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क्वारंटीन, महामारी और बहुजन नज़रिया: Covid-19 के दौर में 

लेखक भाग़ु के किरदार के सहारे उस दौर में चिकित्सकों की कार्य प्रणाली की मौलिकता और नैतिकता पर सवाल खड़े करता है और महामारी के दौर में चिकित्सा की बहुजन कार्य प्रणाली के महत्व को रेखांकित करता है।
क्वारंटीन
'प्रतीकात्मक तस्वीर' साभार : दैनिक भास्कर

‘क्वारंटीन’ राजिंदर सिंह बेदी (1915-1984) के द्वारा सन् 1940 में लिखी गई एक छोटी कहानी है। कहानी का मुख्य किरदार विलियम भाग़ु खकरुब है जो कि शहर और क्वारंटीन सेंटर का सफ़ाई कर्मचारी है। कथावाचक डॉक्टर बक्शी शहर में अभी-अभी आई प्लेग महामारी से लड़ने के लिए नवनिर्मित क्वारंटीन के डॉक्टर हैं जो उसी मोहल्ले में रहते हैं जहाँ भाग़ु सफ़ाई का काम करता है। इस कहानी में लेखक भाग़ु के किरदार के सहारे उस दौर में चिकित्सकों की कार्य प्रणाली की मौलिकता और नैतिकता पर सवाल खड़े करता है और महामारी के दौर में चिकित्सा की बहुजन कार्य प्रणाली के महत्व को रेखांकित करता है। 

ये वहीं मशहूर अफ़साना निगार राजिंदर सिंह बेदी हैं जिन्होंने मुग़ल-ए-आज़म और देवदास जैसी प्रसिद्ध फ़िल्मों की स्क्रिप्ट लिखी था। सआदत हसन अली मंटो और कृष्ण चन्दर जैसे कहानीकारों के दोस्त और समकालीन बेदी क्वारंटीन और महामारी पर कुछ यूँ लिख कर छुपा गए जिसे आज के दौर में बाहर निकालने की ज़रूरत है।

1930 के दशक के आख़िरी वर्षों में जब बेदी ये कहानी लिख रहे थे तब भी क्वारंटीन का ख़ौफ़ स्वास्थ्य कर्मियों के बीच आम लोगों से कम नहीं था। काम करते समय स्वास्थ्यकर्मी संक्रमित मरीज़ों से जितना हो सके दूरी बनाकर रखते थे। हालाँकि क्वारंटीन में एक व्यक्ति ऐसा था जो मरीज़ों से चिपका पड़ा रहता था। वो था भाग़ु। भाग़ु दलित था पर ईसाई भी था। सिर्फ़ क्वारंटीन में भर्ती लोगों के लिए ही नहीं बल्कि मोहल्ले के सभी लोगों के लिए सूचना का केंद्र था भाग़ु। आए दिन वो सभी को महामारी से बचने के उपाय बताता फिरता था और लोग उसकी सुनते भी थे। भाग़ु उन्हें गली मोहल्ले में चूना डालने से लेकर घर में बंद रहने तक का सलाह देता था। 

इसे पढ़ें : कोरोना काल में राजिंदर सिंह बेदी का “क्वारंटीन” 

भाग़ु सुबह तीन बजे उठ जाता था। आधा बोतल शराब पीने के बाद पूरे मोहल्ले को साफ़ करता, मृत शरीरों का ढेर इकट्ठा करता और फिर गली में चूना छींट दिया करता था। महामारी के कारण लोग घर से निकालते नहीं थे तो भाग़ु दिन में उनके लिए रोज़मर्रा का ज़रूरी सामान बाज़ार से लाकर उन्हें देता था। फिर शाम को सभी मृत शरीरों को एक जगह ढेर कर पेट्रोल डालकर आग लगा दिया करता था। और जब भी समय मिलता तो क्वारंटीन में मरीज़ों के बीच बैठा रहता था। 

महामारी के दौरान बीमारी से ग्रसित मरीज़ों को स्वस्थ व्यक्तियों से अलग करके रखना एक  प्राचीन चिकित्सा पद्धति है जिसका इस्तेमाल आज तक हो रहा है। मध्यक़ालीन यूरोप में सामान या मनुष्य से भरे जहाज़ को शहर या राज्य में घुसने से पहले जबरन 30 से 40 दिनों तक शहर से बाहर किसी एकान्त टापू पर रखा जाता था ताकि जहाज़ पर मौजूद वायरस मर जाए।

किसी भी संदेहास्पद व्यक्ति को उसके घर में या किसी भी सार्वजनिक भवन में क्वारंटीन किया जाता था। कभी कभी पूरा भवन या मोहल्ला या पूरा शहर भी एक साथ क्वारंटीन कर दिया जाता था। लोगों के एक समूह को शहर से बाहर किसी टापू या भवन में भी बाहर ले जाकर क्वारंटीन किया जाता था। आज जिसे हम टोटल लॉकडाउन बोल रहे हैं उसे टोटल क्वारंटीन भी कहा जा सकता हैं, बशर्ते सभी को भोजन और ज़रूरी चीजें भी मुहैया कराई जाय। 

सेंटर फ़ोर डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेन्शन के अनुसार क्वारंटीन और आइसोलेशन दो अलग अलग पद्धति है जिसका इस्तेमाल महामारी के दौरान होता है। क्वारंटीन में उन लोगों को रखा जाता है जो रोग से संक्रमित नहीं है पर संक्रमित व्यक्ति के सम्पर्क में आ चुके हैं जबकि आइसोलेशन में संक्रमित व्यक्ति को रखा जाता है जिन्हें उपचार की ज़रूरत नहीं है।

भारत के संदर्भ में लेखक बेदी भी क्वारंटीन का कुछ वैसा ही चित्र उकेरते हैं। बेदी लिखते हैं, “जितनी मौतें शहर में क्वारंटीन से हुईं, इतनी प्लेग से न हुईं.” लोगों के बीच क्वारंटीन का ख़ौफ़ कुछ इस कदर था कि जब उनके घर-परिवार में कोई बीमार होता था या प्लेग के कुछ लक्षण दिखने लगते थे तो वो डॉक्टर तो दूर अपने पड़ोसियों को भी इसकी भनक नहीं लगने देना चाहते थे। बेदी लिखते हैं, “किसी घर के वबाई होने का सिर्फ़ उसी वक़्त पता चलता, जब कि जिगर दोज़ आह-ओ-बुका के दर्मियान एक लाश उस घर से निकलती।” 

भाग़ु क्वारंटीन को कम से कम एक मौत के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार मानता है। एक दिन क्वारंटीन के ख़ौफ़ से एक मरीज़ अचेत हो गया और स्वास्थ्यकर्मियों ने उसे मृत घोषित कर दिया। भाग़ु ने जब उस अचेत शरीर को अन्य मृतकों के साथ लाशों के ढेर पर पेट्रोल डालकर आग लगाई तो आग की लपटों से वो अचेत व्यक्ति छटपटाने लगा। भाग़ु उस आग की लपट में कूद पड़ा पर उसे बचा नहीं पाया। उसकी मौत से अपने आप को कोसते हुए भाग़ु डॉक्टर बक्शी से बोलता है, ““आप जानते हैं... वो किस बीमारी... से मरा? प्लेग से नहीं।... कोन्टीन से... कोन्टीन से!” 

समय और जगह के साथ क्वारंटीन का स्वरूप बदलता रहा है पर एक बात जो कभी नहीं बदली थी वो है मज़बूती और दल-बल के साथ सरकार और प्रशासन के द्वारा इसे बलपूर्वक लागू किया जाना। क्वारंटीन के बारे में अफ़वाहों और उससे होने वाले ख़ौफ़ और उसके कारण पलायन और मौतों का सिलसिला आज तक जारी है। एक बात और जिसे इतिहास बदल नहीं पाया है वो है महामारियों के दौरान अपनी जान जोखम में डालकर मेहनत और सेवा करने वाले सफ़ाई कर्मियों के प्रति समाज और लेखकों का उदासीन रवैया। 

भाग़ु संक्रमित व्यक्तियों से इतना घुल मिलकर रहता था कि दिन भर किसी ना किसी मरीज़ से चिपटा रहता था। उनसे बात करता रहता था। भाग़ु सभी मरीज़ों के लिए परिवार का सदस्य के जैसा था। उस क्वारंटीन में भाग़ु सभी मरीज़ों का एकमात्र परिवार था। वो उनकी दुःख-दर्द में साथ उदास हो लेता और किसी की मृत्यु होती तो उसपर रो भी लेता था। 

एक दिन ऐसे हीं जब क्वारंटीन में एक मरीज़ की मौत हुई तो डॉक्टर बक्शी लिखते हैं, “भागू उसकी मौत पर दिखाई न देने वाले ख़ून के आँसू बहाने लगा और कौन उसकी मौत पर आँसू बहाता?? कोई उसका वहाँ अपना होता तो आंसू बहाता। एक भागू ही था जो सबका रिश्तेदार था। सब के लिए उसके दिल में दर्द था। वो सबकी ख़ातिर रोता और कुढ़ता था…”

एक ऐसे दौर मे जब आज स्वास्थ्य विज्ञान के पास इस COVID-19 बीमारी का कोई इलाज नहीं है तो हमारे पास अपने आधुनिकता और विकास पर कुढ़ने के अलावा और क्या उपाय हो सकता है। हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की जर्जर हालत को देखते हुए माँ भारती की कुढ़न तो कहीं ज़्यादा अधिक हैं। हम किसी को इस बीमारी से बचाने में सक्षम नहीं है! भाग़ु भी नहीं था! पर क्या हम भाग़ु की तरह मौत और ज़िंदगी के बीच जूझते लोगों को थोड़ा प्यार थोड़ी मोहब्बत थोड़ा अपनापन नहीं दे सकते हैं। 

आज के इस महामारी के दौर में भाग़ु हमें बहुत कुछ सिखाने का माद्दा रखता है, बशर्ते हम भाग़ु की जात और सफ़ाई कर्मचारियों द्वारा किए जाने वाले काम से जुड़ी सामाजिक कुरीतियों को भूल पाएँ, उन्हें अपने पीछे छोड़ पाएँ। जब अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी भारत सरकार को अपने पुलिस और स्वास्थ्य कर्मियों को ग़रीबों और बेसहारों की मजबूरी के प्रति सजग होने के लिए जागरूक करने की सलाह देते हैं तो शायद कहीं ना कहीं अभिजीत बनर्जी समाज के उन्ही मूल्यों के प्रति हमें जागरूक होने के लिए आग्रह कर रहें हैं जिसे भाग़ु अपनी पूरी ज़िंदगी जीता रहा। 

आप और हम भाग़ु के जीवन से कुछ सीख पाएँ या नहीं पर कहानी में डॉक्टर बक्शी ज़रूर सीखते हैं। भाग़ु का व्यक्तित्व डॉक्टर साहब को इतना प्रभावित करता हैं कि डॉक्टर साहब हॉस्पिटल और क्वारंटीन से छुट्टी मिलने के बाद शाम को शहर के झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों का इलाज करने जाने लगे जहां प्लेग बीमारी पल रही थी। 

भाग़ु डॉक्टर तो नहीं था पर वर्ष 2003 में हिंदुस्तान के सिनेमाघरों में आई फ़िल्म ‘मुन्ना भई MBBS’ का मुख्य किरेदार मुरली प्रसाद शर्मा उर्फ़, ‘मुन्ना’ के व्यक्तित्व के कुछ क़रीब ज़रूर था जो उन मरीज़ों से मोहब्बत और अपनापन लाने की कोशिश करता था जिनके लिए  मेडिकल साइंस के पास कोई उम्मीद नहीं बची होती थी। कुछ ऐसा ही किरदार था फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा लिखित उपन्यास ‘मैला आँचल’ में डॉक्टर का जो गाँववालों के साथ अपने मोहब्बत के रिश्ते को अपनी सबसे बड़ा उपलब्धि समझता था। 

ये भाग़ु का ही किरदार था जो कहानी में डॉक्टर बक्शी को मरीजों को ‘बीमार जैविक शरीर’ से परे एक ‘सामाजिक जीव’ समझने और हॉस्पिटल व क्वारंटीन से परे शहर के झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के बीच जाकर प्लेग की बीमारी का इलाज करने पर मजबूर करता है, उन ग़रीबों के बीच मोहब्बत बांटने पर मजबूर करता है उनके चेहरे पर ख़ुशी देखने को मजबूर करता है। 

जब शहर में महामारी ख़त्म हो जाती है और डॉक्टर बक्शी को मंच पर बुलाकर सम्मानित करते हुए माला पहनाई जाती है, तारीफ़ के पुल बांधे जाते हैं, उनको लेफ़्टिनेंट कर्नल बनाया जाता है तब भी भाग़ु को हमारा समाज मंच पर चढ़ने तक नहीं देता है। पर भाग़ु आज 80 साल बाद भी उसी शहर में हैं। उन्हीं गलियों को साफ़ कर रहा है। हमारी गलियों को साफ़ कर रहा है। हमारे नालों को साफ़ कर रहा है, हमारी गंदगी को साफ़ कर रहा है। कोरोना की गंदगी साफ़ कर रहा है। 

कभी कभी हरियाणापंजाब और ओड़िसा के गलियों में कुछ लोग उनको एक माला पहना जाते हैं, कुछ फूल बरसा जाते हैं, तो कोई चंद पैसोंका जीवन बीमा करवा जाते हैं, पर उन्हें गंदगी में काम करने से होने होने वाले बीमारियों से बचाव के लिए ना तो उपकरण मिलता है और ना ही दास्ताना। उन्हें तो ज़रूरी सुरक्षा उपकरण पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है और  बिना बेतन पाए घर को भी जाना पड़ता है। देश के प्रधान सेवक बार बार TV पर आते हैं, स्वास्थ्य कर्मियों और पुलिस कर्मियों के लिए ताली बजवाते हैं, थाली पिटवाते हैं, दीया जलवाते हैं, और भाग़ु को भूल जाते हैं। COVID-19 महामारी के  युद्ध जैसे इस माहौल में हो सकता है कल को काम और ज़िम्मेदारियों से दबते भाग़ु को युद्ध का योद्धा मान भी लिया जाय पर भाग़ु को भाग़ु कब माना जाएगा ये सवाल इतिहास हमसे पूछता रहेगा।

आज के दौर में स सभी भाग़ु दलित हो या ना हो,  पर सभी भाग़ु बहुजन ज़रूर है। लोगों के दिलों पर राज करने वाला बहुजन। आज भी,  सरकारी कर के पैसे को दान बताकर तालियाँ बटोरने के इस दौर में अपनी महीनो का तनखवा दान करने वाला भी गलियों में सफ़ाई करने वाला भाग़ु ही निकला। भाग़ु आज भी ज़िंदा है और कल भी ज़िंदा रहेगा क्यूँकि बहुजन मरते नहीं और न ही मरता है बहुजन विचार।

{लेखक संजीव कुमार टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल सांइसेस (TISS) में प्रोग्राम मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं। लेखक से [email protected]पर सम्पर्क किया जा सकता है। लेखक इस कहानी को उर्दू से हिंदी, अंग्रेज़ी और मराठी में अनुवादित करने के लिए अपने मित्र जियाउल हक़, उपासना हज़ारिका और थकु पुजारी का धन्यवाद करते हैं।}

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