रोहिंग्या शरणार्थी : डर के साये में जीने को मजबूर!
"मेरी बहन (आयशा) को 24 मार्च को पुलिस उठाकर ले गई और कुछ बता भी नहीं रही। जबकि हमारे पास जून तक भारत में रहने का कार्ड है। मेरी बहन बीमार है, उसकी किडनी ख़राब है और उसके पति (मो. हुसैन) भी दिल्ली में नहीं हैं। वो अकेले शाहीन बाग़ के पास श्रम विहार स्थित रोहिंग्या शरणार्थी शिविर में रहती थीं।" ये सब बोलते हुए अब्दुला काफ़ी परेशान था।
(अब्दुला की बहन आयशा का यूएनएचसीआर द्वारा दिए गए रिफ्यूजी कार्ड ,जो दस जून 2021 तक वैध है )
अब्दुला बाकी कई शरणार्थियों की तरह ही वर्ष 2012 में अपने पूरे परिवार के साथ बचकर म्यांमार (बर्मा) से किसी तरह भागकर भारत पहुंचे थे। तब से ही वो संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त कार्यालय (यूएनएचसीआर) द्वारा दिए गए रिफ्यूजी कार्ड के साथ दक्षिणी दिल्ली के कंचन कुंज के इस कैंप में रहते हैं।
उन्होंने आगे बताया कि उन्होंने अपनी बहन की शादी ऐसे एक अन्य शरणार्थी जो श्रम विहार कैंप में रहते थे उनसे कर दी थी। तब से वह भी श्रम विहार में ही पति के साथ रहती थी। कोरोना महामारी के बाद से दिल्ली में मज़दूरी नहीं मिलती थी इस वजह से उसके पति हैदराबाद चले गए और तब से उनकी बहन अकेले ही मज़दूरी करती थी लेकिन अचानक ही एक दिन (24 मार्च) पुलिस उनकी बहन को बुलाती है और फिर उसे अपने साथ जाती है।
अब्दुल्ला कहते हैं, "मुझे कई लोगों ने बताया कि पुलिस ने उसे मारा भी जबकि उस दिन उसकी तबीयत भी बहुत ख़राब थी। उसे किडनी की बीमारी है और उसका इलाज़ चल रहा है।"
वे ये सब बताने के बाद बेहद हताश और निराश होकर कहते हैं, "भारत ऐसा नहीं था। हमने सुना था भारत में हर इंसान की कद्र होती है। हम रास्ते में बांग्लादेश को छोड़कर यहाँ आए क्योंकि भारत के बारे में हमनें बहुत अच्छा सुना था जो सही भी था क्योंकि आज तक हमें कभी भी किसी भी तरह से परेशान नहीं किया गया। लेकिन पता नहीं क्यों अब हम लोगों के साथ ऐसा किया जा रहा है। हमें जलते बर्मा में क्यों भेजना चाहते है!"
24 मार्च को मोहम्मद शरीफ व उनकी पत्नी लैला बेगम और तीन बेटों व एक बहू को पुलिस अपने साथ ले गई। उनके घर में आज भी ताला लटका हुआ है। उनके एक रिश्तेदार अहमद कबीर जो एक नौजवान हैं और अपने परिवार के साथ यहां रहते हैं, ने बताया, "शरीफ और उनके परिवार को पुलिस सुबह छह बजे ले गई और जब मैं ये पूछने आया की आप उन्हें क्यों ले जा रहे हैं तो पुलिस ने कहा तू नेता बन रहा है, अंदर चले जा नहीं तो तुझे भी...."
(लैला बेगम का यूएनएचसीआर द्वारा दिए गए रिफ्यूजी कार्ड ,जो आठ अप्रैल 2021 तक वैध है )
कबीर ने बताया, "जब पुलिस उन्हें ले जाने को आई तब लैला बेगम बच्चों के लिए नाश्ता बना रही थी। पुलिस ने उन्हें उबलती चाय और तवे पे चढ़ी रोटियों को उतारकर गैस बंद करने तक का समय नहीं दिया। जब पुलिस उन्हें ले गई तब उनके घर का गैस-चूल्हा जल ही रहा था। आप ही बताइए ये कौन सी इंसानियत है!"
इसी तरह बुधवार 31 मार्च को कंचन कुंज में बने रोहिंग्या कैंप से पुलिस 80 वर्षीय सुल्तान अहमद, जनकी पत्नी 70 वर्षीय हलीला बेगम व इनके दो बेटों नूर मोहम्मद और उस्मान को पूछताछ के नाम पर ले गई। जो अभी तक वापस नहीं लौटे हैं।
वहां मौजूद लोगों ने बताया की उन्हें पूरे परिवार के साथ डिटेंशन सेंटर भेज दिया गया है।
इस पूरे मामले पर पुलिस और प्रशासन कुछ भी साफतौर पर नहीं बोल रहा है। इस पूरे मामले को लेकर न्यूज़ वेबसाइट क्विंट को दिए जवाब में दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के पुलिस उपायुक्त आरपी मीणा ने कहा, "उनके पास दस्तावेज नहीं थे इसलिए उन्हें एफआरआरओ के पास भेजा गया।"
जबकि कैंप में रह रहे लोगों ने पुलिस के इस दावे को ख़ारिज करते हुए पुलिस द्वारा ले गए लोगों के दस्तावेज़ दिखाए। रोहिंग्या मानवाधिकार के लिए काम करने वाले संगठन रोहिंग्या रिफ्यूजी ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के संस्थापक और निदेशक शब्बीर ने अंग्रेजी अख़बार से बातचीत में दावा किया," गिरफ़्तार किए गए 16 लोगों में से एक छोड़कर सभी के पास UNHCR के वैध शरणार्थी कार्ड हैं। एक व्यक्ति के कार्ड की समय सीमा समाप्त हो गई थी और वे इसे नवीनीकृत नहीं कर पाए क्योंकि UNHCR कार्यालय कोरोना के कारण बंद था। पुलिस अब कुछ भी दावा कर सकती है। महामारी के दौरान इन लोगों को हिरासत में लेने का क्या मतलब है?"
इस कैंप के ज़िम्मेदार लोगों में से एक अनवर शाह ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा, "पुलिस बिना बताए हमारे यहां से लोगों को उठा ले जा रही है। 24 मार्च को कंचन कुंज कैंप से 6 लोगों को सुबह-सुबह उठाकर ले गई। जबकि 31 मार्च को भी चार लोगो को ले गई।" यह पूछने पर की वो उन्हें क्यों ले जा रही है। इस पर पुलिस वाले कहते हैं कि हमें नहीं पता एफआरओ से पूछो और उनसे पूछो तो वो कहते हैं कि ऊपर से आदेश है। अनवर उदासी भरे स्वर में कहते है,"अब आप ही बताइए हम कहाँ जाए।"
उन्होंने बताया, "कंचन कुंज में 2013 से हम लोग रह रहे हैं। यहाँ 55 परिवार के लगभग 269 लोग रहते थे लेकिन अब पुलिस दस लोगों को ले गई है जिसके बाद अब केवल 259 लोग ही बचे हैं। हम भारत में जान और ईमान बचाकर आए हैं। हम कोई भारत में कब्ज़ा करने नहीं आए हैं। हम भारत में एक इंच ज़मीन नहीं ले सकते। हम यहाँ बस खुद को और अपने परिवार को ज़िंदा रखने के लिए हैं। जैसे ही हमारे देश में सब ठीक हो जाएगा हम वापस चले जाएंगे।"
अनवर बड़े ही दुख और टूटे हुए भाव में कहते हैं, "पता नहीं कुछ मीडिया हमारे बारे में ऐसा क्यों दिखा रहे हैं जैसे हम भारत पर कब्ज़ा करने के लिए आए हैं या हम आतंकी है जबकि हम तो खुद मरे हुए लोग हैं। आप खुद देखिए हम कैसी ज़िन्दगी जी रहे हैं। झुग्गियों में बसे हुए हैं जहाँ कभी खाना मिलता है कभी नहीं। हम यहां बस जान और इज़्ज़त बचा रहे हैं। हमें सरकार जैसा कहेगी हम वैसे रहने को तैयार हैं।"
मो. फारूक़ शरणार्थी है और वो भी 2012 से भारत में रहते हैं। उन्होंने कहा, "हम लोग जब भारत आए तब सीधे दिल्ली के यूएनएचसीआर दफ्तर गए जहाँ हम लोगो की जाँच हुई। उसके बाद ही हमें शरणार्थी कार्ड दिया गया है जिसे हमें हर साल जाकर रिन्यू कराना होता है।"
मीनार जो एक विधवा हैं और अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ कंचन कुंज के शरणार्थी कैंप की झुग्गियों में रहती है। वो पिछले कई सालों से आस-पास के इलाकों में घरो और दफ्तरों में काम करके अपना और अपने परिवार का गुजर-बसर करती हैं। उनका कहना है कि कोरोना महामारी के बाद से उनको काम मिलने में काफी मुश्किल आ रही है। वो किसी तरह से एक और कभी-कभी दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम कर पाती हैं।
उन्होंने कहा," बर्मा में सरकार ने हमसे हमारी सारी जायदाद छीन ली और हम यहां आए हैं। हमारी भारत सरकार से केवल एक ही विनती है कि हमे कहीं पर कोई एक जगह दे दे जहाँ हम रह सकें और जी सकें।
आपको बता दें बर्मा यानी म्यांमार में पिछले काफी समय से माहौल खराब है। इस समय तो वहां सैन्य शासन है। इससे पहले भी वहां पर अल्पसंख्यकों के साथ मारपीट और हिंसा आम बात रही। रोहिंग्या मुसलमान भी वहां पर प्रताड़ित हुए। आरोप है कि वहां रोहिंग्या का बड़ी संख्या में नरसंहार हुआ। जिसके बाद इस समुदाय के लोग वहां से जान बचाकर भागे।
ऐसे ही एक शरणार्थी हैं अब्दुल्ला जिन्होंने कथित नरसंहार में अपने माता-पिता और भाई को खोया है और वो अपनी जान बचाकर वहां से भागे हैं और भारत में 2012 से रह रहे हैं। उन्होंने बताया कि वो म्यांमार में काफी सम्पन्न परिवार से थे। उनके पास 18 दूध देने वाली भैंस थी और बहुत जायदाद थी लेकिन सब कुछ सेना की बमबारी में तबाह हो गया। सब मारे गए और वो अपनी पत्नी के साथ किसी तरह सीमा पार करके अपनी जान बचा सके।
उन्होंने कहा, "मैंने घर छोड़ने से पहले कभी कोई मज़दूरी का काम नहीं किया था लेकिन आज परिवार चलाने के लिए मेहनत मज़दूरी कर रहे हैं। बस यही उम्मीद है कि एक दिन वहां शांति होगी तब हम फिर अपने घर वापस लौट सकेंगे। क्योंकि कोई भी अपने घर और वतन से दूर नहीं रहना चाहता है।"
अभी वर्तमान में भी म्यांमार जल रहा है। एक फरवरी को आंग सान सूकी की चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट करने के बाद से प्रदर्शन हो रहे हैं और लोग मारे जा रहे हैं।
हताहतों एवं गिरफ्तारियों पर नज़र रखने वाली संस्था असिस्टेंस एसोसिएशन फॉर पॉलिटिकल प्रीजनर्स (एएपीपी) के मुताबिक म्यांमार में अबतक 564 प्रदर्शनकारियों की मौत हो चुकी है।
ऐसे में इन शरणार्थियों को वापस भेजने की चर्चा हो रही है जिसको लेकर सभी डरे हुए हैं और कह रहे हैं,"इससे बेहतर होगा भारत सरकार हम सबको इकठ्ठा करके किसी समंदर में फेंक दे या एक साथ सभी को गोली से भुनवा दे।"
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