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आरएसएस को भी लगता है कि मणिपुर के हालात चिंताजनक हैं

आरएसएस द्वारा जारी संक्षिप्त बयानों से पता चलता है कि संगठन के शीर्ष नेताओं को मणिपुर में स्थिति तनावपूर्ण और चिंताजनक लग रही है, और उनका मानना है कि दोनों पक्षों को गहरे विश्वास की कमी को दूर करना होगा।
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कोलकाता: मणिपुर के बारे में कड़वी सच्चाई यह है कि प्रशासन सही आकलन करने के मामले में लड़खड़ा गया है, और उसकी विफलता का सबसे ताजा उदाहरण यह है कि राज्य में 25 सितंबर से हालात फिर से तनावपूर्ण हो गए हैं। ऐसा मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह के दावे के ठीक दो दिन बाद हुआ है। हिंसा में कमी आ गई थी और 23 सितंबर को मोबाइल इंटरनेट सेवाओं पर लगभग पांच महीने पुराना प्रतिबंध वापस ले लिया गया था, जिसे 3 मई को व्यापक मैतेई-कुकी जातीय हिंसा के फैलने के बाद लगाया गया था।

नतीजतन, राज्य सरकार ने 26 सितंबर को मोबाइल इंटरनेट पर फिर से प्रतिबंध लगा दिया, हालांकि थोड़े समय के लिए और 27 सितंबर को विवादास्पद सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम को, 19 पुलिस स्टेशनों के अंतर्गत आने वाले इलाकों को छोड़कर, अगले छह महीने के लिए बढ़ा दिया है।

यह ज़मीनी हक़ीक़त का आकलन करने में राज्य और केंद्रीय गृह मंत्रालय की विफलता को दर्शाता है, जो सुरक्षा बलों को मजबूत करने में अपनी भूमिका को ठीक से निभा नहीं पा रहा है। जैसा कि इंफाल से वादा किया गया था, उसने जी-20 मेगा इवेंट के बाद राज्य में और अधिक सेनाएं भेजीं हैं।

गौरतलब है कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक सरताज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), जिसका प्रभाव एनडीए शासन में लगातार बढ़ा है, अपने 'कार्यकर्ताओं' के नेटवर्क के ज़रिए मणिपुर की स्थिति पर कड़ी नजर रख रहा है। अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम (वीकेए) जो इसका सहयोगी संगठन है वह संघर्षग्रस्त मणिपुर पर नज़र रखे हुए है।

आरएसएस ने प्रदेश के प्रचारकों की बैठक के बाद एक संक्षिप्त बयान जारी किया है, जिसमें साफ तौर माना गया है कि संगठन के शीर्ष नेता मणिपुर की स्थिति पर नज़र रख रहे हैं। उन्हें स्थिति तनावपूर्ण और चिंताजनक लग रही है और जताया है कि दोनों पक्षों को गहरे विश्वास की कमी से उबरना होगा।

कुछ दिनों पहले पुणे में तीन दिवसीय समन्वय बैठक के बाद जारी किया गया बयान शायद पिछली बैठकों की तुलना में अधिक स्पष्ट था। ऑपरेटिव भाग में लिखा है, "मणिपुर में स्थिति तनावपूर्ण है, और हमारे स्वयंसेवकों ने बैठक में हमें यही बताया है। हम सभी अपना काम कर रहे हैं, लेकिन सरकार को निर्णय लेना है; आरएसएस के काम के हिस्से के रूप में, हमारे स्वयंसेवक दोनों समूहों [मेतैई और कुकी समुदायों से] के संपर्क में हैं, और दोनों के लिए सेवा कार्य किया जा रहा है।"

आरएसएस के बयानों की व्याख्या करने में सक्षम संघ परिवार के सूत्रों का कहना है कि "सरकार को निर्णय लेना है" को सावधानी के साथ पढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि इसके दायरे में इंफाल और नई दिल्ली दोनों आते हैं।

संघ परिवार के सूत्रों के साथ न्यूज़क्लिक की हुई बातचीत से जो दूसरा बिंदु सामने आया है, वह यह है कि मुख्यमंत्री बिरेन सिंह ने देशज लोगों की रक्षा करने और नागरिकता के मामले में अयोग्य लोगों पहचान के लिए जिस राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) पर जल्द काम शुरू करने की सोच बनाई थी, वह एक नेक इरादा है। लेकिन यह भी माना है कि निकट भविष्य में इस दिशा में आगे बढ़ना बहुत कठिन होगा। 

"यह सिर्फ मैतेई और कुकियों के बीच की बात नहीं है; बाहरी ताकतें भी काम कर रही हैं। म्यांमार करीब है, और सत्तारूढ़ सैन्य शासन, जो गहरे संकट में है, दूसरों की मदद से "भारत को परेशानी में डालने" के लिए बहुत उत्सुक है। उन्होंने कहा कि इस मामले में, "चीन कारक पर संदेह करना भी तर्कसंगत बात है।"

समीक्षाओं से पता चलता है कि एनआरसी की अवधारणा, अधिकारियों - राज्य और केंद्र दोनों - और लंबे समय तक चलने वाले जातीय संघर्ष के पक्षों के बीच विवाद का कारण नहीं बनेगी; हालाँकि, इसे न करने के पीछे के मानवीय, व्यावहारिक दृष्टिकोण हो सकता है और  कहा जा सकता हैं कि मणिपुर के अधिकारियों को असम में 2013 और 2018 के बीच किए गए अभ्यास से सबक लेना चाहिए क्योंकि इसमें 1,600 करोड़ रुपये से अधिक की लागत आई थी जो विवादास्पद, असफल एनआरसी अभ्यास था।

इंडिजिनस ट्राइबल लीडर्स फोरम के मीडिया संयोजक गिंजा वुएलज़ोंग ने कहा कि, "एनआरसी असम में सफल नहीं रही है; मुझे एनआरसी से कोई समस्या नहीं है, लेकिन मुझे लगता है कि इसके लिए यह समय अनुचित है। इसके अलावा, 1951 को कट-ऑफ वर्ष के रूप में प्रस्तावित किया गया है। फिर, बहुत सारे आदिवासी इलाकों तक सड़कें भी नहीं पहुंच पाई हैं; कई आदिवासियों ने अपना पंजीकरण नहीं कराया होगा, और जनगणना अधिकारी आदिवासी इलाकों तक नहीं पहुंच पाए होंगे। इसलिए, प्रस्तावित एनआरसी आदिवासियों के लिए मुश्किल साबित हो सकती है।"

कुकी आईएनपी के महासचिव खैखोहाउह गंगटे, जो कुकी जनजातियों का राज्य में बड़ा और सर्वोच्च संगठन है, ने कहा कि, "हमें एनआरसी से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन अब जो 'राज्यविहीनता' की स्थिति है, उसे देखते हुए समय उपयुक्त नहीं है।" अधिकारियों को समायोजन के लिए उदार और इच्छुक होना होगा क्योंकि दस्तावेजों की कमी पहाड़ियों में जीवन की एक हक़ीक़त है। एनआरसी के बारे में जागरूकता पैदा करनी होगी क्योंकि एनआरसी एक बड़ी मशक्कत वाला काम होगा, जिसे पक्षपातपूर्ण भी माना जा सकता है और कुकी-ज़ो समुदाय के प्रति भेदभावपूर्ण भी लग सकता है है, खासकर मैतेई नेरेटिव की पृष्ठभूमि में कि कुकी-ज़ो लोग विदेशी/अवैध आप्रवासी हैं, जिसे हम काल्पनिक मानते हैं"। असम की तरह, यह अंततः करदाताओं के पैसे की भारी बर्बादी हो सकती है।"

गंगटे ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि एसटी दर्जे की मैतेई की मांग एनआरसी अभ्यास के लिए माहौल को खराब कर सकती है।

घाटी में मैतेई समुदाय के एक प्रभावशाली संगठन, कॉओरडीनेशन कमिटी ओं मणिपुर इंटीग्रिटी (COCOMI) ने प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर 1951 को आधार वर्ष मानकर जल्द से जल्द एनआरसी प्रक्रिया शुरू करने की मांग की है, ताकि अवैध प्रवासियों की पहचान की जा सके और उन्हें नागरिकता से वंचित किया जा सके। [हालाँकि, यदि आवश्यक हो, तो वे अतिथि के रूप में रहना जारी रख सकते हैं] ........ पत्र कहता है कि, मणिपुर में चुराचंदपुर, चंदेल, तेंगनौपाल, कामजोंग और कांगपोकपी जिलों में बड़े पैमाने पर अवैध आप्रवासन देखा गया है। उन्होंने आरक्षित इलाकों में भी बसना शुरू कर दिया है और जंगलों की रक्षा की और बड़े पैमाने पर अफीम की खेती शुरू की है।”

चल रहा संघर्ष धार्मिक या आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी मुद्दा नहीं है; पीएमओ को लिखे सीओसीओएमआई के पत्र में तर्क दिया गया है कि यह वनों की कटाई, अफ़ीम/अफीम की खेती और विशिष्ट इलाकों में जनसांख्यिकी में बड़े पैमाने पर बदलाव पर बढ़ते तनाव को प्रकट करता है।

इस संदर्भ में, संघ परिवार के सूत्रों ने न्यूज़क्लिक को बताया कि जब मुख्यमंत्री ने उन वन इलाकों को साफ़ करने के लिए कदम उठाए, जिनके बारे में प्रशासन का मानना था कि वे नार्को-ड्रग तस्करी के केंद्र के रूप में उभर रहे थे, तो कुकियों के बीच गंभीर आशंकाएँ थीं कि खाली भूमि पर मैतेई लोगों को बसाया जाएगा और इससे तनाव पैदा होने लगा था। 

जहां तक एसटी दर्जे की उनकी मांग का सवाल है, मैतेई 2012 से यह तर्क दे रहे हैं कि इस दर्जे से उन्हें अपनी पैतृक भूमि, परंपरा, संस्कृति और भाषा को संरक्षित करने में मदद मिलेगी। उन्होंने यह भी तर्क दिया है कि 1949 में राज्य के भारत में विलय से पहले उन्हें एक जनजाति के रूप में मान्यता दी गई थी, लेकिन विलय के बाद उन्होंने वह पहचान खो दी है।

उपलब्ध जानकारी से यह भी पता चलता है कि बाद में 1951-52 में वर्गीकरण की माँगों का अध्ययन करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा गठित एक आयोग में मैतेई को एक अवसर मिला था। फिर भी उन्होंने एसटी की अपनी मांग आयोग के समक्ष नहीं रखी थी। अब कुकियों ने मैतेई की मांग का विरोध किया है क्योंकि मैतेई पहाड़ियों में जमीन खरीद सकते हैं।  

29 मई को अपडेट किए गए आउटलुक के एक लेख में, यह बताया गया है कि मणिपुर की पहाड़ियों में देशज आदिवासी लोगों की भूमि एमएलआर और एलआर की धारा 158 के तहत भारतीय संविधान के 371 सी अधिनियम 1960 (संसदीय अधिनियम) के तहत संवैधानिक प्रावधानों द्वारा संरक्षित है। 

उदाहरण के लिए, मौजूदा कानून के अनुसार, मैतेई सहित गैर-आदिवासी, पहाड़ियों में जमीन नहीं खरीद सकते हैं। सनद रहे कि मणिपुर में जातीय संघर्ष तब शुरू हुआ जब मैतेई समुदाय की एसटी दर्जे की मांग के विरोध में ऑल ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन ने विरोध प्रदर्शन किया था। 

लेखक कोलकाता स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीेचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

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