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नज़रिया : बलात्कार महिला की नहीं पुरुष की समस्या है

इस अपराध को रोकने के लिए सबको प्रयास करना होगा। सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी हमारी व्यवस्था, हमारी सरकार की है। और इस नयी सरकार की तो और भी ज़्यादा, क्योंकि इसने वादा किया था कि "बहुत हुआ नारी पर वार, अबकी बार...”
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बलात्कार स्त्री की समस्या नहीं, बल्कि पुरुष की समस्या है। इसलिए इस संदर्भ में महिला को सुरक्षित करने के नाम पर जितने प्रयास हो रहे हैं, जितनी बहस हो रही है वो सही दिशा में नहीं जा पा रही है। ये तत्काल फांसी, ये मौके पर ही इंसाफ़, ये संगसारी की जितनी बातें हो रही हैं, ये सब मुनासिब नहीं हैं। हालांकि लोगों का गुस्सा समझा जा सकता है, लेकिन हमें ये समझना होगा कि 'मौके पर इंसाफ' नहीं लिंचिंग होती है। जो आजकल हम देख रहे हैं कि भीड़ खुद ही वकील और मुंसिफ बनकर किसी को मार डाल दे रही है। और अब उन्हें इसका बाकायदा अधिकार देने की मांग हो रही है, जो उतनी ही ग़लत और बर्बर है, जितना बलात्कार और हत्या का अपराध। और इसे किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता। ये कानून का राज नहीं बल्कि जंगल राज या अराजकता कहलाता है।   

और हमें फांसी से पहले जल्द सज़ा की मांग करनी चाहिए। क्योंकि आज बलात्कार के मामलों में समय पर सुनवाई और सज़ा ही नहीं हो पा रही। 

आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं से बलात्कार के मामलों में दोषसिद्धि यानी अपराध साबित होने की दर चार में से एक मतलब करीब 25 फीसदी है। फांसी की ज़िद सज़ा में और देरी कर देगी। आपने देखा कि 2012 के निर्भया मामले में अपराधियों को अभी तक फांसी नहीं हो पाई, जबकि ये बलात्कार के साथ हत्या का मामला था। अपराधियों पर अपराध भी सिद्ध हो चुका है लेकिन अभी भी उसे अमल में नहीं लाया जा सका है। 

और फांसी से अगर बलात्कार रुकते हों तो वो भी किया जाए, लेकिन ऐसा कोई सुबूत या प्रमाण नहीं है कि फांसी की सज़ा की वजह से बलात्कार में कमी आएगी या वे रुक जाएंगे। अगर ऐसा होता तो इस देश में हत्याएं न होती क्योंकि हत्या में तो धारा 302 के तहत फांसी का प्रावधान हमेशा से है। इसके अलावा इस तरफ़ भी ध्यान दीजिए कि फांसी जैसी सज़ा से बचने के लिए अपराधी, अपराध के बाद सभी सुबूत मिटाने की गरज से पीड़िता की हत्या करने पर आमादा होगा। पिछले काफी समय से ये देखने में मिल रहा है कि बलात्कारी पीड़िता को ज़िंदा नहीं छोड़ना चाहता और बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दे रहा है। अभी हाल की हैदराबाद की घटना भी इसी तरफ संकेत करती है, जहां बलात्कारियों ने राज़ खुल जाने के डर से पीड़िता की न सिर्फ हत्या की, बल्कि केरोसिन डालकर शव भी जला दिया ताकि कोई पहचान न हो सके। 

इसे पढ़ें : हैदराबाद : वेटनरी डॉक्टर की हत्या से हर कोई दहला, निर्भया कांड याद आया 

ऐसे में कोई उत्तेजित होकर पूछ सकता है कि आपके साथ ऐसा गुजरे तो आप क्या करेंगे? आपकी बहन-बेटी के साथ ऐसा हो तो क्या तब भी आप संयम, सभ्यता का राग अलापेंगे? फांसी का विरोध करेंगे। इसका जवाब होगा कि ऐसा बिल्कुल हो सकता है कि अपने साथ घटना घटने पर हम भी उसी आक्रोश, गुस्से के साथ अपराधी को खुद सज़ा देने पर उतारू हो जाएं या तुरंत फांसी की मांग करें, लेकिन यह एक व्यक्ति के तौर पर होगा। एक व्यक्ति के तौर पर हम ऐसे गुस्से या व्यवहार का प्रदर्शन कर सकते हैं, ये हमारी एक मानवीय कमज़ोरी है, लेकिन एक राज्य के तौर पर एक सरकार के तौर पर ऐसी बातें करना बेमानी है। आपको मालूम होना चाहिए कि किसी भी अपराध का मामला राज्य बनाम एक्स, वाई, जेड होता है। यहां व्यक्ति नहीं है। हमारी तरफ़ से न्याय के लिए राज्य हमारा मुकदमा लड़ता है।

और राज्य का ही एक स्वायत्त अंग न्यायपालिका हमारे लिए न्याय सुनिश्चित करती है। इसलिए क्षणिक आवेश या आवेग में एक व्यक्ति के तौर पर हम ऐसी बातें कर सकते हैं लेकिन एक ज़िम्मेदार जनप्रतिनिधि, शासक या सरकार के तौर पर नहीं। लेकिन अफ़सोस आज ऐसा भी हो रहा है। संसद के भीतर हमारे सांसद मॉब लिंचिंग तक की बात कर रहे हैं और अन्य सांसद तालियां बजा रहे हैं। ये बहुत भयावह स्थिति है। इससे बचिए, वरना पता चलेगा कि आज जिस तरह गाय और बच्चा चोरी के नाम पर मॉब लिंचिंग कर निर्दोंषों को मारा जा रहा है, कल बलात्कार या छेड़छाड़ के नाम पर भी ऐसा होने लगेगा। जो लोग ऐसे मामलों में इस्लामी देशों ख़ासकर सऊदी अरब का उदाहरण देते हैं, उन्हें भी वहां का समाज और पूरी व्यवस्था को जान लेना चाहिए। 

इसलिए हमारे सामने आज यह सवाल नहीं होना चाहिए कि कैसे सुरक्षित होंगी बेटियां? बल्कि यह सवाल होना चाहिए कि कैसे बनेगा नया पुरुष! जो पिता, पति और पुत्र से अलग एक साथी की तरह महिला के साथ हो। कहा जाता है कि महिला का पूरा जीवन तीन 'प' के बीच गुजर जाता है। ये तीन 'प' यही पिता, पति और पुत्र हैं, जिन्हें पालक, मुखिया, मालिक या स्वामी की पदवी और दर्जा दिया जाता रहा है। मां, पत्नी और बेटी के संबंध में सारे फ़ैसले लेने का सार्वाधिकार इन्हें प्राप्त है और न मानने पर ऑनर किलिंग का भी। इसी को पितृसत्ता या पुरुषवाद कहते हैं। जिसमें हमारे यहां ब्राह्रणवाद और सामंतवाद भी जुड़ा है। इसलिए स्थितियां गंभीर होती जा रही हैं। अब तो इससे पोर्न इंडस्ट्री भी जुड़ गई है। जिसके ख़रीददार भी यही पुरुष हैं। तभी आप देख रहे होंगे कि अब तो बलात्कार के साथ अपराधी बाकायदा उसका वीडियो भी बनाते हैं। बताया जा रहा है कि हैदराबाद की घटना के बाद भी पोर्न साइट पर पीड़िता का नाम सबसे ज़्यादा सर्च किया गया। 

इसलिए सवाल और सोच की दिशा बदलनी होगी। सुरक्षा ज़रूरी है लेकिन यह भी ध्यान रहे कि महिलाओं के लिए और ज़्यादा सुरक्षा का एक मतलब हमारे समाज में महिलाओं पर और ज़्यादा पाबंदियां, ज़्यादा प्रतिबंध भी है। जैसे महिलाओं को घर में ही रहने का दबाव, बाहर से जल्दी लौटने का दबाव। आपने देखा ही कि किस तरह इसी सुरक्षा के नाम पर महिला हॉस्टलों में शाम होते ही 'कर्फ्यू' लगा दिया जाता है। उन्हें बाहर घूमना तो दूर देर शाम-रात में लाइब्रेरी तक जाने की इजाज़त नहीं है। इसी के ख़िलाफ़ 'पिंजरा तोड़' जैसे अभियान शुरू हुए। रात में सड़क पर क्लेम करने के भी अभियान शुरू हुए। ये महिला आज़ादी की जद्दोजहद है, जिसे सुरक्षा के नाम पर लगातार सीमित करने की कोशिश की जा रही है। 

और ये सुरक्षा भी कब तक और कहां तक? क्योंकि अपराध के आँकड़े तो कोई और ही कहानी कहते हैं। 

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो एनसीआरबी के नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक देश भर में 2015 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 3,29,243 मामले दर्ज किए गए थे। 2016 में 3,38,954 और वर्ष 2017 में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के 3,59,849 मामले दर्ज किए गए। इस तरह साल-दर-साल महिलाओं के खिलाफ अपराधों में लगातार तीसरे साल वृद्धि हुई है।

एनसीआरबी के ही मुताबिक हमारे देश में हर घंटे करीब चार बलात्कार यानी 15 से 20 मिनट के भीतर एक बलात्कार हो रहा है। 

और ये तो वो बलात्कार हैं जो रिपोर्ट हो रहे हैं, ऐसे कितने बलात्कार हैं जिनकी रिपोर्ट ही नहीं लिखी जाती। और आपको ये जानना चाहिए कि तमाम आंकड़ों के अनुसार बलात्कार के करीब 95 फीसद मामलों में परिवार जन और परिचित लोग ही शामिल होते हैं। अब इसे कैसे रोकिएगा? किस-किसको फांसी दीजिएगा, किस-किसकी लिंचिंग कीजिएगा।

इसके लिए तो एक नयी सोच बनानी होगी, नई संस्कृति। नया समाज। एक ऐसा नया पुरुष जो महिला का साथी हो। न ज़्यादा न कम। बराबर-बराबर। क्योंकि बलात्कार के पीछे हमारे समाज में गैरबराबरी भी एक बड़ी समस्या है। स्त्री-पुरुष के बीच गैरबराबरी। जिसकी जड़े पितृसत्ता में ही हैं। 

और ये सब होगा कैसे? इसके लिए परिवार से लेकर समाज तक की सभी संस्थाओं और सरकार को अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी। 

सरकार के तौर पर उसकी संस्थाओं, एजेंसियों जैसे पुलिस को ज़्यादा संवेदनशील बनाना होगा ताकि वो शिकायत पर तुरंत कार्रवाई करे, जज और अदालतों की संख्या बढ़ाना ताकि जल्द न्याय मिल सके। 

आपको बता दें कि हमारे देश में कानून की कमी नहीं है, बल्कि उसके इंपलिमेंट (क्रियान्वयन) की कमी है। 2012 के निर्भया कांड के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमेटी ने कानून के भीतर जो कुछ कमियां थी, उन्हें भी दुरुस्त करने का प्रयास किया। इसी के तहत हमारी बच्चियों के लिए पॉक्सो कानून मिला। जिसमें नाबालिग बच्ची से बलात्कार में फांसी तक की सज़ा का प्रावधान है। जीरो एफआईआर की भी व्यवस्था की गई जिसमें अपराध कहीं भी हुआ है लेकिन पीड़िता कहीं भी कभी भी एफआईआर दर्ज करा सकती है। उसे वारदात तो फलां थाना क्षेत्र या दूसरे गांव-शहर में हुई है ऐसा करके नहीं टरकाया जा सकता। पुलिस को एफआईआर दर्ज करनी ही होगी। अपनी ज़िम्मेदारी लेनी ही होगी। इसी तरह जस्टिस वर्मा कमेटी ने कई सिफारिशें कीं जो कानून तो बन गईं लेकिन अमल में नहीं लाई जातीं।

तेलंगाना के केस में ही देखिए कि किस तरह पुलिस ने मामला एक थाने से दूसरे थाने का बताकर एफआईआर में देर की। इसके अलावा पुलिस कभी भी पीड़िता के प्रति संवेदशील नहीं दिखती। कोई महिला थाने में अपनी शिकायत लेकर जाए तो पहले उससे ही तरह-तरह के सवाल किए जाते हैं कि वो अकेले क्यों घूम रही थी। या किसके साथ घूम रही थी। इतनी रात गए क्यों जा रही थी, आ रही थी। ऐसे कपड़े क्यों पहने इत्यादि। ऐसी ही हमारे समाज की सोच है। अभी आपने देखा कि संसद मार्ग पर धरना दे रही एक अकेली लड़की के साथ भी पुलिस वालों ने किस तरह की ज़्यादती की। पुलिस वालों का ऐसा व्यवहार आम होता जा रहा है। इतना ही नहीं पुलिसकर्मियों द्वारा भी बलात्कार और यौन उत्पीड़न की ख़बरें बार-बार मिलती हैं। आज ही ओडिशा के पुरी में एक पुलिसवाले के अपने साथी के साथ एक महिला से बलात्कार की ख़बर है।

इसे पढ़ें : पुरी : पुलिसकर्मी ने किया महिला से दुराचार, आधी आबादी किससे लगाए सुरक्षा की गुहार! 

दरअसल ये पुलिसवाले भी इसी समाज से आते हैं। इसलिए फिर बात वहीं समाज की ज़िम्मेदारी पर पहुंचती है, लेकिन फिलहाल इस कमी को बेहतर ट्रेनिंग, बेहतर काउंसलिंग और त्वरित कार्रवाई के लिए बेहतर सुविधा देकर दूर किया जा सकता है। इसलिए बार-बार पुलिस सुधार की बात उठती है। 

इसके अलावा सरकार के स्तर पर बेहतर सरकारी ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था, बेहतर स्ट्रीट लाइट की व्यवस्था ज़रूरी है। ताकि महिलाएं देर तक बेख़ौफ़ सफ़र कर सकें। ख़ासतौर पर महानगरों में जहां महिलाएं बड़ी  संख्या में काम करती हैं। इसके साथ ही कामकाजी महिलाओं के लिए नियोक्ता से ये सुनिश्चित कराना कि ऑड ऑवर देर शाम और बहुत सुबह की शिफ्ट में महिलाओं को घर से लाने और ले जाने की ज़िम्मेदारी वह ठीक से निभाए। महिला कर्मचारी को को कैब और सुरक्षा गार्ड उपलब्ध कराए। इसके लिए नियम हैं, लेकिन उसका बहुत कम पालन होता है।  

परिवार के भीतर अपने बेटे पर निगरानी रखना, अंकुश रखना, उन्हें महिलाओं की इज़्ज़त करना सिखाना, उनके साथ बराबरी का व्यवहार करना सिखाना, बताना कि महिला भी उन्हीं की तरह हाड़-मांस की बनी है, उसे भी थकान होती है, उसे भी नींद आती है। उसकी भी इच्छाएं और भावनाएं हैं। उसे भी तुम्हारी तरह आज़ादी चाहिए। 

समाज के तौर पर हमें लड़कियों के कपड़ों की बजाय अपनी सोच पर ध्यान देना होगा। बलात्कार के लिए लड़की को दोष देना बंद करना होगा। समझना होगा कि हमारे समाज में चार-छै महीने की दुधमुंही बच्ची से लेकर 80 साल की बूढ़ी दादी-नानी अम्मा के साथ भी बलात्कार हो रहा है। हमें बलात्कार को अन्य अपराधों की तरह देखना होगा, न कि पीड़िता की इज़्ज़त-बेइज़्ज़ती के तौर पर। जिसमें अपराध होने के बाद पीड़िता का ही नाम और चेहरा छुपाने का दबाव है और आरोपी खुलेआम घूमता रहता है।    

थोड़ा-थोड़ा सबको प्रयास करना होगा, कोई यह नहीं कह सकता कि मेरी ज़िम्मेदारी नहीं या मेरा कोई दोष नहीं। हालांकि सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी हमारी व्यवस्था, हमारी सरकार की ही है। और इस नयी सरकार की तो और भी क्योंकि इसने वादा किया था कि "बहुत हुआ नारी पर वार, अबकी बार...”

ये जो बलात्कार और बलात्कार की संस्कृति बढ़ रही है इसमें अपने तईं कुछ चीज़ों पर ग़ौर करना होगा। 

क्या आपने कभी सोचा कि सारी गालियां महिला विरोधी क्यों हैं? 

हम देखते हैं कि घर-बाहर हर जगह पुरुष बेधड़क मां-बहन की गाली देने लगे हैं, ये गाली किसे दे रहे हैं। ये मौखिक हिंसा या बलात्कार करने के बराबर है। और हम इसे सहजता से स्वीकार करते हैं। 

आपने सोचा कि सारे चुटकुले पत्नी विरोधी क्यों हैं?

और हम इन्हें बेहिचक अपने दोस्तों और परिवार तक के व्हाट्सएप ग्रुप में हर मिनट शेयर करते हैं और खुलकर रोज़ हंसते हैं।       

अब तो इसमें महिलाएं भी शामिल होती जा रही हैं। वे भी पुरुषों की देखा-देखी या उनकी होड़ में या उनकी तरह 'दबंग' दिखने के दबाव में मां-बहन की गालियां दे रही हैं। अपने ही विरुद्ध भेजे गए चुटकुलों पर हंस रही हैं। उसे शेयर कर रही हैं। हमें इस पर सोचना होगा।

हमें सोचना होगा कि किस तरह फिल्मों और विज्ञापनों में महिला को एक वस्तु की तरह दिखाना बंद हो। 

आपने देखा होगा कि पुरुषों के अंडर-बनियान के ऐड में भी महिलाएं इस्तेमाल की जा रही हैं। पुरुष एक परफ्यूम लगाता है और अचानक कई लड़कियां उससे लिपटने लगती हैं। विज्ञापन की दुनिया ने इतना सस्ता बना दिया है लड़कियों को। 

फिल्मों में गाने 'मुन्नी बदनाम' और 'शीला की जवानी' से लेकर "मैं तो तंदूरी मुर्गी हूं यार, गटक सैंया एल्कोहल से…” लिखे जा रहे हैं। अभी हास्य के नाम पर कई फूहड़ फिल्में आईं। अभी विरोध के बाद  एक आने वाली फिल्म 'पति, पत्नी और वो' से एक डायलॉग हटाया गया। 

फिल्म के जारी किए गए ट्रेलर में एक किरदार दूसरे से कहता है, 'बीवी से सेक्स मांग लें तो हम भिखारी। बीवी को सेक्स करने से मना कर दें, तो हम अत्याचारी। और किसी तरह जुगाड़ लगा के उससे सेक्स हासिल कर लें न तो बलात्कारी भी हम।'  इस डायलॉग पर आपत्ति के बाद इसे हटाना पड़ा। हमारी फिल्मों ऐसे संवाद ऐसे समय रखे जा रहे हैं जब हम कहते हैं कि हम इन मामलों में काफी संवेदशील हो रहे हैं। हम जानते हैं कि पत्नी से भी ज़बरदस्ती करना बलात्कार की श्रेणी में आता है। हम जानते हैं कि बिना सहमति के सेक्स वर्कर को भी सेक्स के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। हम जानते हैं कि महिला की न का मतलब न होता है। इस पर हम संवेदनसील फिल्म 'पिंक' भी बनाते हैं, लेकिन उसके बाद भी आज हमारी ज़्यादातर फिल्मों में शुरू से आख़िर तक हिंसा और अश्लीलता का बोलबाला है। हमारे बड़े-बड़े स्टार ऐसी फिल्में कर रहे हैं तो हमारे समाज पर तो असर पड़ेगा ही। फिल्में वाले तर्क देते हैं कि हम तो कहानी समाज से ले रहे हैं, समाज वाले कहते हैं कि बच्चे फिल्मों से बिगड़ रहे हैं। हक़ीक़त ये है कि दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। समाज, फिल्मों को और फिल्में समाज को। इसलिए दोनों अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते। 

और सच बात ये भी है कि हमारी संवेदनाएं भी किसी-किसी मामले में ही हिलती हैं, हमारे जज़्बात किसी-किसी मामले में ही उबाल खाते हैं। हमें किसी-किसी मामले में ही इस क़दर गुस्सा आता है कि हम सड़क पर उतर आते हैं। 2012 के निर्भया कांड के बाद हमें इस तरह का गुस्सा अब 2019 में आया। बीच में कुछ प्रगतिशील वर्ग और सामाजिक संगठनों ने ज़रूर इस मुद्दे पर आंदोलन जारी रखे लेकिन आमतौर पर समाज को ऐसा गुस्सा फिर नहीं आया जिसमें सड़क और संसद में उबाल दिखा। कहने का अर्थ साफ है कि हमारा गुस्सा, हमारा आक्रोश भी सलेक्टिव है। यह सही है कि तेलंगाना की घटना से हर किसी कोई दहल उठा, हमारे मन-मस्तिष्क पर बड़ी चोट हुई लेकिन आपको बता दूं कि उसी दिन उसी के साथ और उसके अगले दिनों में भी लगातार बलात्कार और हत्या की वारदातें सामने आईं। अगले ही दिन यूपी की दो दलित बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं रिपोर्ट की गईं।

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इसके अलावा रांची की, दिल्ली की, तमिलनाडु की तमाम ऐसी घटनाएं रिपोर्ट हुईं लेकिन हमने और किसी घटना पर कान नहीं धरे। आंसू नहीं बहाए। गुस्सा नहीं किया। सवाल नहीं पूछा। सज़ा की मांग नहीं की। 

वो हमीं हैं जो फूलन देवी ने जब कानून हाथ में लेकर अपने बलात्कारियों को सज़ा दी तो हम उन्हें डाकू कहने लगे। वो हमीं हैं जो सोनी सोरी के गुप्तांग में जब पुलिस वाले पत्थर डालते हैं तो चुप रहते हैं। और तब ही नहीं ऐसा करने के वाले पुलिस अफसर जब सम्मानित होते हैं तब भी चुप ही रहते हैं। बल्कि कहीं न कहीं उसकी वाह-वाही में शामिल हो जाते हैं।

 वो हमीं हैं जो हम अपने बेटों-पति-पिता के दुष्कर्मों पर पर्दा डालते हैं। बलात्कार के लिए हमें महिलाओं पर दोष डालना बंद करना होगा। 

हमे अपने दोहरे रवैये को बंद करना होगा। 

हमें अपना, अपनों का और अपने नेताओं को बचाव करना बंद करना होगा। आपने देखा कि जब उन्नाव के बीजेपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर बलात्कार का आरोप लगा तो कैसे उसे राजनीतिक आरोप बताकर खारिज करने की कोशिश की गई। उन्हीं के समर्थन में बीजेपी के कई नेता-मंत्री आगे आए। बैरिया, बलिया के बीजेपी विधायक सुरेंद्र सिंह ने यहां तक बयान दिया कि "तीन बच्चों की मां के साथ कोई रेप करता है क्या?” और हमने देखा कि एक वर्ग ने इसपर बिल्कुल चुप्पी साध ली। अंतत: हमने देखा कि पीड़िता की चाची और मौसी सड़क हादसे में मारी गईं और पीड़िता अस्पताल पहुंच गई। पीड़िता के परिवार ने इसे हत्याकांड बताया, लेकिन कोई हलचल नहीं हुई। 

हमने देखा कि कैसे बीजेपी नेता और पूर्व गृहमंत्री चिन्मयानंद के केस में पीड़िता को ही और पीड़ित किया जाने लगा और देश की सड़कों पर ऐसा कोई उबाल देखने को नहीं मिला जैसा आज देखने को मिल रहा है। आपने देखा कि कैसे जम्मू के कठुआ की मासूम बच्ची से बलात्कार और हत्या करने वालों के हक़ में तिरंगा यात्रा निकाली गई। आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट दायर करने से पुलिस को रोका गया। हमने कठुआ के बरअक्स सासाराम की बहस खड़ी की और इसी तरह हैदराबाद की घटना को भी हिन्दू-मुस्लिम बनाने की कोशिश की। हमने देखा कि कैसे क़ब्र से निकालकर लाशों से बलात्कार करने का ऐलान करने वाले बयानों को भी हम स्वीकार कर लेते हैं और ऐसे नेता को भी एक सूबे की गद्दी सौंप देते हैं।

हमने देखा कि कैसे आसाराम के समर्थन में आज भी उनके भक्त जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं, जगह-जगह कार्यक्रमों में तख्ती लिए खड़े रहते हैं कि 'बापू निर्दोष हैं।' इसी तरह राम रहीम के समर्थकों ने उसे सज़ा मिलने पर कैसा उत्पात मचाया था। कैसी हिंसा की थी।    

और अभी मी-टू आंदोलन की हमने कैसे हंसी उड़ाई। शिकायतकर्ता के ही चरित्र का कैसे हनन किया। कैसे उन्हें दोषी ठहरा दिया। तमाम हंगामे के बाद बड़ी मुश्किल से सरकार में शामिल मंत्री एम जे अकबर ने इस्तीफा दिया। लेकिन उनकी सेहत पर बहुत फर्क नहीं पड़ा। इसी तरह अन्य आरोपी भी आज अपने-अपने क्षेत्र में आराम से काम कर रहे हैं, जबकि उनके ऊपर आरोप लगाने वाली महिलाओं को काफी कुछ सहना पड़ा।

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इन सब बातों पर मैं कई साल से सोच रहा हूं। 2012 के निर्भया कांड के बाद से तो बहुत ज़्यादा। उस दौरान न्यूज़ चैनल में काम करते हुए और आंदोलन में शिरकत करते हुए मैंने इसी पर बहस की कि कैसे बनेगा नया पुरुष? 

इसी बहस में एक अहम बिंदु ये भी था कि क्या ‘पापा यानी पिता बदल रहे हैं?’ दरअसल यह एक सवाल है, जिसके जरिये अपने बदलते समाज का जायज़ा लिया जा सकता है। पड़ताल की जा सकती है कि क्या वाकई पुरुष अपनी वर्चस्ववादी भूमिका बदल रहा है? या ऐसे कौन से कारक हो सकते हैं जिससे वह इस बदलाव के लिए प्रेरित, प्रोत्साहित या मजबूर हो सकता है। 

जानकार कहते हैं कि नयी स्त्री ही नये पुरुष को जन्म देगी। हां, यह संभव है, लेकिन दूसरे अर्थों में यह समाज बदलने की पूरी ज़िम्मेदारी स्त्री के कंधों पर ही डाल देना जैसा भी है। साथ ही यह भी ज़ाहिर है कि फिलहाल की स्थिति में नयी स्त्री के निर्माण में कितनी बाधाएं-रुकावटें हैं। हमारा पुरुष प्रधान समाज उसे वह स्पेस देने को तैयार नहीं है, जो उसका (स्त्री का) अपना   है। 

महिलाओं के हित की बात करते समय, बलात्कार के ख़िलाफ़ लड़ते हुए, उनके बारे में सोचते समय कुछ अन्य आंकड़ों पर भी नज़र डाल लेनी चाहिए। क्योंकि जैसे पहले कहा कि महिला विरोधी अपराधों की जड़ में गैरबराबरी भी है। हमें देखना चाहिए कि आज भी कैसे बेटे की चाह में लिंग जांच और कन्या भ्रूण हत्या जारी है। इस सबके चलते आज पुरुषों के मुकाबले महिलाओं लिंग अनुपात प्रति 1000 पुरुष 940 महिलाएं है। साक्षरता में भी यानी लड़कियों को पढ़ाने में भेदभाव होता है। देश की कुल साक्षरता दर 74.04% है। इसमें पुरुषों की साक्षरता दर 82.14% है जबकि महिलाओं की साक्षरता दर 65.46 % है। 

इसी तरह महिलाओं में पोषण की कमी आदि पर भी ध्यान देना चाहिए। ये तथ्य है कि 70 प्रतिशत से अधिक भारतीय महिलाएं और बच्चों में पोषक तत्वों की गंभीर कमी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 60 हज़ार महिलाएं गर्भावस्था के दौरान अपनी जान गंवा देती हैं। 

हमारा संविधान हमें कुछ विशेष अधिकार देता है। महिलाओं को इसे जान लेना चाहिए, याद कर लेना चाहिए और पुरुषों को इसे गंभीरता से समझ लेना चाहिए।  

भारतीय संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, मौलिक कर्तव्य और दिशा-निर्देशक सिद्धांतों में लैंगिक समानता के सिद्धांत का उल्लेख किया गया है। संविधान न केवल महिलाओं की समानता को सुनिश्चित करता है, बल्कि राज्यों को महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक रवैया रखने का निर्देश देता है। 

संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन की सुरक्षा का दायित्व लेता है। 

अनुच्छेद 21 हर एक के लिए जीवन और स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार सुनश्चित करता है। इस अनुच्छेद के तहत उपलब्ध जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार में भोजन का अधिकार शामिल है।  

अनुच्छेद 39 (अ)- निर्देशक सिद्धांत-देश की शासन व्यवस्था का आधार है जो राज्य को आदेश देते हैं कि वह उसकी नीति से सुनिश्चित करे कि उसके नागरिक स्त्री और पुरुष दोनों को सामान रूप से आजीविका के लिए पार्याप्त साधन का अधिकार हो। संविधान का 73वां तथा 74वां संशोधन (1993) में पंचायत तथा नगर निकाय के चुनावों में महिला को आरक्षण प्रदान करने का प्रावधान किया गया है, जिससे स्थानीय स्तरों पर उनकी भागीदारी का मार्ग प्रशस्त होता है। लेकिन संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव आज तक लटका हुआ है। यह प्रस्ताव 2010 में राज्यसभा में पास हो गया लेकिन इसने लोकसभा में दम तोड़ दिया और अब अगर इसे लागू करना है तो एक बार फिर नये सिरे से इसे दोनों सदनों में लाकर पास कराना होगा। 

भारत की कुल आबादी की लगभग आधी आबादी महिलाएं हैं, इसके बावजूद महिलाओं की कार्य में भागीदारी दर पुरुषों (52 प्रतिशत) की तुलना में केवल 26 प्रतिशत है। औसत वेतन या मज़दूरी में भी बड़ा अंतर है। हमें इन सब स्थितियों को बदलना होगा और इसमें एक बड़ा भाग हमारी सरकार की ज़िम्मेदारी है और एक भाग समाज के जिम्मे है। दोनों मिलकर ज़िम्मेदारी निभाएंगे तब ही कुछ सकारात्मक नतीजा निकलेगा, वरना हम दूसरे-चौथे दिन इसी तरह तख़्तियां और मोमबत्ती लिए इंडिया गेट या जंतर मंतर पर खड़े होंगे। 

अंत में अपनी एक कविता का एक अंश जो इस बात को और साफ करता है:

परिचित महिला से बलात्कार होता है क्योंकि वो परिचित है
और अपरिचित महिला से बलात्कार होता है क्योंकि वो अपरिचित है

सेक्स के लिए नहीं किया जाता बलात्कार
बलात्कार के लिए किया जाता है सेक्स
ग़लती से नहीं होता बलात्कार
बलात्कार के लिए की जाती है ‘ग़लती’
अपने तन की प्यास बुझाने के लिए नहीं किया जाता है बलात्कार
दूसरे का तन झुलसा देने के लिए किया जाता है बलात्कार
चीख़ें सुनने के लिए किया जाता है बलात्कार
ज़ख़्म देने के लिए किया जाता है बलात्कार

बदले के लिए किया जाता है बलात्कार
हिंसा के लिए किया जाता है बलात्कार
घृणा के लिए किया जाता है बलात्कार
कभी अकेले, कभी संगठित

औरतों को घर के भीतर धकलने के लिए किया जाता है बलात्कार
औरतों को घर से निकालने के लिए किया जाता है बलात्कार

जाति की अस्मिता नष्ट करने के लिए किया जाता है बलात्कार
जाति का वर्चस्व स्थापित करने के लिए किया जाता है बलात्कार

ये बलात्कार नहीं
एक हथियार है

धर्म सत्ता
पितृसत्ता
धन की सत्ता
राजनीतिक सत्ता
हर तरह की सत्ता कायम रखने का
एक नायाब हथियार

औरत की योनि रौंदकर ही खड़े किए गए हैं बड़े-बड़े राज्य-साम्राज्य
औरत की योनि में ही गाड़ी गईं हैं विजय पताकाएं

विधायक जी...!
मंत्री जी...!
इसे आपसे बेहतर कौन जानता होगा

आप तो यह भी जानते होंगे मेरे सरकार
कि यहां सिर्फ़ ज़िंदा महिलाओं से ही नहीं
क़ब्र से निकालकर
लाशों से भी किया जाता है बलात्कार
कभी चोरी-छिपे
कभी ऐलानिया

...

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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