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चीतों के बाद अब महाराजा की भी वापसी—थैंक यू मोदी जी!

थैंक यू... 23 सितंबर को जम्मू-कश्मीर में महाराजा हरि सिंह के जन्म दिन पर सरकारी आयोजन और राज्य भर में छुट्टी के साथ, अमृतकाल में असली महाराजा वापस लाने के लिए।
Maharaja Sir Hari Singh

मोदी जी ने जब एअर इंडिया वाले महाराजा को बेचकर अग्निवीर बनाया था, हमें तो तभी से लग रहा था कि भला मोदी जी भारत को महाराजा मुक्त क्यों बनाएंगे? मोदी जी जरूर इससे बेहतर महाराजा लाएंगे। आखिरकार, राजा-महाराजा तो हमारी सनातन परंपरा का हिस्सा हैं।

रामायण और महाभारत, दोनों हमारे देवी-देवताओं की ही नहीं, राजाओं-महाराजाओं की भी गाथाएं हैं। ऐसी सनातन परंपरा को मोदी जी कैसे मिटने दे सकते थे। फिर अपने हाथों से मिटाने का तो सवाल ही कहां उठता है। बेचकर पैसा जुटाने के लिए भी नहीं। बाजार चौपट खोलने के लिए भी नहीं। यहां तक कि हवा-हवाई वाला महाराजा, नेहरू जी लाए थे, तब भी नहीं।

फिर भी मोदी जी ने एअर इंडिया वाले महाराजा से भारत को मुक्त कराया और अमृत काल की पूर्व-संध्या में मुक्त कराया। क्यों? क्योंकि वह छद्म महाराजा था, नेहरू जी के सूडो सेकुलरिज्म की तरह।

असली राजा-महाराजा तो नेहरूजी वगैरह ने खत्म कर दिए। नेहरूजी वगैरह इसलिए कहा कि उनके खून के कुछ छींटे, नेहरू जी ने जान-बूझकर बेचारे सरदार पटेल के कुर्ते पर भी डलवा दिए थे, धारा-370 वाले मामले की तरह। इसके बाद भी बेचारों का जो जरा-बहुत प्रीवीपर्स बच गया था, सो इंदिरा गांधी ने छीन लिया और साथ में राजा-महाराजा का टाइटिल भी। असली को बेरोजगार करके भी पेट नहीं भरा तो, भाई लोगों ने नकली कैरीकेचर बनाकर और खड़ा कर दिया—कहने को महाराजा और काम, नये जमाने के राजाओं यानी अमीरों की अगवानी करना!

थैंक यू मोदी जी, राजाओं-महाराजाओं के सामने सिर झुकाने की हमारी शाश्वत परंपरा के इस कैरीकेचर को हटाने के लिए! और हां 23 सितंबर को जम्मू-कश्मीर में महाराजा हरि सिंह के जन्म दिन पर सरकारी आयोजन और राज्य भर में छुट्टी के साथ, अमृतकाल में असली महाराजा वापस लाने के लिए। और अभी तो अमृतकाल शुरू हो रहा है। इब्तिदा ए इश्क है, खुशी से रोता है कौन, आगे-आगे देखिए वापस आता है कौन-कौन; कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक बल्कि उससे आगे भी!

पर विरोधी तो इस पर भी खुसुर-पुसुर करने से बाज नहीं आ रहे हैं। जिन्होंने सत्तर साल बाद, चीतों की वापसी का स्वागत नहीं किया, पचहत्तर साल बाद महाराजा की वापसी का स्वागत कैसे करेंगे? हां मुंह खोलकर चीते वाले मामले की तरह, डोगरा महाराजा की वापसी का भी विरोध तो कर नहीं कर सकते हैं, सो और कुछ नहीं मिला तो इसी की शिकायतें कर रहे हैं कि पचहत्तर साल बाद महाराजा के जन्म दिन पर सरकारी छुट्टी शुरू करनी थी तो बेशक कर लेते, पर शेख अब्दुल्ला के जन्म दिन की सरकारी छुट्टी क्यों बंद करा दी?

इनकी यही प्राब्लम है। नया इंडिया भी चाहिए, लेकिन पुराना कुछ छूटना भी नहीं चाहिए। नया चाहिए जरूर, पर उसके लिए कीमत नहीं चुकानी पड़े। हर चीज में मुफ्त की रेवड़ियां चाहिए! पर मोदी ने पहले ही साफ कह दिया था कि मुफ्त की रेवड़ियां अब तक मिल गयीं सो मिल गयीं, अब और नहीं। न मुफ्त का राशन और न मुफ्त की छुट्टी! छुट्टी के कलैंडर में महाराजा आएंगे, तो शेख साहब पहले ही बाहर हो जाएंगे। डोगरा महाराजा और प्रजा वाला शेख, एक साथ दोनों छुट्टी के हकदार कैसे हो सकते हैं! कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली!

वैसे मोदी जी अमृत काल में आजादी का नया इतिहास लिखा रहे हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है पचहत्तर साल वाला पूरा मिटा रहे हैं। ऐसा हर्गिज नहीं है। मोदी ने नेहरू जी को पहला प्रधानमंत्री मानने से कभी इंकार किया है क्या? हां! यह दूसरी बात है कि वह बहुत बार सरदार पटेल के तभी प्रधानमंत्री न बन पाने पर अफसोस जताते हैं या भक्त, 2014 से ही भारत की आजादी के वर्षों का हिसाब लगाते हैं। खैर! मुद्दे की बात यह है कि मोदी जी तो बस इतिहास के उपेक्षितों को याद कर-कर के इतिहास का असंतुलन मिटा रहे हैं। और जिन्हें भुलाने के लिए नेहरू-गांधी वाले टैम में बदनाम कर दिया गया था, उनका कलंक पोंछकर, उनकी तस्वीर चमका रहे हैं। जैसे वीर-सवारकर। जैसे नागपुरी राष्ट्रवादी। जैसे जम्मू-कश्मीर को भारत का अखंड हिस्सा बनाने वाले, महाराजा हरि सिंह, आदि। हां! अक्सर विस्मृतों को याद करने के लिए जगह बनाने के लिए, अब तक जिन्हें याद किया जा रहा था, उन्हें याद करने के बोझ से देश को मुक्त भी कराना पड़ता है। देश और कब तक उन्हें याद रखेगा। कभी तो दूसरों का भी तो नंबर आना चाहिए।

वैसे भी डेमोक्रेसी में किसी की भी जगह परमानेंट नहीं होती है। देश की मैमोरी को ओवरलोड होने से बचाने के लिए, कुछ यादों पर तो डिलीट का बटन दबाना ही होता है।

अब प्लीज कोई यह मत कहना कि महाराजा हरि सिंह तो अंगरेजों के साथ थे और शेख अब्दुल्ला ने हरि सिंह के राज के खिलाफ पब्लिक को लेकर लड़ाई लड़ी थी, तो वह हिंदुस्तान के साथ हुए! वह देशभक्ति का बल्कि पब्लिकभक्ति का लॉजिक है--गुलाम बनाने वाले का दुश्मन, दोस्त! वह सकारात्मक राष्ट्रभक्ति नहीं नकारात्मक ब्रिटिश विरोध हुआ। राष्ट्रभक्ति का मामला इतना सिंपल नहीं होता है। हिंदू राजा-महाराजा तो खुद ही हमारा प्राचीन राष्ट्र थे; अंगरेजों का साथ दिया तो और उनसे नहीं लड़े तो। उल्टे, जो इन राजा-महाराजाओं से लड़ते थे, राष्ट्र विरोधी थे। और उनसे लडऩे वाली प्रजा अगर मुसलमान हुई, तब तो एंटीनेशनलता के सोने में सुहागा। ऐसे एंटीनेशनलों से लडऩे के  लिए हरि सिंह और दूसरे राजाओं ने अंगरेजों की मदद ली, तो क्या वे कम राष्ट्रभक्त हो गए? हां! राजा मुसलमान हो, हैदराबाद के निजाम की तरह, तब उसके खिलाफ लडऩे वालों का मामला दूसरा था। पर नेहरू-गांधी इतना सा नहीं समझे; शेख को चढ़ा दिया और महाराजा को गिरा दिया। इसका हल्ला और मचा दिया कि हरि सिंह तो भारत में मिलना ही नहीं चाहता था, हैदराबाद के निजाम की तरह अपनी रियासत को स्वतंत्र रखना चाहता था। पर अब और नहीं। अमृत वर्ष में तो और भी नहीं।

अमृत काल के होम मिनिस्टर, अमित शाह ने हरि सिंह को भारत भक्ति का और निजाम को भारत-शत्रुता का सार्टिफिकेट भी दे दिया है। महाराजा हरि सिंह ही क्यों छोटे-बड़े सभी हिंदू राजा अपना सम्मान वापस पाएंगे और गद्दी पर न सही, कम से कम अपने मुकुट जरूर फिर से पहने नजर आएंगे।

उधर मोदी जी ने इंग्लेंड को हटाकर, भारत की इकॉनमी को पांचवे नंबर पर बैठा दिया है। फिर भी दुनिया में उनकी वाली धमक पाना बाकी है। पर उनके राजा के मुकाबले के लिए, हमारे पास भी तो राजा होना चाहिए। क्या कहा मोदी जी? टू इन वन भी चल सकता है, पर अभी उसमें कुछ टाइम है। क्रोनोलॉजी समझ लीजिए। पहले हिंदू राष्ट्र, फिर उसका महाराजा। और वहां तक के सफर के लिए पुराने राजा-महाराजा वापस ला रहे हैं--थैंक यू मोदी जी!

(इस व्यंग्य आलेख के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं।)

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