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सीरिया में तुर्की के सहयोग के बिना रूस कुछ नहीं कर सकता

रोचक पहलू ये है कि एर्दोगन हूबहू वही कर रहे हैं जैसा कि काफ़ी हद तक पुतिन ने रूस में करने की कोशिश की और उसे हासिल भी किया, या भारत के नरेंद्र मोदी वर्तमान में जो करने की कोशिश में जुटे हैं।
Putin and Erdogen

कल का सोवियत संघ अपने आप में एक आत्म-तुष्ट विश्व शक्ति हुआ करता था। इसको खुद को साबित करने की कोई फ़िक्र ही नहीं महसूस होती थी। (1941-45) तक चला महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध खुद इसका गवाह रहा है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विजयोन्माद कभी भी सोवियत सूची में कूटनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया गया।

1962 के क्यूबाई मिसाइल संकट के दौरान तुर्की से अमेरिकी परमाणु इसाइल को हटवाने की रुसी पहल को उस दौरान जरा भी प्रचारित प्रसारित नहीं करवाया गया था, जबकि देखें तो यह मास्को की एक रणनीतिक जीत से कम नहीं था।

इसकी तुलना में “सोवियत-पराभव” के आज के इस दौर में रूस इसके ठीक विपरीत ध्रुव पर आत्म-प्रदर्शन करता नजर आ रहा है। वैश्विक मंच पर खुद की जीत को प्रदर्शित करा पाने की उसकी अतीव इच्छा और एक महत्वपूर्ण “सौदेबाज” के रूप में स्थापित करा पाने के लिए वह मरा जा रहा है।

अभी हाल ही में रुसी टिप्पणियों में देखने को मिला है कि इदलिब में संकट को लेकर हुए समझौते में तुर्की को “हारे हुए” के रूप में चित्रित किया गया। यह समझौता 5 मार्च को राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और उनके समकक्ष रेसेप एर्दोगन के बीच हुआ था।

प्रथम दृष्टया देखने में लग सकता है कि क्रेमलिन में 6 घंटे लंबी चली इस वार्ता में एर्दोगन जितना कुछ पुतिन से झटक सकते थे, उससे कहीं अधिक उन्होंने गँवा दिया है। लेकिन साथ ही इस बात को भी ध्यान में रुखना होगा कि ये तो सिर्फ ट्रेलर है, जबकि पूरी पिक्चर अभी बाकी है। सीरिया में अंतिम नतीजों को लेकर अभी भी गतिरोध बना हुआ है। और आम धारणा ये है कि मास्को समझौते की मियाद बस कुछ ही दिनों की है। इस बिंदु पर यदि थोड़ा विषयांतर करें तो फायदेमंद रहेगा।

तुर्की-रूस-सीरिया त्रिकोण में भी पाकिस्तान-अमेरिका-अफगानिस्तान त्रिकोण के समान ही कुछ आश्चर्यजनक समानताएं देखने को मिलती हैं। जिस प्रकार से अफगानिस्तान और पाकिस्तान आपस में पडोसी देश हैं उसी प्रकार से तुर्की और सीरिया भी हैं। और यहाँ पर राष्ट्रीयता का प्रश्न, सुरक्षा को लेकर चुनौतियाँ और बेवजह की अतार्किकता का अपना एक जटिल इतिहास रहा है जो वाह्य/पार-क्षेत्रीय हस्तक्षेपों के साथ आपस में बुरी तरह से गुंथे हुए हैं।

जहाँ एक ओर पाकिस्तान कभी भी अफगान संघर्ष में जीत हासिल नहीं कर सकता वहीँ यह इस बात को सुनिश्चित कर सकता है कि अमेरिका भी इसे न पार ना पा सके। सीरिया को लेकर भी रूस का पूर्वानुमान यही है कि वह तुर्की को पीछे तो धकेल सकता है लेकिन गतिरोध (या कहें धसान) तो बना ही रहने वाला है। 

इस युद्ध में हार न तो पाकिस्तान और ना ही तुर्की ही गँवारा कर सकते हैं, क्योंकि उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से बहुत कुछ दाँव पर लगा हुआ है। जबकि सैन्य दृष्टि से देखें तो वास्तविकता में इन दोनों के ही पास अमेरिका या रूस का कोई मुकाबला हो सकता है।

लेकिन इस सबके बावजूद पाकिस्तान और तुर्की दोनों के पास ही इतनी क्षमता और (धैर्य) तो है ही कि जबतक उनकी वाजिब हित हासिल नहीं होते तबतक वे अपनी कोशिशों को छोड़ने नहीं जा रहे।

जहाँ तक सीरिया का सवाल है तो इसके लिए अफगान तालिबान से रूपक उधार लेने में कोई बुराई नहीं है। जिसके अनुसार यदि कहें कि घड़ी भले ही रूस के हाथ में बंधी हो, लेकिन समय का हिसाब किताब तुर्की के पास है। बिना तुर्की के सहयोग के मास्को के लिए सीरिया में शांति समाधान निकाल पाना एक छलावा ही बनकर रह जाने वाला है। 

अफगान-पाक सन्दर्भ में भी अगर देखें तो ऐसे जीत के उन्मादी क्षण आये जब अमेरिका ने पाकिस्तानी नाक धूल में सान दी थी- जैसे कि ओसामा बिन लादेन की हत्या के लिए चलाया गया एबटाबाद अभियान।

वास्तव में देखें तो हाल ही में इदलिब में 34 तुर्की सैनिकों की मौत (कुछ का मानना है कि यह संख्या 50-100 तक की सैनिकों की हो सकती है) की तुलना घातक सलाला की घटना से की जा सकती है। 2011 में पाकिस्तान में हुए इस हमले में जब अमेरिकी नेतृत्व में सैन्य बलों ने अफगान-पाकिस्तानी बॉर्डर पर पाकिस्तानी सुरक्षा बलों को दो पाकिस्तानी सैन्य ठिकानों पर उलझा कर रखा हुआ था। जबकि उसी दौरान नाटो के दो अपाचे हेलीकॉप्टरों जिनमें से एक एसी-130 गनशिप और दो एफ-15ई ईगल फाइटर जेट्स थे, ने पाकिस्तानी सीमा में प्रवेश कर सलाला के इलाके (मोहम्मदी एजेंसी) घुसकर हमले किये। इस हमले में 28 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे और बारह अन्य जख्मी हुए थे। 

इसलिये इस बात में कोई चूक न करें कि तुर्की कोई चुप बैठ जाने वाला है। सलाला की घटना के बाद जिस तरह पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ जो कुछ किया, तुर्की भी अपनी बारी के इन्तजार में है। और जबतक क्रेमलिन को एक दिन इस बात का अहसास नहीं हो जाता कि यह “कभी न भरने वाला जख्म” या “अंतहीन युद्ध” बन गया है, तब तक तुर्की सीरिया में रुसी हस्तक्षेप पर उसे छोड़ने नहीं जा रहा है। यह तय है कि उसे इसकी भारी कीमत उसे चुकानी पड़ेगी।

भौगोलिक स्थितियों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती, जो कि इस मामले में पाकिस्तान और तुर्की के पक्ष में है। विरोधाभासी स्थिति ये है कि सीरिया के लिए जाने वाली रुसी सैन्य आपूर्ति बोस्फोरुस या कहें तुर्की के हवाई क्षेत्र से होकर गुजरती है।

निश्चित तौर पर पाकिस्तान की तुलना में तुर्की कहीं बेहतर स्थिति में है। एक तो तुर्की अपने आप में एक नाटो शक्ति है और काले सागर और भूमध्यसागर (ये वो महत्वपूर्ण रंगमच हैं जहाँ मित्र शक्तियाँ रूस के मुकाबिल हैं) में उसकी बेहद महत्वपूर्ण उपस्थिति है। यूरोपीय देशों के लिए तुर्की एक दीवार के रूप में भी काम आता है जो अपने देशों में शरणार्थियों की समस्या से जूझ रहे हैं।

हालाँकि तुर्की के लिए हाल-फिलहाल नाटो की ओर से इस प्रकार के किसी भी सैन्य सहायता की गुंजाइश नहीं नजर आती। राष्ट्रपति ट्रम्प भी रूस से भिड़ने के इच्छुक नहीं दिखते और यदि सम्पूर्णता में देखें तो पश्चिमी ताकतें भी एर्दोगन की हरकतों से बेहद उत्साहित नहीं हो सकते। लेकिन (यहाँ) यह स्थिति एक दिन बदल भी सकती है।

कुलमिलाकर स्थिति बेहद असमंजस की बनी हुई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पश्चिमी देशों के हित में भी यह बात है कि सीरिया में रूस को पटखनी दी जाये और उसे “मजा चखाया जाये।” पश्चिमी गठबंधन अधीरता से इस बात की प्रतीक्षा में है कि किस प्रकार तुर्की की ओर से रूस और उसके सहयोगियों को चोट पहुँचती है। इस बीच तुर्की ने खुद को सीरिया में कृत्रिम युद्ध में अच्छी तरह से ढाल लिया है। और पिछले एक या दो हफ़्तों से इसके “मामूली ग्रीन आदमियों” ने इदलिब में कुलमिलाकर काफी अच्छे से काम को अंजाम दिया है।

पिछले कुछ हफ़्तों से तुर्की के सीरियाई एजेंटों ने इदलिब में रूसियों को अपने निशाने पर रखा है और ईरान की ओर से आने वाले मिलिशिया और लेबनानी हिजबुल्लाह लड़ाकों से जूझ रहे हैं। यह अपनेआप में एक पूरे परिदृश्य के बदल जाने जैसा है। और ऐसा नहीं कि यह सब वाशिंगटन की नजरों से ओझल हो, क्योंकि यहाँ पहले से ही तुर्की के प्रति रुख में बदलाव दिखना शुरू हो चुका है।

अब अगर यहाँ पर सीरिया को लेकर रूस और ईरान ने जो शानदार योजना बना रखी है, यदि एर्दोगन उसे बिगाड़कर रख देने की अपनी भूमिका को सफलतापूर्वक निभाने में सफल हो जाते हैं, तो निश्चित तौर पर जल्द ही वाशिंगटन का इस ओर जाने वाला तय है। (यहाँ, यहाँ और यहाँ देखें) 

और आखिर में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रूस और तुर्की मूलतः सीरिया में दो बिलकुल विपरीत लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं। दोनों का ही ये दावा है कि उनकी यह लड़ाई आतंकी गुटों से है। लेकिन रूस के लिए यह भू-राजनैतिक लड़ाई भी है। जहाँ तक एर्दोगन का सवाल है उनके लिए यह अतातुर्क वाले तुर्की की पुनर्स्थापना वाला युद्ध है- ठीक वैसा ही जैसा कि सोवियत रूस के बाद वाले रूस के लिए यूक्रेन युद्ध का महत्व। 

मजे की बात ये है कि एर्दोगन हुबहू वही कर रहे हैं जैसा कि पुतिन ने काफी हद तक रूस में करने की कोशिश की और सफलता भी पाई, या जैसी कोशिश वर्तमान में नरेंद्र मोदी भारत में कर रहे हैं। और वह है सैन्यवादी-इस्लामी-राष्ट्रवादी उन्माद को उभारकर एक नए समाज को निर्मित करने की कोशिश। हैरतअंगेज सच तो यह है कि इस लहर ने तुर्की में एक नए समाज को पैदा भी कर डाला है। और बड़े पैमाने पर तुर्की समाज ने इस नई लहर का स्वागत ही किया है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Russia Cannot Do Without Turkey’s Cooperation in Syria

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