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लेबर कोड ऑन इंडस्ट्रियल रिलेशंस बिल पर संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट बेहद सतही

हालांकि 44 श्रम कानूनों के बदले में मोदी सरकार जो चार संहिता लाना चाह रही है वे श्रमिक-विरोधी हैं, लेकिन इनमें से भी सबसे बुरा है औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक यानी लेबर कोड ऑन इंडस्ट्रियल रिलेशंस बिल।
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Image courtesy: Facebook

औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक 2015 (लेबर कोड ऑन इंडस्ट्रियल रिलेशंस बिल 2015) पर संसदीय स्थायी समिति ने लोकसभा अध्यक्ष को अपनी रिपोर्ट 23 अप्रैल 2020 को सौंप दी है। इसका ड्राफ्ट संसद में नवम्बर 2019 को पेश हुआ था। विपक्षी सांसदों द्वारा कड़े विरोध के चलते सरकार को इसे संसदीय स्थायी समिति को सुपुर्द करना पड़ा। अब रिपोर्ट आने के बाद इस बिल को पारित करने के लिए रास्ता साफ हो गया है।

हालांकि 44 श्रम कानूनों के बदले में मोदी सरकार जो चार संहिता लाना चाह रही है वे श्रमिक-विरोधी हैं, लेकिन इनमें से भी सबसे बुरा है लेबर कोड ऑन इंडस्ट्रियल रिलेशंस बिल।

देश के समस्त ट्रेड यूनियनों सहित प्रमुख विपक्षी दलों ने इसका विरोध किया और देशव्यापी हड़ताल भी की है। इससे बहुत गहरी खाई पैदा होगी क्योंकि ऐसा लगता है कि मोदी सरकार भारत में उस औद्योगिक संबंध व्यवस्था का संपूर्ण कायापलट करना चाहती है जो नेहरू युग से चल रही थी; वह एक ऐसी नई व्यवस्था लाना चाहती है जिसकी खासियत होगी ‘हायर ऐण्ड फायर’ तथा हड़ताल के अधिकार, सामूहिक सौदेबाज़ी (कलेक्टिव बारगेनिंग) और ट्रेड यूनियन अधिकारों में कटौती। देखें कि ऐसे विवादास्पद विधान की पड़ताल करने के मामले में संसदीय समिति ने क्या रुख दिखाया?

जहां तक संसदीय समिति व्यवस्था की बात है, भारतीय शासन-कला में कुछ ढोंगीपन तो है ही। बहुदलीय लोकतंत्र के सिद्धान्त को बनाए रखने और वैधानिक मामलों पर द्विदलीय और बहुदलीय आम सहमति तक पहुंचने की जरूरत को केंद्रित करते हुए, संसदीय समिति व्यवस्था इसलिए विकसित की गयी थी कि मसौदा कानूनों की बारीकी से जांच-पड़ताल हो, और यथासंभव विवादास्पद मुद्दों को हटाया जाए। पर यहां एक नाटकीय विरोधाभास सामने आता हैः यूएस और यूके की संसदीय समितियों से भिन्न, भारत की संसदीय समितियां इतनी शक्तिहीन हैं कि इनकी सिफारिशें बाध्यकारी ही नहीं हैं।

हाल का एक उदाहरण है- मज़दूरी संहिता (Wage code) के मामले में संसदीय समिति ने ढेर सारी सिफारिशें दी थीं पर मोदी सरकार ने उनमें से एक को भी स्वीकार नहीं किया। रिपोर्ट को कूड़ेदान के हवाले करते हुए सरकार ने दोनों सदनों में मज़दूरी संहिता को अमली जामा पहनाया, जबकि विपक्षी सदस्य उसका पुरजोर विरोध कर रहे थे।

कुछ सकारात्मक बातें, जो संसदीय समिति की सिफारिशों में हैं, वो हैं कि सरकार स्कीम कर्मचरियों, यानी आंगनवाड़ी या आशा कर्मियों व ई-कामर्स संस्थानों के डिलिवरी बॉयज़ व गिग वर्कर्स को श्रमिक माने, क्योंकि आज की तारीख़ में उन्हें कानूनन श्रमिक का दर्जा नहीं मिला है। पर इसके लिए कानून की आवश्यकता है, जिसको रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से उल्लेखित नहीं किया गया।

एक ऐसा कानून जो 100 जगहों पर परिभाषाओं और निर्णय लेने की प्रक्रिया को नौकरशाही द्वारा निर्मित किये जाने वाले नियमों के भरोसे छोड़ देता है, आखिर कैसा विधान है? इसको सर्वोच्च न्यायालय ने विधायिका द्वारा अपनी विधि-संबंधी जिम्मेदारी का परित्याग कहा है। प्रशायकीय कानून के मामलों को कार्यपालिका के जिम्मे छोड़ा नहीं जा सकता। यह इसलिये किया गया था कि प्रशासकीय तानाशाही से बचा जा सके। औद्योगिक संबंध संहिता ड्राफ्ट इस संवैधानिक सिद्धान्त पर ही चोट करता है। इसपर संसदीय समिति ने प्रश्न उठाया है। उसने यह भी कहा है कि कुछ ऐसी व्यंजनाएं ड्राफ्ट कोड बिल में 100 बार आती हैं जो अस्पष्ट हैं, उदाहरण के लिए ‘‘जैसा निर्दिष्ट किया जाए’’,‘‘जैसा निर्धारित किया जाए’’,‘‘जैसा समझा जा सकता है’’ और ‘‘जैसा कि नियत किया जाए’’, आदि। यह स्वागतयोग्य है कि संसदीय समिति ने इसपर ध्यान आकृष्ट किया। यह वैधानिक प्रकिया का माखौल बनाने वाली बात ही तो है। 

एक और महत्वपूर्ण सिफारिश की गई है कि वर्कर की एकीकृत परिभाषा हो, जिसमें सुपरवाइज़र सहित कुछ अफ़सर श्रेणी के लोगों को भी शामिल किया जाए; इस ड्राफ्ट में ‘श्रमिक’ व ‘कर्मचारी’ के बीच अंतर किया गया है। इसके कारण यह ख़तरा पैदा होता है कि ढेर सारे वैतनिक कर्मचारियों को कलेक्टिव बार्गेनिंग और यूनियन बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। सच्चाई तो यह है कि बैंक और टेलिकॉम जैसे बड़े औद्योगिक क्षेत्रों में मूल कामकाज ‘अफसरों’ द्वारा ही किया जाता है, जिनकी संख्या बाबुओं से कहीं अधिक होती है। इन्होंने बहुत सशक्त ऐसोसिएशन बनाए हैं, जो यूनियनों की भांति, अपने अधिकारों की रक्षा हेतु जुझारू संघर्ष संचालित करते हैं। आईटी वर्करों सहित ढेर सारे टेक वर्कर इस कुटिल विभाजन के चलते यूनियन बनाने के हक से वंचित हो जाएंगे। इसलिए, जो भी लोग काम करते हैं, यहां तक कि, वहां भी, जहां सीधे मालिक-श्रमिक संबंध नहीं होता, पर जहां पूंजी-श्रम संबंध होता है, जैसे कि ‘प्लैटफार्म वर्क’।

यह भी स्वागतयोग्य है कि रिपोर्ट ने निश्चित अवधि वाले ठेका रोजगार का विरोध किया है, जो संहिता विधेयक (Code Bill) में है और जिसे पिछले द्वार से मोदी सरकार ने एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से पहले ही लागू किया है।

रिपोर्ट के नकारात्मक बिंदू

रिपोर्ट प्राकृतिक आपदाओं के समय, जब काम नहीं होता, श्रमिकों को वेतन देने का विरोध करती है। क्योंकि इसका सीधा संबंध उस सरकारी आदेश से है जिसमें कहा गया है कि लॉकडाउन के समय श्रमिकों को वेतन भुगतान करना होगा, विपक्षी दलों ने इस सिफारिश पर अपना विरोध केंद्रित किया है। पर उन्होंने गौर नहीं किया कि बिल में इससे भी अधिक ख़तरनाक प्रावधान है कि श्रमिकों को हड़ताल पर जाने का अधिकार नहीं मिलेगा।

कोड बिल यह प्रस्तावित करता है कि समस्त उद्योगों में हर श्रेणी के श्रमिकों को हड़ताल की पूर्व-सूचना, यानी स्ट्राइक नोटिस देनी होगी। एक बार जब नोटिस दे दी गई तो औद्योगिक विवाद समझौते की प्रक्रिया (कन्सिलिएशन) में भेज दिया जाएगा। जबतक विवाद समझौते की प्रक्रिया के अंतर्गत होगा, श्रमिकों हड़ताल करने से वर्जित होंगे।

इससे भी आगे क्या है, देखिये! यदि श्रम अधिकारी द्वारा समझौता सफल नहीं हो पाता, तो विवाद स्वभावतः श्रम अदालत में पहुंचेगा। यहां यदि आदेश श्रमिक के हक में नहीं होता, तो वह उच्च न्यायालय जाएगा और फिर सर्वोच्च न्यायालय तक भी जाने को मजबूर हो सकता है।

कोड बिल के अनुसार जबतक विवाद किसी अदालत में है, श्रमिक हड़ताल नहीं कर सकेंगे। इस प्रक्रिया में एक दशक से अधिक भी लग सकता है, तो श्रमिक मुद्दा उठते ही हड़ताल पर जाने की जगह सालों इन्तेज़ार करेंगे। विरोध करना और खारिज करवाना तो दूर की बात, स्थायी समिति ने इसका जिक्र तक नहीं किया। यह सचमुच आश्चर्यजनक बात है। इस समिति में कई सदस्य विपक्षी दलों से हैं और लगभग सभी विपक्षी दलों का प्रतिनिधित्व भी समिति में है।

समिति की अध्यक्षता श्री भर्तृहरी महताब कर रहे थे, जो बीजू जनता दल से सांसद हैं। कुछ ऐसे सांसद, जो भाजपा के होते हुए भी काफी सक्षम हैं और जिनकी नीयत पर शक नहीं किया जा सकता, ने भाजपा में रहते हुए भी डिसेंट नोट लगाया है। तीन और सांसदों ने, जिनमें एक सीपीएम, एक सीपीआई और एक डीएमके से हैं, कई धाराओं पर डिसेंट नोट लगाये। पहले दो नेता तो ट्रेड यूनियन नेता भी हैं। यह काफी हैरत की बात है कि विधेयक में इतनी बड़ी बात-हड़ताल के हक़ का छीना जाना-उनकी नज़र में नहीं आया। इससे लगता है कि श्रम आंदोलन की व्यवहारिक बारीकियों को समझ पाने में ये नेता पूर्णतया अक्षम हैं।

अधिकतर लोगों को यह नहीं मालूम कि सभी उद्योगों में हड़ताल की नोटिस देना जरूरी नहीं है, केवल सार्वजनिक सेवाओं (पब्लिक युटिलिटीज़) के लिये यह अनिवार्य है। इसके बावजूद, श्रम विभाग और यहां तक कि श्रम अदालतें उन श्रमिकों की हड़ताल को गैरकानूनी करार देती हैं और प्रबंधन द्वारा गैरकानूनी बर्खास्तगी को सही ठहराते हैं, जो किसी बड़े उकसावे के चलते फ्लैश स्ट्राइक पर जाते हैं। चाहे वह चेन्नई की मदरसन सुमी कम्पनी हो या बंगलुरु में बिदादी स्थित टोयोटा कम्पनी, श्रम आंदोलन का यही दुखद इतिहास रहा। शायद यही कारण है कि स्थायी समिति के राजनेताओं ने इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा। अब श्रमिकों को वर्षों तक प्रतीक्षा करनी होगी कि हमारी ढीली-ढाली न्याय व्यवस्था उनके विवादों का निस्तारण कर सकें।

रिपोर्ट में कई और कमियां है जिनको श्री इलामारम करीम और श्री सुब्बारोयन ने चिह्नित किया है और डिसेंट नोट भी लगाया है। अपनी चूक को समझते हुए विपक्ष को एकताबद्ध होकर दोनों सदनों के पटल पर कोड पारित करते समय कड़ा विरोध कर कई आवश्यक संशोधन लाने चाहिये।

(लेखक श्रम मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)  

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