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सारा शगुफ़्ता: ‘जिस्म के नील’ और ‘टूटी उंगलियों’ की कविता

उनकी कविता में प्रगतिशील रुझान की नई चमक और अर्थवत्ता है। क्रांतिकारी तेवर की अति यर्थाथपरक कविताएं उन्हें पोस्ट मॉर्डन कवि बनाती हैं।
Sara Shagufta

कील की तरह चुभती हुई पंक्तियां लिखने वाली उर्दू कवि सारा शगुफ़्ता (जन्म 31 अक्टूबर 1954, मृत्यु 4 जून 1984) की कविता उनके जीवन की तरह ही मुफ़लिसी, ज़िल्लत, गालियां, अंधेरा,  मौत, क़ब्र, कफ़न, लहू, पत्थर, चिराग़ और पस्तियों की कविता है।

कहते हैं कि क़ब्रों में अर्थात मृतप्राय लोगों में व्यंग्य नहीं होता, वह केवल धड़कते दिलों में होता है। सारा की कविताओं में व्यंग्य कोलतार की तरह बहता है। उनमें आज़ादी की चाहत के साथ ही सीमाओं की तोड़-फोड़, भावनात्मक उथल-पुथल,  घात-प्रतिघात के दृश्य, सहजीवता और संगीपना की चाहतें हैं। चाहतें हैं लेकिन वर्जनाएं भी हैं। उनकी कविता में प्रगतिशील रुझान की नई चमक और अर्थवत्ता है। क्रान्तिकारी तेवर की अति यर्थाथपरक कविताएं उन्हें पोस्ट मॉर्डन कवि बनाती हैं।

बहुत पहले अमृता प्रीतम की पुस्तक ‘एक थी सारा’ में सारा शगुफ़्ता के बारे में पढ़ा था। फिर उनका कोई जिक्र नहीं मिला। अभी हाल ही में मुझे उनके दो संग्रह ‘आँखें’ और ‘नींद का रंग’ की कविताएं पढ़ने को मिलीं। यह राजकमल पेपरबैक्स से हिन्दी में प्रकाशित हैं। इसका पहला संस्करण वर्ष 2022 का है। इन दोनों किताबों का हिन्दी में लिप्यांतरण और संपादन दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर अर्जुमंद आरा ने किया है और इन किताबों की भूमिका भी लिखी है।

अपनी शायरी को छपा हुआ देखने की हसरत लिए 4 जून 84 को सारा शगुफ़्ता ने निश्चय किया कि उन्हें कराची से ही नहीं बल्कि दुनिया से जाना है, रेल पर चढ़कर नहीं रेल से कटकर। उन्होंने आत्महत्या कर ली जबकि ‘आँखें’ का मसौदा वह तैयार कर चुकी थीं। उनकी मृत्यु के बाद उनके मित्रों ने उनकी नज़्मों को इकट्ठा करके 1985 में ‘आँखें’ शीर्षक से छपवाया। बाद में उनकी अन्य नज़्मों को ढूंढकर ‘नींद का रंग’ शीर्षक से 1993 में प्रकाशित कराया गया। ये दोनों संकलन उर्दू भाषा में छपवाए गए थे। बाद में उनकी नज़्मों के संग्रह का अंग्रेजी अनुवाद असद अल्वी ने ‘द कलर ऑफ़ स्लीप एंड अदर पोएम्स’ के नाम से किया।

सारा शगुफ़्ता एक पाकिस्तानी कवि हैं। उनका जन्म 31 अक्टूबर 1954 को गुजरांवाला के एक गरीब परिवार में हुआ था। इस ग़रीबी से वे बराबर टक्कर लेती रहीं। मां की मजबूरियां, पिता का दूसरी पत्नी के साथ रहना, उम्र के चौदहवें साल में ब्याहा जाना, यह सब कुछ उन्हें अपने घर से तोहफे में मिला। उन्होंने चार शादियां की और चार तलाक हुए, तीन बच्चे हुए और छीन लिए गए।

मोहरर्म के मौके पर मातम देखकर यही लगता है कि दुख की इंतिहा है लेकिन सारा की शायरी पढ़कर लगता है कि यह कभी न खत्म होने वाला मातम है। यह मातम उन्हें मकसद देता है लड़ने के लिए और अंततः उनका पूरा जीवन एक लड़ाई में बदल जाता है- जहालत, मुफ़लिसी और मर्दवाद की अंधेरगर्दी के ख़िलाफ़। वे उन सब लोगों के साथ जुड़ जाती हैं जो दुखी और निराश हैं। वे कहती हैं—

‘टूटे हो!/ ज़रा और लहू अंगार करो/ गुनाह की चादर इन्सान की चादर से छोटी होती है।’

अवाम की सहनशक्ति पर वे कहती हैं— ‘‘इन्सान से ज़ब्त तो हां मांगती है, .../ मुझे अपने बेवतन बदन की कसम/ रोटी हमेशा आग पर पकती है...’’ कविता  ‘बेवतन बदन को मौत नहीं आती’ से।

‘नस्री नज़्म’ में वे कहती हैं कि- ‘शायरी झनकार नहीं जो ताल पर नाचती रहे/ गया वक़्त/ जब ख़्वाजासरा टूटी कमान होते थे।’’

इस प्रकार सारा की नज़्मों की दुनिया अलग है वहां केवल दबे पांव ही जाया जा सकता है। किसी पूर्वाग्रह या मानदण्ड को लेकर नहीं।

विद्रोही सारा की नज़्में एक मंजे हुए शायर की नज़्में हैं जो उनके दिल के लहू में सुर्ख फूल की तरह तैरती हैं और वे फूल के दुख से महकती हैं। अपने कहने की कला में और लेखन की बुनावट में सारा की कविता का कोई सानी नहीं है। उनकी कविता में अलग-अलग संदर्भो में पाश्चात्य लेखक आते हैं जैसे- राम्बो, फ्रायड, बियात्रिचे, कीट्स, गेयटे, दांते, शेक्सपीयर आदि। सार्त्र कई बार आते हैं।

अपनी कविताओं में वे मीराबाई, सोहनी, लैला को याद करती हैं। सारा ने ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी की सैफो नाम की एक ग्रीक आइकान कवि को याद किया है जिनकी समलिंगी अवधारणा और कामुक कविताओं की काफी चर्चा थी। नज़्म ‘आधा कमरा’ के कुछ उदाहरण से उनके अध्ययन और बेबाकीपन का परिचय मिलता है।

‘सैफो, मेरी सैफो! मीराबाई की तरह मत बोलो’

‘सार्त्र फ्रायड के कमरे में चला गया, वो अपनी थ्योरी से गिर-गिर पड़ता।’

यह ठीक ही कहा था सारा ने कि सहीफ़ा (धर्मग्रंथ, ख़ुदा की किताब) लिखने का इलहाम केवल उन्हें ही हुआ चीजों को तरतीब से रखना और कायदे से लिखने का। ख़ुदा से काफी तल्ख़ बातें होती हैं यही सारा की बन्दगी और कन्फेशन भी है। सारा ने टूटकर ख़ुदा को याद किया और आस्तिकता-नास्तिकता दोनों से परे हो गईं। उनकी कविताओं में मर्दवाद से पीड़ित औरत के दासता की कहानी है जो तकलीफ़देह है।

‘आंखें’ की एक कविता में वे कहती हैं- ‘‘मेरे हाथों से बच्चे जाते रहे/ मैं बिस्तर पर गड़ी रही/ वो मुझसे खेलता रहा। सारा ने अपने-आप को कतई नहीं बख्शा है। रंडी, हरामज़ादी जैसी गालियों को भी अपनी कविता का विषय बनाया।

सवाल ये उठता है कि सारा की कविताओं का जिक्र क्यों नहीं किया जाता, आखिर उन्हें हाशिए पर क्यों डाल दिया गया था। शायद परम्परागत उर्दू कविता से अलग उनकी कविताओं की यौन शब्दावलियां बुद्धिजीवी समाज को नागवार गुजरीं। सारा शगुफ़्ता की कविताओं में पिस्तान (स्तन) और शर्मगाह (योनि) शब्द का प्रयोग बार-बार आता है लेकिन कहीं भी वह आनंद के लिए नहीं है। ये शब्द हमेशा छल, कपट, पीड़ा और शोषण के प्रतीक बनकर आए हैं। आज़ादी की तीव्र आकांक्षा लिए सारा इन यौन-बिम्बों से दकियानूस समाज की जकड़न को तोड़ना चाहती हैं। कुछ उदाहरण-

‘‘मोहब्बत की खूंटी पर/ हज़ारों औरतें नंगी अपनी-अपनी शर्मगाह में दफ़्न होती चली जा रही थीं/ उनमें से एक वो भी थी।’’- ‘ज़िन्दा कैलेन्डर’

‘‘सातवां बुत/ मेरी शर्मगाह से अपनी मुहब्बत की तकमील करता था/ और मेरी पिस्तानों से अपनी नहरों के सीने चौड़े करता था।’’- ‘मेरा रब’

सारा अपनी कविता में व्याकरण की धज्जियां उड़ाती हैं। वाक्य उलटबांसी के करीब पहुंच जाते हैं। कारक से कर्ता गायब, संबन्ध गायब और कर्म खुद ही काम करता नजर आता है। वे भारी-भरकम फलसफों को नन्ही सी लाइन में पिरो देती हैं। शब्द पिरोना उन्होंने अपनी ज़िंदगी से सीखा है किसी उस्ताद से नहीं। वे शब्दों से खेलती हैं और अपनी ज़बान उर्दू भाषा को उंगली पर नचाती हैं। उनकी शायरी की रेंज मिट्टी के सात हाथ नीचे से लेकर अंतरिक्ष तक जाती है। शायद इसीलिए कोई चीज ठिकाने पर नहीं न सूरज, न चांद, न धरती, न मिट्टी और न उनकी अपनी देह। यही नहीं उनकी पहचान, उनके रंग भी उड़े-उड़े से दिखाई देते हैं। सारा की कविता की खूबसूरती है उनकी आंन्तरिक लय जो पढ़ने का लोभ पैदा करती है। क्रियात्मक बिम्बों में करुण रस का विस्तार है। अद्भुत कल्पना, अनन्य संयोजन और गूढ़ प्रतीक प्रभावित करते हैं। बावजूद अवमानना और उपेक्षा के लोग उनकी प्रतिभा का लोहा मानते हैं।

उनकी एक बेमिसाल नज़्म है- ‘रंगचोर’

‘‘मैंने समुंदर का रंग चुराया था तो फर्श बनाया था/आँखों के रंग चुराए थे तो दीवारें बनाई थीं/ सूरज का रंग चुराया था तो छाँव बनाई थी/ भूख का रंग चुराया था तो चूल्हा बनाया था/ चुगली का रंग चुराया था तो कपड़े सिलवाए थे/ और जब आग का रंग चोरी किया/ तो मेरी रोटी कच्ची रह गई।’’

सारा ज़हनी तौर पर बहुत अमीर थीं। उनकी शायरी का गोशा-गोशा मौलिक है। अलंकारों में उपमा का प्रयोग पसन्द नहीं, वे हमेशा रूपक का प्रयोग करती हैं। उन्हें लगता है कि भूख की तो उपमा हो ही नहीं सकती हां रूपक जरूर हो सकता है। यहां अनुभूति और ईमानदार अभिव्यक्ति का चमत्कार देखने को मिलता है। उनके यहां कई ऐसे शब्द हैं जो महज़ शब्द नहीं बल्कि प्रतीक बनकर अर्थवान बन जाते हैं। जैसे-‘कशकोल’ शब्द उनकी शायरी में बहुत आता है जिसका अर्थ है ‘भिखारी का कटोरा’ जो अनचाही मजबूरी, बेचैनी और अभाव को व्यक्त करता है।

‘‘रात एक दुआ/ कशकोल में गिरी तो रेज़गारी बिखर गई/ मौत को ज़ायका पड़ जाता/ तो कपड़े कभी न धोती/ लेकिन मुझे गिन लो तो अच्छा है /ताकि तुम्हारा कशकोल पूरा हो जाए’’- (इन्सानी गारे) कशकोल का प्रयोग तनहाई के लिए है और भूख के लिए भी। ‘भूख है कशकोल’ उनकी एक कविता का शीर्षक भी है।

सारा अपनी शायरी में वस्तु स्थितियों को अपनी नज़र से देखती हैं। अपने शब्दों में परिभाषित करने की क्षमता उन्हें ग्लोबल बनाती हैं। यह हर देश का जाना पहचाना है। आइए उनकी कविता के कुछ शब्द, कुछ पदबन्ध देखते हैं जो अपने आप में परिपूर्ण हैं। इसे समझने की कोशिश करते हैं- उनके यहां रात- ‘रात बटन तोड़ कर आती है,’ अर्थात एकदम से अंधेरा उतर आता है। सूरज- ‘सूरज चोरी हो जाता है,’ मतलब न्याय और रोशनी की चोरी। बदन- ‘बदन चीख़ों के नेज़े पर रखा जाता है।’ बात- ‘बात भूखी रह जाती है।’ ख़ौफ़- ‘ख़ौफ़ बाल खोले आती है।’ मौत- ‘मौत इंज़ाल है’। इरादे-  ‘इरादे तलवार हैं।’ आवाज़- ‘आवाज़ कुंवारी है’  जब तक दूसरा न सुन ले। अंधेरे- ‘अंधेरे चिरागों को गालियां देते हैं।’ मुफ़लिसी- ‘मुफ़लिसी का सांप दूध पीने भी नहीं आता है।’ सारा की मैं - ‘मैं हाथों से गिरी हुई दुआ हूं।’ उनका अपना वजूद- ‘ज़िल्लत के गिरे हुए दामों से उसने अपने आपको चुना।’ इज़्ज़त- ‘इज़्ज़त इज़ारबंद की पाबन्द नहीं है, इज़्ज़त तो नाख़ूनों में फंसी हुई है।’ 

वे दिल के बारे में कहती हैं कि- ‘दिल मेरा बादल नहीं आसमान है।’ दिल का चेहरा- ‘दिल का चेहरा आंख हुआ जाता है।’ सदा- ‘वो सदा गुम्बद को तोड़ती हुई थोड़ा सा आसमान भी तोड़ लाई थी।’ और हवाएं- ‘हवाओं को पत्थर न होने दो, ये कुछ कहना चाहती हैं।’

अपने लेखन के बारे में वे कहती हैं कि- ‘जिस्म पर पड़े हुए नील और टूटी उंगली से कुछ न कुछ तो लिख दूंगी।’ औरत की बात करते हुए सारा की लेखनी तीखी हो जाती है और ताप बर्दाश्त से बाहर। कविता झूले की तरह पाठक को कई हाथ पीछे और कई हाथ आगे ले जाती है। यह औरत हर देश हर कस्बे में है। इस औरत का दर्द समझने के लिए ‘औरत और नमक’  कविता में व्यंग्य की परतें देखने लायक हैं—

‘‘इज़्ज़त की बहुत सी किस्में हैं/ घूंघट, थप्पड़, गंदुम/ इज़्ज़त के ताबूत में क़ैद की मीखें ठोंकी गई हैं।’’

‘‘इज़्ज़त के नेज़े से हमें दाग़ा जाता है’’ औरत से इतने चुभते हुए सवाल सारा ही पूछ सकती हैं कि—

‘‘तुम किस कुनबे की मां हो /रेप की, क़ैद की, बंटे हुए जिस्म की/ या इंटों में चुनी हुई बेटियों की!’’

‘‘झूठी मुस्कुराहट तुम्हारे लबों पे तराश दी गई है/ तुम सदियों से रोई नहीं।’’

सारा शगुफ़्ता का जीवन एक लम्बे अवसाद का जीवन रहा है। यह सत्य है लेकिन इसकी जगह पर मैं ये कहना पसंद करूंगी कि सारा का सम्पूर्ण जीवन असहमति का जीवन रहा है। उन्होंने परम्पराओं, धार्मिक मान्यताओं और दिखावटी नैतिकता का विरोध किया। पितृसत्ता की व्यवस्था से जो सहमत रहते हैं वे ही नफ़रती ब्रिगेड में बदल जाते हैं। सारा उनकी आंखों में खटकती हैं। वर्ग-भेद, जाति-भेद का दंश तो था ही बुद्धिजीवियों के अपनी दायरे थे जिसमें वे फिट नहीं बैठती थीं। सबसे बड़ा दुख और बिडम्बना तो यही है कि शायरी जानने वालों ने शायरी से ज़्यादा उनकी ज़िन्दगी में ताक-झांक की और उनका क्रूर मज़ाक बनाया।

एक लेखक को सही समझा जाए यह उसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। सारा को सही लोग नहीं मिले। किसी ने उनके दुख को साझा नहीं किया। किसी को उनपर नाज़ नहीं था। आज़ाद सोच के बावजूद वे ख़ुद को आज़ाद नहीं कर पाईं और दिनोंदिन मृत्यु की ओर बढ़ती चली गईं। उनकी तड़प थी नज़्म लिखना और ख़्वाब था किताब का छपना। अगर अमृता प्रीतम उन्हें न मिलतीं तो शायद वे हम तक न पहुंचती। अब जबकि उनका काम अनुवादित हो रहा है उन्हें पढ़ा जा रहा है तो उनके महत्व को भी स्वीकार किया जा रहा है। सारा ने उर्दू और पंजाबी दोनों भाषाओं में लिखा और उर्दू शायरी को ठोस एवं वजनदार मुकाम तक पहंचाया। अपने आपको छीलकर नंगा सच बोलने वाली सारा शगुफ़्ता को आज हम विद्रोही नारीवादी कवियों की अगली कतार में पाते हैं।

(लखनऊ स्थित लेखिका एक कवि और कहानीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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