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मध्य एशिया में चीन कैसे कर रहा है खुद को संभावित खतरे से बचाने की तैयारी?

चीन ने मध्य एशियाई देशों में अपनी बढती उपस्थिति को संतुलित बनाए रखने को लेकर सचेत रहते हुए 1990 के दशक से ही रूस के साथ अपने संबंधों में सुधार के क्रम को बनाये रखा था, जबकि पाकिस्तान के साथ भी उसने अपने रणनीतिक संबंधों को कायम रखा है।
मध्य एशिया में चीन कैसे कर रहा है खुद को संभावित खतरे से बचाने की तैयारी?

वखान कॉरिडोर : पूर्वी अफगानिस्तान के बदख्शां प्रान्त में 295 किमी लंबी एवं 15 से 57 किमी चौड़ी जमीन की एक संकीर्ण पट्टी अफगानिस्तान को चीन से जोड़ते हुए ऐतिहासिक तौर पर रुसी मध्य एशिया और ब्रिटिश भारत के बीच एम् बफर के तौर पर ताजिकिस्तान के क्षेत्र से गुजरती है।

यूएस-चाइना इकोनॉमिक एंड सिक्यूरिटी रिव्यू कमीशन के हालिया अंक के सार-संकलन में द शंघाई कोऑपरेशन आर्गेनाईजेशन: अ टेस्टबेड फॉर चायनीज पॉवर प्रोजेक्शन शीर्षक में मध्य एशिया और इसके राजनीतिक आयामों पर चीनी सुरक्षा क़दमों को लेकर गहरी नजर बनाए हुए है ग्रेट गेम पर निगाह बनाए रखने वालों में हाल के वर्षों में, जिसमें खासतौर पर अमेरिकी विश्लेषकों के बीच में यह धारणा विकसित हुई है कि मध्य एशिया को चीन हड़पने में लगा है इसके विपरीत, यह रिपोर्ट इसका उलट दृष्टिकोण लेता है

वैसे यूएस-चाइना इकोनॉमिक एंड सिक्यूरिटी रिव्यू कमीशन, जिसका मुख्यालय वाशिंगटन डीसी में है जो कि संयुक्त राज्य सरकार का कांग्रेसनल आयोग है और जिसे अक्टूबर 2000 को विधायी जनादेश के तहत निगरानी, जांच एवं अमेरिका और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार और आर्थिक संबंधों को लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा वार्षिक रिपोर्ट के निहितार्थों को कांग्रेस के समक्ष पेश करने के लिए बनाया गया था इसके साथ ही साथ इसका काम जहाँ उपयुक्त हो, कांग्रेस को विधायी एवं प्रशासनिक कार्यवाई के लिए सिफारिशें मुहैय्या कराना है

इस अंक का संक्षिप्त विवरण नवम्बर के दूसरे सप्ताह में एक ऐसे समय में देखने को मिला जब अमेरिका-चीन संबंध 1970 के शुरूआती दशक के बाद से अपने समूचे इतिहास में सबसे निचले स्तर पर पहुँच गया था इसके बावजूद रोचक तथ्य यह है कि इसमें अतिशयोक्ति अथवा प्रचार से बचा गया रिपोर्ट का आकलन है कि बीजिंग ने तकरीबन एकल-दिमाग  के साथ अपने राष्ट्रीय सुरक्षा हितों की रक्षा के हिसाब से ग्रुपिंग को इस्तेमाल में लिया है और वह किसी भी भू-राजनीतिक एजेंडे का पालन नहीं कर रहा है

इस अंक के विवरण के निष्कर्षों को निम्नलिखित तौर पर संक्षेप में प्रस्तुत किया जा सकता है:

i) हाल के वर्षों में बीजिंग ने एससीओ के तत्वाधान में मध्य एशियाई देशों के साथ इस क्षेत्र में खुद को संभावित खतरों से महफूज रखने के लिए सुरक्षा सहयोग को बढ़ाया है बीजिंग एससीओ का इस्तेमाल अपनी क्षमता को इसकी सीमाओं के आगे तक प्रोजेक्ट करने के लिए कर रहा है 

ii) एससीओ सैन्य अभ्यास चीनी सशस्त्र बलों के लिए दूसरे देशों में एयर-ग्राउंड कॉम्बैट ऑपरेशंस का अभ्यास करने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है, जिसमें लंबी दूरी की तैयारी, आतंकवाद निरोधक मिशन, स्थिरता रखरखाव ऑपरेशन एवं पारंपरिक युद्ध सहित कई अभियान शामिल हैं।

iii) बीजिंग ने मध्य एशिया में अपनी रक्षात्मक परिधि का विस्तार करने के मकसद से एससीओ का उपयोग किया है।

iv) रूस और चीन ने मध्य एशिया से अमेरिकी सैन्य ठिकानों को बेदखल करने के लिए एससीओ का इस्तेमाल में लाया है।

v) एससीओ सदस्यों के तौर पर भारत और पाकिस्तान को इसमें शामिल किये जाने के बाद से समन्वित तौर पर अमेरिकी हितों को चुनौती देने की ग्रुपिंग की क्षमता पहले से कम हो सकती है; एवं,

vi) बीजिंग की अस्थिरता और आतंकवाद को लेकर आशंकाएं बढ़ चुकी हैं, जिसने इसे अफगान स्थिति के मद्देनजर एससीओ के साथ सहयोग करने के लिए प्रेरित किया है।

2016 के बाद से चीन के सशस्त्र बलों के हिस्से के तौर पर पीपुल्स आर्म्ड पुलिस ने “ताजीकिस्तान के गोर्नो-बदाख्शन प्रान्त में अफगान और ताजिक बलों के लिए गश्त करने वाली संयुक्त आतंकवाद निरोधी सीमा के लिए एक चौकी का संचालन कर रखा है। हालांकि यह ताजिकिस्तान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और चीन की सीमा सुरक्षा पर चतुर्भुज सहयोग और समन्वय तंत्र के चलते उपजा है।

स्पष्टतया उपरोक्त निष्कर्षों के कारण ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जिससे भूचाल की स्थिति उत्पन्न हो जाये यह तथ्य सर्व-विदित है कि एससीओ को मुख्य तौर पर आतंकवाद और अस्थिरता से निपटने के घोषित उद्देश्यों के साथ एक सुरक्षा संगठन के रूप में निर्मित किया गया था। इसका मूल उद्देश्य सदस्य राज्यों के बीच राजनीतिक संबंधों को मजबूत करना, सीमा सुरक्षा को बढ़ावा देना, खुफिया जानकारी आपस में साझा करना एवं आतंकवादी खतरों से मुकाबला करने को लेकर था। बाद के वर्षों के दौरान एससीओ ने भी आर्थिक सहयोग के विस्तार पर ध्यान देना शुरू कर दिया था, लेकिन अब तक इसमें कोई उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं हो सकी है।

जो उभर कर सामने आ रहा है, उसमें साझा नैरेटिव यह बन रहा है कि मध्य एशिया में रूसी सुरक्षा की मौजूदगी पर चीन अपना प्रभाव जमा रहा है, जिसका कोई अनुभवजन्य प्रमाण नहीं है। रूस अभी भी एकमात्र अतिरिक्त-क्षेत्रीय शक्ति है जिसने मध्य एशिया (ताजिकिस्तान में) में अपना एक सैन्य ठिकाना बना रखा है, और इसका एक सीएसटीओ आधार (किर्गिस्तान में) भी है।

रूस की संवेदनशीलता ऐतिहासिक है। इस क्षेत्र में रूसी और चीनी छाया ऐतिहासिक रूप से अधिव्यापित हैं। मध्य एशिया में रुसी आक्रमण का इतिहास 17 वीं शताब्दी में वापस ले जाता है। मध्य एशिया पर पहली रूस-चीन संधि 1689 में जाकर संपन्न हुई थी, जिसके फलस्वरूप रूस को वस्तुओं के व्यापार करने (जैसे कि चाय, रेशम, चीनी मिट्टी के बर्तन इत्यादि) के लिए चीन में प्रवेश करने की अनुमति मिल गई थी  जिसका यूरोप में जबर्दस्त बाजार बना हुआ था, जबकि इसके बदले में चीन को मध्य एवं अंदरूनी एशियाई क्षेत्र में अतिरिक्त इलाके हासिल करने में सफलता मिली थी। 

जारशाही रूस के मध्य एशिया में वृद्धिशील अधिग्रहण का क्रम 18वीं शताब्दी से लगातार बना हुआ था और 19वीं शताब्दी तक यह क्षेत्र रूसी नियंत्रण में आ चुका था। 1868 में जारशाही रूस ने ताशकंद को मध्य एशियाई क्षेत्र में अपनी 'राजधानी' बना दिया था। जबकि चीन ने शिनजियांग में लगभग एक सदी पहले अपनी पैठ बनाकर इस मामले में वह रूस से आगे था।

वास्तव में देखें तो विदेशी शक्तियों से दंगों और विद्रोह एवं प्रतिरोध का क्रम 19वीं शताब्दी से होते हुए 20वीं शताब्दी तक यह एशियाई क्षेत्र में यह निरंतर जारी रहा था। इस बीच ग्रेट ब्रिटेन भी 19वीं शताब्दी के दौरान क्षितिज पर नजर आने लगा था जब उसने भारत के विशेष तौर पर रूस से बचाव के लिए, एक बफर जोन बनाने के प्रयासों में तिब्बत और अफगानिस्तान में अपने विस्तार के अलावा नेपाल, भूटान और सिक्किम के क्षेत्रों में भी अपने विस्तार की कोशिशें जारी रखी हुई थीं।

इन गतिविधियों को बाद में जाकर ग्रेट गेम के तौर पर संदर्भित किया गया था। यह ग्रेट गेम 20वीं शताब्दी में 1917 में बोल्शेविक क्रांति और सोवियत मध्य एशिया के उद्भव के साथ सिकुड़ गया। मध्य एशिया के उपर एक लौह आवरण इस कदर आच्छादित हो चुका था कि 1988 में सोवियत संघ के खुद से विलुप्त होने से बमुश्किल तीन वर्ष पूर्व ही मास्को ने अपवादस्वरूप अपने बेहद करीबी दोस्त भारत को ताशकंद में वाणिज्य दूतावास खोलने की अनुमति प्रदान करने का अवसर दिया था! कुलमिलाकर कहें तो सोवियत काल में चीन के लिए मध्य एशिया तक पहुँच बना पाना उसके बूते के बाहर की बात थी।

उपरोक्त पुनरावृत्ति को इस बात को ध्यान में रखने के लिए क्रमबद्ध किया गया है कि वर्तमान दौर में मध्य एशिया में रूस और चीन के सह-अस्तित्व की गहन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। चीन ने 1991 में नए-नए स्वतंत्र हो रहे मध्य एशियाई गणराज्यों के लिए राजनयिक मान्यता देने के मामले में काफी तेजी दिखाई थी और पांच ‘स्तानों’ में अपने दूतावासों का गठन कर डाला था।

बीजिंग को राज्य-से-राज्य संबंधों की आवश्यक कानूनी जरूरतों को मजबूती से स्थापित करने में मात्र कुछ ही वर्षों का समय लगा था - इस तथ्य के बावजूद कि नए ‘स्तानों में गवर्नेंस लायक संस्थाएं गठित करने का काम अभी कोसों दूर था। इसी के साथ एक समानांतर ट्रैक पर कजाखस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान के साथ सीमा विवाद को लेकर भी बातचीत का क्रम शुरू हो चुका था।

जिन चीनी राजनयिकों को इस क्षेत्र का कार्यभार सुपुर्द किया गया था, उन्होंने बेहद अल्पावधि में ही दिए गए कार्यभारों को हासिल कर लिया था। यदि पीछे मुड़कर देखें तो 1996 में राष्ट्रपति जियांग जेमिन द्वारा इस रंग-बिरंगे मध्य एशिया के दौरे, जो कि किसी भी चीनी राष्ट्रपति द्वारा इस क्षेत्र का पहला दौरा था, वह एक प्रकार से विजय अभियान जैसा था जिसके दौरान, अपने ही अंदाज में चीनी नेता द्वारा समूचे मैदानी इलाकों पर सद्भावना की पंखुड़ियों को बिखेरने का काम किया था। 

शुरुआत से ही बीजिंग ने चीन की राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास को ध्यान में रखते हुए मध्य एशियाई क्षेत्र पर अत्यधिक महत्व देने का काम किया था। इसने आतंकवाद, अलगाववाद (या विभाजन’) एवं धार्मिक आतंकवाद जैसी तीन ‘बुराइयों’ से जूझने के लिए इन ‘स्तानोंके साथ एक मजबूत साझेदारी की पेशी के निर्माण के कार्य से अपनी शुरुआत की थी।

इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि 1990 के दशक के माध्यम से मध्य एशिया में चीन के आर्थिक प्रभाव और भू-राजनीतिक हितों में भी लगातार अभिवृद्धि होती गई। हालांकि इस मामले में बीजिंग ने फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ाने को ही प्राथमिकता दी थी, जिसमें रुसी संवेदनशीलता का विशेष ध्यान रखा गया था, यह देखते हुए कि मास्को इसे अपने पारंपरिक प्रभाव के क्षेत्र के तौर पर देखता आया है।

अच्छी बात यह रही कि चीन और रूस के बीच में हितों का कोई बड़ा टकराव मौजूद नहीं था क्योंकि मध्य एशिया की सुरक्षा और स्थिरता को लेकर चीन और रूस के बीच की चिंता एक जैसी ही बनी हुई थी। मध्य एशियाई गणराज्यों (जो बाद में ‘शंघाई फाइव’ फोरम में शामिल गणराज्यों जिसमें चीन, रूस, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान एवं किर्गिज़स्तान थे) के साथ बीजिंग की अधिकांश कूटनीतिक पहल पड़ोसी रूसी देश की निगाहबानी में ही जारी थी, जिसने चीनी इरादों में पारदर्शिता मुहैय्या करा दी थी। बीजिंग ने कट्टरपंथी इस्लामी गुटों के साझा प्रतिरोध पर जारी होने वाले संयुक्त बयानों में उत्साहपूर्वक सहयोग किया।

चीन ने अपने प्रत्येक मध्य एशियाई गणतंत्र पड़ोसियों के साथ समन्यव स्थापित करने के साथ-साथ खुफिया जानकारी के साझाकरण और आतंकवाद विरोधी गतिविधियों में मध्य-एशिया में चीन-विरोधी उइघुर और कज़ाख तत्वों को अपने निशाने पर लिया था। मध्य एशियाई दृष्टिकोण से देखें तो चीनी मॉडल उनके लिए एक केन्द्रीय स्तर पर नियंत्रित मॉडल से एक बाजार अर्थव्यवस्था में सफलतापूर्वक संक्रमण के उदहारण के तौर पर था, जिसे मोटे तौर पर पूर्व सोवियत गणराज्यों द्वारा प्रक्षेपवक्र के तौर पर चुना गया था।

संभवतः मध्य एशियाई राजनीतिक कुलीनों ने भी इसे रूस और पश्चिम के खिलाफ एक उपयोगी तोड़ के तौर पर मानने के साथ-साथ एक संभावित निवेशक एवं कैस्पियन ऊर्जा संसाधनों के एक ग्राहक के तौर पर देखा। इन सबसे भी अधिक बीजिंग के साथ उनके संबंधों में उच्च अनुकूलता की एक वजह चीन के अन्य देशों के आंतरिक मसलों में हस्तक्षेप न करने के रुख – और मध्य एशियाई संदर्भ में मानवाधिकार, अधिनायकवाद के मुद्दों को लेकर इसके गैर-आदेशात्मक दृष्टिकोण इत्यादि से मजबूत हुआ है।

1990 के दशक के अंत तक, जो कि 2013 में बेल्ट एंड रोड पहल की शुरुआत से काफी पहले की बात है, जब चीन ने पश्चिमी कंपनियों को पीछे छोड़ते हुए कज़ाख के दो तेल के क्षेत्रों में लगभग 1 बिलियन डॉलर का निवेश कर दिया था। इस परिव्यय में अंततः कई गुना बढ़ोत्तरी करनी पड़ी थी क्योंकि ये फ़ील्ड्स विकसित कर लिए गए थे। बीजिंग की चाइना नेशनल पेट्रोलियम कॉरपोरेशन ने कज़ाकिस्तान से होते हुए चीन के उत्तर-पूर्व क्षेत्र में कज़ाख कैस्पियन तेल को पहुँचाने के लिए 2,500 मील लंबी पाइपलाइन बनाने पर विचार करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।

चीन ने सार्वजनिक तौर पर ईस्ट-वेस्ट सिल्क रोड एक बार फिर से शुरू करने को लेकर अपना समर्थन दिया है। कुल मिलाकर देखें तो चीन ने व्यवस्थित तौर पर मध्य एशिया में अपने स्वयं के आर्थिक और राजनीतिक दावेदारी को हासिल करने के लिए कदम उठाये थे। पहले से ही 2000 तक, पांच मध्य एशियाई गणराज्यों में से तीन का रूस के मुकाबले चीन के साथ कहीं अधिक व्यापार होने लगा था।

वहीँ दूसरी ओर चीन ने मध्य एशियाई देशों में अपनी बढती उपस्थिति को संतुलित बनाए रखने को लेकर सचेत रहते हुए 1990 के दशक से ही रूस के साथ अपने संबंधों में सुधार के क्रम को बनाये रखा था, जबकि पाकिस्तान के साथ भी उसने अपने रणनीतिक संबंधों बनाए रखा। चीन ने कभी भी पाकिस्तान के साथ अपने घनिष्ठ और मैत्रीपूर्ण संबंधों का लाभ उठाना बंद नहीं किया, क्योंकि पाकिस्तान से बेहतर संबंधों का अर्थ मध्य एशिया और शिनजियांग के उग्रवादी तत्वों सहित पाकिस्तानी धरती पर मौजूद कट्टरपंथी इस्लामी गुटों के खिलाफ एक बचाव के तौर पर था।

बाद के वर्षों में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं रही कि रूस ने भी इस क्षेत्र में सक्रिय चरमपंथी समूहों से सुरक्षा खतरों को बेअसर करने के मकसद से पाकिस्तान की मदद लेने के लिए चीनी अनुभव की नकल करनी शुरू कर दी है। चीन की पाकिस्तान को एससओ में शामिल कर लेने की उत्सुकता - और इस पर मिल रहे रुसी समर्थन – को इस तरह के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। अंततः इसने निश्चित तौर पर चीन, रूस और पाकिस्तान को एक ही पृष्ठ पर ला खड़ा कर दिया है, जिसमें अफगानिस्तान में तालिबान के साथ सामंजस्य बिठाने की अनिवार्य आवश्यकता एक प्रमुख खाके के तौर पर उनके साझे रुख को जाहिर करता है। 

साभार: इंडियन पंचलाइन

(लेख का दूसरा हिस्सा शीघ्र प्रकाशित होगा।)

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Return of Great Game in Post-Soviet Central Asia

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