फ़ज़लुर्रहमान,जो पाकिस्तान में किंवदंती बन चुके हैं, कहते हैं कि तालिबान के संरक्षक हैं,तो वह पीडीएम के ध्वजवाहक के तौर पर सामने आते हैं, ऐसे में स्थिति बहुत खराब हो सकती है।बेशक, इसके पीछे कोई छुपी हुई ताक़त काम कर रही है।

"दो-मोर्चे पर लड़े जाने वाले युद्धों" और "हाइब्रिड युद्धों" (एक ऐसी सैन्य रणनीति,जिसमें पारंपरिक युद्ध को गुप्त संचालन और साइबर हमले जैसी रणनीति के साथ एकीकृत किया गया है) और क्वाड के करामाती दुनिया में खो जाने के चलते भारत अपनी चौकसी को कम करने का जोखिम नहीं उठा सकता। क्वाड यहां किसी मक़सद को पूरा नहीं करता है और यह एक  बोझ ही साबित होगा,क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य के लिहाज से जहां तक यूएस और भारतीय हित और प्राथमिकताओं का सवाल है,तो ये एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं।

किसी भी लिहाज़ से क्वाड का अमेरिकी नेतृत्व भारत को दक्षिण और मध्य एशियाई धारणाओं में अमेरिका के पक्षधर के तौर पर ग़लत तरीक़े से दर्शाता है और रूस या ईरान और यहां तक कि चीन जैसे समान मानसिकता वाले उन क्षेत्रीय देशों को यह बात पसंद नहीं है,जो भू-राजनीतिक उपाय के तौर पर आतंकवादी समूहों के साथ काम करने वाले  अमेरिका के इतिहास से सावधान हैं। भूगोल, इस क्षेत्र में स्थित होने के ख़्याल से भारत का मुंह चिढ़ाता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Quad is East, Kabul is West, Never the Twain Shall Meet

इस विश्लेषण का पहला भाग यहां पढ़ें:

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