Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

हाथरस बनाम बलरामपुर, यूपी बनाम राजस्थान की बहस कौन खड़ी कर रहा है!

इन लोगों को कोई कैसे समझाए कि यह बहस और ख़तरा हिन्दू-मुस्लिम और बीजेपी-कांग्रेस से बहुत आगे जा चुका है।
stop rape

हाथरस बनाम बलरामपुर, उत्तर प्रदेश बनाम राजस्थान की बहस कौन खड़ी कर रहा है? यह वही लोग हैं जो इससे पहले कठुआ बनाम सासाराम की बहस खड़ी कर रहे थे।

दरअसल ये न हाथरस के लिए न्याय चाहते हैं, न बलरामपुर के लिए। न कठुआ के लिए, न सासाराम के लिए। न यूपी के लिए, न राजस्थान के लिए...।

इन्हें बस किसी भी नाम पर मुद्दे को बदलना है, Divert करना है। अपराधियों को बचाना है, हिन्दू-मुसलमान को लड़ाना है। ये लोग बहुत शातिर और धूर्त हैं। एक तरह से ये बलात्कार और बलात्कारियों के समर्थक ही हैं।

हालांकि ऐसे लोगों को समझाना मुश्किल है, (सफ़ाई देने की तो बिल्कुल ज़रूरत नहीं) लेकिन इनके झूठ का पर्दाफ़ाश करना ज़रूरी है। इस बारे में मैं पहले भी लिख चुका हूं। ऐसे लोगों से पूछा जाना चाहिए कि उन्नाव में पीड़िता कौन थी? दलित या ठाकुर, हिन्दू या मुसलमान? देश में शुरू हुए आंदोलन में “जस्टिस फॉर कठुआ” के साथ “जस्टिस फॉर उन्नाव” का भी नारा लगा और फिर इसमें सूरत भी जुड़ गया है। सोशल मीडिया पर तो सबके साथ “जस्टिस फॉर ऑल” का हैशटैग चला।  

उस समय जब एक सुबह मैंने फेसबुक पर ही ग्रेटर नोएडा-आगरा एक्सप्रेस वे पर गैंगरेप की खबर शेयर करते हुए लिखा कि:-

“उफ! क्या किया जाए?

...आप एक कठुआ, एक उन्नाव के लिए इंसाफ़ की मांग को लेकर जब तक सड़कों पर उतरते हैं तब तक एक और सूरत, एक और नोएडा, एक और दिल्ली हो जाता है।”

तब मेरे एक पत्रकार मित्र ने कहा कि मैंने सासाराम और असम का जिक्र नहीं किया। ऐसा नहीं कि ये पत्रकार महोदय मेरे लिखे की चिंता या समय की भयावता को नहीं समझ रहे होंगे बल्कि वे जानबूझकर इसमें हिन्दू-मुस्लिम और कांग्रेस-बीजेपी का तड़का लगाना चाहते थे। ताकि सही सवाल को बदला जा सके। बहस को गुमराह किया जा सके। इसी तरह एक अन्य पत्रकार साथी ने कठुआ बनाम सासाराम करते हुए एक तस्वीर पोस्ट की।

यही आज हो रहा है। मुद्दा को बदलने की कोशिश है। कभी हाथरस के बरअक्स बलरामपुर को खड़ा करके, कभी यूपी के बरअक्स राजस्थान को।

इन लोगों को कोई कैसे समझाए कि यह बहस और ख़तरा हिन्दू-मुस्लिम और बीजेपी-कांग्रेस से बहुत आगे जा चुका है।

जो लोग कह रहे हैं कि विरोध आंदोलन सलेक्टिव होते हैं, ये सब मोदी, योगी या बीजेपी को बदनाम करने के लिए किया जा रहा है, उनसे पूछना चाहिए कि 2012 में निर्भया के आंदोलन के समय किसकी सरकार थी? बीजेपी की या कांग्रेस की? मोदी की या मनमोहन की?

क्या उस समय सरकार से जवाब नहीं मांगा गया था। उस समय का आंदोलन तो हाथरस से भी बड़ा था। राष्ट्रपति भवन तक को घेर लिया गया था उस समय।

क्या उस समय किसी ने जात-बिरादरी, या हिन्दू-मुसलमान के नाम पर सरकार या बलात्कारियों को बचाने का प्रयास किया था! क्या उस समय संसद में हंगामा नहीं हुआ था। क्या उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को शर्मिंदा नहीं होना पड़ा था।

उस समय तो पीड़िता को इलाज के लिए विशेष एअर एंबुलेंस से सिंगापुर तक भेजा गया था। साथ में डॉक्टरों की एक टीम और निर्भया के मां-बाप भी मौजूद थे। आज की तरह नहीं जैसे पहले अलीगढ़ और फिर दिल्ली के सफ़दरजंग भेजकर योगी शासन-प्रशासन ने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली।

उस समय, लाश को रात के अंधेरे में चोरी छुपे हाथरस ले जाकर बिना परिवार की सहमति के जबरन जलाया नहीं गया था बल्कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी निर्भया का पार्थिव शरीर सिंगापुर से आने पर एयरपोर्ट गए थे।

यही नहीं दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को आंदोलनकारियों के बीच जंतर-मंतर जाना पड़ा था जहां उन्हें आंदोलनकारियों ने खूब खरी-खोटी सुनाकर वापस कर दिया था। क्या उस समय किसी ने आरोपियों की जाति के नाम पर बचाव किया था। या हिन्दू-मुसलमान या कांग्रेस-बीजेपी का मुद्दा उठाया था। नहीं। बल्कि जस्टिस वर्मा कमेटी बैठाकर कानूनों का रिव्यू करके उन्हें कड़ा बनाया गया था।

भाजपाईयों और उनके समर्थकों को पता होना चाहिए कि 2014 में कांग्रेस की सरकार जाने और भाजपा की सरकार आने में 2012-13 के निर्भया कांड और उसके बाद उपजे देशव्यापी आंदोलन का भी बड़ा हाथ था। लेकिन किसी ने नहीं कहा कि उस आंदोलन का उद्देश्य कांग्रेस को नुकसान या भाजपा को फायदा पहुंचाने का था। या उसके पीछे कोई अंतर्राष्ट्रीय साज़िश थी। 

इसी तरह हिमाचल का गुड़िया कांड। 2017 में हुए गुड़िया के बलात्कार और हत्या के मामले ने वहां न केवल तत्कालीन कांग्रेस सरकार को हिला दिया बल्कि ये विधानसभा चुनाव में एक बड़ा मुद्दा बना और कहा जाता है कि वीरभद्र सिंह की हार में एक बड़ा कारण ये मुद्दा भी रहा।

इतना ही नहीं जब-जब किसी राजनेता या अन्य प्रभावशाली व्यक्ति ने बलात्कार या महिलाओं के संबंध में बेतुका बयान दिया तो क्या उनकी आलोचना और भर्त्सना नहीं हुई। बीजेपी नेताओं को ही नहीं, मुलायम सिंह, आज़म ख़ान यहां तक की प्रगतिशील कहे जाने वाले शरद यादव तक को नहीं बख़्शा गया। मी-टू आंदोलन शुरू होने पर कई प्रतिष्ठित और प्रगतिशील कहे जाने लोगों को भी क्या कम विरोध झेलना पड़ा है। 

और जहां तक देशव्यापी आंदोलन का सवाल है तो हमें यह भी जान लेना चाहिए कि हर जगह पहले स्थानीय तौर पर आंदोलन शुरू होता है फिर वो बाद में राष्ट्रीय स्तर का आंदोलन बनता है। 2018 में कठुआ में कई महीने पहले से आंदोलन चल रहा था। बाद में वह दिल्ली पहुंचा। उन्नाव की पीड़िता भी 2017 से इंसाफ के लिए लड़ रही थी और 2018 में यह मुद्दा बना।

कठुआ में अगर बलात्कारियों के पक्ष में हिन्दू एकता मंच का जुलूस न निकला होता और वकील पुलिस को कोर्ट में चार्जशीट दाखिल करने से न रोकते तो शायद उसके लिए दिल्ली में लोग सड़कों पर नहीं उतरते। इसी तरह अगर उन्नाव की पीड़िता विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के ख़िलाफ़ कार्रवाई न होने पर मुख्यमंत्री आवास पर आत्महत्या का प्रयास न करती और उनके पिता की पुलिस हिरासत में मौत न होती तो ये मुद्दा भी राष्ट्रीय स्तर पर संज्ञान में न आया होता।

और हाथरस में भी मुद्दा इसलिए नहीं बना कि एक दलित लड़की से बलात्कार हुआ है, बल्कि इसलिए कि पहले उसके साथ गांव के दबंगों ने बर्बरता की और बाद में सिस्टम ने बर्बरता की। अगर शासन-प्रशासन उसकी मौत से पहले सुध ले लेता या मृत्यु के बाद बिना परिवार की सहमति के इस तरह रात के अंधेरे में गुपचुप जबरन लाश को न जलाया जाता तो क्या लोग संवेदित होते, उनमें गुस्सा फैलता, यह मामला मुद्दा बनता। नहीं...। आपने देखा कि 14 सितंबर को बलात्कार और हमला होने के बाद 29 सितंबर को मौत होने तक कहीं किसी मीडिया में इसकी चर्चा तक नहीं थी।

लेकिन इस मामले के मुद्दा बनने के बाद, सारे देश की मीडिया के हाथरस पहुंचने के बाद भी किस बेशर्मी से आरोपियों को बचाने की कोशिशें हो रही हैं, कैसे मीडिया को ही नई कहानियां थमा दी गईं हैं, किस तरह आरोपियों के पक्ष में जातीय पंचायतें हो रही हैं, कैसे भाजपा सांसद-विधायक उनके पक्ष में आ रहे हैं, कैसे पीड़ित परिवार पर दबाव बनाया जा रहा है, वो पूरा देश देख रहा है। क्या बलरामपुर में भी ऐसा हो रहा है! क्या वहां आरोपियों के पक्ष में कोई जुलूस, जलसा या पंचायत हुई है? और वैसे जानकारी के लिए बता दें कि बलरामपुर भी यूपी में ही है और इसके लिए भी योगी सरकार ही जवाबदेह है। न कि कोई और।

देश में लूट, हत्या, बलात्कार हर अपराध का विरोध किया जाना चाहिए लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि जहां भी जाति, धर्म या तिरंगे की आड़ में बलात्कारियों को बचाने की कोशिश की जाएगी, जहां भी सत्ताधारी या प्रभावशाली लोग अपराध में शामिल होंगे या अपराधियों को बचाने की कोशिश करेंगे उस मामले को अन्य सभी मामलों से ज़्यादा ज़ोर से, ज़्यादा मज़बूती से उठाए जाने की ज़रूरत है।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest