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यूक्रेन युद्ध: क्या हमारी सामूहिक चेतना लकवाग्रस्त हो चुकी है?

राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न उस पवित्र गाय के समान हो गया है जिसमें हर सही-गलत को जायज ठहरा दिया जाता है। बड़ी शक्तियों के पास के छोटे राष्ट्रों को अवश्य ही इस बात को ध्यान में रखना होगा, क्योंकि बड़े राष्ट्र उन्हें निगलने की योजना रच रहे होंगे। 
Ukraine Russia
प्रतीकात्मक चित्र। साभार: एपी न्यूज़ 

यूक्रेनी युद्ध ने तीन वास्तविकताओं को रेखांकित किया है। एक, शीत युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है। यह सिर्फ कुछ वर्षों के लिए शीत निद्रा में चला गया था। दूसरा, राष्ट्रवाद एक विलासिता की चीज है जिसका आनंद सिर्फ बड़े राष्ट्र ही उठा सकते हैं; छोटे देशों के द्वारा इसे सिर्फ अपने अस्तित्व को जोखिम में डालने के लिए आजमाया जा सकता है। और तीसरा, युद्ध में आम इंसान की पीड़ा की किसी को कोई परवाह नहीं है। जब तलाश सिर्फ जंगल को लेकर की जा रही हो तो पेड़ों की परवाह भला कौन करता है?

भारत के विभाजन और उसके परिणामस्वरूप होने वाले जबरिया विस्थापन पर अपनी पुस्तक के लिए शोध के दौरान, जो ऐतिहासिक तौर पर पैमाने और समयावधि के हिसाब से अपनेआप में अद्वितीय है, मुझे एक साधारण इंसान के द्वारा व्यक्त किये गए विलाप से दो-चार होना पड़ा था। उन्होंने शिकायत की कि इतिहासकारों और राजनीतिज्ञों ने सिर्फ तारीखों और हताहतों की संख्या के बारे में ही चर्चा की है; उन्होंने शायद ही कभी अपने प्रियजनों को खोने या अपने चूल्हे और घर-बार को हमेशा-हमेशा के लिए त्यागने की मानवीय पीड़ा को संबोधित किया हो।  

यूक्रेन पर रुसी आक्रमण को देखते हुए, जो अब अपने तीसरे सप्ताह में पहुँच गया है, मैं उपरोक्त विलाप को अपने सामने चरितार्थ होते देख रहा हूँ। मीडिया में प्रकाशित होने वाले लगभग सभी लेख और विशलेषण रूस, नाटो और यदि विस्तार में जाएँ तो चीन, भारत और हर अन्य सूदूर प्रभावित हो सकने वाले देश के रणनीतिक हितों के बारे में देखने को मिल रहे हैं। रूस पर लगाये गये पश्चिम के आर्थिक प्रतिबंध देर-सवेर शायद ही किसी देश को अप्रभावित नहीं छोड़ेंगे। लेकिन इस समूची बहस में यदि कोई गायब है तो वे यूक्रेन के आम लोग हैं।  

भारतीय, बांग्लादेशी, पाकिस्तानी, श्रीलंकाई या अफ्रीकी प्रेस ठीक ही संकट क्षेत्र में फंसे अपने खुद के लोगों के भाग्य को लेकर चिंतित हैं। लेकिन क्या सामान्य यूक्रेनी भी इसी प्रकार की सहानुभूति और चिंता के पात्र नहीं हैं? वे भी किसी न किसी की माँ, पिता, बहन या भाई, या सगे-संबंधी और प्रियजन ही हैं। युद्ध कोई टीवी पर चलने वाला धारावाहिक नहीं है जिसे निरपेक्ष भाव से एक कप कॉफ़ी की चुस्की लेते हुए या भोजन का आनंद लेते हुए देखा जा सकता है।

इंडियन एक्सप्रेस में अपने लेख में, यूक्रेनी साप्ताहिक, उक्रेयिन्स्की टायज़्डेन की उप-संपादिका, ओल्हा वोरोज़बीट ने कहा: “मैं जब इन पंक्तियों को लिख रही हूँ उस समय मेरे देश, यूक्रेन, अपने स्लाव पड़ोसी-रूस द्वारा शुरू किये पूर्ण पैमाने पर युद्ध के पहले दिन का प्रतिरोध किया है। मैं इस बारे में लिख रही हूँ और अभी भी जो हो रहा है, उसपर यकीन नहीं कर पा रही हूँ...। जब मैं अपनी आँखें बंद करती हूँ, और बिना नींद के बिताये गए 24 घंटों के बाद आराम करने की कोशिश करती हूँ, तो मेरे सामने उस पिता की छवियां उभरने लगती हैं जो चुहुयिव में अपार्टमेन्ट ब्लॉक के पास अपने बेटे के लिए विलाप कर रहा है, जिस पर रूस ने सुबह पहले हमला कर दिया था। मरने वालों में कई बच्चे भी थे। अभी भी इस बात का यकीन कर पाना मुश्किल है कि यह सब जो मेरे और मेरे देश के साथ हो रहा है, वह 21वीं सदी में, और वो भी यूरोप के मध्य में हो रहा है।”  

भारतीय राजनीति में यूक्रेन का संकट बड़े ही विचित्र ढंग से सामने आया है। जब युद्ध शुरू हुआ, तो उस दौरान देश के राजनीतिक तौर पर सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश के भीतर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में उसके प्रबल प्रतिद्वंदी के बीच में एक जबर्दस्त चुनावी युद्ध चल रहा था। चुनावी बहस में, अनिवार्य रूप से यूक्रेन के भीतर फंसे हुए भारतीय छात्रों के भाग्य का जिक्र आया। लेकिन अन्य बातों के अलावा जो चीज प्रमुखता से विज्ञापित की जा रही थी, वह थी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मर्दाना छवि, जिसकी अपरोक्ष तुलना दबंग राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से की जा रही थी।  

मोदी ने अपनी चुनावी रैलियों में से एक में, सीधे तौर पर पुतिन का जिक्र किये बगैर इस बात को थोड़ा और स्पष्ट करने का काम किया। उन्होंने अपने उत्साही समर्थकों से पूछा कि क्या वे उस दारोगा (पुलिस अधिकारी) का सम्मान नहीं करेंगे जो इलाके में शांति व्यवस्था बनाये रखने के लिए प्रभावी ढंग से अपनी लाठी का जोर दिखाता है या उस कठोर स्कूल अध्यापक का सम्मान नहीं करेंगे जो कक्षा में व्यवस्था बनाये रखने के लिए अपनी बेंत से काम लेता है। उनका संदेश पूरी तरह से नजर आने वाला था: हमेशा मजबूत नेता पर दांव लगाना चाहिए।

इसके साथ ही उनके समर्थकों के लिए दो अन्य उप-पाठ इस संदेश में थे: राष्ट्रवाद (पढ़ें, हिन्दू राष्ट्रवाद) और विभाजित भारत को फिर से एक करने का सपना (अखंड भारत)। रुसी पुनः संयोजनवादी राष्ट्रवाद (पढ़ें, जारशाही साम्राज्यवाद) और यूक्रेन को वर्तमान रुसी संघ में समाहित कर लेने की उसकी इच्छा ने हर विवरण को इस आख्यान में फिट कर लिया है।

यहाँ तक कि यूक्रेन में फंसे हुए छात्रों को वापस लाने के भारत सरकार के प्रयासों तक का राजनीतिकरण किया गया। यह समान्य बुद्धि को चकरा देने वाला साबित हो सकता है कि आखिरकार चार-चार मंत्रियों को वहां पर भेजने की क्या जरूरत पड़ गई, जब तक कि वह इसके जरिये मोदी सरकार के लिए तोहफे के रूप में अंक बटोरने के घरेलू राजनीतिक दृष्टिकोण से नहीं देख पाता है। जबकि इसके उलट भारत के पास खाड़ी युद्ध (1990), लेबनान (2006), और लीबिया (2011) जैसे युद्ध क्षेत्रों से फंसे भारतीय नागरिकों को सुरक्षित बचाकर लाने का एक लंबा और शानदार रिकॉर्ड रहा है। विशेष तौर पर, खाड़ी निकासी का पैमाना, वर्तमान यूक्रेनी निकासी की तुलना में दस गुना (1,70,000 से 17,000) रहा है।

इस प्रकार की हाई-प्रोफाइल मंत्री स्तर की यात्राओं पर, पत्रकार सुहासिनी हैदर ने, जिन्होंने पूर्व के बचाव अभियानों को कवर किया था, ने द हिन्दू अखबार में अपने ‘नोटबुक’ में याद किया: “तब मीडिया काफी हद तक सहनीय था, और निश्चित रूप से इस प्रकार के अभियानों का महिमामंडन करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता था, जिसे साधारण तौर पर अपने साथी नागरिकों के प्रति भारतीय अधिकारियों की ओर से कर्तव्य के तौर पर देखा जाता था। जब हम वापस लौटे, तो स्वागत जैसी कोई चीज नहीं थी, कोई वरिष्ठ अधिकारी नहीं पहुंचा था, मंत्री की तो बात ही छोड़ दें, जो वहां लौटने वाले नागरिकों को संबोधित करने के लिए उपस्थित रहा हो। लेकिन अब समय बदल गया है।”

यूक्रेन में युद्ध हमें पांच चीजों के बारे में सिखाता है जिनका मानव सुरक्षा के प्रश्न पर सीधा असर पड़ता है। पहला, कुछ हद तक विडंबना के तौर पर यह है कि सभी राष्ट्रों को परमाणु शक्ति से संपन्न हो जाना चाहिए, क्योंकि अब न तो अप्रसार और न ही शक्ति संतुलन का सिद्धांत ही अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित बनाये रखने में सक्षम है। इसलिए, कई अन्य भी अब यह कहने के लिए इच्छुक होंगे, कि संतुलन के आतंकी मॉडल की कोशिश करते हैं, जो अभी तक सिर्फ पाठ्य पुस्तिकाओं में ही पदानुक्रमित और नियम आधारित अप्रसार शासन के पक्ष में जस के तस बने हुए हैं।

दूसरा, संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी उपयोगिता को पूरी तरह से खत्म कर लिया है। विकल्प अब यह बचता है कि या तो मौजूदा वैश्विक सच्चाई को ध्यान में रखते हुए इसे पुनर्परिभाषित किया जाए, या फिर इस सफेद हाथी को पूरी तरह से कचरे में डाल दिया जाए और किसी अन्य उद्देश्य के लिए पैसे बचाए जायें। उन भव्य सुधारों में लंबित करते हुए, सबसे पहले वीटो की व्यवस्था को फौरन समाप्त किया जाना चाहिए। यहाँ तक कि कोई बच्चा भी इस बात को बता सकता है कि यह कितना अतार्किक, अन्यायपूर्ण और विचित्र रूप से वर्चस्ववादी स्वरुप लिए हुए है, और तो और यह संयुक्त राष्ट्र संघ के बुनियादी उसूलों के भी स्पष्ट उल्लंघन के तौर पर है। 

तीसरा, शीत युद्ध के बाद की दुनिया में, नाटो की भूमिका किसी भी हिसाब से कालदोष-युक्त है। इसका विशाल अस्तित्व मात्र ही यूरोप में असुरक्षा की भावना को पैदा करने के लिए काफी है, जैसा कि यूक्रेन संकट से स्पष्ट हो जाता है। मूल रूप से 12 देशों से इसका विस्तार अब 30 देशों में हो गया है, और कतार में तीन देशों के साथ इसका अस्तित्व दिमाग को झकझोर कर रख देता है।

चौथा, राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न वह पवित्र गाय है जो किसी भी चीज को और हर चीज को न्यायोचित ठहरा सकती है। इसकी परिभाषा संबंधित राष्ट्र के द्वारा तय की जाती है, जिसका प्रभावी तौर पर अर्थ सत्ता में होने से है। उदाहरण के लिए, जॉन फोस्टर डलेस के लिए, चीन से नफरत करना संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रीय हित में था; वहीँ हेनरी किसिंजर के लिए चीन से प्रेम राष्ट्रीय हित में था। संयोगवश दोनों ही रिपब्लिकन थे। लेकिन वे डेमोक्रेट्स भी हो सकते थे, क्योंकि यहाँ पर पार्टी की निष्ठा कोई मुद्दा नहीं है।

और पांचवां, सभी छोटे देशों को अपने बगल में स्थित बड़ी ताकतों पर लगातार निगाह बनाई रखनी चाहिए कि वे कभी निश्चित नहीं रह सकते कि कब बाद वाला उनके प्रति अपनी परिकल्पना विकसित करने लगे और उन्हें आंशिक रूप से या पूरी तरह से ही गड़प कर सकता है। उन्हें सिर्फ इतना भर दावा करने की आवश्यकता होगी कि वे अतीत में एक साझे शासन के तहत एकीकृत थे। यूक्रेन में युद्ध और अपने आक्रमण के बारे में रूस की सफाई ने दिखा दिया है कि यह खतरा मात्र सैद्धांतिक से कहीं अधिक अब वास्तविकता बन गया है।

आइये याद करें कि इस विषय पर लगभग दो सौ साल पहले प्रशियाई सैन्य अधिकारी एवं सैन्य रणनीतिकार कार्ल वॉन क्लॉजविट्ज़ का युद्ध और कूटनीति के बारे में क्या कहना था। यद्यपि उनकी पुस्तक, ऑन वॉर को उनकी मौत के 22 वर्षों के बाद 1853 में प्रकाशित किया गया था, और युद्ध के के वर्षों (1919 -1939) से पहले तक आम तौर पर अपठित ही रहा था। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का शायद ही कोई छात्र हो जो उनके इन शब्दों से अपरिचित हो: “युद्ध कुछ और नहीं बल्कि विभिन्न साधनों के सम्मिश्रण के साथ राजनीतिक संसर्ग की निरंतरता मात्र है।” साधारण शब्दों में कहें तो: युद्ध अन्य तरीकों से की जाने वाली कूटनीति ही है।

यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि रुस असल में यूक्रेन में कूटनीति ही खेल रहे हैं। उनका उद्देश्य संयुक्त राज्य अमेरिका को एक बदले हुए माहौल में बातचीत की मेज पर लौटने के लिए मजबूर करने का है, जिसमें रूस एक मजबूत स्थिति में रहते हुए बात कर सके। सबसे अपेक्षित नतीजा यह संभावित है कि यूक्रेनी राज्य को दो भागों में विभाजित कर दिया जाए। जातीय रुसी-बहुसंख्यक प्रांत- डोनेट्स्क और लुहान्स्क, रूस के हिस्से बन जाएँ (हालाँकि औपचारिक तौर पर इन्हें ‘स्वंयभू’ जन गणराज्य के रूप में घोषित किया गया था, जैसा कि 2014 में क्रीमिया में हुआ था)। विभाजित यूक्रेन के नाटो में शामिल नहीं होने के लिए संधि से बाध्य होना पड़े। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति हमेशा से ही निर्मम रही है, और इसके आगे भी ऐसे ही बने रहने की संभावना है।

उपसंहार: उच्च बाजारवाद की मौजूदा दुनिया में जो चीज सुस्पष्ट ढंग से गायब है वह युवाओं की नैतिक चिंता है। वे किसी भी चीज पर तब तक कोई निर्णायक स्थिति लेने से दूर बने रहना चाहते हैं जब तक वह चीज उन्हें सीधे तौर पर या हाथों-हाथ प्रभावित नहीं करती हो। मूल्य-आधारित प्रतिबिंबों के लिए उनके पास कोई मोल नहीं रह गया है। यह स्थिति, निश्चित रूप से राजनीतिक वर्ग के लिए भी बेहद उपयुक्त है। यह कोई संयोग नहीं हो सकता है कि इन दिनों कोई भूलकर भी किसी राजनेता से इन चीजों के लिए टकराता हो। इसके बजाय हमारे पास ऐसे अस्तित्ववादी राजनीतिज्ञों की जमात खड़ी हो गई है जिनकी सोच अगले चुनाव से आगे नहीं जा पाती है।

अपने हिंदुस्तान टाइम्स के कॉलम में हिंदी दैनिक हिंदुस्तान के संपादक, शशि शेखर लिखते हैं, “जिस दिन रूस ने इस युद्ध को शुरू किया, मैं प्रयागराज [पूर्व में इलाहाबाद] में था। मैं वहां पर छात्रों से मिला और उनसे इस बारे में उनकी राय जाननी चाही। मुझे यह जानकार निराशा हुई कि इस बारे में उनकी कोई निश्चित राय नहीं थी। मैं अपने पुराने कैंपस के दिन याद आ गए जब हम सब वियतनाम से लेकर तिब्बत तक के मसलों पर आंदोलन किया करते थे। क्या हमारी सामूहिक चेतना लकवाग्रस्त हो चुकी है? मेरा जवाब है: हाँ। 

लेखक वर्तमान में नई दिल्ली के सामाजिक विज्ञान संस्थान में वरिष्ठ फेलो हैं। आप आईसीएसएसआर में नेशनल फेलो होने के साथ-साथ दक्षिण एशियाई अध्ययन, जेएनयू के प्रोफेसर रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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