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ईरान नाभिकीय सौदे में दोबारा प्राण फूंकना मुमकिन तो है पर यह आसान नहीं होगा

वाशिंगटन की मूर्खता सबसे कठोर परमाणु समझौते से बाहर निकलना था, जिस पर कोई देश भी सहमत हो सकता था। ईरान अभी भी उन पुरानी शर्तों में से अधिकांश को स्वीकार कर सकता है, लेकिन जो कुछ उन्नत क्षमताएं इसने विकसित की हैं, उसे ठंडे बस्ते में डाल कर दोबारा शुरू करने की उसकी संभावनाएं खत्म हो जाएंगी।
Iran

ज्वाइंट कंप्रिहेंसिव प्लॉन ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) यानी ईरान नाभिकीय समझौते में फिर से नये प्राण फूंके जाने की संभावनाएं, इसके मुश्किल होने के बावजूद, बढ़ गयी हैं। वास्तव में यह हो तो काफी पहले हो सकता था, लेकिन बाइडेन प्रशासन की इसकी कोशिशों ने इस मामले में प्रगति नहीं होने दी कि ईरान से और रियायतें झटक ली जाएं, जो मूल समझौते से भी आगे तक जाती हों। ट्रम्प ने 2015 के ईरान समझौते से इस धारणा के आधार पर ही अमरीका को अलग किया था कि वह ईरान से, ओबामा प्रशासन ने जो समझौता हासिल किया था, उससे बेहतर सौदा कर के दिखा सकता है। अब आखिरकार,  इस सच्चाई का सामना होने पर कि ईरान न तो अपनी मिसाइल क्षमताओं को छोड़ने जा रहा है और न ही इस क्षेत्र के अपने सहयोगियों को छोड़ने जा रहा है। लगता है बाइडेन की समझ में आ गया है कि मूल समझौते पर फिर से लौट जाना ही अच्छा है।

ट्रम्प प्रशासन के इकतरफा तरीके से ईरान नाभिकीय समझौते को त्याग देने के बाद से, ईरान ने जिन पहले से उन्नत सेंट्रिफ्यूजों का उपयोग करना शुरू कर दिया है, उसके उन्हें भी हटाने की संभावना नजर नहीं आती है। दूसरी ओर, ईरान को भी इसका कोई आश्वासन हासिल नहीं होने जा रहा है कि 2024 के अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव के बाद, भविष्य मेें आने वाला कोई ट्रम्प जैसा नेता फिर से इस समझौते का त्याग नहीं देगा। अब तो हम सब को एक ऐसे ही युग में जीना होगा, जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य तथा आर्थिक शक्ति होते हुए भी अमरीका, अब अंतर्राष्ट्रीय संधि करने में समर्थ ही नहीं रह गया है–यह चाहे विश्व ताप में बढ़ोतरी का मुद्दा हो या फिर ईरान के साथ नाभिकीय समझौते का।

उक्त समझौते के अंतर्गत ईरान द्वारा मंजूर की गयीं शर्तें, अपने नाभिकीय कार्यक्रम पर किसी भी देश द्वारा स्वीकार की गयी सबसे बड़ी शर्तें होने के बावजूद, इस समझौते से नाता तोड़ने की इस मूर्खता में, वाशिंगटन कोई अकेला  नहीं था। इसके लिए उसे इस्राइल ने अगर उकसाया नहीं भी हो तो कोंचा जरूर था। इस्राइल चाहता था कि अमरीका वह कर दिखाए जो वह खुद नहीं कर पाया था यानी ईरान के नाभिकीय शस्त्र विकसित करने की संभावनाओं को ही खत्म करा दे और उसकी मिसाइल क्षमताओं को भी खत्म करा दे। और चूंकि नाभिकीय शस्त्रों या मिसाइलों में काम आने वाली ज्यादातर प्रौद्योगिकियां दुहरे उपयोग वाली प्रौद्योगिकियां होती हैं, इसने ईरान को एक दूसरे दर्जे की औद्योगिक शक्ति की ही हैसियत तक सीमित कर के रख दिया होता।

कुछ इस्राइली सैन्य विशेषज्ञों ने अब सार्वजनिक रूप से यह माना है कि इस्राइल का अमरीका से ईरान नाभिकीय सौदे से अलग होने की मांग करना, एक बहुत भारी गलती थी और इस्राइल के लिए सबसे अच्छा यही होगा कि वह इस समझौते को दोबारा बहाल कराने के लिए काम करे। अंतर्राष्ट्रीय  मामलों संबंधित एक प्रमुख अमरीकी वैबसाइट, रिस्पांसिबल स्टेटक्राफ्ट द्वारा 2021 की जनवरी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में, बेन आर्मबस्टर कहते हैं, ‘इस्राइल की सैन्य खुफिया एजेंसी के प्रमुख, मेजर जनरल अहरोन हलीवा ने कहा है कि ईरान नाभिकीय समझौते का पुनर्जीवित किया जाना इस्राइल के लिए, इस समझौते को पूरी तरह से टूट जाने देने से कहीं बेहतर होगा।’

अगर ईरान, अमरीका तथा इस्राइल के सामने झुक गया होता, तो पश्चिमी ताकतों को पश्चिम एशिया पर पूर्ण नियंत्रण हासिल हो गया होता और इसमें ईरान के तेल पर नियंत्रण भी शमिल था। यह तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति, कार्टर द्वारा 1980 में की गयी घोषणा–जिसे कार्टर सिद्घांत के नाम से जाना जाता है–के अनुसार ही होता। यह सिद्घांत एलान करता है कि फारस की खाड़ी का क्षेत्र, अमरीका के महत्वपूर्ण हितों का क्षेत्र है और अमरीका इस क्षेत्र में, किसी भी बाहरी शक्ति का कोई हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करेगा। यह सिद्घांत 1823 के नवऔपनिवेशिक मुनरो सिद्घांत के जैसा ही था, जिसमें इसका एलान किया गया था कि दक्षिणी अमरीका में, जिसे अमरीका अपना पिछवाड़ा मानता है, और किसी भी बाहरी ताकत को किसी भी तरह की सैन्य उपस्थिति की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।

ट्रम्प ने नाभकीय समझौते से अलग होने के बाद, ईरान के खिलाफ दोबारा जो 1000 पाबंदियां थोप दी थीं, उनसे ईरान को भारी आर्थिक धक्का लगा था। इसके पूरक के तौर पर ईरान के नाभिकीय बुनियादी ढांचे पर उसने चोरी-छुपे हमले भी किए गए–उसके नाभिकीय प्रतिष्ठानों में तोड़-फोड़ की कार्रवाइयां की गयीं और ईरान के नाभिकीय वैज्ञानिकों की हत्याएं की गयीं। इसी क्रम में बगदाद में एक अमरीकी ड्रोन हमले में, ईरान की कुद्स सेना के मुखिया, जनरल कासिम सुलेमानी तथा इराक के जनरल, मोहनदीस की हत्या कर दी गयी। ईरान का जवाब भी उतना ही प्रबल था और उसने अपनी मिसाइलों से इस क्षेत्र में अमरीका के सैन्य अड्डों पर हमले किए। इसके साथ ही ईरान ने लेबनान में हिज्बुल्लाह तथा सीरिया की सरकारी सेनाओं की मदद करना जारी रखा और ईराक पर उसका प्रभाव अब भी बना हुआ है। अमरीकी सैन्य अड्डों पर हमलों में आहत होने वालों की संख्या कम से कम रखने के लिए, हमले से पहले अमरीका को चेताने के बाद किए गए इन हमलों के जरिए ईरान ने दिखा दिया कि उसकी ताजातरीन मिसाइलों के सामने, अमरीका की कथित मिसाइलविरोधी बैटरियां बेकार ही हैं। ईरान ने जहां इस जवाबी हमले में अमरीकियों की कोई मौतें न होना सुनिश्चित किया, उसी प्रकार उसने अमरीकी नौसैनिक पोतों पर भी प्रहार नहीं किया, जिससे अमरीका के साथ युद्घ की नौबत नहीं आए। फिर भी, अपनी बेहतर युद्घ क्षमताओं के प्रदर्शन के जरिए, ईरान ने यह तो दिखा ही दिया कि इस क्षेत्र में अमरीका की रणनीतिक परिसंपत्तियां तथा इस्राइल, अब उसकी मिसाइलों की मार के दायरे में हैं और कथित मिसाइलविरोधी बैटरियां इन परिसंपत्तियों की हिफाजत करने में असमर्थ हैं।

ईरान के असमान-शक्ति युद्घ की क्षमताओं के विकास और अपने विरोधियों पर प्रहार करने के लिए मिसाइलों, ड्रोनों तथा छोटी नौसैनिक नौका का इस्तेमाल करने की उसकी सामथ्र्य की चर्चा, हम पहले ही कर चुके हैं। वह हिज्बुल्लाह को और यमन में हूथियों या अंसारुल्लाह को यह प्रौद्योगिकी मुहैया करा रहा है, जिसने इस्राइल तथा साऊदी अरब से मुकाबले में उनकी मदद की है। हूथियों ने दिखाया है कि साऊदी अरब तथा यूएई की बेहतर सैन्य ताकत के सामने भले ही उन्हें भारी नुकसान उठाने पड़ रहे हों, उनके पास जवाबी प्रहार करने के लिए मिसाइली ताकत मौजूद है। यमन के मामले में, हूथी हमलों की चोट आम नागरिकों पर पडऩे की दलील खोखली लगती है क्योंकि वहां आम नागरिकों पर साउदियों तथा अमीरातियों ने जैसे भीषण हमले किए हैं, वैसे वहां पिछले बहुत अर्से में और किसी ने नहीं किए होंगे। यमन में बुनियादी सुविधाएं ध्वस्त हो गयी हैं। वहां हैजे की महामारी फैल गयी है। वहां पीने के लिए साफ-सुरक्षित पानी नहीं है। और साऊदी तथा अमीराती सेनाओं की लगातार बमबारी ने तमाम स्कूलों, कालेजों तथा अस्पतालों को तबाह कर दिया है। इन हालात में यमन के पास इसके सिवा और कोई चारा ही नहीं रह गया है कि जवाब में साऊदी तथा अमीराती प्रतिष्ठानों पर, उनकी तेल रिफाइनरियों तथा हवाई अड्डों पर इस उम्मीद में चोट करे कि यह शायद उन्हें इसके लिए मजबूर कर देगा कि शांति वार्ताएं करें तथा यमन युद्घ का समाधान निकालें।

जहां तक ईरान नाभिकीय समझौते का सवाल है, ट्रम्प और इस्राइली नेता यह मान बैठे थे कि अमरीकी पाबंदियों से लगने वाली आर्थिक चोट, ईरान को अपनी स्वतंत्र रणनीतिक भूमिका को त्याग ही देने के लिए मजबूर कर सकता है। शुरूआत में ईरान जेसीपीओए समझौते का अतिक्रमण करने से बचता रहा था और उसने इस समझौते के अन्य हस्ताक्षरकर्ताओं--जर्मनी, फ्रांस, यूके, रूस तथा चीन--से इसका आग्रह किया था कि ईरान के साथ अपना व्यापार जारी रखें। चीन तथा रूस को छोड़ दिया जाए तो, इस समझौते के यूरोपीय हस्ताक्षरकर्ताओं ने इस समझौते को कायम रखने के नाम पर बतकही तो जारी रखी, लेकिन ईरान के साथ उनका व्यापार घटकर नाम मात्र को ही रह गया। डॉलर की अंतर्राष्टï्रीय मुद्रा की हैसियत को देखते हुए, कोई भी अन्य योरपीय देश, अमरीकी पाबंदियों का गंभीरता से अतिक्रमण करने के लिए तैयार नहीं हुआ।

ठीक इसी पृष्ठïभूमि में ईरान ने अपनी नाभिकीय संवद्र्घन सुविधाओं को, मात्रा और गुणवत्ता, दोनों पहलुओं से बढ़ाना फिर से शुरू कर दिया। इस तरह, संवद्र्घित यूरेनियम-235 की उसकी लक्षित मात्रा और लक्षित गुणवत्ता, दोनों को बढ़ाया जाने लगा। ईरान नाभिकीय समझौते में निम्रलिखित मुख्य बातें थीं:

  • ईरान के सक्रिय एंटीफ्यूजों की संख्या 19,000 से घटकर करीब 5,000 रह जाएगी।
  • यूरेनियम संवद्र्घन 3.67 फीसद शुद्घता के 300 किलोग्राम यूरेनियम पर रुका रहेगा।
  • आइआर-1 से ज्यादा उन्नत कोई सेंट्रीफ्यूज इस्तेमाल नहीं किए जाएंगे और ज्यादा उन्नत सेंट्रिफ्यूजों को खत्म कर दिया जाएगा/ हटाकर सहेज कर रख दिया जाएगा।

शस्त्र ग्रेड का प्लूटोनियम बनाने में समर्थ अराक हैवी वाटर रिएक्टर में बदलाव किए जाएंगे और इसे शांतिपूर्ण उद्देश्यों के उपयोग के रिएक्टर में तब्दील किया जाएगा।

ईरान समझौते पर जब दस्तखत हुए थे, ईरान ने 20 फीसद तक संवद्र्घित यूरेनियम गैस के करीब 200 किलोग्राम का भंडार कर लिया था, जिसे ठोस यूरेनियम में तब्दील किए जाने पर, 133 किलोग्राम ठोस यूरेनियम प्राप्त होता। इस गैस-रूप यूरेनियम को रूस में ले जाकर रखा जा रहा था।

नाभिकीय शस्त्रों के विकास के पहलू से देखा जाए तो, 20 फीसद शुद्घता का यूरेनियम तैयार कर लेने का अर्थ होता है, 90 फीसद शुद्घता वाले शस्त्र ग्रैड के यूरेनियम तक पहुंचने का, 90 फीसद काम पूरा हो जाना। सबसे ज्यादा काम की जरूरत 20 फीसद शुद्घ का यूरेनियम तैयार करने के लिए ही होती है। सेंट्रीफ्यूजों में यूरेनियम गैस को एक प्रकार से मथ-मथकर यूरेनियम-238 को अलग किया जाता है। यूरेनियम के इस अपेक्षाकृत भारी आइसोटोप को इस प्रक्रिया से, यू-235 से अलग किया जाता है, जो कि हल्का होता है और विखंडनीय आइसोटोप का ही शस्त्र बनाने में उपयोग किया जाता है। यूरेनियम आइसोटोपों को अलग करने का यह काम, सेंट्रीफ्यूजों की कतार का उपयोग कर के किया जाता है और इस प्रक्रिया को बार-बार दुहारा कर उत्तरोत्तर बढ़ती शुद्घता का यूरेनियम तैयार किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया के लिए समय तथा ऊर्जा दोनों को लगाना होता है और इसके लिए उन्नत दर्जे के स्वचालन की जरूरत होती है। नातान्ज में, स्टक्सनैट नाम के मालवेयर तथा अमरीका व इस्राइल द्वारा विकसित एक साइबर हथियार का इस्तेमाल कर के, ईरान के करीब 10 फीसद सेंट्रीफ्यूजों को तो नष्टï भी कर दिया गया था और यह किया गया था इन सेंट्रीफ्य़ूजों के सीमेन्स वाले कंट्रोलरों को निशाना बनाने के जरिए। यह दुनिया में किसी साइबर शस्त्र के इस्तेमाल का पहला ही मौका था।

ईरान की एटमी एजेंसी ने पिछले साल नवंबर में बताया था कि 20 फीसद संवद्र्घित यूरेनियम का उसका भंडार 210 किलोग्राम पर पहुंच चुका है और 60 फीसद संवद्र्घित यूरेनियम का, 25 किलोग्राम पर। इसके साथ ही उसने नयी पीढ़ी के कहीं ज्यादा उन्नत सेंट्रीफ्य़ूज तथा  ज्यादा कुशल आइआर-2एम, आइआर-4 तथा आइआर-6 सेंट्रीफ्यूज लगाने की भी जानकारी दी थी। इसलिए, यह माना जा रहा है कि ईरान शस्त्र बनाने की ओर बढ़ने की क्षमता तक पहुंच गया है क्योंकि उसके पास एक नाभिकीय बम बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में विखंडनीय सामग्री है और नाभिकीय बम निर्माण क्षमता के मामले में भी वह पहले से काफी आगे जा चुका है। इस तरह, मूल जेसीपीओए पर दस्तखत किए जाने के समय ईरान नाभिकीय क्षमता के मामले में जहां था, वह उससे अब कहीं ज्यादा आगे जा चुका है। यही है ट्रम्प की मूर्खता का नतीजा।

अब अमरीका और उसके सहयोगियों के सामने समस्या यही है कि जिस नाभिकीय जिन्न को जेसीपीओए से पीछे हटने के जरिए उन्होंने बोतल से बाहर निकाल दिया था, उसे दोबारा बोतल में कैसे बंद किया जाए? ईरान, पुराने समझौते की ज्यादातर दूसरी शर्तें तो फिर से मानने के लिए तैयार हो जाएगा, लेकिन पिछली बार की तरह वह फिर से अपने उन्नत सेंट्रीफ्यूजों को सुखाकर, पैक कर के सहेज कर अलग रखने के लिए शायद ही तैयार हो।

वह यह भी जानता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका सौदे से मुकरने से सिर्फ एक चुनाव दूर है, इसलिए उसका दांव अस्थायी है। सवाल यही है कि ईरान, नाभिकीय समझौते में नयी जान फूंकने के जरिए, पाबंदियों से राहत हासिल करने के लिए, कितनी कुर्बानी देने के लिए तैयार होगा और वह भी तब जबकि ओबामा प्रशासन के अनुभव से उसे बखूबी पता है कि इन पाबंदियों का हटाया जाना भी, बहुत ही रुक-रुक कर तथा टुकड़ों-टुकड़ों में ही नसीब होने वाला है? फिर भी, दुनिया की खातिर हम यह उम्मीद करते हैं कि ईरान इसके लिए तैयार हो जाएगा और बाइडेन प्रशासन, इस समझौते के अंतर्गत अमरीका की जो वचनबद्धताएं हैं, उन्हें पूरा करेगा और कम से कम राष्ट्रपति के रूप में उनके कार्यकाल तक तो उन्हें पूरा करेगा ही।    

 इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें

Can Iran and US Breathe Life Back into Nuclear Deal?

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