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5 अप्रैल की संघर्ष रैली: यूपी के पूर्वांचल से भी दिल्ली आ रहा है मज़दूर-किसानों का लश्कर

उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में किसान-मज़दूर दिल्ली कूच करेंगे, जिनमें पूर्वांचल के किसानों की तादाद हज़ारों में होगी। ओलावृष्टि और फ़सल की बर्बादी के बावजूद किसानों और खेतिहर मज़दूरों का रेला दिल्ली पहुंचने के लिए तैयार हैं।
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17 फरवरी 2023 को महाराष्ट्र के बोरगांव बारशी गांव के किसान राजेंद्र तुकाराम चव्हाण ने पांच कुंतल प्याज मंडी में बेची। दिन-रात की मेहनत से उगाई गई प्याज का गाड़ी भाड़ा, तुलाई और मजदूरी का पैसा काटने के बाद उन्हें मिले सिर्फ दो रुपये। व्यापारी सूर्या ट्रेडर्स ने राजेंद्र चव्हाण को जब दो रुपये का चेक हाथ में पकड़ाया तो यह बेबस किसान की आंखों में आंसू आ गए...!

लाचार किसानों और मजदूरों के इसी शोषण, इसी बेचारगी के खिलाफ आवाज बुलंद करने और कॉरपोरेट व सामंतों के गठजोड़ को तोड़ने के लिए 05 अप्रैल 2023 को दिल्ली में ऐतिहासिक मज़दूर-किसान संघर्ष रैली आयोजित की गई है। रैली के आयोजकों का मानना है कि यह सिर्फ संघर्ष रैली नहीं, देश के उन हुक्मरानों से हिसाब मांगने की मुहिम है, जो मेहनत-मजूरी करने वाले समुदाय गुलाम बनाने में जुटे हैं। तानाशाही और गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए उत्तर प्रदेश से हजारों किसान-मजदूर दिल्ली कूच करेंगे, जिनमें पूर्वांचल के किसानों की तादाद हजारों में होगी। ओलावृष्टि और फसल की बर्बादी के बावजूद किसानों और खेतिहर मजदूरों का रेला दिल्ली पहुंचने के लिए तैयार हैं।

उत्तर प्रदेश में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के राज्य सचिव और किसान सभा के प्रदेश उपाध्यक्ष डा. हीरालाल कहते हैं, "कुछ रोज पहले हुई बेमौसम की बारिश के चलते खेतों में खड़ी गेहूं, चना, मटर, सरसों की 50 फीसदी फसलें बर्बाद हो गईं। ज्यादातर किसानों के ग्रीन हाउस व पाली हाउस तहस-नहस हो गए, लेकिन मुआवजे के लिए अभी सर्वेक्षण तक शुरू नहीं हो सका है। अखबारों में सिर्फ झूठी घोषणाएं परोसी जा रही हैं और थोथे दावे किए जा रहे हैं।"

संविधान बचाने की मुहिम

सीपीएम के राज्य सचिव डा. हीरालाल ने ‘न्यूज़क्लिक’ को बताया, "पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर, मुरादाबाद, सहारनपुर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, आगरा, कासगंज, अलीगढ़, इटावा, कानपुर, बरेली के ज्यादातर किसान अपनी निजी बसों से दिल्ली जाएंगे। पूर्वांचल के मिर्जापुर, सोनभद्र, चंदौली, देवरिया, बलिया, वाराणसी, आजमगढ़, जौनपुर, सुल्तानपुर, इलाहाबाद आदि जिलों के किसान-मजदूर ट्रेनों से दिल्ली पहुंचेंगे। ट्रेड यूनियन (सीटू) से जुड़े हजारों कर्मचारी और मजदूरों ने हर हाल में दिल्ली पहुंचकर सरकार के खिलाफ हुंकार भरने की पुख्ता रणनीति बनाई है। यूपी के सभी जिलों में रैली की तैयारियां चल रही हैं। बैठकें और पदयात्राएं आयोजित की जा रही हैं। मोटरसाइकिल और साइकिल जत्थों से प्रचार अभियान अंतिम चरण में है। ज्यादातर किसान और मजदूर पांच अप्रैल से पहले दिल्ली पहुंचकर संघर्ष रैली में शामिल होंगे।"

बनारस के सीपीएम दफ्तर में रैली को सफल बनाने के लिए आयोजित बैठक

"किसानों और मजदूरों की पांच अप्रैल को दिल्ली में आयोजित रैली संसद को अवारा बनने से बचाने और लोकतंत्र व संविधान की खुलेआम उड़ाई जा रही धज्जियों को बचाने के लिए है। दिल्ली में आयोजित मज़दूर-किसान रैली पर उत्तर प्रदेश के हर गांव, हर कारखाने, मनरेगा कार्यस्थलों, नुक्कड़ों, खेत-खलिहानों में चर्चा हो रही है और जनसभाएं भी। आंदोलनकारियों को निर्देश दिए गए हैं कि वो टिकट लेकर यात्रा करें और रैली में हर हाल में पहुंचे। इसके लिए हर गांव किसानों-मजदूरों के बीच जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। सरकारी मशीनरी भले ही संघर्ष रैली को नाकाम करने में जुटी है, फिर भी पूर्वांचल के किसानों और मेहनतकश मजदूरों में दिल्ली पहुंचने की उत्सुकता है। दिल्ली की संघर्ष रैली केंद्र सरकार की किसान-मजदूर विरोधी नीतियों के खिलाफ है।"

किसान सभा के प्रदेश उपाध्यक्ष डा. हीरालाल यह भी कहते हैं, "केंद्र के पास बेहाल किसानों-मजदूरों के लिए फंड नहीं है, मगर कॉरपोरेट को सुविधाएं मुहैया कराने के लिए उसके पास सब कुछ है। केंद्र की आर्थिक नीतियां मुनाफोरी को बढ़ावा दे रही हैं और लालफीताशाही इंसान की जिंदगी को सस्ता मानती है। कुछ कॉरपोरेट घराने और सामंतों का जखेड़ा जिस तरह से देश को लूटने में जुटा है, उससे किसानों और खेत मजदूरों की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। केंद्र सरकार सार्वजनिक उपक्रमों और सरकारी संस्थानों को निजी हाथों में बेचती जा रही है और मजदूरों का हक मारने के लिए श्रम कानूनों को खत्म करती जा रही है। बिजली संशोधन बिल-2020 को कानून बनाकर देश की बिजली निजी कंपनियों के हवाले करने की योजना बना रही है। इस संशोधन बिल को हर हाल में वापस लिया जाए। इसका प्रतिकार करने के लिए संघर्ष रैली आयोजित की जा रही है।"

वाराणसी में सीटू के देवाशीष और शिवनाथ यादव के अलावा किसान सभा के रामजी सिंह, अनिल कुमार सिंह, लालमणि वर्मा, शिवशंकर शास्त्री, भोलानाथ यादव ने ‘न्यूज़क्लिक’ से कहा, "कॉरपोरेट घरानों को मजबूत करने के लिए मोदी सरकार ने पिछले आठ सालों में उनके 12 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाल दिए। यह वह धनराशि थी, जो उन्होंने बैंकों से लोन ले रखी थी। बेनकाब होने के बावजूद मोदी सरकार सामंतों को खाद-पानी देकर सींच रही है और दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज मजदूरों के लिए उसके पास कुछ भी नहीं है। किसान और मजदूर तो सिर्फ अपनी जिंदगी बचाने के लिए आवाज उठा रहे हैं। अचरज की बात यह है कि देश के उत्पादकों की आबादी करीब 51 फीसदी है, जबकि उनके पास देश की कुल संपत्ति का हिस्सा सिर्फ तीन फीसदी है। आवारा हो चुकी संसद को पटरी पर लाने और सरकार से हिसाब मांगने के लिए पांच अप्रैल को किसान-मजदूर राजधानी पहुंच रहे हैं।"

किसान-मज़दूर मांगेंगे हिसाब

बनारस में दशाश्वमेध रोड के पास स्थित मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के दफ्तर में पिछले कई दिनों से पार्टी के नेता और कार्यकर्ता संघर्ष रैली की तैयारियों में जुटे हैं। शहर में जगह-जगह पोस्टर और बैनर चस्पा किए जा रहे हैं। सीपीएम के जिला मंत्री नंदलाल पटेल से मुलाकात हुई तो उन्होंने न्यूज़क्लिक के लिए कहा, "यह सिर्फ रैली नहीं, किसानों-मजदूरों के हितों की लड़ाई है। किसान-मजदूर सभा चाहती है कि किसानों की फसलों की खरीद स्वामीनाथ कमेटी की संस्तुतियों के आधार पर की जाए। लागत का डेढ़ गुना रेट तय करने के लिए कानून बनाया जाए। गरीब किसानों, खेत मजदूरों और बुनकरों के सभी क़र्ज़ माफ किए जाएं। साथ ही आवारा पशुओं से फसलों को हो रहे नुकसान का मुआवजा दिया जाए। गन्ने का समर्थन मूल्य 500 रुपये और आलू का 1600 रुपये प्रति कुंतल किया जाए। किसानों को सिंचाई के लिए फ्री बिजली मुहैया कराई जाए। 60 साल से अधिक उम्र के सभी लोगों को पेंशन दी जाए। मनरेगा मजदूरों के लिए न्यूनतम मजूरी 600 रुपये और दो सौ दिन तक काम की गारंटी दी जाए। शहरी गरीबों के लिए मनरेगा की तरह ही रोजगार गारंटी कानून बनाया जाए।"

"आदिवासियों के लिए जंगल व जमीन पर अधिकार सुरक्षित रखा जाए। जंगलों को किसी भी हालत में कॉरपोरेट के अधिकार में न दिया जाए। उत्तर प्रदेश में न्यूनतम मजदूरी 26,000 रुपये प्रतिमाह की जाए। सभी स्कीम वर्कर को न्यूनतम वेतन के साथ ही कर्मचारी का दर्जा दिया जाए। किसानों और मजदूरों की लड़ाई केंद्र सरकार की उन नीतियों के खिलाफ है, जो सिर्फ सामंतों और कॉरपोरेट घरानों के हितों की बुनियाद मजबूत करने में जुटी है।"

रैली के लिए जन-जागरुकता अभियान चला रहे ट्रेड यूनियन बीईएफआई से जुड़े प्रभाष कुमार ने "न्यूज़क्लिक" से कहा, "श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी बदलाव किया गया है। इसे चार श्रम कोड बिल में बदला जाना खतरनाक है। केंद्र सरकार की विनाशकारी किसान-मजदूर विरोधी नीतियों को संयुक्त जन प्रतिरोध से ही रोका जा सकता है। पीएफआरडीए एक्ट रद्द कर पुरानी पेंशन बहाली, ठेका प्रथा समाप्त कर सभी प्रकार के अनियमित कर्मचारियों को पक्का करने की पॉलिसी बनाने, नेशनल मुद्रीकरण पाइपलाइन के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों एवं विभागों के निजीकरण पर रोक लगाने, लेबर कोड्स, बिजली संशोधन बिल 2022 वापस लेने, साठ लाख से ज्यादा रिक्त पड़े पदों पर पक्की भर्ती की मांग उठाई जा रही है। बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, सरकार की मजदूर-किसान विरोधी व जनविरोधी नीतियों के खिलाफ, जन हितकारी नीतियों को लागू करवाने और मजदूरों किसानों की विभिन्न लंबित मांगों और समस्याओं के निराकरण के लिए सीआईटीयू, किसान सभा, खेत मजदूर यूनियन के संयुक्त आह्वान पर अखिल भारतीय किसान-मजदूर संघर्ष रैली आयोजित की गई है।"

"संघर्ष रैली में न्यूनतम वेतन 26 हजार और पेंशन 10 हजार रुपए करने, सभी कृषि उत्पादों की कानूनी रूप से गारंटीकृत सी-2+50 प्रतिशत की दर से एमएसपी के साथ सुनिश्चित खरीद और सभी गरीब और मध्यम दर्जे के किसानों के साथ खेतिहर मजदूरों की ऋण माफी, 14 आवश्यक वस्तुओं के साथ राशन प्रणाली (पीडीएस) की मजबूत करने, सभी को आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य उपलब्ध करवाने की मांग उठाई जाएगी।

बुनकर दस्तकार मोर्चा के सचिव मोबीन अहमद ने बताया कि सीटू, किसान सभा, खेत मजदूर यूनियन के अलावा जनवादी महिला समिति, पथ विक्रेता कर्मचारी यूनियन, भवन निर्माण मजदूर यूनियन और अन्य जनवादी संगठनों के कार्यकर्ता दिल्ली के रामलीला मैदान में शामिल होने के लिए पहुंचेंगे।"

केंद्र के कथनी-करनी में फ़र्क़

चंदौली में वाम दलों के कार्यकर्ता बड़ी तादाद में दिल्ली कूच करने की तैयारी में हैं। किसान सभा के जिला मंत्री लालचंद यादव की अगुवाई में किसानों-मजदूरों और कर्मचारियों का जत्था चार अप्रैल को दिल्ली रवाना होगा। दिल्ली की संघर्ष रैली की तैयारियों में जुटे पत्थर खदान यूनियन और सीटू के नेता महानंद और आदिवासियों के हितों के लिए संघर्ष करने वाले राम दुलार वनवासी ने किसानों की आय दोगुना करने के वादे को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर तीखा प्रहार करते हुए कहा, "केंद्र सरकार ने किसानों की मांग के अनुरूप न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने के लिए कानून बनाने के बारे में अभी तक कोई घोषणा नहीं की है। यदि किसानों की आय दोगुनी हो गई है तो आज उन्हें रोजाना आत्महत्या करने को मजबूर क्यों होना पड़ रहा है? आत्महत्या करने वालों में छोटे एवं सीमांत किसान और भूमिहीन कृषक सबसे अधिक हैं। महिला सशक्तिकरण और संघवाद के मामले में सरकार की ‘कथनी और करनी' में जबर्दस्त अंतर है। बड़ा सवाल यह है कि जब किसानों ने देश की तरक्की के लिए बड़ा योगदान दिया तो उसके बदले में उन्हें क्या लाभ मिला? सरकार ने किसानों की मांग के अनुरूप न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने के लिए कानून बनाने के बारे में कोई घोषणा नहीं की है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे बहुत नारे हैं लेकिन सबरीमला जैसे मामले उठते हैं तो इनकी बोलती बंद हो जाती है।"

मजदूर किसान मंच के राज्य कार्यकारिणी सदस्य अजय राय ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा, "एक ओर हम महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने की बात करते हैं तो क्या दूसरी ओर उन्हें मंदिरों में जाने से रोकने का समर्थन कर सकते हैं? साल 2010 में उच्च सदन में महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के बावजूद यह आज तक कानून नहीं बन पाया है। संसद में महिलाओं की भागीदारी दस फीसदी भी नहीं है। यह स्थिति तब है जब परंपरावादी मुस्लिम देशों में भी महिलाओं के लिए आरक्षण है। पाकिस्तान और बांग्लादेश ने भी अपने यहां महिला आरक्षण विधेयक पारित कर दिया है। साल 2016 में पीएम नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा ने वादा किया था कि साल 2022 तक वो किसानों की आय को दोगुनी कर देंगे, लेकिन यह सरकार ग्रामीण भारत की घरेलू आय से जुड़े आंकड़े तक पेश नहीं कर पा रही है। कृषि मजदूरी, जो कि ग्रामीण आय का एक अहम हिस्सा है, उससे जुड़े जो आंकड़े मौजूद हैं उसके साल 2014 से अब तक विकास की दर धीमी हुई है।"

क़र्ज़ में डूबते किसान

किसान-मजदूर नेता अजय राय ने यह भी कहा कि साल 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में 10.36 करोड़ किसान थे। इनमें से 7.82 करोड़ पुरुष और 2.53 करोड़ महिला किसान थीं। खेतिहर मजदूरों की संख्या 6.34 करोड़ थी, जिनमें 4.11 करोड़ पुरुष और 2.23 करोड़ महिलाएं शामिल थीं। हाल के सालों में देश में 2,26,71,592 खेतिहर मजदूर बढ़े हैं। महिला खेतिहर मजदूरों की बात करें तो 2001 में ये 2.23 करोड़ थीं जो 2011 में बढ़कर 3.09 करोड़ हो गईं। आंकड़े बताते हैं कि हाल के सालों में महिला किसानों की संख्या घटी है और महिला खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ी है। पिछले एक दशक में 51.91 लाख पुरुष किसान कम हुए हैं और 1.41 करोड़ पुरुष खेतिहर मजदूर बढ़े हैं। किसानों की कम होती तादाद और बढ़ते खेतिहर मजदूर अब गुलामी की कगार पर पहुंच गए हैं।

अजय राय कहते हैं, "पूर्वांचल के किसानों की हालत बेहद चिंताजनक है। किसानों के गन्ने का भुगतान अटका हुआ है। धान उत्पादक किसानों की हालत और भी ज्यादा खराब है। उनके बच्चों की शिक्षा से लेकर लड़कियों की शादियां तक अटकी हैं। एक साल के भीतर किसानों को दो प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ा है। परिस्थितियां विपरीत हैं, फिर भी सरकार किसानों के साथ खड़ी नहीं है। कमज़ोर मानसून के चलते खरीफ़ का उत्पादन गिरा, वहीं फ़रवरी और मार्च के महीने से लेकर अप्रैल के पहले सप्ताह तक जिस तरह बेमौसम की बारिश, ओले और तेज़ हवाओं ने किसानों की तैयार फसलों को बर्बाद किया उसका झटका बहुत से किसान नहीं झेल पाए हैं। डबल इंजन की सरकार के साढ़े आठ लाख करोड़ रुपए के कृषि क़र्ज़ के बजटीय लक्ष्य के बावजूद आधे से ज्यादा किसान साहूकारों और आढ़तियों से क़र्ज़ लेने को मजबूर हैं। किसानों-मजदूरों के बारे में सरकार शायद अभी तक कुछ सोच नहीं रही है।"

किसानों की आत्महत्या

किसानों-मजदूरों के बुनियादी सवालों को उठाते हुए बनारस के वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "केंद्र सरकार की दोषपूर्ण नीतियों के चलते किसान क़र्ज़ के मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं और वो आत्महत्याएं भी कर रहे हैं। दूसरी ओर, सरकार पूंजीपतियों के क़र्ज़ माफ करती जा रही है। कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे को बढ़ाने के लिए इस सरकार ने मेहनतकश तबके को शोषण करने वालों के हवाले कर दिया है। रोजगार देने के बजाय सरकार रोजगार छीनती जा रही है। निजी संस्थान छंटनी करते जा रहे हैं। नतीजा, भुखमरी, बेकारी और कमरतोड़ महंगाई के चलते किसान-मजदूर आत्महत्याएं करने के लिए विवश हैं। साल 2021 में भारत में जिन 1,64,033 लोगों ने आत्महत्या की उसमें से 25.6 प्रतिशत दिहाड़ी मज़दूर थे।"

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की नवीनतम रिपोर्ट का हवाला देते हुए विनय मौर्य कहते हैं, "साल 2021 में कुल 42,004 दिहाड़ी मज़दूरों ने आत्महत्या कीं। इनमें 4,246 महिलाएं भी शामिल थीं। वहीं आत्महत्या करने वाले लोगों में एक बड़ा वर्ग उन लोगों का था जो सेल्फ-एम्प्लॉयड थे यानी जिनका ख़ुद का रोज़गार था। इस वर्ग में कुल 20,231 लोगों ने आत्महत्याएं कीं जो कुल आत्महत्या की घटनाओं का 12.3 प्रतिशत है। इन 20,231 लोगों में से 12,055 ख़ुद का बिज़नेस चलाते थे और 8,176 लोग अन्य तरह के स्वरोज़गारों से जुड़े थे। आत्महत्या करने वालों में 13,714 बेरोज़गार और 13,089 छात्र और 23,179 गृहणियां थीं। ये आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि देश के किसान-मजूदरों की बेचारगी बढ़ रही है। सरकारी उपेक्षा के चलते इनके पास मौत के अलावा कोई दूसरा रास्ता नजर नहीं आ रहा है।"

पटरी से उतर गई अर्थव्यवस्था

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार ने कहा कि देश के किसान-मजदूर तो परेशान हैं ही, समूची अर्थव्यवस्था ही पटरी से उतर गई है। शहरों से पलायन बढ़ता जा रहा है। महामारी के दौर में किसानों ने ही सबको संभाला, क्योंकि यूपी की करीब 68 फीसदी आबादी की निर्भरता आज भी खेती-किसानी पर है। इसमें भी 93 प्रतिशत मझोले, छोटे (लघु) व सीमांत किसान हैं। खाद-बीज की कीमतें बढ़ने से अब ज्यादा मजदूरी चुकानी पड़ रही है। लालफीताशाही वाली नीति से सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च होने के बावजूद छुट्टा जानवरों से फसलों के नुकसान की समस्या का समाधान नहीं हो पाया है। पराली की समस्या का लाभप्रद समाधान नहीं ढूंढा जा सका है। किसान-मजदूरों की समस्याओं पर न तो कोई चर्चा कर रहा है और न ही समाधान बता रहा है। कोविडकाल मे उद्योगों, कारोबारियों को कई सहूलियतें दी गईं, लेकिन किसान को फूटी कौड़ी नहीं मिली। फसलों के नुकसान से संबंधित ज्यादातर आंकड़े अनुमान पर आधारित होते हैं। लेखपालों के पास इतना काम है कि वे अपने इस मूल काम में सिर्फ कोरम पूरा करते हैं।

प्रदीप कहते हैं, "पूर्वांचल और बुंदेलखंड में आवारा पशुओं की बड़ी समस्या है। छुट्टा गोवंश संरक्षण का काम नौ विभागों को सौंप दिया गया, जबकि यह काम ग्राम पंचायतों का है। गो-संरक्षण केंद्रों को डेयरी केंद्र के रूप में विकसित कर लाभकारी बनाया जाना चाहिए। कृषि की पढ़ाई करने वाले बेरोजगार युवाओं के लिए स्थानीय स्तर पर इसी क्षेत्र में जुड़े रोजगार बढ़ाने के प्रयास किए जाएं। जिले के कृषि स्नातकों के लिए नौकरी के स्थान आरक्षित किए जाएं। छोटे व मझोले किसानों की तरक्की के लिए कृषक उत्पादक समूहों (एफपीओ) गठित किए गए हैं, लेकिन इस मामले में सरकार के ज्यादातर आदेश कागजी हैं। समूह बनाने वालों को नहीं पता कि एफपीओ सेल में कौन-कौन है? सेल कहां है? किसानों को यह समझ में ही नहीं आ रहा है कि वो खेती करें या फिर कागजों में सिर खपाएं। सरकार नई कृषि निर्यात नीति लेकर आई, लेकिन ज्यादातर जिलों में इससे जुड़े अधिकारी नहीं हैं। इनके दफ्तर तक नहीं हैं। ऐसे में समस्याओं के समाधान के लिए किसान-मजदूर कहां जाएं? "

"बाढ़ जैसी आपदा का सीधा सामना किसानों को करना पड़ता है। इन्हें घर छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर शरण लेनी पड़ती है और सरकारी इमदाद की राह ताकनी पड़ती है। करीब 40 सालों से अधूरी बाण सागर परियोजना पूरी हुई, लेकिन किसानों को खास फायदा नहीं हुआ। किसानों और मजदूरों की समस्याओं का समाधान यह है कि फसलों की कीमत से 50 फीसदी से ज्यादा दाम मिले और न्यूनतम मजदूरी की गारंटी दी जाए। किसानों को रियायती दाम में बेहतर बीज मिले। गांवों में विलेज नॉलेज सेंटर या ज्ञान चौपाल बनाया जाए। किसानों को प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में मदद मिले। खेतिहर जमीन और वनभूमि को गैर कृषि उद्देश्यों के लिए कॉरपोरेट को न दिया जाए। खेती के लिए क़र्ज़ की व्यवस्था हर किसान के लिए हो।"

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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