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“जो चले गए वो तो मुक्त हो गए” कहने का दुस्साहस कहां से लाते हैं मोहन भागवत!

जरा सोचिए, मोहन भागवत इस देश की जनता को मुक्ति का यह कौन सा नया पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं? क्या सचमुच बिना दवाओं और बिना ऑक्सीजन के तड़प-तड़प कर मर जाना मुक्त हो जाना है?
मोहन भागवत

इस बात पर किसी और दिन बहस की जा सकती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत का वीडियो संदेश दूरदर्शन और राज्यससभा टीवी जैसे सरकारी चैनलों पर क्यों प्रसारित किया गया ? इससे ज्यादा जरूरी बात यह है कि वैज्ञानिकता की दुहाई देते हुए मोहन भागवत  कितनी अवैज्ञानिक बातें कर गए और कोरोना की दूसरी लहर के लिए जिम्मेदारी तय करते हुए उनकी क्रोनोलॉजी में सरकार से पहले जनता का जिक्र क्यों आया ? इतना ही नहीं, महामारी में अपनों को खो देने वालों के दुख पर उन्हें सांत्वना देने वाले भागवत एक ही साँस में यह कहने का दुस्साहस कहाँ से लाए कि “जो चले गए वो तो एक तरह से मुक्त हो गए”। आइए, मोहन भागवत के महान वीडियो उवाच पर कुछ बात कर लेते हैं...

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वीडियो संदेश में मोहन भागवत ने अपनी बात की शुरुआत उन लोगों को सांत्वना देने के प्रयास से की जिन्होंने महामारी में अपनों को खो दिया है। उन्होंने यह बात स्वीकार की कि यह दुख सांत्वना से परे है। फिर जैसे अचानक उन्होंने अपने ऊपर से एक ख़ोल उतार फेंका और उसी जुमले को आगे बढ़ाते हुए बोले “अपने लोग चले गए, उनको ऐसे असमय चले जाना नहीं था। परंतु अब गए, अब तो कुछ नहीं कर सकते। अब जो परिस्थिति है उसमें हम हैं। और जो चले गए वो तो एक तरह से मुक्त हो गए, उनको इस परिस्थिति का सामना अब नहीं करना है। हमको करना है।”  जरा सोचिए, मोहन भागवत इस देश की जनता को मुक्ति का यह कौन सा नया पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं ? क्या सचमुच बिना दवाओं और बिना ऑक्सीजन के तड़प-तड़प कर मर जाना मुक्त हो जाना है? अगर मर जाना ही मुक्ति है तो फिर मुक्त होने का इससे आसान तरीका और क्या हो सकता है भला? फिर तो गले में फंदा डालकर अपनी जान लेने वाला हर शख्स मुक्त हो जाता होगा। राह चलते किसी खूनी के हाथों जान गवाँ देने वाले सारे लोग भी मुक्त हो चुके होंगे। आतंकवाद की भेंट चढ़े हजारों बेकुसूरों को भी मुक्ति प्राप्त हो चुकी होगी। साफ है कि मुक्ति का यह भागवती कॉन्सेप्ट न सिर्फ गलत है बल्कि अमानवीय भी है। जिस देश में करोड़ों लोगों की आस्था यही है कि जब तक सभी रस्मों को निभाते हुए सही तरह से अंतिम संस्कार न किया जाए तब तक मरने वाले की आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती, वहाँ गंगा में उतराती अधजली लाशें मुक्ति का संकेत कैसे हो सकती हैं ?  और हाँ, मग़फिरत या सैल्वेशन भी किसी तरह भागवत की इस परिभाषा के दायरे में नहीं आते।

दरअसल, भागवत का वीडियो संदेश एक ऐसा मल्टी-लेयर सैंडविच था, जिसमें बीच-बीच में कुछ अच्छे जुमले बुरक दिए गए हों। महामारी में मरने वालों के मुक्त हो जाने की निष्ठुर बात कहने के बाद मोहन भागवत मन को पॉजिटिव और शरीर को कोरोना निगेटिव रखने की पंचलाइन से काम चलाते हुए आगे बढ़े। मगर फिर वो एक ऐसा जुमला इस्तेमाल कर गए जो दिल में तीर की तरह जा धँसा। उन्होंने कहा, “ये रोज दस-पाँच अपिरिचित लोगों के जाने के समाचार का सुनना, मीडिया के माध्यम से परिस्थिति बड़ी विकराल है, विकराल है, इसका घोष निरंतर सुनना, यह हमारे मन को उदास बनाएगा? कटु बनाएगा? ऐसा नहीं होता। ऐसा होने से विनाश ही होता है। ”

अब जरा भागवत के इन क्लिष्ठ शब्दों को आसान जुबान में समझने की कोशिश कीजिए। वो कह रहे हैं कि न तो दस-पाँच अनजान लोगों के मर जाने की खबर सुनकर मन उदास होना चाहिए और न ही मीडिया पर महामारी के विकराल रूप के बारे में सुनकर। जरा सोचिए कि रोज जिन दस-पाँच लोगों के मरने की खबर हमें और आपको मिल रही है, वो क्या सचमुच हमारे लिए अनजान हैं। बिल्कुल नहीं ! इन दस-पाँच लोगों की खबर नाम-पते के साथ हम तक इसीलिए पहुँच रही है कि हम उन्हें जानते हैं। और न भी जानते हों तो क्या ऐसी खबरों से हमारा मन उदास नहीं होना चाहिए। छोड़िए दस-पाँच लोगों को, भागवत से पूछना चाहिए कि सरकारी आँकड़ों के मुताबिक रोजाना लगभग चार हजार लोगों के मरने पर मन उदास होना चाहिए या नहीं? या सिर्फ सरकार की छवि बचाने के लिए चलाए जा रहे किसी पॉजिटिविटी कैम्पेन की वजह से लोग मौत की खबरों पर उदास होना छोड़ दें, पॉजिटिव हो जाएं ? ये कौन सी पॉजिटिविटी का उपदेश दे रहे हैं भागवत ?

मोहन भागवत के शब्दों की निष्ठुरता यहीं समाप्त नहीं होती। वो आगे कहते हैं, “मनुष्य एक न एक दिन जैसे पुराने कपड़े छोड़कर नए कपड़े बदलता है, वैसे पुराना शरीर निरुपयोगी हो गया उसको छोड़ देता, दूसरे जन्म में आगे बढ़ने के लिए नया शरीर धारण करके आता है।” एक तो यह कि दूसरे जन्म वाला कॉन्सेप्ट सभी पर लागू नहीं होता और अगर हो भी जाए तो क्या कोरोना में इलाज के अभाव से मरने वाले लोगों का “पुराना शरीर निरुपयोगी” होने की वजह से उनकी जान गई। भागवत की मानें तो किसी के पिता, किसी की माँ, किसी के पति, किसी की पत्नी, किसी के जवान बेटे-बेटी का शरीर निरुपयोगी हो गया था, इसलिए उसने शरीर त्याग दिया। क्या सचमुच ? क्या आँकड़ों में दर्ज लगभग ढाई लाख शरीर निरुपयोगी हो गए थे?

भले ही कुछ लोग भागवत के इस लम्बे बयान से “जनता, शासन और प्रशासन की गफलत” वाली लाइन उठाकर हेडलाइन बना रहे हों मगर सच यह है कि भागवत ने सरकार की कोई कटु आलोचना नहीं की बल्कि उन्होंने सरकार से पहले जनता को जिम्मेदार ठहराया। उनके शब्दों की क्रोनोलॉजी पर ध्यान देंगे तो यह बात साफतौर पर सामने आ जाएगी। वो कहते हैं, “पहली लहर आने के बाद हम सब लोग जरा गफलत में आ गए। क्या जनता, क्या शासन, क्या प्रशासन ! मालूम था, डॉक्टर लोग इशारा दे रहे थे, फिर भी थोड़ी गफलत में आ गए। इसलिए यह संकट खड़ा हुआ।” भागवत बड़ी समझदारी दिखाते हुए शासन यानी सरकार से पहले जनता की गफलत का जिक्र करते हैं। वो एक बार नहीं बल्कि दो बार “जरा गफलत में आ गए” और “थोड़ी गफलत में आ गए” कहते हैं। भागवत को नहीं लगता कि सरकार ने ज्यादा गफलत की। वो सरकार को आलोचना से बचाना चाहते हैं। कहते हैं, “दोष और गुणों की चर्चा को अभी विराम देकर... उसके लिए बाद में समय मिलेगा।” दरअसल, भागवत की यह बात उसी नैरेटिव का पार्ट-टू है जिसमें सरकार की जवाबदेही तय करने के बजाय “सिस्टम” के सिर ठीकरा फोड़ा गया था। इस बार उसी तर्ज़ रट लगाई जा रही है कि यह वक्त किसी को दोष देने और कमियाँ निकालने का नहीं है।

बहरहाल, ढेर सारी अवैज्ञानिक बातें करने के बाद मोहन भागवत “मुखाच्छादन के उपयोग की दक्षता” यानी मास्क लगाने की महारथ से लेकर व्यायाम, आहार, विहार, स्वच्छता पर ध्यान जैसी वैज्ञानिक बातें भी करते सुनाई दिए। मगर इसके फौरन बाद वो फिर से अपने असली काम पर लौट आए। उन्होंने कहा कि “कुछ लोग कोरोना का पॉजिटिव होना बड़ी बदनामी मानकर छुपाकर रखते हैं, जल्दी उपचार नहीं लेते। अस्पताल में जो वातारण रहता है उसके डर के मारे एडमिट होने में आना-कानी भी करते हैं। और दूसरा सिरा यानी भय के कारण अनावश्यक उपचार करते हैं, अनावश्यक एडमिट होते हैं, तब यह होता है कि जिसको वास्तविक जरूरत है उसकी जगह बुक हो जाती है, उसको नहीं मिलती।” यहाँ भागवत कोरोना के बारे में इस तरह बात करते हैं मानो यौन रोगों का जिक्र कर रहे हों, जिन्हें अक्सर लोग बदनामी के डर से छुपाया करते हैं। क्या सचमुच कहीं ऐसा हुआ होगा कि कोरोना के किसी मरीज ने बदनामी के डर से या “अस्पताल के वातावरण के डर से” अपनी बीमारी छुपा ली हो? क्या कोरोना की बीमारी छुपाई भी जा सकती है? क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि मोहन भागवत का यह आरोप किस तरह की वैज्ञानिकता पर आधारित है? और हां, इस बात को दूसरे हिस्से में भागवत अस्पतालों में बेड की कमी के लिए ऐसे लोगों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं जो बिना जरूरत ही भर्ती हो जाते हैं। जिस दौर में गंभीर मरीजों को अस्पतालों में बेड नहीं मिल रहा है, तब अगर लोग बिना वजह भर्ती हो जा रहे हैं तो यह किसकी गलती है? मोहन भागवत इस सवाल को बाइपास करते हुए आगे बढ़ जाते हैं।

खैर, ढेर सारा ज्ञान परोसने के बाद भागवत यह बताना नहीं भूलते कि मौजूदा हालात का असर आने वाले दिनों में अर्थव्यवस्था पर भी पड़ सकता है। इससे बचने के उपायों में से एक अभूतपूर्व उपाय जो उन्होंने सुझाया वह यह था कि पानी ठंडा करने की मशीन (यानी फ्रिज) की जगह हमें मटका खरीद लेना चाहिए ताकि मटका बनाने वाले को भी रोटी मिल सके। रिक्शा चलाने वालों के लिए क्या किया जाना चाहिए, यह बताना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा।

बीच-बीच में कभी विन्सटन चर्चिल और कभी हेडगेवार के “स्नेह, प्रेम” का जिक्र करते हुए आखिर में मोहन भागवत ने वो कर डाला जिसकी उनसे आरएसएस में भी किसी ने उम्मीद ना की होगी। उन्होंने डॉ. इकबाल के “तराना-ए-हिन्दी” का एक शेर पढ़ा, “यूनान ओ मिस्र ओ रूमा सब मिट गए जहाँ से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी”। हालाँकि भागवत ने शेर के मिसरे कुछ उलट-पुलट कर दिए मगर बड़ी बात यह है कि उन्होंने डॉ. इकबाल के लिखे तराने से परहेज़ नहीं किया। वही डॉ. इकबाल जिनकी नज्म “लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी” से भागवत की टोली के लोग आग बगूला हो जाते हैं।

अंत में मोहन भागवत ने सजगता, सक्रियता, सतत प्रयास और दृढ़ संकल्प जैसे शब्दों के साथ अपनी बात पूरी की। लगभग 25 मिनट लंबे अपने वीडियो संदेश में उन्होंने कई बार पॉजिटिविटी का जिक्र किया। मगर मैं सोचता रह गया कि महामारी में “जो चले गए वो तो एक तरह से मुक्त हो गए ” कहने वाले शख्स की बातों से किसी को कितनी पॉजिटिविटी मिल सकती है। किंचित अथवा लेशमात्र!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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