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नव-उदारवाद में जितनी तेजी से विकास के आंकड़े बढ़े उतनी ही तेजी से गरीबी भी बढ़ी

1992-93 से 2011-12 के दौरान ग्रामीण आबादी का अनुपात जो प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2,200 कैलोरी का इस्तेमाल भी नहीं कर पाता था, और जो ग्रामीण क्षेत्रों की गरीबी की परिभाषा है, उसमें 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 
गरीबी

पूंजीवादी विकास के तहत गरीबी में वृद्धि का चोली-दामन का रिश्ता है। मार्क्स ने इसकी पहले ही पहचान कर ली थी और इसे इस प्रकार से व्यक्त किया था कि: चूंकि धन का संचय एक ही धुरी पर होता है, इसलिए, उसी समय में, दुख, दासतापूर्ण श्रम, गुलामी, अज्ञानता, क्रूरता और नैतिक गिरावट का भी विपरीत धुरी पर संचय होता है, अर्थात उस वर्ग का पक्ष जो पूंजी के रूप में अपना उत्पाद तैयार करता है”(कैपिटल वॉल्यूम-एक); या फिर, "जैसे-जैसे उत्पादक पूंजी बढ़ती है...काम मांगने वाली बाजुओं का जंगल हमेशा के लिए गहन होता जाता है, जबकि  बाजूएँ पतली होती जाती हैं"(मजदूरी श्रम और पूंजी)।

भारतीय अनुभव इस तथ्य पर आधारित है। इस बात को आमतौर पर स्वीकार कर लिया जाता है कि नव-उदारवाद के दौरान तेजी से पूंजी संचय होता है और इसलिए जीडीपी का विकास तेजी से होता है। भारत के आर्थिक इतिहास में इस अवधि को पूरी तरह से एक नए युग की शुरुआत के रूप में देखा जाता है। दर्ज़ करने की बात ये है कि इस युग में ही निरंकुश गरीबी में वृद्धि देखी गई है। 1991 में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता जो एक सीमा तक पहुंच गई थी (हालांकि इसे किसी भी तरह पूरा कहना गलत होगा) जो पिछली आधी सदी में नव-उदारवाद निज़ाम के दौरान आई विनाशकारी गिरावट के बाद के वर्ष में उस स्तर पर फिर कभी नहीं पहुंची।

भोजन की खपत के आंकड़े और भी अधिक चौकाने वाले हैं। 1993-94 में, नव-उदारवादी नीतियों की शुरूआत के बाद के पहले वर्ष में जब राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSS) का व्यापक नमूना इकट्ठा किया गया था, उसमें पाया गया यहा कि ग्रामीण आबादी का अनुपात जो प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2,200 कैलोरी तक भी नहीं पहुंच सका पा रहा था वह 58 प्रतिशत हिस्सा था जिसे  ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी परिभाषा भी कहा जाता है, 2011-12 में हुए और पिछले साल उपलब्ध कराए गए डाटा में कुछ इसी तरह के एनएसएस सर्वेक्षण के डेटा उपलब्ध हैं जो बताता है कि निरंकुस्ग गरीबी का अनुपात बढ़कर 68 प्रतिशत हो गया है। शहरी क्षेत्रों में जहां गरीबी का बेंचमार्क प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2,100 कैलोरी की मात्रा है, इन्ही आंकड़ों के मुताबिक वह अब क्रमशः 57 और 65 प्रतिशत है। 

संक्षेप में कहा जाए तो नव-उदारवादी पूँजीवाद की इस अवधि के दौरान, इसकी सबसे तात्कालिक अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित गरीबी की सीमा में भयावह वृद्धि देखी गई है, और इस वृद्धि को भूख कहते हैं। यह गरीबी की आधिकारिक परिभाषा का आधार भी रहा, जब  सरकार के लिए शर्मनाक साबित होने लगा तो वह स्थिति को अधिक बेहतर दर्शाने के लिए सभी प्रकार की जुमलेबाजी अपनाने लगीं।

बढ़ती गरीबी के बारे में यह निष्कर्ष असमानता पर उपलब्ध साक्ष्यों और आंकड़ों से भी प्रमाणित होता है। पिकेटी और चंसेल, दो फ्रांसीसी अर्थशास्त्री, जिन्होंने आयकर डेटा से राष्ट्रीय आय में शीर्ष 1 प्रतिशत आबादी की पूंजी का अनुमान लगाया था, बताते हैं कि यह हिस्सा आयकर के बाद की अवधि में 2013 में सबसे अधिक, यानि 22 प्रतिशत था यह वह अवधि थी जब भारत में (1922 में) आयकर पेश किया गया था; जबकि 1982 में यह हिस्सा केवल 6 प्रतिशत था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लेखकों द्वारा इस्तेमाल किए गए मेथड या फोर्मूले सही नहीं होने के लिए आलोचना की गई, बात यह है कि इनके परिणाम को अनदेखा नहीं किया जा सकता हैं। नव-उदारवादी पूंजीवाद के तहत भारत में असमानता में वृद्धि इतनी तेज रही है कि इसके परिणामस्वरूप वास्तव में गरीबी में वृद्धि हुई है।

गरीबी में हुई इस वृद्धि का खास तंत्र ठीक वही है जिसे मार्क्स ने रेखांकित किया था, अर्थात् छोटे उत्पादकों, विशेष रूप से किसानों की कंगाली की प्रक्रिया, और जब वे कंगाल हो जाते हैं तो कई ऐसे किसान नौकरियों की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते हैं जिन नौकरियों की संख्या काफी कम होती हैं। प्रवासी, और यहां तक कि श्रम बल में प्राकृतिक वृद्धि का एक बड़ा हिस्सा जो नौकरियों को खोज पाने में असमर्थ है, श्रम की आरक्षित सेना (अक्सर पहले से नियोजित लोगों के साथ नौकरियों को साझा करने के अर्थ में) को प्रफुल्लित करता है यानि बेरोजगारों की सेना में बढ़ोतरी कर देता है; वे संगठित मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत को कम करते हैं, और इससे असमानता और गरीबी बढ़ती है।

यह एक ऐसा बिंदु है जिसके बारे में मैंने अतीत में भी लिखा है और इस पर अधिक रोशनी की जरूरत नहीं है। लेकिन इससे अक्सर दो गलत निष्कर्ष निकाल लिए जाते हैं। एक, यदि विकास गरीबी को पैदा करता है, तो विकास की समाप्ति या उसके कम होने से गरीबी कम होनी चाहिए और विपरीत प्रभाव पड़ना चाहिए था: यदि प्रक्रिया ए प्रक्रिया बी का कारण बनती है, तो प्रक्रिया ए की समाप्ति से बी का उन्मूलन होना चाहिए। यह अनुमान गलत है क्योंकि विकास और गरीबी पर गतिरोध के प्रभावों में एक विषमता है: यदि वृद्धि गरीबी को पैदा करती है या बढ़ाती है, तो विकास की समाप्ति गरीबी को और अधिक बढ़ा देगी। 

विकास दरिद्रता पैदा करता है, क्योंकि जैसा कि हमने देखा है, छोटे उत्पादक और किसान इस व्यवस्था में मुफ़लिसी का शिकार हो जाते है। यहां तक कि जब वे जमीन या अन्य परिसंपत्तियों के नुकसान के कारण पूंजी के आदिम संचय नहीं कर पाते हैं (यानी "स्टॉक" की शर्तों में), तो उनकी आय कम हो जाती हैं, यानी आदिम संचय के "प्रवाह" के शब्दों में। विकास की समाप्ति का मतलब यह कतई नहीं है कि किसान या छोटे उत्पादक की औसत आय बढ़ जाती है; इसके विपरीत, यह किसी अलग कारण से घटता है।

एक आसान सा उदाहरण लें। मान लीजिए कि पहले एक किसान की आय 100 रुपये थी, जबकि उसकी उपज का मूल्य (प्रति यूनिट कीमत से गुणा किया गया) 200 रुपये था और इनपुट लागत (जिसकी कटौती की जानी थी) 100 रुपये थी। लेकिन, उसकी वास्तविक आय को निचोड़ दिया गया क्योंकि स्वास्थ्य सेवा के निजीकरण ने उनके चिकित्सा खर्च को बहुत बढ़ा दिया था। अब, अगर विकास कम हो जाए या समाप्त हो जाए तो चिकित्सा व्यय में कमी नहीं आती है; लेकिन उसे इन हालात में अपनी उपज की उतनी कीमत नहीं मिलती है, जबकि इनपुट लागत  समान रहती है, जिससे उसकी आय कम हो जाती है। यदि उसकी आय पर यह हमला किसी  एक तंत्र के माध्यम से था, तो अब यह हमला प्रभावी रूप से पहले तंत्र के बंद हुए बिना दूसरे तंत्र के माध्यम से होता है, लेकिन सच यह है कि दोनों व्यवस्थाओं में हमला किसान की आय पर होता है।

इसी तरह, अगर किसी कामकाजी व्यक्ति की वास्तविक आय दो शर्तों की उपज है- एक कार्य दिवस पर काम करने के लिए वास्तविक आय और काम करने के लिए दिनों की संख्या की उपलब्धता, विकास से जुड़ी विसंगति मुख्य रूप से प्रति दिन की वास्तविक आय कम कर देती है क्योंकि कार्य दिवस कम होते हैं। विकास की समाप्ति प्रति कार्य दिवस में वास्तविक आय को बढ़ाती नहीं है, बल्कि उल्टे यह काम के दिनों की संख्या को कम करती है। इस प्रकार, यह तर्क सही है कि उच्च विकास के साथ निरंकुश गरीबी बढ़ती है, लेकिन विकास की समाप्ति से गरीबी और अधिक बढ़ती है जो आपस में जुड़ी हुई है।

आम तौर पर, कोई गैर-मंदी के कारण पैदा हुआ विसरण और मंदी के कारण पैदा हुए विसरण  के बीच अंतर कर सकता है। विकास के दौरान गरीबी का बढ़ना पहली प्रक्रिया के कारण है; मंदी के कारण गरीबी का बढ़ाना विकास की दूसरी प्रक्रिया के कारण है, जिसमें पहली प्रक्रिया गायब नहीं होती है। इसलिए, मंदी और ठहराव, विकास के चरण के दौरान पहले से ही संचालित होने वाले अतिरिक्त कारकों को बढ़ा देते हैं, जिससे गरीबी अधिक बढ़ जाती है।

यह हमें दूसरे प्रश्न पर लाता है। क्या विकास फिर से शुरू होने से गरीबी में कमी आएगी? यह प्रलोभन का जवाब तो हाँ ही है: यह ऐसा तभी कर पाएगा जब अतिरिक्त गरीबी पैदा करने वाले कारकों को दूर किया जाएगा, जो विकास के चरण में बुनियादी कारकों पर काम कर रहे होते हैं। और जब एक बार यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है, उदाहरण के लिए बेरोजगारी के माध्यम से पूर्व-मंदी के स्तर पर काम आ जाता है, तो विकास के साथ गरीबी की निरंकुश प्रक्रिया फिर से शुरू हो जाती है। 

हालांकि यह गलत है। आज नव-उदारवादी पूंजीवाद के सामने आया संकट केवल चक्रीय संकट नहीं है, बल्कि इस तथ्य से उत्पन्न एक संरचनात्मक या ढांचागत संकट है कि यह प्रणाली एक मृत-अंत में पहुँच गई है। गरीबी में वृद्धि से जो मंदी का कारण बना है, महामारी की शुरुआत से पहले भी, ऐसी ही स्थिति थी; इसमें सुधार तभी हो सकता है जब लोगों के हाथों में क्रय शक्ति होगी,  जिसका अर्थ है कि पुरानी किस्म की बढ़ोतरी संभव नहीं हो सकती।

जानकारी के दो हिस्से मंदी के कारण बढ़ी इस गरीबी की सीमा को संक्षेप में प्रस्तुत कर सकते हैं। मैंने 2011-12 में ग्रामीण और शहरी गरीबी से संबंधित आंकड़े उद्धृत किए थे। 2011-12 के बाद से, 2017-18 में फिर से एनएसएस के बड़े नमूने सर्वेक्षण का एक और दौर आया, जो बताता है कि 2011-12 और 2017-18 के बीच वास्तविक रूप से प्रति व्यक्ति ग्रामीण खपत में 9 प्रतिशत की गिरावट आई है। चूँकि वास्तविक रूप से प्रतिव्यक्ति ग्रामीण अमीरों का खपत पर व्यय घटने के बजाय बढ़ा होगा, इसलिए ग्रामीण आबादी के बड़े पैमाने पर घटने की सीमा और भी अधिक हो गई होगी। यह इतनी उल्लेखनीय खोज है कि सरकार को इससे उभरे अजीब सवालों के जवाब देने के बजाय उसने सार्वजनिक डोमेन से एनएसएस नमूना सर्वेक्षण के परिणामों को पूरी तरह से वापस लेने का फैसला किया।

दूसरी जानकारी पुरानी/क्रॉनिक बेरोजगारी से संबंधित है, जो कि महामारी के पहले भी 6 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। चूंकि भारत में बहुत सी बेरोजगारी अनियमित रोजगार का रूप ले लेती है, क्योंकि तथ्य ये है कि उपलब्ध नौकरियों की संख्या को कई लोगों के बीच साझा किया जाता है, जबकि पुरानी बेरोजगारी आमतौर पर कम होती है, लगभग 2 से 2.5 प्रतिशत। इस प्रकार 6 प्रतिशत की छलांग अत्यंत महत्वपूर्ण है और मंदी के कारण बढ़ती गरीबी की मात्रा को कम करके दिखाती है।  

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Rapid Growth Under Neo-liberalism Accompanied by Increase in Poverty

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