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बढ़ती बेरोज़गारी: धोखा साबित हुईं नवउदारवादी नीतियां

उल्लेखनीय रूप से बड़ी संख्या में श्रमिकों को काम से बैठाया (ले-ऑफ किया) गया है, यह चाहे मांग में कमी के जवाब में हुआ हो या फिर ‘कटौती’ (ऑस्टेरिटी) थोपे जाने के चलते हुआ हो।
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फाइल फ़ोटो। फ़ोटो साभार : पीपल्स डिस्पैच

सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआइई) ने बेरोजगारी के जो आंकड़े जारी किए हैं, एक निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं। पिछले कुछ सालों में बेरोजगारी की दर तेजी से बढ़ी है और इसकी शुरूआत महामारी के आने से पहले ही हो गयी थी। लेकिन, महामारी के चलते जीडीपी के स्तर में जो भारी गिरावट हुई थी, उस स्तर से आर्थिक बहाली होने के बाद भी, बेरोजगारी का आंकड़ा महामारी के दौरान अचानक तेजी से बढक़र जहां पहुंच गया था, वहां से खासा नीचे आया है।

रोज़गार की स्थित निराशाजनक

बेरोजगारी की दर, जो 2017-18 में 4.7 फीसद थी, 2018-19 में बढक़र 6.3 फीसद हो गयी। महामारी के चलते हुए लॉकडाउन के दौरान यह दर तेजी से ऊपर चढ़ी और मिसाल के तौर पर 2020 के दिसंबर में यह दर बढक़र 9.1 फीसद पर पहुंच गयी। उसके बाद से बेरोजगारी की दर कुछ नीचे तो आयी है, लेकिन उतनी नीचे नहीं आई है, जितनी नीचे आने की उम्मीद, उत्पाद में हो सकी कटी-छंटी बहाली के बावजूद की जाती थी। 2022 के दिसंबर में बेरोजगारी की दर 8.3 फीसद थी, जो 2023 की जनवरी में खिसक कर 7.14 फीसद पर आ गयी। लेकिन मार्च के महीने में, जो आखिरी महीना है जिसके लिए सीएमआइई के आंकड़े उपलब्ध हैं, बेरोजगारी की दर एक बार फिर ऊपर चढक़र 7.8 फीसद पर पहुंच चुकी थी।

जीडीपी की बहाली बेशक गिट्ठी या बौनी बनी रही है, फिर भी 2022-23 का जीडीपी, 2019-20 के मुकाबले 8.4 फीसद ज्यादा रहने का अनुमान है और 2018-19 के मुकाबले 12.95 फीसद ज्यादा। लेकिन, इसी अवधि में जीडीपी में 12.95 फीसद की बढ़ोतरी होने के बावजूद, 2022-23 के आखिर में बेरोजगारी की दर, 2018-19 के 6.3 फीसद के स्तर से ऊपर चढक़र, 7.8 फीसद के स्तर पर बनी हुई थी। अब इन्हीं चार वर्षों में श्रम शक्ति 12.95 से ज्यादा या उतनी ही तो बढ़ नहीं सकती थी, इसलिए इस आंकड़े से यही स्वत:स्पष्ट नतीजा निकलता है कि जीडीपी की हरेक इकाई पर रोजगार की दर 2018-19 और 2022-23 के बीच घट गई है। अब यह इकाई जीडीपी पर रोजगार की दर में यह कमी, इतनी छोटी सी अवधि में, कुछ खास गतिविधियों में हुए तकनीकी बदलावों को चलते हुई हो, यह तो संभव नहीं है।

घट गयी रोज़गारशुदा लोगों की संख्या

इसलिए, इससे हम यही नतीजा निकाल सकते हैं कि महामारी से पहले के दौर के मुकाबले इस समय बेरोजगारी की दर में जो बढ़ोतरी दिखाई दे रही है, उसके पीछे निम्रलिखित दो कारकों का ही हाथ माना जा सकता है। पहला तो यह कि आर्थिक बहाली मुख्यत: ऐसे क्षेत्रों तथा गतिविधियों में हुई है, जो रोजगार-सघन नहीं हैं। यानी लघु तथा अति-लघु उत्पादन क्षेत्र, जो रोजगार सघन होते हैं, मौजूदा आर्थिक बहाली के दायरे से बाहर ही रह गए हैं। और दूसरा यह कि पिछले कुछ अर्से में, उल्लेखनीय रूप से बड़ी संख्या में श्रमिकों को काम से बैठाया (ले-आफ किया) गया है, यह चाहे मांग में कमी के जवाब में हुआ हो या फिर ‘कटौती’ (ऑस्टेरिटी) थोपे जाने के चलते हुआ हो।

सीएमआइई के आंकड़े श्रमिकों केे इस तरह काम से बैठाए जाने के प्रत्यक्ष साक्ष्य देते हैं। उसके अनुमान बताते हैं कि रोजगार में लगे लोगों की वास्तविक संख्या जहां फरवरी में 40.99 करोड़ थी, मार्च में 40.76 करोड़ रह गयी थी। प्रसंगवश बता दें कि 2019-20 में भारत में रोजगार में लगे लोगों की कुल संख्या 40.89 करोड़ थी, जिसका मतलब यह होता है कि 2023 के मार्च में रोजगारशुदा लोगों की शुद्घ संख्या, 2019-20 की इसी संख्या से घटकर थी। यह एक निराशाजनक तस्वीर है, जहां श्रम शक्ति में जुडऩे वाले नये लोगों के लिए अतिरिक्त रोजगार पैदा किए जाने की बात तो दूर ही रही, शुद्घ गिनती के रूप में मौजूदा रोजगारों की संख्या पहले से भी घट रही है।

इस संदर्भ में, सरकार के प्रवक्ताओं का रोजगार के हालात में सुधार के दावे करते नजर आना, वाकई विडंबनापूर्ण है। सरकार के ये प्रवक्तागण, अपने दावे के पक्ष में दो दलीलें पेश करते हैं। पहली तो यह कि सीएमआइई के आंकड़े भरोसे के लायक नहीं हैं और ये आंकड़े आधिकारिक पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे के आंकड़ों से मेल नहीं खाते हैं, जो रोजगार की दशा में सुधार दिखा रहे हैं। दूसरे, मनरेगा के अंतर्गत काम की मांग पहले से घट गयी है और यह भी रोजगार की स्थिति में सुधार का ही इशारा करता है।

स्थिति में सुधार के सरकार के झूठे दावे

बहरहाल, इन दोनों ही दलीलों में कोई तत्व नहीं है। पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) और सीएमआइई के रोजगार संबंधी आंकड़ों में, एक बड़ा अंतर यह है कि पहले वाली गिनती में घरेलू आर्थिक गतिविधियों में अवैतनिक काम को भी रोजगार की गिनती में जोड़ लिया जाता है, जबकि सीएमआइई की रोजगार की गिनती में ऐेसे काम को शामिल नहीं किया जाता है। लेकिन, घरेलू आर्थिक गतिविधियों में अवैतनिक काम को रोजगार की गिनती में जोड़े जाने की समस्या यह है कि जब ले-ऑफ होते हैं या बाहर काम की संभावनाएं घट जाती हैं यानी संक्षेप में कहें तो परिवार की आर्थिक स्थिति गिरावट पर होती है, ठीक तभी बाहर रोजगार छूटने तथा इसके चलते अब घर पर ही रहने के लिए मजबूर होने के चलते, परिवार के संबंधित सदस्य, परिवार के तौर पर जितना भी काम उपलब्ध होता है, उसी में हिस्सा बंटाने लगते हैं। लेकिन, ऐसी स्थिति में पीएलएफएस में तो बेरोजगारी में कोई बढ़ोतरी दर्ज होगी ही नहीं। दूसरे शब्दों में पीएलएफएस की गणना, काम छूटने के चलते मजबूरी में घर बैठे, जो भी थोड़ा बहुत काम उपलब्ध हो उसी में हिस्सा बंटाने और घर से चलाई जाने वाली आर्थिक गतिविधियों में लाभदायक रोजगार में, अंतर ही नहीं कर सकती है।

जाहिर है कि सीएमआइई के आंकड़े में उपरोक्त खामी नहीं है। इसलिए, हालांकि इसकी गिनती में घरेलू गतिविधियों में काम के शामिल न किए जाने का अर्थ यह भी है कि इस गिनती से एक श्रेणी का काम यानी घरेलू गतिविधियों में कमाईदायक काम बाहर ही छूट जाता है, फिर भी इस गिनती का यह गुण है कि यह सतत तरीके से यह दर्शाती है कि अर्थव्यवस्था में सवेतन रोजगार के मोर्चे पर, ठीक-ठीक क्या चल रहा है। और चूंकि बढ़ती बेरोजगारी के दौर में सवेतन रोजगार घट जाते हैं, सीएमआइई के आंकड़े, रोजगार के समूचे परिदृश्य की काफी सही-सही तस्वीर पेश करते हैं।

मनरेगा की स्थिति झूठी दलील

इसी तरह, इस तथ्य पर कोई बहस नहीं कर रहा है कि महामारी को देखते हुए, अविचारपूर्ण तरीके से जो लॉकडाउन लगाया गया था, उसके चलते रिहाइश तथा आमदनी से वंचित होने के चलते, जो दसियों लाख लोग पैदल-पैदल अपने गांवों को लौटने के लिए मजबूर हुए थे, उनमें से कुछ उसके बाद से शहरों की ओर लौटे हैं। इसलिए, लॉकडाउन के चलते मनरेगा पर जो भारी बोझ आ पड़ा था, उसमें कुछ कमी होनेे में हैरानी की कोई बात नहीं है। लेकिन, इसमें लॉकडाउन के दौर की तुलना में बेरोजगारी की दर में कुछ कमी का इशारा तो हो सकता है, फिर भी यह न तो इसे नकार सकता है कि महामारी से पहले के स्तर के मुकाबले बेरोजगारी की दर बढ़ गयी है और न इसे ही नकार सकता है कि लॉकडाउन के दौर की तुुलना में, बेरोजगारी की दर में कुल मिलाकर मामूली से गिरावट ही आयी है।

इसके अलावा, चूंकि केंद्र सरकार की समय रहते मजदूरी का भुगतान करने के प्रति अनिच्छा के चलते, मनरेगा की मजदूरी के बकाया जमा होते गए हैं, इस योजना के अंतर्गत रोजगार हासिल करने के लिए, बेरोजगारों की उत्सुकता में भी किसी हद तक कमी हो गयी है। इसलिए, मनरेगा के अंतर्गत काम की मांग अब बेरोजगारी के परिमाण का अच्छा संकेतक नहीं रह गयी है। वास्तव में इसे विडंबनापूर्ण ही कहा जाएगा कि एक तो केंद्र सरकार मनरेगा मजदूरों की मजदूरी के भुगतान में देरी कर के, इस योजना के अंतर्गत काम करने के प्रति उन्हें अनिच्छुक बना रही है और उसके बाद वही सरकार इस तथ्य का इस्तेमाल कर के इसके दावे कर रही है कि रोजगार की स्थिति में तो सुधार हो गया है!

मेहनतकशों की औसत वास्तविक आय घटी

सामान्य रूप से हम इसी की अपेक्षा करते हैं कि बेरोजगारी के आंकड़े, समग्रता में मेहनतकश जनता के औसत वास्तविक आमदनी के आंकड़ों की और यहां तक कि स्वरोजगार में लगे मजदूरों की औसत वास्तविक आय के आंकड़ों की भी, संगति में होंगे। इसकी वजह यह है कि स्वरोजगार में लगे लोगों की ही श्रेणी है, जिसमें सामान्यत: श्रम की सुरक्षित सेना केंद्रित रहती है और अगर रोजगार में गिरावट आती है, जिससे श्रम की सुरक्षित सेना में बढ़ोतरी होती है, तो इससे स्वरोजगार क्षेत्र में औसत वास्तविक आमदनियां गिरनी चाहिए। और यह दिलचस्प है कि सरकार के अपने पीएलएफएस के आंकड़े, जो 2022 की अप्रैल-जून की तिमाही तक के लिए ही उपलब्ध हैं, यह दिखाते हैं कि मजदूरों की औसत वास्तविक आय, लॉकडाउन के दौरान जिस गड्ढे में चली गयी थी, उससे तो जरा सी ऊपर निकली है, लेकिन 2019 की अप्रैल-जून की तिमाही के स्तर से अब भी नीचे ही है और ऐसा ग्रामीण तथा शहरी भारत, दोनों के संबंध में सच है (चंद्रशेखर तथा घोष, माइक्रोस्कैन)। यह बेरोजगारी के संबंध में, सीएमआइई के निष्कर्षों की ही पुष्टि करता है।

भारत के बेरोजगारी के आंकड़े, एक मौलिक सचाई को दिखाते हैं। मौलिक सचाई यह है कि नवउदारवादी पूंजीवाद किसी भी स्थिति में ऐसी सामाजिक व्यवस्था साबित हो ही नहीं सकता है, जो हमारे देश को बेरोजगारी की समस्या से उबार ले। ‘‘आर्थिक उदारीकरण’’ के पैरोकारों ने भारत की जनता को एक झूठा सपना दिखाया था। चूंकि पूर्वी तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया के कुछ छोटे-छोटे देशों में, विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं से, आर्थिक गतिविधियों का एक हद तक प्रसारण हुआ था और इसके चलते इन देशों की बेरोजगारों की अपेक्षाकृत छोटी फौजों को काफी हद तक खपाना संभव हुआ था, उन्होंने इसके बल पर यह दलील पेश करनी शुरू कर दी कि इस रणनीति को सभी जगहों पर सफलता के साथ दोहराया जा सकता है। जरूरत सिर्फ इसकी है कि सब कुछ ‘बाजार के भरोसे’ छोड़ दिया जाए और सरकार, बड़ी पूंजी के पक्ष में हस्तक्षेप करने के सिवा, अपनी हस्तक्षेपकारी भूमिका से हाथ ही खींच ले। इसके बाद, भारत को ‘पूर्ण रोजगार’ और खुशहाली के रास्ते पर दौड़ लगाने में देर नहीं लगेगी।

नवउदारवाद का धोखा

बेशक, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कभी भी ‘पूर्ण रोजगार’ की अवस्था हासिल ही नहीं की जा सकती है क्योंकि यह व्यवस्था श्रम की सुरक्षित सेना यानी बेरोजगारों की फौज की मौजूदगी के बिना तो कभी भी चल ही नहीं सकती है। फिर भी, नवउदारवाद के अंतर्गत बेरोजगारी को कम से कम बहुत हद तक खत्म करने का वादा तो किया ही गया था। इसी से बहुत से प्रगतिशील समझे जाने वाले लोग तक धोखा खा गए थे। लेकिन, इस धोखे के सहारे उस राज्य व्यवस्था को सफलता के साथ पीछे धकेल दिया गया, जो निरुपनिवेशीकरण के बाद, तीसरी दुनिया के देशों में खड़ी की गयी थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत इन देशों में विकसित दुनिया की पूंजी के प्रति और आम तौर पर साम्राज्यवाद के प्रति, अपेक्षाकृत स्वायत्त रुख अपनाया जा रहा था।

लेकिन, नवउदारवाद के पक्ष में दी जा रही उक्त दलील में दो स्वत:स्पष्ट विसंगतियां थीं। पहली तो यही कि तीसरी दुनिया को समग्रता में लिया जाए तो, विकसित पूंजीवादी दुनिया से, उनकी आर्थिक गतिविधियों के एक हिस्से का, इस विकासशील दुनिया की ओर प्रसारण, इन पिछड़े देशों की श्रम की विकराल सुरक्षित सेना को तो खपा ही नहीं सकता था। विकसित दुनिया से आर्थिक गतिविधियों का इस तरह का फैलाव, इक्का-दुक्का छोटे देशों में तो उनकी श्रम की सुरक्षित सेना को खपा सकता था, जहां श्रम की यह सुरक्षित सेना वैसे भी थोड़ी सी ही रही हो। लेकिन, भारत जैसे देश के मामले में यह संभव ही नहीं था, जहां श्रम की सुरक्षित सेना बहुत बड़ी है। दूसरे, जब नवउदारवादी पूंजीवाद संकट में फंस गया, जो पूंजीवाद के साथ तो होता ही होता है, तो नवउदारवादी व्यवस्था के पास इस संकट से निकलने का कोई तरीका ही नहीं है। इस सूरत में भारत जैसे, इस नवउदारवादी व्यवस्था को अपनाने वाले देशों के मेहनतकश, तकलीफों के एक अंतहीन दौर को झेलने के लिए अभिशप्त होंगे। आज भारत में हम जो कुछ होता देख रहे हैं, इसी प्रस्थापना के सच होने का सबूत है।

नवउदारवादी निजाम में यहां-वहां कुछ ‘दुरुस्तियां’ कर के बेरोजगारी से उबरा नहीं जा सकता है। उसके लिए तो एक पूरी तरह से भिन्न सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को ही अपनाने की जरूरत होगी, जो न सिर्फ श्रम की सुरक्षित सेना की मौजूदगी के बिना चलती हो बल्कि मेहनतकश जनता के पक्ष में शासन के सचेत हस्तक्षेप की भी गुंजाइश बनाती हो।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल रिपोर्ट को पढने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

Jobs in India: Gone With the Neoliberal Wind!

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