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राजस्थान हाई कोर्ट: आंगनवाड़ी भर्ती से अविवाहिता को दूर रखना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन

“एक महिला को उसके अविवाहित होने के आधार पर सार्वजनिक रोज़गार से वंचित करना, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के तहत महिला को दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने के अलावा, महिला की गरिमा पर आघात है।”
Rajasthan High Court
फ़ोटो साभार : Law Insider India

“एक महिला को उसके अविवाहित होने के आधार पर सार्वजनिक रोजगार से वंचित करना, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के तहत एक महिला को दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने के अलावा, एक महिला की गरिमा पर आघात है।”

ये टिप्पणी राजस्थान हाई कोर्ट की है, जो हाल ही में एक महिला की याचिका सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति दिनेश मेहता ने की। ये याचिका राज्य सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा जारी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता भर्ती के संबंध में थी, जिसमें अविवाहित महिलाओं को आवोदन के लिए अयोग्य करार दिया गया था। अदालत ने अपनी सुनवाई के दौरान इस मामले को भेदभाव का एक नया मोर्चा मानते हुए मैरिटल स्टेटस के आधार पर रोजगार देने से इनकार करने को अवैध और मनमाना करार दिया है।

बता दें कि बीते साल दिसंबर 2022 में भी राजस्थान आंगनवाड़ी भर्ती में इस शर्त को लेकर कई महिला और श्रमिक संगठनों ने कड़ी आपत्ति जाहिर की थी। तब मामले ने काफी तूल भी पकड़ा था, लेकिन राज्य सरकार बावजूद इसके अपनी नियमवाली पर अडिग रही और उसने इस जरूरी मुद्दे को ही अनदेखा कर दिया। लेकिन अब जब हाई कोर्ट ने इस पर सख्त रूख अपनाया है, तो जाहिर है, सरकार की आंखें खुलेंगीं और वो नींद से जागेगी।

क्या है पूरा मामला?

प्राप्त जानकारी के मुताबिक राजस्थान महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहयोगिनी की भर्ती में महिलाओं के साथ भेदभाव किया जा रहा था। विभागीय नियमों के अनुसार आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहयोगिनी के पद पर सिर्फ शादीशुदा महिलाएं ही आवेदन कर सकती थीं। इस कठोर नियम के चलते अविवाहित युवतियां और महिलाएं इन पदों पर आवेदन नहीं कर पा रही थीं। क्योंकि विभाग का मानना था कि अविवाहित युवतियां शादी के बाद दूसरी जगह चली जाती हैं। इसके बाद पद खाली हो जाता है।

समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार याचिकाकर्ता मधु चरण को बाड़मेर जिले के गुड़ी में आंगनवाड़ी केंद्र में आवेदन पत्र जमा करते समय मौखिक रूप से कहा गया था कि वह अविवाहित होने के कारण इस पद के लिए अयोग्य हैं, जिसके बाद उन्होंने हाई कोर्ट का रुख किया और इस शर्त को बिल्कुल अतार्किक, उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन और भेदभावपूर्ण बताया। न्यायाधीश‌ दिनेश मेहता ने रिट याचिका स्वीकार करते हुए नियुक्ति नियमावली की विवाहित होने की आवश्यक शर्त को निरस्त कर दिया और उनके आवेदन पत्र का चार सप्ताह के भीतर निपटारा करने का निर्देश भी दिया गया।

भेदभाव का एक नया मोर्चा

जस्टिस दिनेश मेहता की पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि राज्य किसी महिला को सिर्फ इसलिए नौकरी का दावा करने से नहीं रोक सकता, क्योंकि वह विवाह बंधन में नहीं बंधी है। अदालत ने साफ किया कि इस विवादित शर्त के समर्थन में बताया गया कारण तर्क और विवेक की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है कि अविवाहित महिला शादी होने के बाद अपने वैवाहिक घर चली जाएगी। इस प्रकार, यह तथ्य कि महिला अविवाहित है, उसे अयोग्य घोषित करने का यह कारण नहीं हो सकता है। बचाव पक्ष की दलीलों को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि विवादास्पद शर्त को शामिल करके प्रतिवादियों द्वारा भेदभाव का एक नया मोर्चा खोला गया है।

इसे भी पढ़ें: राजस्थान : आंगनवाड़ी भर्ती के लिए 'महिलाओं का शादीशुदा' होना अनिवार्य, ये कैसा नियम है?

गौरतलब है कि ये पहली बार था जब राजस्थान के किसी सरकारी विभाग ने इस तरह से भर्ती के लिए शर्त रखी गई थी। फिलहाल राजस्थान सरकार के सभी विभागों में भर्ती के दौरान विवाहित व अविवाहित महिलाओं को समान मौका दिया जाता है, लेकिन आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहयोगिनी की भर्ती में ये मौका नहीं मिल रहा था, जिसे लेकर विवाद भी देखा गया था। जाहिर है जब भी बात नौकरी की आती है तो अक्सर उम्र और वैवाहिक स्थिति के आधार पर महिलाओं को दो अलग-अलग नज़रिए से देखने की कोशिश की जाती है। कई लोग शादीशुदा औरतों को उनके घर और बच्चे की जिम्मेदारियों के चलते नौकरी नहीं देना चाहते, तो कई लोग पूर्वाग्रह के चलते अविवाहित लड़कियों को। इस पितृसत्तात्मक सोच और नजरिए के चलते श्रम बल में पहले से ही कम महिलाओं की मौजूदगी और कम करने की कोशिश जारी है।

पहले भी हुई कई कोशिश

ध्यान रहे कि बीते साल ही इंडियन बैंक ने तीन महीने या उससे अधिक समय की गर्भवती महिलाओं को नौकरी के लिए ‘‘अस्थायी रूप से अयोग्य’’ करार दिया था, जिसे लेकर महिला संगठनों का भारी विरोध देखने को मिला था। बाद में चौतरफा किरकिरी होने के बाद बैंक प्रशासन ने इस भेदभावपूर्ण फैसले को वापस ले लिया था।

इससे पहले भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने भी एक ऐसा ही सर्कुलर जारी किया था, जिसके तहत तीन माह से अधिक अवधि की गर्भवती महिला उम्मीदवारों को ‘‘अस्थायी रूप से अयोग्य’’ माने जाने की बात कही गई थी। इस प्रावधान को श्रमिक संगठनों और दिल्ली के महिला आयोग समेत समाज के कई तबकों ने महिला-विरोधी बताते हुए निरस्त करने की मांग की थी। इसके बाद एसबीआई को इस नियम को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा था। तब बैंक ने कहा था कि आम लोगों की भावनाओं का आदर करते हुए भर्ती संबंधी नए निर्देशों को स्थगित कर दिया है। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि हमारे देश में संघर्ष, शोषण और लैंगिक भेदभाव का सामना विवाहित और अविवाहित महिलाएं दोनों ही करती हैं।

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